समग्र शिक्षा योजना

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अध्याय ४९

वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास भी शुरु हुए हैं। फिर भी वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है।

१. वर्तमान ढाँचे के गृहीत

हमें वर्तमान ढाँचे से बाहर निकलकर विचार करने की आवश्यकता है। योजना भी उसी प्रकार से स्वतंत्र रूप से ही बनानी होगी।

वर्तमान ढाँचे की कितनी बातों को हम स्वीकार करके चल रहे हैं इसका विश्लेषण करना आवश्यक होगा। उदाहरण के लिये, हम निम्नलिखित बातों को स्वीकार करके चलते हैं -

शासन की मान्यता अनिवार्य है

यह प्रश्न बडा पेचीदा बन गया है। शिक्षा की स्वायत्तता के नाम से इस प्रश्न की चर्चा विभिन्न मंचों पर होती है। इस चर्चा में अधिकांश शैक्षिक स्वायत्तता की बात होती है । इसका तात्पर्य यह होता है कि शिक्षक को ही क्या पढ़ाना, कैसे पढ़ाना, कितना पढ़ाना, कब पढ़ाना, क्यों पढ़ाना, किसे पढ़ाना आदि तय करने का अधिकार होना चाहिये। इस अर्थ में शिक्षा अभी भी स्वायत्त है। सभी विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय के प्रत्येक विषय के अध्ययन मण्डल (Board of studies), राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की सभी संस्थायें - सभी आईआईटी सभी आईआईएम., सभी आयुर्विज्ञान, विज्ञान, वाणिज्य आदि की संस्थायें, पाठ्यपुस्तक मण्डल, प्रशिक्षण एवं शोधसंस्थान - स्वायत्त ही हैं । शैक्षिक बातें वे ही निश्चित करते हैं और निभाते हैं।

परन्तु विद्यालयों और विश्वविद्यालयों का पूरा का पूरा समूह अन्य दो संस्थाओं के अधीन है। एक है शासन का प्रशासकीय विभाग और दूसरा है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग । अर्थात् शिक्षातंत्र के तीन पक्षों - शैक्षिक, आर्थिक और प्रशासकीय - में प्रशासकीय पक्ष सर्वोपरि है, आर्थिक पक्ष उसके अधीन है और शैक्षिक पक्ष दोनों के अधीन है।

वास्तव में शिक्षा सबका कल्याण तभी कर सकती है जब वह सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर धर्म के अधीन हो। उसे शासन के अधीन कर देने से शासन का भी भला नहीं होता है। परन्तु शिक्षा को धर्म से विमुख कर सत्ता और अर्थ के दायरे में लाने के पीछे पश्चिम की चिन्तन में जडवादी और व्यवहार में साम्राज्यवादी सोच है, जो ब्रिटिश शिक्षातंत्र से हमें विरासत में मिली है और जिसे हमने स्वतंत्रता के पश्चात् भी प्रतिष्ठा का स्थान दिया है । वर्तमान में शासन की मान्यता अनिवार्य बन गई है क्योंकि प्रमाणपत्र, अधिकृतता और अर्थार्जन के अवसर उसीसे उपलब्ध होते हैं।

शासन की मान्यता को नकारना, उसे चुनौती देना, उसे अनिवार्य नहीं मानना आज लगभग सभी को असम्भव लगता है । यह स्थिति अखरना भी बन्द हो गया है । इसके परिणाम स्वरूप शिक्षाविषयक चिन्तन इस स्थिति को स्वीकार कर चलता है।

शिक्षा की व्यवस्था संस्थागत है

शिक्षा को जीवमान प्रक्रिया मानने के स्थान पर जब हम उसे यांत्रिक प्रक्रिया मानने लगते हैं तब वह यांत्रिक ढाँचे में बिठाई जाती है। वास्तव में शिक्षा जन्म से भी पूर्व में प्रारम्भ हो कर आजीवन चलती रहती है। विभिन्न सन्दर्भो में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न आयु में उसके विभिन्न रूप होते हैं। वे प्रयोजन और परिस्थिति के अनुसार, लेने और देने वाले के अनुसार विभिन्न पद्धतियों से ली दी जाती है। उसे संस्थागत ढाँचे में बिठाना वैसा ही है जैसा किसी एक लीलया बढ़ने वाले वृक्ष को बढ़ने के लिये एक साँचा देना।

विगत सौ वर्षों में यही हुआ है। उद्देश्य, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, पाठ्यसामग्री, परीक्षा, अंक, प्रमाणपत्र, उपाधि आदि के बने साँचे में शिक्षा को इस प्रकार से ढाल दिया गया है कि अब शिक्षित कहलाने के लिये और शिक्षित होने के लाभ प्राप्त करने के लिये संस्था अनिवार्य बन गई है । धीरे धीरे यह कल्पना इतनी पक्की हो गई है कि अब विद्यालय नामक संस्था के बाहर शिक्षा होती है ऐसा हम मानते ही नहीं हैं । इस कारण से जीवनशिक्षा के जो परंपरागत केन्द्र हैं - परिवार, मन्दिर, तीर्थ, उत्सव, सार्वजनिक धर्मादाय व्यवस्थायें, व्रत, तप, पूजा - उनकी शिक्षा की दृष्टि से प्रतिष्ठा लगभग समाप्त हो गई है। इन संस्थाओं में आस्था और ज्ञानात्मक विकास - इन दो बातों का सम्बन्धविच्छेद हो गया है। परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी आज जनसामान्य में या विद्वज्जनों में संस्थागत शिक्षाव्यवस्था का आग्रह कम नहीं होता है । यह स्थिति एक अत्यन्त व्यापक व्यवस्थातंत्र में अनिवार्य सी बन गई है।

शिक्षा का लक्ष्य अर्थार्जन है

जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये तथा सर्वतोमुखी श्रेष्ठत्व और सर्वप्रकार की समृद्धि प्राप्त करने के लिये समाजविज्ञानी और समाजहितैषी ऋषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय की व्यवस्था दी । इसमें धर्म को सभी लौकिक व्यवहारों का अधिष्ठान बताया और अर्थ तथा काम को धर्म के अधीन रखा । मोक्ष्य को जीवन का लक्ष्य बताया । परन्तु वर्तमान में यह मूल्यव्यवस्था बदल गई है । लौकिक व्यवहार में धर्म को एक साधन का स्थान प्राप्त हुआ, मोक्ष की कल्पना समाप्त हो गई। काम जीवन का लक्ष्य बना और अर्थ कामपूर्ति के लिये अनिवार्य साधन बन गया । इसलिये अर्थार्जन ही जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण करणीय कार्य बन गया । रहते रहते स्वयं अर्थार्जन ही लक्ष्य बन गया ज्ञान का क्षेत्र अर्थार्जन का सामर्थ्य प्राप्त करने का साधन बन गया और जिससे अर्थार्जन नहीं हो सकता ऐसे ज्ञान की विशष कोई प्रतिष्ठा नहीं रही । आज इस व्यवस्था की इतनी अधिक प्रतिष्ठा हो गई है कि शिक्षा का सही लक्ष्य ज्ञानार्जन है इस बात की विस्मृति हो गई है। इसे भी एक गृहीत मानकर ही हम चलते हैं।

युरोपीय विचार वैश्विक और आधुनिक है

संचार माध्यम और यातायात की सुविधाओं के कारण से विश्व में अन्यान्य देशों के बीच की दूरियाँ बहुत कम हो गई हैं। इससे दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन और वैचारिक जीवन बहुत ही प्रभावित हुआ है। सर्वत्र वैश्विकता की भाषा बोली जा रही है। परन्तु जिसे आज वैश्विक विचार कहा जाता है वह वास्तव में युरोपीय विचार है। पूरे विश्व की व्यवस्था को यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार ढालने का यूरोप अमेरिका का प्रयास चल रहा है । यूरोप अमेरिका के अलावा विश्व में जो देश हैं उनकी सांस्कृतिक पहचान समाप्त होने की संभावना पैदा हुई है। वैश्विक एकरूपता लाने का प्रयास हो रहा है। इसे ही विकास कहा जा रहा है, आधुनिकता कहा जा रहा है।

भारत में यह प्रयास कहीं अनवधान से और कहीं अवधानपूर्वक हो रहा है । युरोपीय जीवनदृष्टि और युरोपीय व्यवस्था भारत में अधिकृत, मुख्य प्रवाह की व्यवस्था बन गई है, भले ही इसे युरोपीय कहा न जाता हो । भारतीयता की प्रतिष्ठा करने के लिये प्रयासरत समूह भी इस वैश्विकता की संकल्पना को एक गृहीत के रूप में स्वीकार कर ही चलते हैं। उनका प्रयास वैश्विक (अर्थात् युरोपीय) ढाँचे में भारतीयता को समायोजित करने का होता है।

छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध परोक्ष है

भारतीय शिक्षाविचार में छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण माना गया है । छात्र अध्यापक का मानसपुत्र है। दोनों के मध्य आत्मिक संबंध होता है। अध्यापक अपना ज्ञान छात्र को देकर स्वयं ऋषिऋण से मुक्त होता है और छात्र अध्यापक से ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानपरम्परा को आगे बढाता है । दोनों साथ मिलकर अध्ययन करते हैं । व्यवहार में अध्यापक को छात्र को पढाने न पढाने का और छात्र को अपने अध्यापक का चयन करने का स्वातन्त्र्य रहता है। वर्तमान व्यवस्था में छात्र और अध्यापक दोनों एक व्यवस्था में बंधे हैं जिसके सूत्र अन्यत्र कहीं होते हैं। इस कारण से शिक्षा की जीवन्तता या तो समाप्त होती है या कम हो जाती है । कुल मिलाकर यह व्यवस्था ऐसी बन गई है जहाँ शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्ष एक दूसरे के साथ सीधे और आन्तरिक रूप से जुड़े हुए नहीं हैं। निर्जीव और अ-मानवीय व्यवस्था ही इन्हें किसी एक छोटे और सीमित प्रयोजन के लिये एक साथ लाती है। शिक्षातंत्र के इस पक्ष की ओर हमारा ध्यान बहुत कम जाता है, या इसकी ओर ध्यान देना हमें आवश्यक लगता नहीं है । इस स्थिति को हम स्वीकार करके चलते हैं।

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हम इस स्थिति को मानवीय दुर्बलता से तंत्र को मुक्त रखने के लिये आवश्यक भी मानते हैं । अर्थात् सोचा यह जाता है कि सूत्र यदि शिक्षक के हाथ में दिये तो वह पक्षपात करेगा। पक्षपातपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण नहीं होता । अतः वस्तुनिष्ठता के लिये हम ऐसा करते हैं । परन्तु ऐसा करने में हम जीवन्त व्यक्ति के विवेक के स्थान पर अ-जीवन्त यांत्रिक व्यवस्था को ही प्रतिष्ठित करते हैं।

उपरिवर्णित ये सारे गृहीत युरोपीय शिक्षा की देन हैं। मूल भारतीय स्वभाव, भारतीय जीवनव्यवस्था, भारतीय शैली के साथ इसका मेल नहीं बैठता है। परन्तु ये सारी बातें इतनी व्यापक और इतनी प्रभावी हो गई हैं कि अब ये हमारे पूरे राष्ट्रीय व्यक्तित्व में षोशळसप लेवू की तरह उपद्रव मचा रही है ऐसा हमें लगता नहीं है। इसका कोई सार्थक और बेहतर पर्याय हो सकता है ऐसा हमें लगता नहीं है।

जब तंत्र के अन्दर रहकर ही विचार करना या उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देना होता है तब वह तंत्र से ही बाधित हो जाता है। तंत्र अपने विरोध में सुझाव देने की अनुमति नहीं देता है । इसलिये यदि नये सिरे से विचार करना है तो ढाँचे से परे जाकर ही सोचना आवश्यक हो जाता है।

२. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास

ऐसा नहीं है कि इस प्रकार से आज से पूर्व विचार नहीं किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से न केवल विचार अपितु प्रयोग भी किये गये हैं, और वे भी बहुत प्रभावी ढंग से। जब भारत में ब्रिटिश शिक्षा का अधिकार प्रस्थापित हो गया तब अनेक बुद्धिमान, कर्तृत्ववान और राष्ट्रभक्त मनीषियों को शिक्षा के भारतीयकरण की अनिवार्य आवश्यकता लगने लगी और इस दिशा में प्रयास भी हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ हुए इन प्रयासों का अत्यन्त संक्षेप में उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा।

१. राजनारायण बसु : ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में भारतीयता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के भारतीयकरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और भारतीय शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, भारतीय खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और भारतीय ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया।

कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया।

२. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर : शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्वभारती जैसी तीन असाधारण रूप से मौलिक और प्रभावी संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठा का प्रयास गुरुदेव का रहा। इसमें शान्तिनिकेतन सामान्य शिक्षा हेतु, श्रीनिकेतन उद्योगकेन्द्री ग्रामीण शिक्षा हेतु और विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में चलाया गया। श्री गुरुदेव का दर्शन और शिक्षण योजना पूर्णरूप से भारतीय थे। प्रकृति का सान्निध्य, अनौपचारिक शिक्षा पद्धति, आनन्द और सौन्दर्यमय गतिविधियाँ और वैश्विक दृष्टि उनके शिक्षा प्रयोग के मूल तत्त्व थे। इन शिक्षा संस्थाओं को चलाने के लिये उन्होंने अपने ही संसाधनों का उपयोग किया । गुरुदेव को और इनकी संस्थाओं को आन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। भारत में भी उन्हें श्रेष्ठ स्तर के सहयोगी प्राप्त हुए। देश के अग्रणी शिक्षाविदों को इन संस्थाओं ने पर्याप्त रूप से प्रभावित किया।

३. श्री अरविन्द : श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल भारतीय बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ।

परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं।

४. स्वामी विवेकानन्द और भगिनी निवेदिता : स्वामी विवेकानन्द ने कोई शिक्षा संस्था नहीं चलाई। भगिनी निवेदिता ने भी इक्की दुक्की संस्था ही चलाई। परन्तु स्वामीजी के शिक्षाविषयक विचारों ने उस समय के बौद्धिकों को बहुत प्रभावित किया। स्वामीजी भारत के अध्यात्म और यूरोप के भौतिक विकास का समन्वय चाहते थे। आज भी शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत विद्वज्जन स्वामीजी की शिक्षा की प्रसिद्ध परिभाषा 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण हैं' को आधार बनाकर शिक्षाप्रक्रिया के रूपान्तरण का प्रयास कर सकते हैं।

५. स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती : इन महात्माओं के प्रयास दो प्रकार के थे। एक प्रयास शुद्ध वैदिक परम्परा के गुरुकुलों की स्थापना का था और दूसरा दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूलों की शृंखला की स्थापना का । आज भी उत्तर भारत में ये विद्यालय चल रहे हैं।

६. महात्मा गांधी : बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण भारतीय परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं।

यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए और चल रहे हैं।

इनमें प्रमुख प्रयास है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित शैक्षिक संगठनों का। विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान, भारतीय शिक्षण मण्डल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, विज्ञान भारती, संस्कृत भारती जैसे कई संगठन शिक्षा के भारतीयकरण का प्रयास कर रहे हैं। ये सारे प्रयास अत्यन्त व्यापक, परिश्रमपूर्ण और निरन्तर चलने वाले हैं। देशभक्ति की भावना और समर्पण के आधार पर चल रहे हैं।

इसके अलावा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, कई सुलझे हुए व्यक्ति भी अपनी अपनी पद्धति से राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास में लगे हुए हैं।

इस प्रकार सन् १८६६ में शुरू हुए राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आज भी चल रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से इनमें से एक भी भारत में राष्ट्रीय शिक्षा को देश की मुख्य धारा बनाने में सफल नहीं हुआ है। देश में आज भी ब्रिटिश शिक्षा ही अधिकृत रूप से चल रही है।

आज यदि कोई पुनः राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाना चाहता है तो उसे भारतीय शिक्षा के शुद्ध स्वरूप को, ब्रिटिश शिक्षा के मूल स्वरूप को, राष्ट्रीय शिक्षा की पुनःस्थापना के प्रयासों को एवं उनकी विफलताओं के कारणों को सही ढंग से जानना होगा ताकि योजना के क्रियान्वयन के समय उनसे बचा जाय ।

राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों की विफलता के कारण

१. सबसे पहला कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास बहुत विलंब से शुरू हुए। सन १७७३ से भारतीय शिक्षा के यूरोपीकरण के प्रयास शुरू हए और १८१३ में इण्डिया एज्युकेशन एक्ट, १८३५ में मेकाले की शिक्षानीति और १८५७ में मुंबई, कोलकता और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के चरणों में ब्रिटिश शिक्षा भारत में दृढमूल हो गई, दो तीन पीढियों की शिक्षा उसमें हो गई उसके बाद सन् १८६६ में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए। डेढ सौ से भी अधिक वर्षों तक ब्रिटिश शिक्षा को नकारने का कोई प्रयास नहीं हुआ।

२. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों को शासन का समर्थन नहीं था, यही नहीं तो शासन का विराध ही उन्हें सहना पडता था । इसलिये सर्वाधिक शक्ति शासन का विरोध सहने में ही खर्च होती थी।

३. गंभीर कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करने वाले लोग स्वयं ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली में पढे हए थे। इसलिये ब्रिटिश शिक्षा को पूर्णरूप से नकारना उनके लिये कठिन ही नहीं तो असम्भव लगता था। अतः वे पूर्व और पश्चिम का ऐसा समन्वय चाहते थे जो कभी सम्भव ही नहीं था । पश्चिम की और भारत की जीवनदृष्टि में मूलगत भिन्नता होने के कारण दोनों के शास्त्रों के मूल सिद्धान्त और दैनन्दिन जीवनशैली एकदूसरे से सर्वथा विपरीतगामी थीं इसलिये समन्वय होना संभव नहीं था । इस बात का स्वीकार न करते हुए वे समन्वय करना चाहते थे जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके द्वारा चलाई गई शिक्षा संस्थाएँ ब्रिटिश नमूनों की दुर्बल अनुकृति बनकर रह गई।

४. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्र भारत की सरकार ने कदाचित शुभ और उदार भावना से स्वतंत्रतापूर्व के सभी राष्ट्रीय प्रयासों को - शान्तिनिकेतन, डी.ए.वी. स्कूल और गुरुकुल, बुनियादी शिक्षा आदि को - मान्यता और अनुदान देकर उनका सरकारीकरण कर दिया और इन प्रयासों का राष्ट्रीयत्व समाप्त हो गया।

स्वतंत्र भारत की सरकार भी ब्रिटिश ज्ञानविज्ञान, ब्रिटिश जीवनदृष्टि और व्यवस्था को 'आधुनिक' कहकर उसके अनुसार ही देश को चलाना चाहती थी इसलिये सरकारी शिक्षा को ही राष्ट्रीय शिक्षा कहा गया ।

५. वर्तमान में देशभर की शिक्षा पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण होने के कारण से राष्ट्रीय शिक्षा का एक भी प्रयास सफल होने की संभावना ही नहीं रह गई है।

इसलिये राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करने वालों के लिये स्थिति सन १८६६ से भी अधिक कठिन है । इस शिक्षा में पढते हुए दस पीढियाँ बीत चुकी हैं यह भी एक महत्त्वपूर्ण कराण है।

३. नये सिरे से विचार

अतः आज राष्ट्रीय शिक्षा योजना हेतु अब नये सिरे से और पूर्णतः अलग ढंग से विचार करना होगा।

नये सिरेसे विचार करते समय कुछ आधारभूत सूत्रों को आवश्यक सन्दर्भ के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा।

१. शिक्षा व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय होती है

राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है।

परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये।

२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है

आज इन दो संकल्पनाओं का बहुत ही बडा विपर्यास दिखाई देता है । वास्तव में शिक्षित शब्द शिक्षा से ही बना है। शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित बनाती है । शिक्षित व्यक्ति उसे कहते हैं जो सृष्टि का प्रयोजन समझता है, जगत में सर्वजनहित की दृष्टि से विवेकपूर्ण व्यवहार करता है, जिसके मन एवं इन्द्रियाँ उसके वश में रहते हैं और जिसका शरीर स्वस्थ तथा काम करने में कुशल होता है। शिक्षित व्यक्ति वही होता है जिस पर समाज भरोसा कर सकता है और जीवनव्यवहार में मार्गदर्शन प्राप्त करने की अपेक्षा कर सकता है। शिक्षित व्यक्ति साक्षर के साथ साथ सज्जन और कर्तृत्ववान होता है। परन्तु केवल साक्षर व्यक्ति पंडित होता है, शास्त्रों को जानता है, विद्वत्तापूर्ण लेखन और भाषण कर सकता है परन्तु चरित्रवान होने का दावा नहीं कर सकता

भारत में चरित्र और विद्वत्ता के एक साथ होने की अपेक्षा की गई है। जो चरित्रवान नहीं होता है उसे अच्छा और सच्चा गुरु कभी पढ़ाता नहीं है । कभी कभार पढायेगा तो वह निन्दा का पात्र बनेगा।

वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।

हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पडेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।

३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती

शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा।

४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती

इस बिन्दु की कुछ चर्चा पूर्व में हुई है। वास्तव में अर्थ भौतिक पदार्थ है। वह हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करने का साधन है । शिक्षा प्राप्त कर अर्थार्जन की योग्यता तो प्राप्त होती है। होनी भी चाहिये । परन्तु केवल 'अर्थकरी विद्या' अर्थात् अर्थार्जन के लिये शिक्षा प्राप्त करना उसे निम्न स्तर पर लाना होता है। तेज धारवाली उत्तम तलवार भींडी काटने के काम में नहीं ली जाती । तलवार से भीडी कटती तो है परन्तु वह तलवार का अपमान करना है। उसी प्रकार से केवल अर्थार्जन के लिये शिक्षा को नियोजित करना शिक्षा का दर्जा कम करना है। शिक्षा गुणार्जन, ज्ञानार्जन, कौशल के अर्जन के लिये होती है। अर्थार्जन उसका बहुत छोटा और निम्न स्तर का हिस्सा होता है। शिक्षा की पुनर्रचना करते समय हमें इस बिन्दु की ओर ध्यान देना होगा।

इससे भी बडी विपरीतता है शिक्षा का बाजारीकरण । बाजार की शब्दावली में अब शिक्षा को उद्योग, ज्ञान को उपभोग्य पदार्थ - लोवळी, छात्र को ग्राहक, शिक्षक को विक्रेता, अथवा विक्रेता की दुकान पर काम करने वाला मजदूर या सेल्समेन कहा जाता है। अर्थ के सन्दर्भ में ही सभी बातों का मूल्यांकन होता है।

इन दोनों बातों का परिणाम अनर्थकारी होता है। शिक्षा विषयक दृष्टि, संकल्पना और व्यवस्था बदलने से जीवन की गुणवत्ता ही बदल जाती है और व्यवस्था अनवस्था में बदल जाती है। इसलिये हमें शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ के सन्दर्भ में नहीं अपितु धर्म के सन्दर्भ में करनी होगी और धर्म आधारित रचना में अर्थार्जन को समायोजित करना होगा।

५. शिक्षा केवल बुद्धिनिष्ठ नहीं होती।

वह अन्ततोगत्वा आत्मनिष्ठ होती है।

यह सूत्र भारत के वैशिष्टय का परिचायक है । भारत के जीवनविचार में आत्मतत्त्व का स्वीकार किया गया है। भारत के दर्शन के अनुसार यह सृष्टि आत्मतत्त्व से निःसृत हुई है और पुनः आत्मतत्त्व में समाहित होने की दिशा में गति करती है। अतः जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विचार आत्मतत्त्व के प्रकाश में होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -

इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।

अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों से पर हैं, मन इन्द्रियों से पर है, बुद्धि मन से पर है और बुद्धि से जो पर है वह वह है, अर्थात् आत्मतत्त्व है। अतः बुद्धि का भी अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। वर्तमान में हमने शिक्षा को केवल बुद्धिनिष्ठ बना दिया है । उसे आत्मनिष्ठ बनाने से उसका आधार सही होगा। दूसरी ओर जगत के व्यवहार में केवल बुद्धिनिष्ठा पर्याप्त नहीं होती । कर्मनिष्ठा और भावनिष्ठा भी आवश्यक है। बुद्धिनिष्ठा से केवल पदार्थ या परिस्थिति समझी जाती है परन्तु भावनिष्ठा से आत्मीयता और कर्मनिष्ठा से कुशलतायुक्त व्यवहार होता है । ज्ञान, भावना और क्रिया इन तीनों का समायोजन हर व्यवहार में आवश्यक होता है। शिक्षा को इन तीनों की समान रूप से योजना करनी चाहिये, और यह समायोजन आत्मतत्त्व के प्रकाश में होना चाहिये।

४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र

शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है।

इस कथन में लगभग सभी संज्ञाओं की स्पष्टता होना आवश्यक है।

मंत्र का अर्थ है विचार । विभिन्न विषयों में प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा, अनुसंधान आदि विभिन्न स्तरों पर विषयवस्तु के रूप में जो सिखाया जाता है उससे व्यक्ति का मानस बनता है, विचार बनते हैं, दृष्टिकोण बनता है। विभिन्न विषयों का स्वरूप एवं संकल्पना जीवनदृष्टि पर आधारित होती है।

उदाहरण के लिये समाजशास्त्र में पढाया जाने वाला 'सामाजिक करार का सिद्धान्त' - 'social contract theory' यूरोप की समाजविषयक दृष्टि पर आधारित है। इसीको लागू करते हुए इस समाजशास्त्र में विवाह भी पति और पत्नी के बीच करार है। इसी प्रकार से सामाजिक जीवन के मालिक-नौकर, राजा-प्रजा, मातापिता-संतान, व्यापारी और ग्राहक, शिक्षक-छात्र जैसे 8 सारे सम्बन्ध भी करार ही होंगे। इस सिद्धान्त को लागू करने पर समाजव्यवस्था सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है जबकि समाज एक जीवमान घटक है और उसका समाजपुरुष के रूप में स्वीकार किया जाता है तब सारे सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण होते हैं, यथा प्रजा राजा की सन्तान है और राजा प्रजापालक होता है, छात्र शिक्षक का मानसपुत्र होता है, पतिपत्नी दो नहीं एक ही व्यक्तित्व बन सर्वथा भिन्न बन जाती है। इन दो व्यवस्थाओं का अन्तर मूल विचार के अन्तर के परिणामस्वरूप होता है।

समाजशास्त्र की तरह अन्य सभी विषय भी मूल जीवनदृष्टि पर आधारित होते हैं।

इसे शिक्षा का मंत्र कहते हैं।

शिक्षा की व्यवस्था को तंत्र कहते हैं। शिक्षाविषयक नियम, कायदे कानून, नियुक्ति के अधिकार एवं पद्धति, प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम निर्माण करने की व्यवस्था, कहा जाता है।

जब कि भौतिक संसाधन अर्थात् साधनसामग्री, सुविधा, शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री, भवन, भूमि, वाहन आदि शिक्षा का यंत्र कहा जाता है।

इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे