संस्कृति के आधार पर विचार करें

From Dharmawiki
Revision as of 08:53, 12 January 2020 by Tsvora (talk | contribs)
Jump to navigation Jump to search

अध्याय ३५

१. प्लास्टिक और प्लास्टिकवाद को नकारना

पश्चिम प्लास्टिक का जन्मदाता है। प्लास्टिक का अर्थ है अप्राकृतिक । उसका व्यावहारिक अर्थ है नकली। दोनों शब्दों का अर्थसाम्य भी है और अर्थ का भेद भी है। इसे समझने से पश्चिम का मानस कैसे काम करता है यह समझ में आयेगा। सामान्य रूप से आभूषण सोने, चाँदी, हीरे, मोती, रत्नों आदि के पहने जाते हैं। इनके पीछे स्वास्थ्य और सौन्दर्य के प्रेरक तत्त्व होते हैं। दो में भी स्वास्थ्य प्रथम कारण है जिसे मनुष्य की रसिकता ने सौन्दर्यदृष्टि प्रदान की है। जब मूल स्वास्थ्य दृष्टि का विस्मरण होता है और केवल सौन्दर्यदृष्टि रहती है तब मनुष्य सोने के स्थान पर पीतल के, चाँदी के स्थान पर एल्यूमिनियम के, हीरे के स्थान पर काँच के आभूषण पहनता है। स्वास्थ्यदृष्टि का शास्त्र उसे ज्ञात नहीं है फिर भी ये आभूषण नकली हैं इतना तो बोध उसे रहता ही है। प्लास्टिक इस अर्थ में नकली है।

प्रकृति का स्वभाव है नित्य रूपान्तरणशीलता का । भौतिक विज्ञान का नियम है कि पदार्थ का रूपान्तरण होता ही है। रूपान्तरण की एक प्रक्रिया विघटन की भी है। इसका उत्तम उदाहरण मृतदेह है । जब शरीर मृत हो जाता है तो वह सडता है, गलता है, सूखता है, बिखरता है और उसके सारे संघात का विघटन होकर पृथक्करण होकर सृष्टि में स्थित उनके मूल पदार्थों के साथ मिल जाता है । मृतदेह के किसी भी पद्धति से किये जाने वाले अन्तिम संस्कार विघटन की प्रक्रिया को गति देने के लिये होते हैं । ये न भी किये जायें तो भी विघटन तो होता ही है । इस विघटन से प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। परन्तु प्लास्टिक ऐसा अद्भुत पदार्थ है कि उसका विघटन नहीं होता । प्लास्टिक बनने की प्रक्रिया में एक ऐसा क्षण आता है जब उसके घटक द्रव्यों का अपने मूल द्रव्यों के साथ समरस होने का गुण समाप्त हो जाता है। प्रकृति के तीन महान गुण विघटन, स्वजाति के साथ समरसता और समायोजन प्लास्टिक में नहीं हैं । इस रूपमें प्लास्टिक अप्राकृतिक है।

प्लास्टिक के सृजन के पीछे पश्चिम की दो वृत्तियाँ काम कर रही हैं । एक है लोभ । प्रकृति में जितने भी पदार्थ हैं वे अपने लोभ के कारण उसे पर्याप्त नहीं लगते । दूसरी वृत्ति है अहंकार । 'मैं भी कम नहीं है, वह सब कुछ कर सकता हूँ जो प्रकृति में होता है की वृत्ति से प्रेरित होकर उसने प्लास्टिक बनाया । ये दोनों वृत्तियाँ आसुरी वृत्तियाँ हैं। वे अपना साम्राज्य तो स्थापित करती हैं परन्तु वह शोषण और अत्याचार पर ही खडा हुआ है । सुख पाने की चाह से किया हुआ यह प्रयास सुख देने में यशस्वी नहीं होता।

प्लास्टिक ने सौन्दर्य, विपुलता और सुविधा की दृष्टि से तो अत्यन्त प्रभावी व्यवस्था बनाई है परन्तु उसका परिणाम बहुत अनर्थकारी हुआ है। प्लास्टिक बनाने में मनुष्य की एक भारी मर्यादा दिखाई देती है। प्रकृति का विस्तार और रूपान्तरण होता है वह चेतन के कारण है। बिना चेतन के यह लेशमात्र सम्भव नहीं है। चेतन के कारण से ही सर्जन और विसर्जन होते हैं, संगठन और विघटन होते हैं । पश्चिम चेतन को जानता नहीं है । उसकी संकल्पनात्मक गलती यह है कि वह प्राण को ही चेतन मानता है, उसे जीवन कहता है और पदार्थों में जीवन अर्थात् प्राण अर्थात् चेतन नहीं है ऐसा मानता है। प्लास्टिक बनाने में चेतन की कोई भूमिका नहीं होने से उसका विघटन नहीं होता। विघटन नहीं होता उसे पश्चिम नहीं समझा सकता, भारत की चेतन की अवधारणा से ही उसे समझा जा सकता है । जिसका विघटन नहीं होता वैसा प्लास्टिक पर्यावरण के लिये बडा बोज बनता है। उसका नाश अर्थात् विघटन नहीं होता और दूसरी ओर प्रतिदिन नया नया बनता ही जाता है। जिस कचरे का निकाल ही न होता हो और नया नया ढेर बढता ही जाता हो उस क्षेत्र की स्वच्छता की कठिनाई कितनी बढ़ जाती है इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। महासागरों के किनारे, महासागरों का पानी, अरण्य का क्षेत्र, निर्जन स्थान आदि प्लास्टिक के कचरे से पट गये हैं। इस कचरे की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। इसे जलाओ तो वातावरण अत्यन्त हानिकारक गन्ध से भर जाता है । भूमि में गाडो तो विघटित तो होता नहीं उल्टे भूमि का उपजाऊपन नष्ट कर देता है। पानी में बहा दो तो वह पानी के प्रवाह के साथ बहता बहता समुद्र तक पहुँचता है। तालाब जैसे स्थिर पानी में डालो तो पानी में तैरता रहता है, पानी को दूषित करता है और पानी के जीवों को भी हानि पहुंचाता है। प्लास्टिक बनाने की प्रक्रिया में भी पर्यावरण का इसी प्रकार का प्रदूषण होता है।

दिखने में आकर्षक और तत्काल सुविधा देने वाली परन्तु सार्वकालीन और सार्वत्रिक प्रदूषण और अस्वास्थ्य निर्माण करने वाली पास्टिक की दुनिया पश्चिम की अल्पबुद्धि का परिणाम है। अब यह केवल पदार्थों तक सीमित नहीं रही है। इसने प्लास्टिकवाद को जन्म दिया है

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे