समग्र शिक्षा योजना

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अध्याय ४९

वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास भी शुरु हुए हैं। फिर भी वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है।

१. वर्तमान ढाँचे के गृहीत

हमें वर्तमान ढाँचे से बाहर निकलकर विचार करने की आवश्यकता है। योजना भी उसी प्रकार से स्वतंत्र रूप से ही बनानी होगी।

वर्तमान ढाँचे की कितनी बातों को हम स्वीकार करके चल रहे हैं इसका विश्लेषण करना आवश्यक होगा। उदाहरण के लिये, हम निम्नलिखित बातों को स्वीकार करके चलते हैं -

शासन की मान्यता अनिवार्य है

यह प्रश्न बडा पेचीदा बन गया है। शिक्षा की स्वायत्तता के नाम से इस प्रश्न की चर्चा विभिन्न मंचों पर होती है। इस चर्चा में अधिकांश शैक्षिक स्वायत्तता की बात होती है । इसका तात्पर्य यह होता है कि शिक्षक को ही क्या पढ़ाना, कैसे पढ़ाना, कितना पढ़ाना, कब पढ़ाना, क्यों पढ़ाना, किसे पढ़ाना आदि तय करने का अधिकार होना चाहिये। इस अर्थ में शिक्षा अभी भी स्वायत्त है। सभी विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रत्येक विषय के अध्ययन मण्डल (Board of studies), राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की सभी संस्थायें - सभी आईआईटी सभी आईआईएम., सभी आयुर्विज्ञान, विज्ञान, वाणिज्य आदि की संस्थायें, पाठ्यपुस्तक मण्डल, प्रशिक्षण एवं शोधसंस्थान - स्वायत्त ही हैं । शैक्षिक बातें वे ही निश्चित करते हैं और निभाते हैं।

परन्तु विद्यालयों और विश्वविद्यालयों का पूरा का पूरा समूह अन्य दो संस्थाओं के अधीन है। एक है शासन का प्रशासकीय विभाग और दूसरा है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग । अर्थात् शिक्षातंत्र के तीन पक्षों - शैक्षिक, आर्थिक और प्रशासकीय - में प्रशासकीय पक्ष सर्वोपरि है, आर्थिक पक्ष उसके अधीन है और शैक्षिक पक्ष दोनों के अधीन है।

वास्तव में शिक्षा सबका कल्याण तभी कर सकती है जब वह सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर धर्म के अधीन हो। उसे शासन के अधीन कर देने से शासन का भी भला नहीं होता है। परन्तु शिक्षा को धर्म से विमुख कर सत्ता और अर्थ के दायरे में लाने के पीछे पश्चिम की चिन्तन में जडवादी और व्यवहार में साम्राज्यवादी सोच है, जो ब्रिटिश शिक्षातंत्र से हमें विरासत में मिली है और जिसे हमने स्वतंत्रता के पश्चात् भी प्रतिष्ठा का स्थान दिया है । वर्तमान में शासन की मान्यता अनिवार्य बन गई है क्योंकि प्रमाणपत्र, अधिकृतता और अर्थार्जन के अवसर उसीसे उपलब्ध होते हैं।

शासन की मान्यता को नकारना, उसे चुनौती देना, उसे अनिवार्य नहीं मानना आज लगभग सभी को असम्भव लगता है । यह स्थिति अखरना भी बन्द हो गया है । इसके परिणाम स्वरूप शिक्षाविषयक चिन्तन इस स्थिति को स्वीकार कर चलता है।

शिक्षा की व्यवस्था संस्थागत है

शिक्षा को जीवमान प्रक्रिया मानने के स्थान पर जब हम उसे यांत्रिक प्रक्रिया मानने लगते हैं तब वह यांत्रिक ढाँचे में बिठाई जाती है। वास्तव में शिक्षा जन्म से भी पूर्व में प्रारम्भ हो कर आजीवन चलती रहती है। विभिन्न सन्दर्भो में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न आयु में उसके विभिन्न रूप होते हैं। वे प्रयोजन और परिस्थिति के अनुसार, लेने और देने वाले के अनुसार विभिन्न पद्धतियों से ली दी जाती है। उसे संस्थागत ढाँचे में बिठाना वैसा ही है जैसा किसी एक लीलया बढ़ने वाले वृक्ष को बढ़ने के लिये एक साँचा देना।

विगत सौ वर्षों में यही हुआ है। उद्देश्य, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, पाठ्यसामग्री, परीक्षा, अंक, प्रमाणपत्र, उपाधि आदि के बने साँचे में शिक्षा को इस प्रकार से ढाल दिया गया है कि अब शिक्षित कहलाने के लिये और शिक्षित होने के लाभ प्राप्त करने के लिये संस्था अनिवार्य बन गई है । धीरे धीरे यह कल्पना इतनी पक्की हो गई है कि अब विद्यालय नामक संस्था के बाहर शिक्षा होती है ऐसा हम मानते ही नहीं हैं । इस कारण से जीवनशिक्षा के जो परंपरागत केन्द्र हैं - परिवार, मन्दिर, तीर्थ, उत्सव, सार्वजनिक धर्मादाय व्यवस्थायें, व्रत, तप, पूजा - उनकी शिक्षा की दृष्टि से प्रतिष्ठा लगभग समाप्त हो गई है। इन संस्थाओं में आस्था और ज्ञानात्मक विकास - इन दो बातों का सम्बन्धविच्छेद हो गया है। परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आज जनसामान्य में या विद्वज्जनों में संस्थागत शिक्षाव्यवस्था का आग्रह कम नहीं होता है । यह स्थिति एक अत्यन्त व्यापक व्यवस्थातंत्र में अनिवार्य सी बन गई है।

शिक्षा का लक्ष्य अर्थार्जन है

जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये तथा सर्वतोमुखी श्रेष्ठत्व और सर्वप्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के लिये समाजविज्ञानी और समाजहितैषी ऋषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय की व्यवस्था दी । इसमें धर्म को सभी लौकिक व्यवहारों का अधिष्ठान बताया और अर्थ तथा काम को धर्म के अधीन रखा । मोक्ष्य को जीवन का लक्ष्य बताया । परन्तु वर्तमान में यह मूल्यव्यवस्था बदल गई है । लौकिक व्यवहार में धर्म को एक साधन का स्थान प्राप्त हुआ, मोक्ष की कल्पना समाप्त हो गई। काम जीवन का लक्ष्य बना और अर्थ कामपूर्ति के लिये अनिवार्य साधन बन गया । इसलिये अर्थार्जन ही जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण करणीय कार्य बन गया । रहते रहते स्वयं अर्थार्जन ही लक्ष्य बन गया ज्ञान का क्षेत्र अर्थार्जन का सामर्थ्य प्राप्त करने का साधन बन गया और जिससे अर्थार्जन नहीं हो सकता ऐसे ज्ञान की विशष कोई प्रतिष्ठा नहीं रही । आज इस व्यवस्था की इतनी अधिक प्रतिष्ठा हो गई है कि शिक्षा का सही लक्ष्य ज्ञानार्जन है इस बात की विस्मृति हो गई है। इसे भी एक गृहीत मानकर ही हम चलते हैं।

युरोपीय विचार वैश्विक और आधुनिक है

संचार माध्यम और यातायात की सुविधाओं के कारण से विश्व में अन्यान्य देशों के बीच की दूरियाँ बहुत कम हो गई हैं। इससे दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन और वैचारिक जीवन बहुत ही प्रभावित हुआ है। सर्वत्र वैश्विकता की भाषा बोली जा रही है। परन्तु जिसे आज वैश्विक विचार कहा जाता है वह वास्तव में युरोपीय विचार है। पूरे विश्व की व्यवस्था को यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार ढालने का यूरोप अमेरिका का प्रयास चल रहा है । यूरोप अमेरिका के अलावा विश्व में जो देश हैं उनकी सांस्कृतिक पहचान समाप्त होने की संभावना पैदा हुई है। वैश्विक एकरूपता लाने का प्रयास हो रहा है। इसे ही विकास कहा जा रहा है, आधुनिकता कहा जा रहा है।

भारत में यह प्रयास कहीं अनवधान से और कहीं अवधानपूर्वक हो रहा है । युरोपीय जीवनदृष्टि और युरोपीय व्यवस्था भारत में अधिकृत, मुख्य प्रवाह की व्यवस्था बन गई है, भले ही इसे युरोपीय कहा न जाता हो । भारतीयता की प्रतिष्ठा करने के लिये प्रयासरत समूह भी इस वैश्विकता की संकल्पना को एक गृहीत के रूप में स्वीकार कर ही चलते हैं। उनका प्रयास वैश्विक (अर्थात् युरोपीय) ढाँचे में भारतीयता को समायोजित करने का होता है।

छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध परोक्ष है

भारतीय शिक्षाविचार में छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण माना गया है । छात्र अध्यापक का मानसपुत्र है। दोनों के मध्य आत्मिक संबंध होता है। अध्यापक अपना ज्ञान छात्र को देकर स्वयं ऋषिऋण से मुक्त होता है और छात्र अध्यापक से ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानपरम्परा को आगे बढाता है । दोनों साथ मिलकर अध्ययन करते हैं । व्यवहार में अध्यापक को छात्र को पढाने न पढाने का और छात्र को अपने अध्यापक का चयन करने का स्वातन्त्र्य रहता है। वर्तमान व्यवस्था में छात्र और अध्यापक दोनों एक व्यवस्था में बंधे हैं जिसके सूत्र अन्यत्र कहीं होते हैं। इस कारण से शिक्षा की जीवन्तता या तो समाप्त होती है या कम हो जाती है । कुल मिलाकर यह व्यवस्था ऐसी बन गई है जहाँ शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्ष एक दूसरे के साथ सीधे और आन्तरिक रूप से जुड़े हुए नहीं हैं। निर्जीव और अ-मानवीय व्यवस्था ही इन्हें किसी एक छोटे और सीमित प्रयोजन के लिये एक साथ लाती है। शिक्षातंत्र के इस पक्ष की ओर हमारा ध्यान बहुत कम जाता है, या इसकी ओर ध्यान देना हमें आवश्यक लगता नहीं है । इस स्थिति को हम स्वीकार करके चलते हैं।

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हम इस स्थिति को मानवीय दुर्बलता से तंत्र को मुक्त रखने के लिये आवश्यक भी मानते हैं । अर्थात् सोचा यह जाता है कि सूत्र यदि शिक्षक के हाथ में दिये तो वह पक्षपात करेगा। पक्षपातपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण नहीं होता । अतः वस्तुनिष्ठता के लिये हम ऐसा करते हैं । परन्तु ऐसा करने में हम जीवन्त व्यक्ति के विवेक के स्थान पर अ-जीवन्त यांत्रिक व्यवस्था को ही प्रतिष्ठित करते हैं।

उपरिवर्णित ये सारे गृहीत युरोपीय शिक्षा की देन हैं। मूल भारतीय स्वभाव, भारतीय जीवनव्यवस्था, भारतीय शैली के साथ इसका मेल नहीं बैठता है। परन्तु ये सारी बातें इतनी व्यापक और इतनी प्रभावी हो गई हैं कि अब ये हमारे पूरे राष्ट्रीय व्यक्तित्व में षोशळसप लेवू की तरह उपद्रव मचा रही है ऐसा हमें लगता नहीं है। इसका कोई सार्थक और बेहतर पर्याय हो सकता है ऐसा हमें लगता नहीं है।

जब तंत्र के अन्दर रहकर ही विचार करना या उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देना होता है तब वह तंत्र से ही बाधित हो जाता है। तंत्र अपने विरोध में सुझाव देने की अनुमति नहीं देता है । इसलिये यदि नये सिरे से विचार करना है तो ढाँचे से परे जाकर ही सोचना आवश्यक हो जाता है।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे