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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।</blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे ।
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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो  परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।<ref>सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)</ref></blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।<blockquote>न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥<ref>महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।</ref>(महा०स्वर्गा० ५/76)</blockquote>अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥
 
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इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये ।
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नारायणोपनिषद् में कहा है-<blockquote>धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref></blockquote>आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥
      
== आचार की परिभाषा ==
 
== आचार की परिभाषा ==
 
आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।
 
आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।
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महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। <blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
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महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। <blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
    
== परिचय ==
 
== परिचय ==
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ब्राह्म मुहुर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार ब्राह्म मुहूर्त में जागरण की बात लिखी है। ब्राह्ममुहूर्त प्रातःकाल  सूर्योदयसे चार घटी (ढाई घटी का एक घंटा होता है लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व हो जाता है शास्त्र में कहा है कि-
 
ब्राह्म मुहुर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार ब्राह्म मुहूर्त में जागरण की बात लिखी है। ब्राह्ममुहूर्त प्रातःकाल  सूर्योदयसे चार घटी (ढाई घटी का एक घंटा होता है लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व हो जाता है शास्त्र में कहा है कि-
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रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः ।स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने ॥
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रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः ।स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने ॥<ref>धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।</ref>
    
'''अनु-''' रात के पिछले पहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त होता है जागने के लिये यही समय उचित है।
 
'''अनु-''' रात के पिछले पहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त होता है जागने के लिये यही समय उचित है।
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प्रात:काल का समय परमशान्त, सात्विक, स्वास्थ्यप्रद तथा जीवनप्रदायिनीशक्ति लिये हुये होता है। दिन भर का सारा कोलाहल रात्रि में शान्त होकर स्थिर हो जाता है तथा ब्राह्ममुहूर्त में रात्रिमूलक तमोगुण तथा उससे उत्पन्न जड़ता मिट जाती है और सतोगुण मयी चेतना का संचार होने लगता है। प्रात: जागरण से आलस्य दूर होकर शरीर में स्फूर्ति आ जाती है और मन दिन भर प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रहता है । इस समय वातावरण परम शान्त रहता है । वृक्ष अशुद्ध वायु आत्मसात् करके शुद्ध वायु शक्तिप्रदायिनी आक्सीजन प्रदान करते हैं, तभी तो लोग प्रात:काल बाग बगीचे तथा पुष्पोद्यान में टहलने जाते हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हुए दिन भर प्रसन्न रहते हैं। इस समय शीतल मन्द सुगन्धित समीर चलती है जिसमें चन्द्रमा की किरणों तथा नक्षत्रों का प्रभाव रहता है जो हमारे लिये स्वास्थ्य प्रद तथा सब प्रकार से लाभकारी है । चन्द्रकिरणों तथा नक्षत्रों के अमृतमय प्रभाव का लाभ प्रात:काल हम उठा लेते हैं।  
 
प्रात:काल का समय परमशान्त, सात्विक, स्वास्थ्यप्रद तथा जीवनप्रदायिनीशक्ति लिये हुये होता है। दिन भर का सारा कोलाहल रात्रि में शान्त होकर स्थिर हो जाता है तथा ब्राह्ममुहूर्त में रात्रिमूलक तमोगुण तथा उससे उत्पन्न जड़ता मिट जाती है और सतोगुण मयी चेतना का संचार होने लगता है। प्रात: जागरण से आलस्य दूर होकर शरीर में स्फूर्ति आ जाती है और मन दिन भर प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रहता है । इस समय वातावरण परम शान्त रहता है । वृक्ष अशुद्ध वायु आत्मसात् करके शुद्ध वायु शक्तिप्रदायिनी आक्सीजन प्रदान करते हैं, तभी तो लोग प्रात:काल बाग बगीचे तथा पुष्पोद्यान में टहलने जाते हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हुए दिन भर प्रसन्न रहते हैं। इस समय शीतल मन्द सुगन्धित समीर चलती है जिसमें चन्द्रमा की किरणों तथा नक्षत्रों का प्रभाव रहता है जो हमारे लिये स्वास्थ्य प्रद तथा सब प्रकार से लाभकारी है । चन्द्रकिरणों तथा नक्षत्रों के अमृतमय प्रभाव का लाभ प्रात:काल हम उठा लेते हैं।  
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ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्या त्याग कहा गया है इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी॥  </blockquote>अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।
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ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्या त्याग कहा गया है इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-<blockquote>ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी॥<ref>पं० लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २४)।</ref> </blockquote>अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।
    
प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।
 
प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।
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==== हस्तदर्शन का विज्ञान ====
 
==== हस्तदर्शन का विज्ञान ====
प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।</blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।  
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प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-<blockquote>कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref></blockquote>इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।  
    
संसारके सर्वस्व लक्ष्मी सरस्वती और गोविन्द जब हाथमें स्थित हैं तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध है क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।
 
संसारके सर्वस्व लक्ष्मी सरस्वती और गोविन्द जब हाथमें स्थित हैं तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध है क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।
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केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है देखिये-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
 
केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है देखिये-<blockquote>अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)</blockquote>इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है।
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद भी इसी हाथमें स्थित रेखाओं को देखकर ही फलित बताते हैं । हाथमें अमृत के स्थित होनेसे गुरुजनों के द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी शिष्यों में गुण की वृद्धि ही पाई जाती है जैसा कि श्रीदयानन्द सरस्वती जी के द्वारा रचित व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है- <blockquote>सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। (व्यवहारभानु) <ref>श्री दयानन्द सरस्वती,व्यवहारभानु,अजमेरनगर वैदिकयन्त्रालय,पृ० १४।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं ।  
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जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद भी इन्हीं हाथोंमें स्थित रेखाओं को देखकर ही फलित बताते हैं । हाथमें अमृत के स्थित होनेसे गुरुजनों के द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी शिष्यों में गुण की वृद्धि ही पाई जाती है जैसा कि श्रीदयानन्द सरस्वती जी के द्वारा रचित व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है- <blockquote>सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। (व्यवहारभानु) <ref>श्री दयानन्द सरस्वती,व्यवहारभानु,अजमेरनगर वैदिकयन्त्रालय,पृ० १४।</ref></blockquote>'''अर्थ'''-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं ।  
    
सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है।  
 
सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है।  
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==== प्रातःस्मरण ====
 
==== प्रातःस्मरण ====
प्रातः जागरण के अनन्तर किये जाने वाले भगवत् स्मरण के साथ साथ प्रात:स्मरण का भी विधान हमारे सनातन धर्म में है।भगवद् स्मरण से तात्पर्य है त्रिदेव आदि का स्मरण तथा प्रातः स्मरण अर्थात् महापुरुष,सप्तचिरञ्जीव,सप्त पर्वत,प्रकृति आदि का स्मरण।भगवत् स्मरण के साथ साथ महापुरुष आदि का स्मरण करने से उनके गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है, हमारी भावना ऐसी बनती है कि हम भी ऐसे ही गुणवान, चरित्रवान तथा आदर्शवान बनें । उनके मंगलमय स्मरण से हमारे जीवन में भी मंगल तथा कल्याण की भावना जागृत होती है और हमें प्रेरणा मिलती है।प्रातः काल में किया हुआ भगवद् स्मरण आदि धार्मिक कार्य भी अपने तथा दूसरों के आकर्षणका साधन होता है। इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप होता है। हम भगवत् स्तुति करके देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। भगवत् स्तुति हेतु  शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हमें अपने देश तथा अपने धर्म के प्रति अपना उत्तरदयित्व स्मरण रहता है।अपने प्रभुको  उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्य में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता।अतः प्रातः जागरण के पश्चात पुण्यश्लोकों का स्मरण करना चाहिये।  
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प्रातः जागरण के अनन्तर किये जाने वाले भगवत् स्मरण के साथ साथ प्रात:स्मरण का भी विधान हमारे सनातन धर्म में है।भगवद् स्मरण से तात्पर्य है त्रिदेव आदि का स्मरण तथा प्रातः स्मरण अर्थात् महापुरुष,सप्तचिरञ्जीव,सप्त पर्वत,प्रकृति आदि का स्मरण।भगवत् स्मरण के साथ महापुरुष आदि का स्मरण करने से उनके गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है, हमारी भावनायें ऐसी बनतीं हैं कि हम भी ऐसे ही गुणवान्, चरित्रवान् तथा आदर्शवान् बनें । उनके मंगलमय स्मरण से हमारे जीवन में भी मंगल तथा कल्याण की भावना जागृत होती है और हमें प्रेरणा मिलती है।प्रातः काल में किया हुआ भगवद् स्मरण आदि धार्मिक कार्य भी अपने तथा दूसरों का भी आकर्षण का साधन होता है। इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप होता है। हम भगवत् स्तुति करके देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। भगवत् स्तुति हेतु  शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हमें अपने देश तथा अपने धर्म के प्रति अपना उत्तरदयित्व स्मरण रहता है।अपने प्रभुको  उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्य में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता।अतः प्रातः जागरण के पश्चात पुण्यश्लोकों का स्मरण करना चाहिये।  
 
* स्तुति वा भजन के द्वारा ईश्वर से तन्मयीभाव
 
* स्तुति वा भजन के द्वारा ईश्वर से तन्मयीभाव
 
* महापुरुषों के स्मरण से  गुणवान चरित्रवान तथा आदर्शवान बनने की प्रेरणा का प्राप्त होना
 
* महापुरुषों के स्मरण से  गुणवान चरित्रवान तथा आदर्शवान बनने की प्रेरणा का प्राप्त होना
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==== पुण्यश्लोकोंका स्मरण ====
 
==== पुण्यश्लोकोंका स्मरण ====
(गणेशस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुसिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्॥</blockquote>'''अनु-''' अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थल- वाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशजीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।  
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(गणेशस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुसिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्॥<ref>श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।</ref></blockquote>'''अनु-''' अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थल- वाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशजीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।  
    
(विष्णुस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम्। ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुंचक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥</blockquote>'''अनु-''' संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।  
 
(विष्णुस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम्। ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुंचक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥</blockquote>'''अनु-''' संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।  
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(सूर्यस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥</blockquote>'''अनु-'''सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं । जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात:काल मैं उनका स्मरण करता हूँ।
 
(सूर्यस्मरण)<blockquote>प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥</blockquote>'''अनु-'''सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं । जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात:काल मैं उनका स्मरण करता हूँ।
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इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात्॥
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इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात्॥<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ७)।</ref>
    
'''अनु-'''इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रात:स्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रात:काल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्दयासे उसके दु:स्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मंगलमय होता है।
 
'''अनु-'''इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रात:स्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रात:काल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्दयासे उसके दु:स्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मंगलमय होता है।
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यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
 
यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
    
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
 
== शौचाचार एवं स्नानविधि। ==
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ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है ।
 
ऐसी अनेकों शिक्षायें दी गयी हैं जिनका पालन न करने से ही लोग आजकल प्रमेह, बवासीर आदि अनेकों इन्द्रिय रोगों से ग्रसित हो रहे हैं।इस सन्दर्भ में वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण करना एवं खुले में शौच मूत्रविसर्जन आदि करने पर प्रतिबन्ध लगाना इन सब के द्वारा संक्रामक विकारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है ।
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==== प्रातःस्नान एवं वस्त्रादिधारण विधि ====
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==== दन्तधावन ====
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दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है । सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है ।दातौन (वृक्ष जिसकी लकड़ी दन्तधावन हेतु उपयोग में लायी जा सकती है)  का परिमाण वर्ण व्यवस्था के अनुसार बतलाया गया है।
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जैसे-<blockquote>द्वादशाङ्गुलक विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः । क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥</blockquote>'''अनु'''-ब्राह्मणके लिये दातौन बारह अंगुल, क्षत्रियकी नौ अंगुल, वैश्यकी छ: अंगुल और शूद्र तथा स्त्रियोंकी चार-चार अंगुल के बराबर लम्बी होनी चाहिये ।<blockquote>कनिष्ठिकाङ्गुलिवत् स्थूलं पूर्वार्धकृतकूर्चकम्।</blockquote>दातौन की चौडाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान मोटी हो एवं एक भाग को आगे से कूँचकर कूँची बना लेने के अनन्तर ही दन्तधावन करना होता है।<blockquote>खदिरश्चकरञ्जश्च कदम्वश्च वटस्तथा । तिन्तिडी वेणुपृष्ठं च आम्रनिम्बो तथैव च ॥</blockquote><blockquote>अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा । बदरीतिन्दुकास्त्वेते प्रशस्ता दन्तधावने ॥</blockquote>दातौन के लिये कडवे, कसैले अथवा तीखे रसयुक्त नीम,बबूल,खैर,चिड़चिड़ा, गूलर, आदिकी दातौनें अच्छी मानी जाती हैं । <blockquote>आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥( कात्यायनस्मृ १०।४, गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड, अ० ७) </blockquote>'''अनु-'''हे वृक्ष! मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो।इस प्रकार दातौन करने के पूर्व उसे उपर्युक्त मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके दातौन करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है।
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== प्रातःस्नानादि विधि ==
 
ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग  आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये।
 
ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग  आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये।
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प्रातःकाल का नित्य स्नान<blockquote>गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)</blockquote>जो मानव स्नान में तत्पर होत है उसमें यह दश गुण विद्यमान होते है रूप,पुष्टता,बल,तेज,आरोग्य,अवस्था,दुस्वप्न का नाश,धातु की वृद्धि,तप और बुद्धि ।
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प्रातःकाल का नित्य स्नान<blockquote>गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)</blockquote>जो मानव स्नान में तत्पर होत है उसमें यह दश गुण विद्यमान होते है रूप,पुष्टता,बल,तेज,आरोग्य,अवस्था,दुस्वप्न का नाश,धातु की वृद्धि,तप और बुद्धि।
    
==== वस्त्रधारण विधि ====
 
==== वस्त्रधारण विधि ====
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ब्राह्ममुहूर्त में जागरण स्नानादि के अनन्तर वस्त्र धारण का भी मानव जीवन में घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैदिक काल से ही शरीर ढकने हेतु वस्त्रों का उपयोग होता हुआ आ रहा है। प्रचीन काल में वृक्षों के पत्ते ,छाल, कुशादि घास एवं मृगचर्मादि का भी साधन बनाकर शरीर ढकने हेतु वस्त्ररूप में उपयोग हुआ करता था।वस्यते आच्छाद्यतेऽनेनेति वस्त्रम् -जिसके द्वारा (शरीर को) आच्छादित किया जाता है उसे वस्त्र (परिधान)कहते हैं।सनातनी परम्परा में ब्रह्मचारी,स्नातक,गृहस्थ,सन्न्यासी आदियों के लिये पृथक् पृथक् वस्त्रों का विधान किया गया है।
    
==== आसन विधि ====
 
==== आसन विधि ====
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उपासना ध्यानादि कर्मों को आसन पर बैठकर करना चाहिये। उपासना के समय इन्द्रियों को संयमित , मन को स्थिर तथा चित्त को एकाग्र करना होता है।अतः उपासना की क्रिया से एक प्रकार की विद्युत्धारा बहने लगती है, साधना की शक्ति केन्द्रित होकर घनीभूत हो जाती है, वह पृथ्वी पर बैठने से पृथ्वी में ही समा कर चली जाती है क्योंकि पथ्वी में आकर्षण शक्ति है तथा शरीर में भी पार्थिवतत्व की प्रधानता है, इसलिये आवश्यक है कि किसी आसन के ऊपर बैठकर ही उपासनादि कर्म किये जायें।
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आस्यते उपविश्यतेऽस्मिन् इति आसनम् -जिस में (ध्यानादि कर्मों के लिये )बैठा जा सके उसे आसन कहते हैं।<blockquote>कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च । दारुजं तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥</blockquote>'''अनु''' - कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिये विहित है ॥
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==== यज्ञोपवीत विधि ====
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उपर्युक्त आसनों में पूर्वोक्त आसनों की महत्ता अधिक है यथा [[Importance of kusha (कुशा का महत्त्व)|कुश आसन]] सर्वश्रेष्ठ है कुशाभाव में कम्बल अनन्तर क्रमशः आसनों का उपयोग किया जा सकता है। शास्त्रों में वर्णन किया गया है इन आसनों पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधकों की एकाग्रता भी भंग नहीं होती है अतःआसनों का उपयोग उपासना के समय इन्द्रियों को संयमित तथा मन को स्थिर और चित्त को एकाग्र करने के लिये अवश्य करना होता है।
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==== भस्मादितिलक धारण विधि ====
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==== भस्मादितिलक धारण विधि एवं वैज्ञानिक विशेषता ====
 
सनातन धर्म में प्रायः सभी व्यक्ति भस्म तिलक या गुरुपरम्परा अनुसार चन्दन धारण करते हैं यह भी महत्वपूर्ण नियम है। गङ्गा, मृत्तिका या गोपी-चन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र, भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका तिलक कर सकते हैं। किंतु उत्सवकी रात्रिमें सर्वाङ्गमें चन्दन लगाना चाहिये।
 
सनातन धर्म में प्रायः सभी व्यक्ति भस्म तिलक या गुरुपरम्परा अनुसार चन्दन धारण करते हैं यह भी महत्वपूर्ण नियम है। गङ्गा, मृत्तिका या गोपी-चन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र, भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका तिलक कर सकते हैं। किंतु उत्सवकी रात्रिमें सर्वाङ्गमें चन्दन लगाना चाहिये।
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भस्म तिलक विना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते । तिलक बैठकर लगाना चाहिये। अपने-अपने आचारके अनुसार मिट्टी, चन्दन और भस्म-इनमें से किसीके द्वारा तिलक लगाना चाहिये। किंतु भगवान्पर चढ़ानेसे बचे हुए चन्दनको ही लगाना चाहिये बगैर भगवान को लगाये स्वयं नहीं लगाना चाहिये। अँगूठेसे नीचेसे ऊपरकी ओर ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाकर तब त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये।
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भस्म तिलक विना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते । तिलक बैठकर लगाना चाहिये। अपने-अपने आचारके अनुसार मिट्टी, चन्दन और भस्म-इनमें से किसीके द्वारा तिलक लगाना चाहिये। किंतु भगवान्पर चढ़ानेसे बचे हुए चन्दनको ही लगाना चाहिये बगैर भगवान को लगाये स्वयं नहीं लगाना चाहिये। अँगूठेसे नीचेसे ऊपरकी ओर ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाकर तब त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये।भस्मधारणसे तेजकी रक्षा रहती है। उससे शीत नहीं लगता, तभी तो साधु सब अङ्गों में भस्म लगाकर शीतकालकी रात्रियोंको बिता दिया करते हैं।
 
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भस्मधारणसे तेजकी रक्षा रहती है। उससे शीत नहीं लगता, तभी तो साधु सब अङ्गों में भस्म लगाकर शीतकालकी रात्रियोंको बिता दिया करते हैं, सन्धुक्षित की हुई अग्नि भस्ममें जितना अपना तेज स्थापित कर सकती है; उतना बाहर नहीं। बाहर जल्दी समाप्त हो जाती है।
      
बहुत सारे व्यक्तियों की आशङ्का होती है कि-
 
बहुत सारे व्यक्तियों की आशङ्का होती है कि-
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भस्म लगानेसे रोमकूप बन्द हो जाएंगे उस दशामें कार्बानिक गैस (विषाक्त वायु) भीतर से बाहर न जा सकेगा और ऑक्सिजन गैस (प्राणप्रद वायु) बाहरसे भीतर न जा सकेगी। तब भस्म लगानेवाला बीमार पड़ जाएगा। पर यह आशङ्का व्यर्थ है । भस्म स्वयं ऑक्सिजन वायुको खींचकर भीतर प्राप्त कराती है। और भीतरी दूषित विकारोंको बाहर कर देती है।
 
भस्म लगानेसे रोमकूप बन्द हो जाएंगे उस दशामें कार्बानिक गैस (विषाक्त वायु) भीतर से बाहर न जा सकेगा और ऑक्सिजन गैस (प्राणप्रद वायु) बाहरसे भीतर न जा सकेगी। तब भस्म लगानेवाला बीमार पड़ जाएगा। पर यह आशङ्का व्यर्थ है । भस्म स्वयं ऑक्सिजन वायुको खींचकर भीतर प्राप्त कराती है। और भीतरी दूषित विकारोंको बाहर कर देती है।
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भस्ममें पोटास, सोडा, चूना, मैगनेशिया, लोहभस्म, एल्यूमिना, सिलकनभस्म आदि अनेक गुणकारी पदार्थ मिले हुए होते हैं। इसलिए भस्म तेजकी रक्षा करती है, रोम कूपोंको खोलती है, दुर्गन्ध वा मलको नष्ट करती है, खराब वायुको बाहर निकालती है, शुद्ध वायुको अन्दर लाती है, जठराग्नि (भूख) को बढ़ाती है, त्वचाको स्वच्छ करती है, ब्रण वा ज़ख्मको शुद्ध करती है, विष हटाती है, कृमियोंको दूर करती है; ज्वर, सर्दी, वातपित्त, शूल, रक्तविकार, बीमारी, प्लेगरोग, त्वचारोग और उदर रोगोंको करती है।
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भस्ममें पोटास, सोडा, चूना, मैगनेशिया, लोहभस्म, एल्यूमिना, सिलकनभस्म आदि अनेक गुणकारी पदार्थ मिले हुए होते हैं। इसलिए भस्म तेजकी रक्षा करती है, रोम कूपोंको खोलती है, दुर्गन्ध वा मलको नष्ट करती है, खराब वायुको बाहर निकालती है, शुद्ध वायुको अन्दर लाती है, जठराग्नि (भूख) को बढ़ाती है, त्वचाको स्वच्छ करती है, ब्रण वा ज़ख्मको शुद्ध करती है, विष हटाती है, कृमियोंको दूर करती है; ज्वर, सर्दी, वातपित्त, शूल, रक्तविकार, बीमारी, प्लेगरोग, त्वचारोग और उदर रोगोंको नष्ट करती है।
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दुर्गन्ध दूर करना यह भस्मका स्वाभाविक गुण है। विकृत जलमें भस्मके डालनेसे उसका दुर्गन्ध दूर होता है । भस्मसे बिच्छूका विष भी दूर होता है। भस्मसे आयु भी बढ़ती है इसका कारण यह है कि हमारी आयु हमारे तेज पर आश्रित है।जब तक तेज सुरक्षित है। तब तक तेज बढ़ता है । भस्म तेजको स्थिर करती है। अतः इससे आयु बढती है
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दुर्गन्ध दूर करना यह भस्मका स्वाभाविक गुण है। विकृत जलमें भस्मके डालनेसे उसका दुर्गन्ध दूर होता है । भस्मसे बिच्छूका विष भी दूर होता है। भस्मसे आयु भी बढ़ती है इसका कारण यह है कि हमारी आयु हमारे तेज पर आश्रित है।जब तक तेज सुरक्षित है। तब तक तेज बढ़ता है । भस्म तेजको स्थिर करती है अतः इससे आयु बढती है।
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आध्यात्मिक दृष्टि से तिलक धारण सात्विक भाव को उत्पन्न करता हुआ भगवद् भक्ति की ओर और भी अधिक प्रेरित करता है।
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योग-क्रिया-सम्बद्ध एक विशेष रहस्य यह है कि भृकुटी के बीच में मस्तक के नीचे 'आज्ञा' नामक एक चक्र है, उस स्थान पर चन्दन लगाने से वह चक्र शीघ्र जागृत होकर उसका भेदन हो जाता है। जो साधक की साधना में लाभदायक है। इसी प्रकार कण्ठ में चन्दन लगाने से 'विशुद्ध चक्र' का, हृदय में लगाने से 'अनाहत चक्र' का एवं नाभिस्थान में लगाने से 'मणिपूर' आदि चक्रों का जागरण एवं भेदन होता है और उनमें सहायता प्राप्त होती है। इसीलिए उक्त स्थानों में चन्दन लगाया जाता है।
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वैज्ञानिक दृष्टि से भी चन्दन लगाना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है। यह संक्रामक रोगों का नाशक है। इसकी सुगन्ध से दूषित कीटाणु दूर होते हैं, मन प्रसन्न रहता है तथा अन्य लोगों पर भी इसकी सुगन्ध का प्रभाव पड़ता है। चन्दन लगाने वाले व्यक्ति के मुख की कान्ति चमकती है, शोभा बढ़ती है और मुंहासे आदि का भी प्रकोप नहीं होता। शरीर के विभिन्न अंगों में लगाने के कारण दुर्गन्ध को नाश करता हुआ यह स्वास्थ्य प्रदान करता है।
    
== संध्योपासन विधि ==
 
== संध्योपासन विधि ==
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सन्ध्या वन्दन की क्रिया के साथ साथ फिर सूर्य को अर्घ्य दान की बात सनातन धर्म शास्त्र में कही गयी है। उसमें भी बड़ा रहस्य है।
 
सन्ध्या वन्दन की क्रिया के साथ साथ फिर सूर्य को अर्घ्य दान की बात सनातन धर्म शास्त्र में कही गयी है। उसमें भी बड़ा रहस्य है।
 
== पंचमहायज्ञ ==
 
== पंचमहायज्ञ ==
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{{Main|Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)}}
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सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।  
 
सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।  
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पंचमहायज्ञमें विधाता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव- ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ जन्तु, समाज, मानव यहाँतक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियोंका अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे अर्थमें सत्कार करना नृयज्ञ है। कहें, तो पंचमहायज्ञोंमें नैतिकता-आध्यात्मिकता-प्रगतिशीलता वैदिक कालसे ही इन पंचमहायज्ञोंके सम्पादनकी एवं सदाशयता देखनेको मिलती है।  
 
पंचमहायज्ञमें विधाता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव- ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ जन्तु, समाज, मानव यहाँतक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियोंका अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे अर्थमें सत्कार करना नृयज्ञ है। कहें, तो पंचमहायज्ञोंमें नैतिकता-आध्यात्मिकता-प्रगतिशीलता वैदिक कालसे ही इन पंचमहायज्ञोंके सम्पादनकी एवं सदाशयता देखनेको मिलती है।  
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व्यवस्था चली आयी है। ये पाँचों महायज्ञ महासत्रके समान हमारा यह पांचभौतिक शरीर पृथ्वी, जल, तेज, आकाश हैं। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१)-में कहा गया है किऔर वायु-इन पंचभूत पदार्थों से बना है और अन्तमें इन्हींमें 'पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः विलीन भी हो जाता है। आकाशसे वायु, वायुसे सूर्य अर्थात् पितृयज्ञो देवयज्ञः ब्रह्मयज्ञ इति।' केवल शतपथमें ही तेज, सूर्यसे जल एवं जलसे पृथ्वी बनती है- नहीं, अपितु तैत्तिरीय आरण्यक, आश्वलायनगृह्यसूत्र, 'आकाशाज्जायते वायुः वायोरुत्पद्यते रविः। रवेरुत्पद्यते पराशरमाधवीय, बौधायनधर्मसूत्र, गौतम-गोभिलस्मृति आदि तोयं तोयादुत्पद्यते मही।' इनमेंसे एकका भी अभाव हो अनेकों प्राचीन एवं आर्षग्रन्थोंमें इन पंचमहायज्ञोंका वर्णन तो जीवन नष्ट हो जाता है। पेड़-पौधोंका भी हमारे जीवनको प्राप्त होता है, जिनके आधारपर संक्षेपमें यही कहा जा बनाने-सुधारनेमें अमिट योगदान है, यहाँतक कि कीट- सकता है कि जब अग्निमें आहुति दी जाती है तो उसे पतंग, जलचर-नभचरसे भी जीवन अनुप्राणित होता है। देवयज्ञका नाम दिया जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय अर्थात् इन सबका भी हमारे ऊपर ऋण है। स्वाभाविक है कि वेदकी अपनी शाखाका अध्ययन, वेदपाठ-'ब्रह्मयज्ञ' ऋण देनेवाले भी हमसे कुछ-न-कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। कहलाता है। जब पितरोंको स्वधा दी जाती है, उनका श्राद्ध इनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। सारे विश्वके या पार्वण किया जाता है, जलमात्रसे भी यदि तर्पण किया प्राणी एक ही सृष्टि-जीवके द्योतक हैं, अतः सबमें आदान- जाता है, तो 'पितृयज्ञ' बन जाता है। इसी तरह अतिथियों, प्रदानका सिद्धान्त नितान्त स्थित है। इस हेतु भी हम पंचमहायज्ञ ब्राह्मणोंको भोजन कराना जहाँ 'मनुष्ययज्ञ' होता है, वहीं करनेके लिये प्रेरित हुए। जिसके पीछे भक्ति-कृतज्ञता- जीवोंको बलि दिये जानेसे भोजनका ग्रास या पिण्ड अर्पित सम्मान-प्रियस्मृति-उदारता-सहिष्णुता आदिकी भावनाएँ भी किये जानेसे 'भूतयज्ञ' कहलाता है। काम करती हैं। अतएव महामति मनुने कहा है
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व्यवस्था चली आयी है। ये पाँचों महायज्ञ महासत्रके समान हमारा यह पांचभौतिक शरीर पृथ्वी, जल, तेज, आकाश हैं। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१)-में कहा गया है किऔर वायु-इन पंचभूत पदार्थों से बना है और अन्तमें इन्हींमें 'पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः विलीन भी हो जाता है। आकाशसे वायु, वायुसे सूर्य अर्थात् पितृयज्ञो देवयज्ञः ब्रह्मयज्ञ इति।' केवल शतपथमें ही तेज, सूर्यसे जल एवं जलसे पृथ्वी बनती है- नहीं, अपितु तैत्तिरीय आरण्यक, आश्वलायनगृह्यसूत्र, 'आकाशाज्जायते वायुः वायोरुत्पद्यते रविः। रवेरुत्पद्यते पराशरमाधवीय, बौधायनधर्मसूत्र, गौतम-गोभिलस्मृति आदि तोयं तोयादुत्पद्यते मही।' इनमेंसे एकका भी अभाव हो अनेकों प्राचीन एवं आर्षग्रन्थोंमें इन पंचमहायज्ञोंका वर्णन तो जीवन नष्ट हो जाता है। पेड़-पौधोंका भी हमारे जीवनको प्राप्त होता है, जिनके आधारपर संक्षेपमें यही कहा जा बनाने-सुधारनेमें अमिट योगदान है, यहाँतक कि कीट- सकता है कि जब अग्निमें आहुति दी जाती है तो उसे पतंग, जलचर-नभचरसे भी जीवन अनुप्राणित होता है। देवयज्ञका नाम दिया जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय अर्थात् इन सबका भी हमारे ऊपर ऋण है। स्वाभाविक है कि वेदकी अपनी शाखाका अध्ययन, वेदपाठ-'ब्रह्मयज्ञ' ऋण देनेवाले भी हमसे कुछ-न-कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। कहलाता है। जब पितरोंको स्वधा दी जाती है, उनका श्राद्ध इनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। सारे विश्वके या पार्वण किया जाता है, जलमात्रसे भी यदि तर्पण किया प्राणी एक ही सृष्टि-जीवके द्योतक हैं, अतः सबमें आदान- जाता है, तो 'पितृयज्ञ' बन जाता है। इसी तरह अतिथियों, प्रदानका सिद्धान्त नितान्त स्थित है। इस हेतु भी हम पंचमहायज्ञ ब्राह्मणोंको भोजन कराना जहाँ 'मनुष्ययज्ञ' होता है, वहीं करनेके लिये प्रेरित हुए। जिसके पीछे भक्ति-कृतज्ञता- जीवोंको बलि दिये जानेसे भोजनका ग्रास या पिण्ड अर्पित सम्मान-प्रियस्मृति-उदारता-सहिष्णुता आदिकी भावनाएँ भी किये जानेसे 'भूतयज्ञ' कहलाता है। काम करती हैं
 
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गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, स्वाध्यायेन व्रतैर्लोमैस्त्रविद्येनेज्यया सुतैः। सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥ आहत करता है, उन्हें मारता है। अन्न तैयार करते समय
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(२।२८) अथवा भोजन-निर्माणार्थ कई क्रियाएँ की जाती हैं, जिनसे अर्थात् वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-
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पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।
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तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।
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चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में 'सूना' कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये 'पंचसूना' कहलाते हैं।उन पापोंसे मुक्त होनेके लिये ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।
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इसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- (१) ब्रह्मयज्ञ (२) पितृयज्ञ(३) देवयज्ञ(४) भूतयज्ञ और (५) नृयज्ञ।<blockquote>अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥</blockquote>पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्मयज्ञ, तर्पणादि पितृयज्ञ, हवन दैवयज्ञ, बलि भूतयज्ञ और अतिथि-पूजन मनुष्ययज्ञ कहलाते हैं।
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कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।
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अर्थात् कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-इन सभी पापोंका नाश पंचमहायज्ञसे ही होता है।
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इन्हीं पाँच सूनासे विमुक्त्यर्थ अथवा झाड़ना-कूटना-पीसना आदि क्रियाओंके द्वारा होनेवाले पापोंसे मुक्तिके लिए भूतयज्ञकी व्यवस्था दी गयी है। केवल समाजका ही नहीं खाना चाहिये, उन्हें खिलाना भी चाहिये। इसी बातको ध्यानमें रखकर नृयज्ञ अथवा मनुष्ययज्ञ किया है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है, सुतरां सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है। तैत्तिरीय आरण्यक (११।१०)-के मतमें जहाँ ये पंचमहायज्ञ अजस्ररूपसे गृहस्थोंको धन-समृद्धिसे परिपूर्ण करते हैं; वहीं आश्वलायनगृह्यसूत्र (३ । १ । १-४)-ने इसे प्रतिदिन करनेका विधान बताया है।
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इन पंचमहायज्ञोंका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
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==== ब्रह्मयज्ञ ====
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पॉंचों महायज्ञमें ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है  साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें  शतपथ (११ । ५। ६।३-८)और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है। शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं, प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं। शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।
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ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
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स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं, परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके  करना चाहिये।
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ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषिऋण से छुटकारा मिल जाता है, कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
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==== पितृयज्ञ ====
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पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है। तर्पण में कहा जाता है कि-<blockquote>आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ।। </blockquote><blockquote>नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥</blockquote>अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।
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==== देवयज्ञ ====
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गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उनके नाम अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग दिये गये हैं परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
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सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वे हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर 'स्वाहा' शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु (२।१७६) और याज्ञवल्क्य (१।१००)के अनुसार देवयजन देव पूजान्के पश्चात् किया जाता है।
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इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
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देवयज्ञ में हवन का विधान किया है । हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता(३ । १०-१२) में बतलाया गया है।<blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ </blockquote>यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति (३१७६) में बतलाया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है
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अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥
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और भी
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अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(गीता ३।१४)
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अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।
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==== भूतयज्ञ ====
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भूतयज्ञ में बलि-वैश्वदेव का विधान किया गया है जिससे कीट, पक्षी, पशु आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।
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भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य चाण्डाल गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको सावधानीपूर्वक अन्न, जल, पास आदि भोज्य देना इस यजका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह सोश्य उपनिषद्के 'सर्वे भवन्तु सुखिन: ' वाक्यमे ही सन्निहित है। सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण 'पुरुष' शब्दकी सार्थकता कही गयी है-'पूरयति सर्वमिति पुरुषः।'
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==== नृयज्ञ ====
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मनुष्ययज्ञ अतिथि-सेवा-रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है<blockquote>आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)</blockquote>जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।
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अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में  कहा गया है कि-<blockquote>एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)</blockquote>अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है।
      
== भोजन  विधि  ==
 
== भोजन  विधि  ==
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