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=== अध्याय ४९  ===
 
=== अध्याय ४९  ===
वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी आरम्भ हुए हैं। फिर भी वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है।
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वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी आरम्भ हुए हैं। तथापि वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है।
    
==== १. वर्तमान ढाँचे के गृहीत ====
 
==== १. वर्तमान ढाँचे के गृहीत ====
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वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
 
वर्तमान शिक्षा में पढ़ा लिखा व्यक्ति शिक्षित कहा तो जाता है परन्तु उसके चरित्रवान या सजन होने की अपेक्षा नहीं की जाती । दुर्व्यसनी और स्वार्थी, क्रूर और कामुक व्यक्ति उच्च शिक्षित हो सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति साक्षर भले ही हो शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पडेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पड़ेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।
    
===== '''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती''' =====
 
===== '''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती''' =====
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===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' =====
 
===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' =====
शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का धार्मिककरण सम्भव होगा।
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शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पड़ेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का धार्मिककरण सम्भव होगा।
    
स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाविषयक दो प्रसिद्ध उक्तियों को उचित सन्दर्भ में हम ले सकते हैं।
 
स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाविषयक दो प्रसिद्ध उक्तियों को उचित सन्दर्भ में हम ले सकते हैं।
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ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना धार्मिक मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं -
 
ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना धार्मिक मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं -
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(१) आज से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्व देश में हिन्दू धर्म विकृति की कगार पर पहुंचा था और यज्ञ के नामपर हिंसा और पूजा, भक्ति के नाम पर रूढि और कर्मकाण्ड का आडम्बर बढ गया था तब भगवान शंकराचार्य ने देशभर में भ्रमण कर, स्थान स्थान पर शास्त्रार्थ कर, रूढियों को त्याग कर, बदलकर या नवनिर्माण कर, विरोधियों को शान्त कर, अनुकूल बनाकर अथवा परास्त कर हिन्दू धर्म को सुव्यवस्थित करने का काम किया और इस व्यवस्था को जनमानस में इस प्रकार उतारा कि आज भी सर्वसामान्य लोग उसी व्यवस्था में चलते हैं । उस समय के बनाये हुए नियमों का पालन स्वैच्छिक है, उनके भंग के लिये कोई दण्डविधान नहीं है फिर भी उनका पालन करने में ही प्रजा अपना श्रेय मानती है। यह मुक्त संगठन का अद्भुत उदाहरण है।
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(१) आज से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्व देश में हिन्दू धर्म विकृति की कगार पर पहुंचा था और यज्ञ के नामपर हिंसा और पूजा, भक्ति के नाम पर रूढि और कर्मकाण्ड का आडम्बर बढ गया था तब भगवान शंकराचार्य ने देशभर में भ्रमण कर, स्थान स्थान पर शास्त्रार्थ कर, रूढियों को त्याग कर, बदलकर या नवनिर्माण कर, विरोधियों को शान्त कर, अनुकूल बनाकर अथवा परास्त कर हिन्दू धर्म को सुव्यवस्थित करने का काम किया और इस व्यवस्था को जनमानस में इस प्रकार उतारा कि आज भी सर्वसामान्य लोग उसी व्यवस्था में चलते हैं । उस समय के बनाये हुए नियमों का पालन स्वैच्छिक है, उनके भंग के लिये कोई दण्डविधान नहीं है तथापि उनका पालन करने में ही प्रजा अपना श्रेय मानती है। यह मुक्त संगठन का अद्भुत उदाहरण है।
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(२) अठारहवीं शताब्दी में देशभर में लगभग पाँच लाख विद्यालय थे। इन विद्यालयों को नियमन या नियन्त्रण में रखने वाली कोई शासकीय व्यवस्था नहीं थी। शासन का शिक्षाविभाग ही नहीं था। फिर भी ये विद्यालय समान ढंग से चलते थे । पाठ्यक्रम, पद्धति, विषय, प्रवेश आयु, समयावधि आदि लगभग समान स्वरूप के थे। संचार माध्यमों के अभाव में यह व्यवस्था कैसे चलती होगी यह प्रश्न है। परन्तु इसका उत्तर हमारी संन्यासी परम्परा, तीर्थयात्रा और कुम्भमेलों जैसे आयोजनों में है।
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(२) अठारहवीं शताब्दी में देशभर में लगभग पाँच लाख विद्यालय थे। इन विद्यालयों को नियमन या नियन्त्रण में रखने वाली कोई शासकीय व्यवस्था नहीं थी। शासन का शिक्षाविभाग ही नहीं था। तथापि ये विद्यालय समान ढंग से चलते थे । पाठ्यक्रम, पद्धति, विषय, प्रवेश आयु, समयावधि आदि लगभग समान स्वरूप के थे। संचार माध्यमों के अभाव में यह व्यवस्था कैसे चलती होगी यह प्रश्न है। परन्तु इसका उत्तर हमारी संन्यासी परम्परा, तीर्थयात्रा और कुम्भमेलों जैसे आयोजनों में है।
    
वास्तव में भारत की संन्यासी संस्था इस मुक्त संगठन की सूत्रधार रही है। संन्यासी का धर्म है अटन करना और लोकहित की एकमात्र आकांक्षा से लोकसंपर्क करना । इस देश का यह स्वभाव रहा है। इस प्रकार के संगठन की शक्ति का मूल स्रोत है त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता । आध्यात्मिक शक्ति के यही स्रोत हैं और इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रभाव अन्य अनेक प्रकार की शक्तियों से अधिक होता है यह तो विश्व के अनुभव की बात है।
 
वास्तव में भारत की संन्यासी संस्था इस मुक्त संगठन की सूत्रधार रही है। संन्यासी का धर्म है अटन करना और लोकहित की एकमात्र आकांक्षा से लोकसंपर्क करना । इस देश का यह स्वभाव रहा है। इस प्रकार के संगठन की शक्ति का मूल स्रोत है त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता । आध्यात्मिक शक्ति के यही स्रोत हैं और इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रभाव अन्य अनेक प्रकार की शक्तियों से अधिक होता है यह तो विश्व के अनुभव की बात है।
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समग्र शिक्षा की इस योजना पर सार्वत्रिक चर्चा आमंत्रित है।
 
समग्र शिक्षा की इस योजना पर सार्वत्रिक चर्चा आमंत्रित है।
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[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|यह लेख]] भी देखें।
    
==References==
 
==References==

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