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− | सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ माना जाता है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म धृञ धारणे धातु से बना है, जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः' अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।</blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं । नारायणोपनिषद' (७६) में कहा है- | + | सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ माना जाता है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है, जिसका अर्थ है -<blockquote>धारयतीति धर्मः अथवा 'येनैतद्धार्यते स धर्मः ।</blockquote>धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होता है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं । नारायणोपनिषद् में कहा है- |
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− | धर्मों बिश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।
| + | धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।<ref>मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।</ref> |
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− | आचार को प्रथम धर्म कहा है | + | आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥</blockquote><blockquote>आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः ।आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥<ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सन्तानें प्राप्त करता है तथा आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है। यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥ |
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| आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । | | आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । |
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− | तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥ ९ ॥
| + | आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् । |
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− | आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः । | + | आचाराल्लभते कीर्ति पुरुषः प्रेत्य चेह च ॥ |
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− | आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥ १० ॥देवी भागवतपुराण, ११ स्कन्ध,प्रथम अध्याय।<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् । आचाराल्लभते कीर्ति पुरुषः प्रेत्य चेह च ॥ </blockquote>अर्थात् श्रुति-स्मृतियुक्त आचार प्रथम धर्म है। आचार से आयु, लक्ष्मी तथा यश की प्राप्ति होती है।
| + | अर्थात् श्रुति-स्मृतियुक्त आचार प्रथम धर्म है। आचार से आयु, लक्ष्मी तथा यश की प्राप्ति होती है। |
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| == आचार की परिभाषा == | | == आचार की परिभाषा == |
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| महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। | | महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ <ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।</ref></blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है। |
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− | काशी खण्ड में भी कहा गया है कि-<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः ।आचाराद्वर्द्धते ह्मायु राचारात् पाप संक्षयः। ।</blockquote>अर्थात् प्राचार परम धर्म है, आचार परम तप है, आचार से आयु की वृद्धि तथा पाप का नाश होता है।<blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है । | + | काशी खण्ड में भी कहा गया है कि-<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः ।आचाराद्वर्द्धते ह्यायुराचारात् पाप संक्षयः। ।</blockquote>अर्थात् आचार परम धर्म है, आचार परम तप है, आचार से आयु की वृद्धि तथा पाप का नाश होता है।<blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।<ref>(अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।<ref>अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।</ref></blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है। <blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥ </blockquote><blockquote>आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥</blockquote><blockquote>यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है, चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो, किंतु जो आचारका पालन करता है, वह सबका फल प्राप्त कर लेता है । |
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| == परिचय == | | == परिचय == |
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| रात्रि का अंधकार दूर होने पर जो मनुष्य प्रात:काल नाक से पानी पीता है, उसकी बुद्धि सचेष्ट होते, नेत्रों की दृष्टि गरूड़ के सदृश्य हो जाती है तथा विविध रोगों के नष्ट होने की पात्रता प्राप्त होती है। अधिक जल पीने से अन्न नहीं पचता। मनुष्य को अग्नि बढाने के लिये जल थोड़ा-थोड़ा, बार-बार पीना चाहिये।मूर्छा-पित्त-गरमी-दाह-विष-रक्त विकारमदात्य-परिश्रम, भ्रम, तमकश्वास, वमन और उर्ध्वगत रक्त पित्त इन रोगों में शीतल जल पीना चाहिये। परन्तु पसली के दर्द, जुकाम, वायु विकार, गले के रोग, कब्ज-कोष्ठबद्धता, जुलाब लेने के बाद, नवज्वर, अरूचि, संग्रहणी, गुल्म, खांसी, हिचकी रोग में शीतल जल नहीं पीना चाहिए कुछ गरम करके जल पीना चाहिये। | | रात्रि का अंधकार दूर होने पर जो मनुष्य प्रात:काल नाक से पानी पीता है, उसकी बुद्धि सचेष्ट होते, नेत्रों की दृष्टि गरूड़ के सदृश्य हो जाती है तथा विविध रोगों के नष्ट होने की पात्रता प्राप्त होती है। अधिक जल पीने से अन्न नहीं पचता। मनुष्य को अग्नि बढाने के लिये जल थोड़ा-थोड़ा, बार-बार पीना चाहिये।मूर्छा-पित्त-गरमी-दाह-विष-रक्त विकारमदात्य-परिश्रम, भ्रम, तमकश्वास, वमन और उर्ध्वगत रक्त पित्त इन रोगों में शीतल जल पीना चाहिये। परन्तु पसली के दर्द, जुकाम, वायु विकार, गले के रोग, कब्ज-कोष्ठबद्धता, जुलाब लेने के बाद, नवज्वर, अरूचि, संग्रहणी, गुल्म, खांसी, हिचकी रोग में शीतल जल नहीं पीना चाहिए कुछ गरम करके जल पीना चाहिये। |
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− | साथ ही कथन यह भी कि- मंदाग्नि, शोध-सूजन, क्षय, मुख से जल बहने, उदर रोग, नेत्र रोग, ज्वर, अल्सर तथा मधुमेह में थोड़ा पानी पीना चाहिए। शीतल जल का पाचन दो प्रहर में होता है तथा गरम करके शीतल किया हुआ जल १ प्रहर में ही पच जाता है। गुनगुना पानी अगर पिया जाए तो चार घड़ी में ही पच जाता है। आहार तथा पानी कभी साथ साथ नहीं लेना चाहिए। पानी और भोजन साथ साथ लेने से गैस-वायु विकार बनता है तथा पाचक रस मन्द होते, पाचन क्रिया शिथिल होती है। मल आंतों में जमकर रक्त रस का निर्माण न्यून हो जाता है भोजन के मध्य भाग में कुछ जल पीना तथा भोजनोपरान्त १ याशा घंटे बाद पानी पीना हितकर रहता । ताम्बे के पात्र में रात में रखा जल सुबह सूर्योदय पूर्व तुलसी के पत्तों के साथ पीने से सोने में सुहागे समान धर्म समझना चाहिये। | + | साथ ही कथन यह भी कि- मंदाग्नि, शोध-सूजन, क्षय, मुख से जल बहने, उदर रोग, नेत्र रोग, ज्वर, अल्सर तथा मधुमेह में थोड़ा पानी पीना चाहिए। शीतल जल का पाचन दो प्रहर में होता है तथा गरम करके शीतल किया हुआ जल १ प्रहर में ही पच जाता है। गुनगुना पानी अगर पिया जाए तो चार घड़ी में ही पच जाता है। आहार तथा पानी कभी साथ साथ नहीं लेना चाहिए। पानी और भोजन साथ साथ लेने से गैस-वायु विकार बनता है तथा पाचक रस मन्द होते, पाचन क्रिया शिथिल होती है। मल आंतों में जमकर रक्त रस का निर्माण न्यून हो जाता है भोजन के मध्य भाग में कुछ जल पीना तथा भोजनोपरान्त १ या आधा घंटे बाद पानी पीना हितकर रहता है । ताम्बे के पात्र में रात में रखा जल सुबह सूर्योदय पूर्व तुलसी के पत्तों के साथ पीने से सोने में सुहागे समान धर्म समझना चाहिये। |
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| ==== निष्कर्ष ==== | | ==== निष्कर्ष ==== |
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| == प्रातःस्मरण एवं दैनिक कृत्य सूची निर्धारण। == | | == प्रातःस्मरण एवं दैनिक कृत्य सूची निर्धारण। == |
| + | दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण-इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें। |
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| + | आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं? |
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| + | धनके लिये क्या करना है ? |
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| + | शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ? |
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| + | यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है? |
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| == शौचाचार एवं स्नानविधि। == | | == शौचाचार एवं स्नानविधि। == |