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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।</ref></blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥
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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।</ref></blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥
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आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः। आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥
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== (शाप एवं वरदान) ==
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शास्त्रों में अपराध निवारण हेतु अथवा अधर्म उन्मूलन के लिये तथा धर्म की स्थापना के लिये जो उपाय उन्हैं कहीं दण्ड तथा कहीं शाप शब्द के द्वारा सम्बोधित किया जाता है। प्राचीन भारतवर्ष में दण्डव्यवस्था के प्रमुखतया दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं-
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प्रथम राजा के द्वारा दिया जाने वाला राजदण्ड तथा दूसरा ऋषि-महर्षियों, तपस्वियों द्वारा दिया जाने वाला शापदण्ड।
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'''परिचय'''
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'''परिभाषा'''
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शपनम् इति शापः।
    
== आचार की परिभाषा ==
 
== आचार की परिभाषा ==
 
आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।
 
आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।
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महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। <blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
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महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। <blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥  
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आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥  
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यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
    
== परिचय ==
 
== परिचय ==
 
मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-<blockquote>धर्ममूलमिदं स्मृतम्।</blockquote>धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेद ज्ञानी भी यदि आचार से हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते- <blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः । आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या ।।(वि०धर्मोत्तरपुराण)<ref>श्रीविष्णुधर्मोत्तरे तृ० ख०(अध्यायाः २४६-२५०)।</ref></blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः ॥।
 
मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-<blockquote>धर्ममूलमिदं स्मृतम्।</blockquote>धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेद ज्ञानी भी यदि आचार से हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते- <blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः । आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या ।।(वि०धर्मोत्तरपुराण)<ref>श्रीविष्णुधर्मोत्तरे तृ० ख०(अध्यायाः २४६-२५०)।</ref></blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः ॥।
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आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा । आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।।
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आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा। आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।।
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आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम् । आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते ॥
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आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम्। आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते ॥
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तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम् । आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।।
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तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम्। आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।।
    
दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।।दक्षः
 
दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।।दक्षः
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वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम  संसार के समस्त प्राणियों को  भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण  करना यह पथ-प्रदर्शक होगा।
 
वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम  संसार के समस्त प्राणियों को  भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण  करना यह पथ-प्रदर्शक होगा।
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== Achar ke bhed ==
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== वेदों में ज्योतिषांश ==
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ज्योतिष यह ज्योतिका शास्त्र है। ज्योति आकाशीय पिण्डों-नक्षत्र, ग्रह आदि से आती है, परन्तु ज्योतिषमें हम सब पिण्डोंका अध्ययन नहीं करते। यह अध्ययन केवल सौर मण्डलतक ही सीमित रखते हैं। ज्योतिष का मूलभूत सिद्धान्त है कि आकाशीय पिण्डों का प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर पडता है।
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== परिचय ==
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वैदिक सनातन परम्परा में विदित है कि यज्ञ, तप, दान आदि के द्वारा ईश्वर की उपासना वेद का परम लक्ष्य है। उपर्युक्त यज्ञादि कर्म काल पर आश्रित हैं और इस परम पवित्र कार्य के लिये काल का विधायक शास्त्र ज्योतिषशास्त्र है। वेद किसी एक विषय पर केन्द्रित रचना नहीं हैं। विविध विषय और अनेक अर्थ को द्योतित करने वाली मन्त्र राशि वेदों में समाहित है। अतः वेद चतुष्टय सर्वविद्या का मूल है। भारतीय ज्ञान परम्परा की पुष्टि वेद में निहित है। कोई भी विषय मान्य और भारतीय दृष्टि से संवलित तभी माना जायेगा जब उसका सम्बन्ध वेद चतुष्टय में कहीं न कहीं समाहित हो। वेद चतुष्टय में ज्योतिष के अनेक अंश अन्यान्य संहिताओं में दृष्टिगोचर होते हैं।
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== Ahar ke bhed ==
 
Sadachar and Durachar (write a paragraph) about them.
 
Sadachar and Durachar (write a paragraph) about them.
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
 
एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
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== शौचाचार  ==
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===अन्य श्राद्ध योग्यानि महाफलप्रदानि श्राद्ध दिवसानि===
{{Main|Shoucha Achara(शौचाचार)}}
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==श्राद्ध के फल==
<blockquote>शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥(दक्षस्मृ०५।२, बाधूलस्मृ० २०)</blockquote>शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए ।
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उत्तम संतान की प्राप्ति, आरोग्य ऐश्वर्य और आयुर्दाय का रक्षण, संतान की अभिवृद्धि, वेद अभिवृद्धि, सम्पत् प्राप्ति, श्रद्धा, बहु दान शीलत्व स्वभाव््््
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===अशक्तस्य प्रत्यम्नायम् (श्राद्धस्पिय तर्पण, त)===
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तिल तर्पण, गोग्रास
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=== परिचय ===
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==अनन्तपुण्य संपादकं पञ्चाङ्गम्==
शौच में मुख्यतः दो भेद हैं-
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मास, तिथि, वार नक्षत्र और योग के संयोग से जो-जो प्रत्येक अलभ्य योग उत्पन्न होते हैं उनके आचरण के प्रभाव से अर्थ और धर्म पुरुषार्थ प्रद होते हैं। जैसे जिस किसी का भी धन अर्जन के लिये पुण्य आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति का संकल्पपूर्ति के लिये पुण्य संपादन बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार संसार में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये धन की आवश्यकता होती है।
* बाह्य शौच
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* आभ्यन्तर शौच
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<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ.१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है।
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श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः । आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्टुमें व्याघ्रपाद, यही भाव दक्षस्मृति ५।२।१० का है।)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
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'''अथ संक्रान्ति दानम्'''
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अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें ।
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याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि-<blockquote>दिवा सन्ध्या सुकर्णस्थ ब्रह्मसूत्र उदङ मुखः । कुर्यान्मूत्र पुरीणे च रात्रौ चेद्दक्षिणा मुखः ॥( याज्ञ० )</blockquote>'''अनु-''' जनेऊ को दायें कान पर चढ़ाकर प्रातःकाल उत्तर दिशा की ओर मुख करके तथा सायंकाल दक्षिणाभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करें।<blockquote>पुरीषे मैथुने पाने प्रस्रावे दन्त धावने । स्नानभोजनजाप्येषु सदा मौनं समाचरेत् ।(अत्रिस्मृति-३२०)</blockquote>'''अनु-''' मल त्याग, मैथुन, जलादि पीने, लघुशंका करने, दन्तधावन, स्नान, भोजन तथा जप के समय सर्वदा मौन धारण करना चाहिये ।
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==== शौचाचार विधान में वैज्ञानिक अंश ====
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<blockquote>दश हस्तान् परित्यज्य मूत्र कुर्याज्जलाशये। शत हस्तान् पुरीषं तु तीर्थे नद्यां चतुर्गुणाम् ॥( आश्वलायन )</blockquote>अर्थात् तालाव आदि जलाशय से दश हाथ की दूरी छोड़ कर मल विसर्जन करना चाहिये। इसी भांति तीर्थ (मंदिर, विद्यालय आदि) स्थान और नदी से चालीस हाथ दूर मूत्र और चार सौ हाथ दूर मल विसर्जन करने जाना चाहिये। यह शास्त्र की आज्ञा है, इसमें लाभ तथा वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मल दूर त्याग करने से जलाशय  मंदिर तथा विद्यालय आदि के किनारे का वायु मण्डल दूषित नहीं होगा स्वच्छता का वातावरण बना रहेगा।प्रात:काल के समय लोग मन्दिर में दर्शन, विद्यालय में पठन के लिए जाते हैं, स्वास्थ्य का दृष्टि से वायु सेवन का तथा नित्य कर्म की दृष्टि से यह स्नान, ध्यान, पठन पाठन आदि का समय होता है और इन कर्मों के लिये जलाशय, तीर्थ आदि स्थान पर ही विशेषकर लोग जाते हैं। अत: यदि इन स्थानों के आस पास मल मूत्र विसर्जन होगा तो न तो हमारा स्वास्थ्य ही ठीक रह सकेगा और न हमारे दैनिक आवश्यक कर्म ही सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकेंगे अत: वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए तथा पवित्रता की रक्षा करने के लिये ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था धर्म रूप से की है इससे हम सभी का ही कल्याण है ।<blockquote>वाचं नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः।</blockquote>अर्थात् शौच के समय बोलना हांफना और थूकना आदि नहीं चाहिये।<blockquote>प्रत्यग्नि प्रतिसूर्यश्च प्रतिसोमोदकद्विजान् । प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ (मनु० ४।५२ तथा वशिष्ठ० ६।११)</blockquote>अर्थात् अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा वायु इन के सामने की ओर मल मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
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मूत्रत्याग के पश्चात् ठण्डे जल से इन्द्रिय धोना कहा गया है कारण यह है कि मूत्र अत्यन्त पित्तप्रधान होने के कारण उसमें विषैली वस्तुएं रहती हैं और वस्त्र आदि में यदि मूत्र बिन्दु रह गये तो अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।एक स्थान पर कई लोगों को मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिए इससे उपदंश आदि संक्रामक विकार होते हैं। क्योंकि मूत्र की धार का तारतम्य एक ही स्थान पर रहने के कारण इस रोग वाले कीटाणु धार के सहारे एक दूसरे को संक्रमित कर देते हैं।
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== शौचाचार  ==
 
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{{Main|Shoucha Achara(शौचाचार)}}शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए। शौच में मुख्यतः दो भेद हैं- बाह्य शौच और आभ्यन्तर शौच।<blockquote>शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ०१९)</blockquote>'''अनु-'''मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-<blockquote>गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः। आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति (आचारेन्दु)</blockquote>यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।
ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है ।
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अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें।
 
== दन्तधावनम् ==
 
== दन्तधावनम् ==
 
{{Main|Dantadhavanam(दन्तधावनम्)}}
 
{{Main|Dantadhavanam(दन्तधावनम्)}}
 
दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है । सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है ।दातौन (वृक्ष जिसकी लकड़ी दन्तधावन हेतु उपयोग में लायी जा सकती है)  का परिमाण वर्ण व्यवस्था के अनुसार बतलाया गया है।
 
दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है । सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है ।दातौन (वृक्ष जिसकी लकड़ी दन्तधावन हेतु उपयोग में लायी जा सकती है)  का परिमाण वर्ण व्यवस्था के अनुसार बतलाया गया है।
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जैसे-<blockquote>द्वादशाङ्गुलक विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः । क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥</blockquote>'''अनु'''-ब्राह्मणके लिये दातौन बारह अंगुल, क्षत्रियकी नौ अंगुल, वैश्यकी छ: अंगुल और शूद्र तथा स्त्रियोंकी चार-चार अंगुल के बराबर लम्बी होनी चाहिये ।<blockquote>कनिष्ठिकाङ्गुलिवत् स्थूलं पूर्वार्धकृतकूर्चकम्।</blockquote>दातौन की चौडाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान मोटी हो एवं एक भाग को आगे से कूँचकर कूँची बना लेने के अनन्तर ही दन्तधावन करना होता है।<blockquote>खदिरश्चकरञ्जश्च कदम्वश्च वटस्तथा । तिन्तिडी वेणुपृष्ठं च आम्रनिम्बो तथैव च ॥</blockquote><blockquote>अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा । बदरीतिन्दुकास्त्वेते प्रशस्ता दन्तधावने ॥</blockquote>दातौन के लिये कडवे, कसैले अथवा तीखे रसयुक्त नीम,बबूल,खैर,चिड़चिड़ा, गूलर, आदिकी दातौनें अच्छी मानी जाती हैं । <blockquote>आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥(कात्यायनस्मृ १०।४, गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड, अ० ७) </blockquote>'''अनु-'''हे वृक्ष! मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो।इस प्रकार दातौन करने के पूर्व उसे उपर्युक्त मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके दातौन करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है।
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जैसे-<blockquote>द्वादशाङ्गुलक विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः। क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥</blockquote>'''अनु'''-ब्राह्मणके लिये दातौन बारह अंगुल, क्षत्रियकी नौ अंगुल, वैश्यकी छ: अंगुल और शूद्र तथा स्त्रियोंकी चार-चार अंगुल के बराबर लम्बी होनी चाहिये ।<blockquote>कनिष्ठिकाङ्गुलिवत् स्थूलं पूर्वार्धकृतकूर्चकम्।</blockquote>दातौन की चौडाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान मोटी हो एवं एक भाग को आगे से कूँचकर कूँची बना लेने के अनन्तर ही दन्तधावन करना होता है।<blockquote>खदिरश्चकरञ्जश्च कदम्वश्च वटस्तथा । तिन्तिडी वेणुपृष्ठं च आम्रनिम्बो तथैव च ॥
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अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा । बदरीतिन्दुकास्त्वेते प्रशस्ता दन्तधावने ॥</blockquote>दातौन के लिये कडवे, कसैले अथवा तीखे रसयुक्त नीम,बबूल,खैर,चिड़चिड़ा, गूलर, आदिकी दातौनें अच्छी मानी जाती हैं । <blockquote>आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥(कात्यायनस्मृ १०।४, गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड, अ० ७) </blockquote>'''अनु-'''हे वृक्ष! मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो।इस प्रकार दातौन करने के पूर्व उसे उपर्युक्त मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके दातौन करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है।
    
== प्रातःस्नानादि विधि ==
 
== प्रातःस्नानादि विधि ==
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स्नान के पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि का क्रम शास्त्रों में कहा गया है। यह उपनयन संस्कार होने के बाद द्विजों के लिये नित्य क्रिया है। इससे बड़ा लाभ है। संध्या मुख्यतः प्रातः मध्यान्ह और सायान्ह इन तीन भागों में विभाजित है। रात्रि या दिन में जो भी अज्ञानकृत पोप होता है वह सन्ध्या के द्वारा नष्ट हो जाता है तथा अन्त:करण निर्मल, शुद्ध और पवित्र हो जाता है। वैसे भी देखिये कि किसी मशीन को चलाने तथा ठीक गतिशील रखने के लिये हमें उसकी सफाई रखनी पड़ती ही है चाहे जितनी सावधानी बरती जाय अन्तःकरण में नित्य के व्यवहार से कुछ न कुछ मलिनता आती ही है, अतः सन्ध्योपासन द्वारा उसका निवारण करना परम कर्तव्य है। घर में अगर झाड़ न लगाई जाय तो कूड़ा आ ही जाता है, शरीर में प्रतिक्षण मैल वनता ही रहता है और वह इन्द्रियों द्वारा निकलता रहता है इसी प्रकार अन्त:करण का मैल सन्ध्याद्वारा दूर होता है । सन्ध्या से दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती है ।  
 
स्नान के पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि का क्रम शास्त्रों में कहा गया है। यह उपनयन संस्कार होने के बाद द्विजों के लिये नित्य क्रिया है। इससे बड़ा लाभ है। संध्या मुख्यतः प्रातः मध्यान्ह और सायान्ह इन तीन भागों में विभाजित है। रात्रि या दिन में जो भी अज्ञानकृत पोप होता है वह सन्ध्या के द्वारा नष्ट हो जाता है तथा अन्त:करण निर्मल, शुद्ध और पवित्र हो जाता है। वैसे भी देखिये कि किसी मशीन को चलाने तथा ठीक गतिशील रखने के लिये हमें उसकी सफाई रखनी पड़ती ही है चाहे जितनी सावधानी बरती जाय अन्तःकरण में नित्य के व्यवहार से कुछ न कुछ मलिनता आती ही है, अतः सन्ध्योपासन द्वारा उसका निवारण करना परम कर्तव्य है। घर में अगर झाड़ न लगाई जाय तो कूड़ा आ ही जाता है, शरीर में प्रतिक्षण मैल वनता ही रहता है और वह इन्द्रियों द्वारा निकलता रहता है इसी प्रकार अन्त:करण का मैल सन्ध्याद्वारा दूर होता है । सन्ध्या से दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती है ।  
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मनु जी कहते हैं-<blockquote>ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः । प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।</blockquote>इस प्रकार हमें शारीरिक शक्ति, बौद्धिकबल, ब्रह्मतेज तथा यश की प्राप्ति भी इसके द्वारा होती है। नित्य सन्ध्या करने से ध्यान द्वारा हम परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करते हैं।  संध्या में आसन पर बैठकर प्राणायाम के द्वारा रोग और पाप का नाश होता है। कहा गया है--<blockquote>आसनेन रुजंहन्ति प्राणायामेन पातकम् । </blockquote>इस शरीर रूपी यन्त्र में सन्ध्या द्वारा हमें, शारीरिक शुद्धि, मानसिक पवित्रता तथा बौद्धिक प्रखरता और ब्रह्मवर्चस के साथ साथ आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। सन्ध्या के बाद गायत्री जप का विधान है। इससे बुद्धि को प्रेरणा मिलती है।
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मनु जी कहते हैं-<blockquote>ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः। प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च॥</blockquote>इस प्रकार हमें शारीरिक शक्ति, बौद्धिकबल, ब्रह्मतेज तथा यश की प्राप्ति भी इसके द्वारा होती है। नित्य सन्ध्या करने से ध्यान द्वारा हम परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करते हैं।  संध्या में आसन पर बैठकर प्राणायाम के द्वारा रोग और पाप का नाश होता है। कहा गया है--<blockquote>आसनेन रुजंहन्ति प्राणायामेन पातकम्। </blockquote>इस शरीर रूपी यन्त्र में सन्ध्या द्वारा हमें, शारीरिक शुद्धि, मानसिक पवित्रता तथा बौद्धिक प्रखरता और ब्रह्मवर्चस के साथ साथ आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। सन्ध्या के बाद गायत्री जप का विधान है। इससे बुद्धि को प्रेरणा मिलती है।
    
गायत्री वेदमाता है, यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली, तेजस्वरूप ज्ञान प्रदायिनी है। इसके जप से बड़ी शक्ति प्राप्त होती है। लौकिक सिद्धियां भी गायत्री के अनुष्ठान से प्राप्त हो जाती हैं।
 
गायत्री वेदमाता है, यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली, तेजस्वरूप ज्ञान प्रदायिनी है। इसके जप से बड़ी शक्ति प्राप्त होती है। लौकिक सिद्धियां भी गायत्री के अनुष्ठान से प्राप्त हो जाती हैं।
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{{Main|Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)}}
 
{{Main|Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)}}
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सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।  
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सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है। <blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिआँतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥ </blockquote>पंचमहायज्ञमें विधाता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव- ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ जन्तु, समाज, मानव यहाँतक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियोंका अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे अर्थमें सत्कार करना नृयज्ञ है। कहें, तो पंचमहायज्ञोंमें नैतिकता-आध्यात्मिकता-प्रगतिशीलता वैदिक कालसे ही इन पंचमहायज्ञोंके सम्पादनकी एवं सदाशयता देखनेको मिलती है।  
 
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अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।होमो दैवो बलिआँतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥  
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पंचमहायज्ञमें विधाता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव- ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ जन्तु, समाज, मानव यहाँतक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियोंका अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे अर्थमें सत्कार करना नृयज्ञ है। कहें, तो पंचमहायज्ञोंमें नैतिकता-आध्यात्मिकता-प्रगतिशीलता वैदिक कालसे ही इन पंचमहायज्ञोंके सम्पादनकी एवं सदाशयता देखनेको मिलती है।  
      
व्यवस्था चली आयी है। ये पाँचों महायज्ञ महासत्रके समान हमारा यह पांचभौतिक शरीर पृथ्वी, जल, तेज, आकाश हैं। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१)-में कहा गया है किऔर वायु-इन पंचभूत पदार्थों से बना है और अन्तमें इन्हींमें 'पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः विलीन भी हो जाता है। आकाशसे वायु, वायुसे सूर्य अर्थात् पितृयज्ञो देवयज्ञः ब्रह्मयज्ञ इति।' केवल शतपथमें ही तेज, सूर्यसे जल एवं जलसे पृथ्वी बनती है- नहीं, अपितु तैत्तिरीय आरण्यक, आश्वलायनगृह्यसूत्र, 'आकाशाज्जायते वायुः वायोरुत्पद्यते रविः। रवेरुत्पद्यते पराशरमाधवीय, बौधायनधर्मसूत्र, गौतम-गोभिलस्मृति आदि तोयं तोयादुत्पद्यते मही।' इनमेंसे एकका भी अभाव हो अनेकों प्राचीन एवं आर्षग्रन्थोंमें इन पंचमहायज्ञोंका वर्णन तो जीवन नष्ट हो जाता है। पेड़-पौधोंका भी हमारे जीवनको प्राप्त होता है, जिनके आधारपर संक्षेपमें यही कहा जा बनाने-सुधारनेमें अमिट योगदान है, यहाँतक कि कीट- सकता है कि जब अग्निमें आहुति दी जाती है तो उसे पतंग, जलचर-नभचरसे भी जीवन अनुप्राणित होता है। देवयज्ञका नाम दिया जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय अर्थात् इन सबका भी हमारे ऊपर ऋण है। स्वाभाविक है कि वेदकी अपनी शाखाका अध्ययन, वेदपाठ-'ब्रह्मयज्ञ' ऋण देनेवाले भी हमसे कुछ-न-कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। कहलाता है। जब पितरोंको स्वधा दी जाती है, उनका श्राद्ध इनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। सारे विश्वके या पार्वण किया जाता है, जलमात्रसे भी यदि तर्पण किया प्राणी एक ही सृष्टि-जीवके द्योतक हैं, अतः सबमें आदान- जाता है, तो 'पितृयज्ञ' बन जाता है। इसी तरह अतिथियों, प्रदानका सिद्धान्त नितान्त स्थित है। इस हेतु भी हम पंचमहायज्ञ ब्राह्मणोंको भोजन कराना जहाँ 'मनुष्ययज्ञ' होता है, वहीं करनेके लिये प्रेरित हुए। जिसके पीछे भक्ति-कृतज्ञता- जीवोंको बलि दिये जानेसे भोजनका ग्रास या पिण्ड अर्पित सम्मान-प्रियस्मृति-उदारता-सहिष्णुता आदिकी भावनाएँ भी किये जानेसे 'भूतयज्ञ' कहलाता है। काम करती हैं
 
व्यवस्था चली आयी है। ये पाँचों महायज्ञ महासत्रके समान हमारा यह पांचभौतिक शरीर पृथ्वी, जल, तेज, आकाश हैं। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१)-में कहा गया है किऔर वायु-इन पंचभूत पदार्थों से बना है और अन्तमें इन्हींमें 'पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः विलीन भी हो जाता है। आकाशसे वायु, वायुसे सूर्य अर्थात् पितृयज्ञो देवयज्ञः ब्रह्मयज्ञ इति।' केवल शतपथमें ही तेज, सूर्यसे जल एवं जलसे पृथ्वी बनती है- नहीं, अपितु तैत्तिरीय आरण्यक, आश्वलायनगृह्यसूत्र, 'आकाशाज्जायते वायुः वायोरुत्पद्यते रविः। रवेरुत्पद्यते पराशरमाधवीय, बौधायनधर्मसूत्र, गौतम-गोभिलस्मृति आदि तोयं तोयादुत्पद्यते मही।' इनमेंसे एकका भी अभाव हो अनेकों प्राचीन एवं आर्षग्रन्थोंमें इन पंचमहायज्ञोंका वर्णन तो जीवन नष्ट हो जाता है। पेड़-पौधोंका भी हमारे जीवनको प्राप्त होता है, जिनके आधारपर संक्षेपमें यही कहा जा बनाने-सुधारनेमें अमिट योगदान है, यहाँतक कि कीट- सकता है कि जब अग्निमें आहुति दी जाती है तो उसे पतंग, जलचर-नभचरसे भी जीवन अनुप्राणित होता है। देवयज्ञका नाम दिया जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय अर्थात् इन सबका भी हमारे ऊपर ऋण है। स्वाभाविक है कि वेदकी अपनी शाखाका अध्ययन, वेदपाठ-'ब्रह्मयज्ञ' ऋण देनेवाले भी हमसे कुछ-न-कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। कहलाता है। जब पितरोंको स्वधा दी जाती है, उनका श्राद्ध इनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। सारे विश्वके या पार्वण किया जाता है, जलमात्रसे भी यदि तर्पण किया प्राणी एक ही सृष्टि-जीवके द्योतक हैं, अतः सबमें आदान- जाता है, तो 'पितृयज्ञ' बन जाता है। इसी तरह अतिथियों, प्रदानका सिद्धान्त नितान्त स्थित है। इस हेतु भी हम पंचमहायज्ञ ब्राह्मणोंको भोजन कराना जहाँ 'मनुष्ययज्ञ' होता है, वहीं करनेके लिये प्रेरित हुए। जिसके पीछे भक्ति-कृतज्ञता- जीवोंको बलि दिये जानेसे भोजनका ग्रास या पिण्ड अर्पित सम्मान-प्रियस्मृति-उदारता-सहिष्णुता आदिकी भावनाएँ भी किये जानेसे 'भूतयज्ञ' कहलाता है। काम करती हैं
    
== भोजन  विधि  ==
 
== भोजन  विधि  ==
 
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{{Main|Bhojana Vidhi - Dharmik Aspects (भोजन विधि -धार्मिक अंश)}}
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{{Main|Bhojana Vidhi - Scientific Aspects (भोजन विधि का वैज्ञानिक अंश)}}
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{{Main|Bhojana niyamas in Sanatana Dharma (सनातन धर्म में भोजन नियम)}}
 
सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।
 
सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।
    
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
 
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
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बलारोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः । रस्याः स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥
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बलारोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः। रस्याः स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥
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कट्वम्ल लवणात्युष्ण तीष्ण रूक्ष विदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःख शोकामय आयुः सत्त्व प्रदाः॥
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कट्वम्ल लवणात्युष्ण तीष्ण रूक्ष विदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःख शोकामय आयुः सत्त्व प्रदाः॥
    
चूँकि मनुष्यके समस्त आचार-व्यवहार, चेष्टा और कर्म शरीरके माध्यमसे ही सम्पन्न किये जाते हैं, अतः मानवशरीरको परमात्माकी अनुपम कृति मानकर उसकी स्वस्थता और सुरक्षाका विशेष ध्यान रखना चाहिये। आध्यात्मिक दृष्टिसे शरीर में अवस्थित जीव (आत्मा) इसीको अपना आश्रय बनाकर अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करता है। कर्मयोग, भक्ति और मोक्षसाधना भी इसी शरीरके माध्यमसे सम्भव है।इसके लिये इस शरीरको स्वस्थ, नीरोग और ऊर्जावान् बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है।शरीरको गतिशील बनाये रखनेके लिये आहारकी आवश्यकता होती है। यह आहार स्वादके साथ शरीरके उदरकी पूर्ति मात्र के लिये नहीं अपितु उसके दीर्घायु-जीवनकी कामना और आरोग्यताके लिये किया जाता है। इसी शरीरमें ईश्वरअंशरूपी जीव भी अवस्थित है, जो वैश्वानर (जठराग्नि)रूपसे प्रत्येक प्राणीद्वारा चळ, चोष्य, लेह्य और पेय इस प्रकारसे ग्रहण किये आहारको नैवेद्य-भावसे ग्रहण करता है। इस स्थितिमें ऋषि-मुनियों, आयुर्वेदाचार्यों और मनीषियोंके समक्ष अनेक प्रश्न उपस्थित हो गये; जो सात्त्विक, पवित्र, पौष्टिक और आदर्श आहारसे सम्बन्ध रखते थे। यथा-मानवशरीरके लिये श्रेष्ठ आहार कैसा हो, किन उपकरणों (भोज्य पदार्थों)का किस मात्रा और अनुपातमें संयोग किया जाय तथा किस विधिसे संस्कारित किया (पकाया) जाय, जिससे वात, पित्त तथा कफ-ये त्रिदोष उत्पन्न न हो सकें, जठराग्नि सम रहे तथा पाचनमें सुगमता हो और इन सबके फलस्वरूप तन, मन, इन्द्रिय और आत्मा प्रसन्नताका अनुभव करे। ये ही स्वस्थ मनुष्यके लक्षण माने गये हैं।
 
चूँकि मनुष्यके समस्त आचार-व्यवहार, चेष्टा और कर्म शरीरके माध्यमसे ही सम्पन्न किये जाते हैं, अतः मानवशरीरको परमात्माकी अनुपम कृति मानकर उसकी स्वस्थता और सुरक्षाका विशेष ध्यान रखना चाहिये। आध्यात्मिक दृष्टिसे शरीर में अवस्थित जीव (आत्मा) इसीको अपना आश्रय बनाकर अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करता है। कर्मयोग, भक्ति और मोक्षसाधना भी इसी शरीरके माध्यमसे सम्भव है।इसके लिये इस शरीरको स्वस्थ, नीरोग और ऊर्जावान् बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है।शरीरको गतिशील बनाये रखनेके लिये आहारकी आवश्यकता होती है। यह आहार स्वादके साथ शरीरके उदरकी पूर्ति मात्र के लिये नहीं अपितु उसके दीर्घायु-जीवनकी कामना और आरोग्यताके लिये किया जाता है। इसी शरीरमें ईश्वरअंशरूपी जीव भी अवस्थित है, जो वैश्वानर (जठराग्नि)रूपसे प्रत्येक प्राणीद्वारा चळ, चोष्य, लेह्य और पेय इस प्रकारसे ग्रहण किये आहारको नैवेद्य-भावसे ग्रहण करता है। इस स्थितिमें ऋषि-मुनियों, आयुर्वेदाचार्यों और मनीषियोंके समक्ष अनेक प्रश्न उपस्थित हो गये; जो सात्त्विक, पवित्र, पौष्टिक और आदर्श आहारसे सम्बन्ध रखते थे। यथा-मानवशरीरके लिये श्रेष्ठ आहार कैसा हो, किन उपकरणों (भोज्य पदार्थों)का किस मात्रा और अनुपातमें संयोग किया जाय तथा किस विधिसे संस्कारित किया (पकाया) जाय, जिससे वात, पित्त तथा कफ-ये त्रिदोष उत्पन्न न हो सकें, जठराग्नि सम रहे तथा पाचनमें सुगमता हो और इन सबके फलस्वरूप तन, मन, इन्द्रिय और आत्मा प्रसन्नताका अनुभव करे। ये ही स्वस्थ मनुष्यके लक्षण माने गये हैं।
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== शयन विधि ==
 
== शयन विधि ==
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== मंत्र योग ==
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मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।<blockquote>तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।</blockquote>पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है।
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मन की कामना ही यज्ञ की जननी है। ऋषि जिस कामना से देवता की जिस पदार्थ का स्वामी बनने की इच्छा से स्तुति करता है, वही उस स्तुति रूप मंत्र का देवता हो जाता है।<blockquote>यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्य-पत्यमिच्छन्स्तुति प्रयुंक्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति। (निरुक्त७।१) </blockquote>ऋषि अर्थात् द्रष्टा अपनी कामना की अभिव्यक्ति मंत्र अर्थात् मनोबल से करता है। इच्छाएँ तो हममें भी अनन्त हैं, किन्तु हमारा मन इतना बलवान नहीं है कि इन इच्छाओं को मंग्त्र बल में बदल सके। मंत्र मनन की शक्ति है हमारा मन इतना चंचल है कि एक जगह टिककर मनन ही नहीं कर सकता। अर्थात् मंत्र शक्ति की सफलता का मूल इच्छा-शक्ति की दृढता है।<ref>श्री शशांक शेखर शुल्व, यज्ञ विधानम्, सनातन पूजा विज्ञान, वाराणसीः पिल्ग्रिम्स पब्लिशिंग अध्याय-भूमिका, (पृ०2)। </ref>
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चारित्रिक श्रेष्ठता
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मानसिक एकाग्रता
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अभीष्ट लक्ष्य में अटूट श्रद्धा
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शब्द शक्ति
    
== उद्धरण ==
 
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