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ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा।
 
ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा।
  
श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुडे हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है।
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श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुड़े हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है।
  
 
परन्त इन्द्र समास विशेष है। इसमें दोनों पद समान हैं, लेशमात्र कमअधिक नहीं । इसमें एक के होने से दूसरा है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं, दूसरे की सार्थकता नहीं। इसमें दोनों दूसरे के पूरक हैं। दोनों दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं और एक होते हैं। द्वन्द्व मिटकर एक होने की प्रक्रिया और अवस्था का यह संकेत है।
 
परन्त इन्द्र समास विशेष है। इसमें दोनों पद समान हैं, लेशमात्र कमअधिक नहीं । इसमें एक के होने से दूसरा है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं, दूसरे की सार्थकता नहीं। इसमें दोनों दूसरे के पूरक हैं। दोनों दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं और एक होते हैं। द्वन्द्व मिटकर एक होने की प्रक्रिया और अवस्था का यह संकेत है।

Revision as of 15:01, 7 March 2021

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अध्याय ३५

१. प्लास्टिक और प्लास्टिकवाद को नकारना

पश्चिम प्लास्टिक का जन्मदाता है। प्लास्टिक का अर्थ है अप्राकृतिक । उसका व्यावहारिक अर्थ है नकली। दोनों शब्दों का अर्थसाम्य भी है और अर्थ का भेद भी है। इसे समझने से पश्चिम का मानस कैसे काम करता है यह समझ में आयेगा। सामान्य रूप से आभूषण सोने, चाँदी, हीरे, मोती, रत्नों आदि के पहने जाते हैं। इनके पीछे स्वास्थ्य और सौन्दर्य के प्रेरक तत्त्व होते हैं। दो में भी स्वास्थ्य प्रथम कारण है जिसे मनुष्य की रसिकता ने सौन्दर्यदृष्टि प्रदान की है। जब मूल स्वास्थ्य दृष्टि का विस्मरण होता है और केवल सौन्दर्यदृष्टि रहती है तब मनुष्य सोने के स्थान पर पीतल के, चाँदी के स्थान पर एल्यूमिनियम के, हीरे के स्थान पर काँच के आभूषण पहनता है। स्वास्थ्यदृष्टि का शास्त्र उसे ज्ञात नहीं है फिर भी ये आभूषण नकली हैं इतना तो बोध उसे रहता ही है। प्लास्टिक इस अर्थ में नकली है।

प्रकृति का स्वभाव है नित्य रूपान्तरणशीलता का । भौतिक विज्ञान का नियम है कि पदार्थ का रूपान्तरण होता ही है। रूपान्तरण की एक प्रक्रिया विघटन की भी है। इसका उत्तम उदाहरण मृतदेह है । जब शरीर मृत हो जाता है तो वह सडता है, गलता है, सूखता है, बिखरता है और उसके सारे संघात का विघटन होकर पृथक्करण होकर सृष्टि में स्थित उनके मूल पदार्थों के साथ मिल जाता है । मृतदेह के किसी भी पद्धति से किये जाने वाले अन्तिम संस्कार विघटन की प्रक्रिया को गति देने के लिये होते हैं । ये न भी किये जायें तो भी विघटन तो होता ही है । इस विघटन से प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। परन्तु प्लास्टिक ऐसा अद्भुत पदार्थ है कि उसका विघटन नहीं होता । प्लास्टिक बनने की प्रक्रिया में एक ऐसा क्षण आता है जब उसके घटक द्रव्यों का अपने मूल द्रव्यों के साथ समरस होने का गुण समाप्त हो जाता है। प्रकृति के तीन महान गुण विघटन, स्वजाति के साथ समरसता और समायोजन प्लास्टिक में नहीं हैं । इस रूपमें प्लास्टिक अप्राकृतिक है।

प्लास्टिक के सृजन के पीछे पश्चिम की दो वृत्तियाँ काम कर रही हैं । एक है लोभ । प्रकृति में जितने भी पदार्थ हैं वे अपने लोभ के कारण उसे पर्याप्त नहीं लगते । दूसरी वृत्ति है अहंकार । 'मैं भी कम नहीं है, वह सब कुछ कर सकता हूँ जो प्रकृति में होता है की वृत्ति से प्रेरित होकर उसने प्लास्टिक बनाया । ये दोनों वृत्तियाँ आसुरी वृत्तियाँ हैं। वे अपना साम्राज्य तो स्थापित करती हैं परन्तु वह शोषण और अत्याचार पर ही खडा हुआ है । सुख पाने की चाह से किया हुआ यह प्रयास सुख देने में यशस्वी नहीं होता।

प्लास्टिक ने सौन्दर्य, विपुलता और सुविधा की दृष्टि से तो अत्यन्त प्रभावी व्यवस्था बनाई है परन्तु उसका परिणाम बहुत अनर्थकारी हुआ है। प्लास्टिक बनाने में मनुष्य की एक भारी मर्यादा दिखाई देती है। प्रकृति का विस्तार और रूपान्तरण होता है वह चेतन के कारण है। बिना चेतन के यह लेशमात्र सम्भव नहीं है। चेतन के कारण से ही सर्जन और विसर्जन होते हैं, संगठन और विघटन होते हैं । पश्चिम चेतन को जानता नहीं है । उसकी संकल्पनात्मक गलती यह है कि वह प्राण को ही चेतन मानता है, उसे जीवन कहता है और पदार्थों में जीवन अर्थात् प्राण अर्थात् चेतन नहीं है ऐसा मानता है। प्लास्टिक बनाने में चेतन की कोई भूमिका नहीं होने से उसका विघटन नहीं होता। विघटन नहीं होता उसे पश्चिम नहीं समझा सकता, भारत की चेतन की अवधारणा से ही उसे समझा जा सकता है । जिसका विघटन नहीं होता वैसा प्लास्टिक पर्यावरण के लिये बडा बोज बनता है। उसका नाश अर्थात् विघटन नहीं होता और दूसरी ओर प्रतिदिन नया नया बनता ही जाता है। जिस कचरे का निकाल ही न होता हो और नया नया ढेर बढता ही जाता हो उस क्षेत्र की स्वच्छता की कठिनाई कितनी बढ़ जाती है इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। महासागरों के किनारे, महासागरों का पानी, अरण्य का क्षेत्र, निर्जन स्थान आदि प्लास्टिक के कचरे से पट गये हैं। इस कचरे की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। इसे जलाओ तो वातावरण अत्यन्त हानिकारक गन्ध से भर जाता है । भूमि में गाडो तो विघटित तो होता नहीं उल्टे भूमि का उपजाऊपन नष्ट कर देता है। पानी में बहा दो तो वह पानी के प्रवाह के साथ बहता बहता समुद्र तक पहुँचता है। तालाब जैसे स्थिर पानी में डालो तो पानी में तैरता रहता है, पानी को दूषित करता है और पानी के जीवों को भी हानि पहुंचाता है। प्लास्टिक बनाने की प्रक्रिया में भी पर्यावरण का इसी प्रकार का प्रदूषण होता है।

दिखने में आकर्षक और तत्काल सुविधा देने वाली परन्तु सार्वकालीन और सार्वत्रिक प्रदूषण और अस्वास्थ्य निर्माण करने वाली पास्टिक की दुनिया पश्चिम की अल्पबुद्धि का परिणाम है। अब यह केवल पदार्थों तक सीमित नहीं रही है। इसने प्लास्टिकवाद को जन्म दिया है

जो प्रत्यक्ष पदार्थों से भी अधिक हानिकारक है।

क्या है यह प्लास्टिकवाद ?

किसी भी पदार्थ या प्रक्रिया का केन्द्रवर्ती तत्त्व नष्ट कर देना प्लास्टिकवाद है।

उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण आरम्भ तो हो ही गये हैं।

भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर धार्मिक दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।

ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित सभी विषयों और पदार्थों के प्लास्टिकवाद का विस्तार हुआ है। फूलों के, फलों के, मसालों के जो अर्क बनते हैं उनमें मूल रूप से उन पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। रासायनिक संयोजनों से रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में वे बनाये जाते हैं। उनका जो मूल उद्देश्य है वह सिद्ध नहीं होता, इन्द्रियों को केवल बाहरी अनुभव होता है। ग्रीन हाऊस खेती, बाजार में पैकींग में मिलने वाले फलों के रस, रासायनिक खाद, विटामीन की गोलियाँ आदि सब इस के उदाहरण हैं।

प्रकृति में पदार्थों के रूपान्तरण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। पदार्थों में स्थित संगठन और विघटन के गुण के कारण से यह प्रक्रिया सम्भव होती है । विघटन और संगठन के साथ समरसता का गुण भी जुडा हुआ है । इससे चक्रीयता की स्थिति निर्माण होती है । चक्रीयता प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण गुण है जो पदार्थ और काल दोनों को लागू है। इन गुणों के कारण प्रकृति स्वयंसंचालित रहती है। प्रकृति के साथ जुडा चेतन कॅटलेटिक एजण्ट के समान प्रकृति को स्वसंचालित रहने में कारणभूत रहता है।

प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।

अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण सुविधाओं के इतने आदी हो गये हैं कि उनके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है ऐसा हमें लगता है। सुविधाओं के अभाव में हमें पिछडापन लगता है। इसका कारण यह है कि हमने सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लिया है । सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मानना भी खास पश्चिमी विचार है। भारत इसे संस्कृति नहीं मानता । जिस विचार और व्यवहार में सबका भला और सबका सुख नहीं वह सुसंस्कृत विचार और व्यवहार नहीं है और जिस व्यवस्था का आधार संस्कृति नहीं वह सभ्यता नहीं होती। अतः विवेकपूर्ण विचार कर भारत को प्लास्टिकवाद को नकारना होगा । इसका प्रारम्भ दैनन्दिन जीवन से प्लास्टिक को बहिष्कृत करने से ही होगा । समझदार लोग कहते हैं कि किसी भी बडे अभियान का प्रारम्भ छोटी और सरल बातों से होता है। प्लास्टिक निषेध का काम बड़ा है, इसका प्रारम्भ भी छोटी छोटी प्लास्टिक की वस्तुओं का त्याग करने से होगा। धीरे धीरे सामर्थ्य जुटाते हुए बडी वस्तुओं को भी छोड़ सकते हैं । हो सकता है इससे अनेक लोगोंं के व्यवसाय बन्द हो जाय, अनेक लोगोंं के रोजगार छिन जाय, अनेक लोग इसे अमानवीय बतायें, तो भी इसका निषेध तो करना ही होगा। प्लास्टिक का पर्याय ढूँढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो पहले से है ही। पाल्सिटक ने उनका स्थान ले कर उन्हें विस्थापित कर दिया है। उन्हें पुनः स्थापित करना ही हमारा काम है।

एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !

२. परम्परा गौरव

  1. हमारा कुछ बुद्धिविभ्रम ही ऐसा है कि हम परम्परा को हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे आधुनिकता के विरोधी तत्त्व के रूप में जानते हैं। आधुनिकता अच्छी है। पारम्परिकता त्याज्य है ऐसी हमारी समझ बनी हैं। यह समझ यूरोपीय शिक्षा द्वारा हमारे मस्तिष्क में डाली है और दो सौ वर्षों में वह गहरी बैठ गई है।
  2. परन्तु परम्परा बहुत मूल्यवान तत्त्व है । परम्परा प्रवाहित है । परम्परा स्थान की नहीं अपितु समय की प्रवाहिता है । कोई भी पदार्थ जल के प्रवाह के साथ बहकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचता है। स्वयं जल भी प्रवाहित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता है । उसी प्रकार कोई भी विचार, व्यवहार, घटना, चिन्तन, व्यवस्था समय के साथ प्रवाहित होकर अतीत से वर्तमान तक और वर्तमान से भविष्य की ओर प्रवाहित होकर जाती है । समय के साथ की इस यात्रा से परम्परा बनती है।
  3. समय तो बीतता ही रहता है परन्तु जो समय के साथ प्रवाहित होता नहीं उसमें स्थगितता आती है । वर्तमान अतीत से जुडता नहीं और भविष्य के लिये कोई थाती बनाता नहीं । अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य लाभान्वित हो सके इसलिये परम्परा का होना अनिवार्य है।
  4. भारत परम्परा का देश है । वह अपने अतीत के साथ जुडा रहने में विश्वास करता है। वह जुडा रहता है परन्तु अतीत में रहता नहीं है। वर्तमान भविष्य के लिये प्रेरक बनता है परन्तु लवचिकता के लिये प्रावधान रखता है।
  5. बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है। प्रवाह के कारण, हवा और सूर्यप्रकाश के कारण अशुद्धियाँ अपने आप दूर होती रहती है। समय के साथ लवचिकता से बहती हुई गतिमान स्थिति भी परिष्कृत होती रहती है। वह स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते रहते भी अपरिवर्तित रहती है। खास बात यह है कि अवांछनीय तत्त्व ही दूर होते है, वांछनीय अपने शुद्ध रूप में अस्तित्व बनाये रखते हैं।
  6. भारत में दो प्रकार की परम्परायें हैं। एक है ज्ञान परम्परा और दूसरी है संस्कार या संस्कृति परम्परा । ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल है और वाहक गुरु शिष्य है। संस्कृति परम्परा का केन्द्र घर है और वाहक पितापुत्र है । गुरु से शिष्य को और पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते हुए ज्ञान और संस्कृति की परम्परा बनती है।
  7. वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।
  8. अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?
  9. जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त धार्मिक वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।
  10. ज्ञानधारा के स्रोत वेद, उपनिषद, सूत्रग्रन्थ, शास्त्रग्रन्थ आदि युगों में मन्त्रगायकों, भाष्यकारों, पाठकों, उपदेशकों, अध्यापकों के माध्यम से, युगानुकूल सन्दर्भो में प्रस्तुत होते हुए आजतक पहुँचे हैं । आज भी ये साधु, सन्तों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, अध्यापकों के द्वारा गाये जाते हैं । विवेचित किये जाते हैं, पढाये जाते हैं।
  11. युग के बाद युगों में स्मृतिकारों ने धार्मिक ज्ञानधारा पर आधारित व्यवहार हेतु समाज के विभिन्न वर्गों के लिये रीतियों का निरूपण किया है। पुराणों ने लोक के लिये ज्ञानधारा को रोचक रूप प्रदान किया है। साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों ने उसी ज्ञानधारा को रसरूप प्रदान कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। पीढी दर पीढी इस की उपासना, साधना, अध्ययन, विमर्श, व्यवहार होता रहा है । इस परम्परा का गौरव होना हमारे लिये स्वाभाविक है।
  12. इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।
  13. ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।
  14. हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें आश्रमचतुष्टय, पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।
  15. आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।
  16. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।
  17. हमारे पूर्वजों ने अनेक व्यवहारशास्त्रों, विज्ञान शास्त्रों, तत्त्वज्ञानशास्त्रों की रचना की, अनुभूति को इनका आधार बनाया, साथ ही सर्वशास्त्रों का आन्तरिक और बाह्य संवादी सम्बन्ध भी बनाया । सभी विद्याशाखाओं को अंगांगी सम्बन्ध से जोडकर परस्पर अविरोधी और अध्यात्म के अधिष्ठान से युक्त बनाया । यह समग्रता का विचार भारत की विशेषता है। इसका गर्व होना स्वाभाविक है, न्याय्य है।
  18. इसी प्रकार से राजाप्रजा के सम्बन्ध, यज्ञ, दान, तब की पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक आवश्यकता, व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व, त्योहार, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थयात्रा, तीर्थस्थान आदि का विधान बनाकर मनुष्य, पशुपक्षी प्राणी, पंचमहाभूत देवीदेवता, भावना, विचार, बुद्धि, मन, शरीर, आनन्द, उल्लास, रस, कारीगरी, शक्ति आदि पदार्थों, गुणों व्यक्तियों, स्वभावों को एक साथ जोडकर अनेकविध आयामों से युक्त, अनन्त लवचिकता से युक्त, ग्रहण करने की स्वतन्त्रता से युक्त, अनेकविध व्यवहारशैलियों का निरूपण किया। यह बुद्धि सामर्थ्य, कल्पनासामर्थ्य, रचनासामर्थ्य का निदर्शक है।
  19. इसे ही नित्यनूतन, चिरपुरातन अर्थात् सनातन कहते हैं। भारत ऐसा सनातन राष्ट्र है । हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र की निहित सनातनता की अनुभूति कर रचना में सनातन बनाया है।
  20. हमें ऐसे पूर्वजों का, उनके द्वारा निर्मित परम्पराओं का, उनके वंशज होने के नाते अपने आपका गौरव होना स्वाभाविक है। इस परम्परा को परिष्कृत बनाते हुए बनाये रखना और भविष्य को सौंपना हमारा कर्तव्य है।

३. कानून नहीं धर्म

  1. मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रहना पडता है। मनुष्यसमाज को व्यवस्था में रखना भी पड़ता है। कारण यह है कि मनुष्यों की वृत्तिप्रवृत्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है । मनुष्य प्रकृति से स्वैराचारी होता है। मनुष्य की इच्छायें भी अनन्त होती हैं, बहुविध होती हैं। जो मन में आये वह कर सकने को वह स्वतन्त्रता मानता है। विभिन्न प्रवृत्ति के मनुष्यों की इच्छा, आकांक्षा आदि से प्रेरित व्यवहार, भिन्न भिन्न होने के कारण एकदूसरे से टकराते हैं। इसमें से संघर्ष, अशान्ति, वैमनस्य आदि निर्माण होते हैं और सुख और शान्ति नष्ट होते हैं।
  2. इसका उपाय करने की दो व्यवस्थायें हैं । एक है धर्म और दूसरी है कानून | धर्म भारत की व्यवस्था है, कानून पश्चिम की।
  3. धर्म की व्यवस्था दो स्तरों पर हुई है। एक है सृष्टिगत व्यवस्था, दूसरी है समाजगत । सृष्टिगत धर्मव्यवस्था सृष्टि के साथ साथ उत्पन्न हुई है, समाजगत व्यवस्था मनीषियों ने सृष्टिगत धर्म के अनुकूलन में बनाई है। कानून में ऐसे दो स्तर नहीं है। केवल मनुष्यसमाज के लिये मनुष्य ने बनाई हुई यह व्यवस्था है।
  4. धर्म की व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव, क्षमता, रुचि, आवश्यकता, आदि मानवीय गुणों को ध्यान में लेकर बनाई गई है, कानून की व्यवस्था यान्त्रिक है, मानवीय सन्दर्भ से रहित है।
  5. पश्चिम का समाजचिन्तन व्यक्तिकेन्द्री होने के साथ साथ स्वार्थ केन्द्री भी है। हर व्यक्ति अपने स्वयं के हित का ही विचार करेगा और इसकी रक्षा की ही चिन्ता करेगा यह गृहीत माना जाता है। ऐसा करना स्वाभाविक और न्याय्य भी माना जाता है । व्यक्तियों के स्वार्थ आपस में टकरायेंगे यह भी स्वाभाविक माना जाता है। सबके हितों को परस्पर टकराने से बचाने हेतु करार व्यवस्था बनाई जाती है और करार को समुचित रूप से लागू करने के लिये कानून बनाये जाते है।
  6. कानून बनाने की पद्धति यान्त्रिक होती है। उन्हें मानना अनिवार्य होता है। कानूनभंग के लिये दण्डविधान होता है । दण्ड के भय से ही कानून का पालन किया जाता है। कानून के पालन में स्वेच्छा नहीं होती है। कानून के उपरान्त होने वाला न्याय भी यान्त्रिक होता है। अतः कानून का पालन सख्ती से ही कराया जाता है।
  7. धर्म का ऐसा नहीं है । धर्म का आधार तात्त्विक दृष्टि से आत्मीयता है, व्यावहारिक दृष्टि से कर्तव्य है। सबको कर्तव्य का पालन करना सिखाया जाता है । तो भी स्खलन तो होता है इसलिये धर्म से विरुद्ध आचरण होता ही है। उसके लिये दण्ड का विधान भी होता है । न्याय और दण्ड में देशकालस्थिति के सन्दर्भ का विवेक किया जाता है।
  8. धर्मानुसारी दण्डविधान में न्याय के उपरान्त क्षमा और दण्ड के मध्य एक तीसरा प्रायश्चित का भी विधान होता है जो पश्चात्ताप के अनुसरण में और अनुपात में दिया जाता है। व्यक्ति को अपनी गलती सुधारने का अवसर दिया जाता है।
  9. धर्म का पालन स्वेच्छापूर्वक करना होता है क्योंकि वह दूसरों का विचार करने के साथ और स्वयं के कर्तव्य के साथ जुड़ा होता है। धर्म घटना के मानवीय पक्ष को ध्यान में लेता है।
  10. कानूनी न्याय वकीलों के तर्क, कानून की धाराओं और प्रमाणों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, धर्म आधारित न्यायव्यवस्था विवेक पर निर्भर करती है। कानून का अनुसरण करने वाली न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखती है जिससे वह पक्षपात न करे, धर्म का अनुसरण करने वाली न्यायदेवता विवेक रूपी चक्षु से युक्त है जिससे वह स्व-पर भेद न करे परन्तु सत्य-असत्य का भेद परख सके । कानून न्याय की देवता को भी अविश्वास से देखकर आँखे बन्द करने पर विवश करता है, धर्म न्याय देवता पर विश्वास करता है।
  11. कानून बनते हैं तब अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हितसन्दर्भो को ध्यान में रखा जाता है। परिणामस्वरूप न्याय निष्पक्ष नहीं रह सकता । इसलिये कानून की ओर हेय दृष्टि से देखा जाता है और दण्ड के भय से ही उसका पालन किया जाता है। धर्म की व्यवस्था सत्य और विश्वनियम के आधार पर ही बनाई जाती है और न्याय करते समय सन्दर्भ देखे जाते हैं।
  12. कानून संसद के द्वारा बहुमत या कभी कभी सर्वानुमत से भी बनाये जाते हैं। कानून को प्रस्तावित करने वाले और प्रस्ताव को पारित करनेवाले पक्षीय हितों से ऊपर नहीं उठ सकते । धर्म के नियम धर्माचार्यों के केन्द्रों में, पुरोहितो द्वारा अथवा गुरुकुलों में शिक्षकों द्वारा बनाये जाते हैं जिनका अपना कोई हितसन्दर्भ नहीं होता। इसलिये कानून का दर्जा धर्म से अत्यन्त निम्न कोटी का है।
  13. भारत की मनीषा को यह समझ में आया था कि मनुष्य की उदात्त या निकृष्ट मनोवृत्तियों के कारण उसका जो अच्छा बुरा व्यवहार होता है उसका न्याय करने की और उसे दण्ड देने की व्यवस्था सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता । जो रागद्वेष से ग्रस्त नहीं है, लोभलालच से लिप्त नहीं है, अपने पराये की भावना से ऊपर उठा है ऐसा धर्म जाननेवाला, मनुष्यों के मनोव्यापारों को जाननेवाला व्यक्ति ही कर सकता है। समाज को अपने में से ऐसे व्यक्ति पहचानकर उन्हें यह काम देना होता है। इसलिये भारत में धर्म जाननेवाले और उसका आचरण करनेवालों को ही न्यायव्यवस्था सुपुर्द की गई थी।
  14. एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि भारत में कर विधान और दण्डविधान बनानेवाली और उसे लागू करने वाली सत्तायें भिन्न थीं। विधान बनाने वाली धर्मसत्ता थी और लागू करने वाली राज्यसत्ता थी। बनानेवाली सत्ता को लागू करने का और लागू करनेवाली सत्ता को बनाने का अधिकार नहीं था। इससे निष्पक्षता बढ़ने की तथा निहित स्वार्थ कम होने की सम्भावना अधिक रहती थी।
  15. विधान बनाने वाली धर्मसत्ता उसे लागू करने वाली राज्यसत्ता के अधीन नहीं थी, स्वायत्त थी । शासक और समाज उस सत्ता का सम्मान करता था । पश्चिमी प्रभाव से आज भारत में तान्त्रिक परिभाषा से अनेक संस्थायें स्वायत्त हैं जिनमें एक न्यायव्यवस्था भी है परन्तु सही अर्थों में केवल शासन ही स्वायत्त है, सर्वोपरि है। आज न्यायव्यवस्था को स्वायत्त माना जाता है परन्तु वह जिसके भरोसे चलती है वे कानून संसद में बनाये जाते हैं, और वे बहमत के आधार पर बनते हैं। संसद बनाती है इसका अर्थ है सांसद जिनके प्रतिनिधि हैं ऐसे लोग कानून बनाते हैं।
  16. आज वास्तविक परिस्थिति ऐसी दिखती है कि धर्म की और लोग श्रद्धा से देखते हैं कानून की ओर नहीं। धर्म का पालन करना चाहिये ऐसा लगता है, कानून का विवशता से ही होता है। कानून बाहरी विषय है, धर्म अन्तःकरण का। धर्म के प्रति श्रद्धा जगाई जाती है, कानून की जानकारी दी जाती है।
  17. लोग बिना पुलीस के भी कानून का पालन करें इसलिये उसे पवित्र मानना पड़ता है और उसे धर्म का दर्जा देना पडता है। सांसदों द्वारा पारित किये हुए कानूनों को धर्म का दर्जा देना लोगोंं को कठिन लगता है। तात्पर्य यह है कि आज भी लोगोंं के अन्तःकरण में प्रतिष्ठा तो धर्म की ही है।
  18. खास बात यह थी कि भारत में दो प्रकार के कानून होते थे। एक राजकीय और दूसरे सामाजिक, गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित सभी कानून सामाजिक थे । शासन से सम्बन्धित राजकीय थे। दोनों के लिये मार्गदर्शक पुरोहित होता था। राजकीय कानून से भी सामाजिक कानून अधिक प्रभावी थे। पंच, महाजन और पुरोहित मिलकर इस न्यायव्यवस्था का संचालन करते थे। समाज स्वायत्त था। ब्रिटीश राज्य में सामाजिक कानून की व्यवस्था समाप्त हो गई। राज्यने उसे हस्तगत कर लिया।
  19. कानून से अपेक्षा तो सत्यान्वेषण की ही होती है परन्तु वर्तमान व्यवस्था में सत्यान्वेषण भी तान्त्रिक हो गया है। उदाहरण के लिये आरोपी और आरोप करनेवाला, इन दो में एक पक्ष तो असत्य का है ही। परन्तु उसका वकील उसे सत्य सिद्ध करने के लिये कानून की धाराओं के अनुकूल प्रयास करता है और वह सत्य सिद्ध होता भी है । सम्बन्धित सब लोग सत्य क्या है यह जानते हैं तो भी असत्य के पक्ष में न्याय होता है। यह तान्त्रिक कानून की बलिहारी है।
  20. भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।

४. पर्यावरण संकल्पना को धार्मिक बनाना

  1. यन्त्रवाद और प्लास्टिकवाद के चलते सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण के प्रदूषण की चपेट में आ गया है। सर्वत्र प्राकृतिक संकट बढ गये हैं । वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है । पहाड़ों पर बर्फ पिघल रही हैं, नदियों में बाढ आ रही है। अब यह विश्वस्तर पर चिन्ता का विषय बन गया है।
  2. इस संकट का मुकाबला करने के लिये सभायें, सम्मेलन, परिचर्चाओं का आयोजन विश्वस्तर पर हो रहा है। नीतियाँ बनाई जा रही हैं, योजनायें बनती हैं, अभियान छिड रहे हैं, नारे बनाये जा रहे हैं।
  3. इन योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। खास बात यह है कि प्रदूषण जिनके कारण से बढ़ राह है ऐसे देश जिनसे नहीं बढ़ रहा है उन्हें पर्यावरण सुरक्षा का उपदेश दे रहे हैं, नीतियों के क्रियान्वयन हेतु बाध्य कर रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियन्त्रित कर रहे हैं। वास्तव में यह उल्टी गंगा चल रही है । प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ रहा है।
  4. मूल में पर्यावरण के प्रदूषण के पश्न को सुलझाने के लिये पर्यावरण की संकल्पना ठीक से समझने की आवश्यकता है। पश्चिम अन्य बातों की तरह पर्यावरण के बारे में भी भौतिक स्तर पर ही देखता है। उसका और उसके प्रभाव में भारत सहित सभी देशों का ध्यान भूमि, जल और वायु के प्रदूषण पर ही केन्द्रित हुआ है। ये पंचमहाभूतों में तीन हैं। इनके प्रदूषण से शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत असर होता है, अनेक प्रकार के नये नये रोग पैदा होते हैं, पुराने रोगों में वृद्धि होती है, ये रोग कर्करोग की प्रकृति के होते हैं, वे असाध्य होते हैं यह बात अब सबके ध्यान में आ रही है। परन्तु प्रदूषणकारी प्रवृत्तियों से परावृत्त होने की शक्ति किसी में नहीं बची है यह भी हम देख रहे हैं।
  5. पंचमहाभूतों में और भी दो महाभूत बचे हैं। वे हैं अग्नि और आकाश । इनके प्रदूषण की ओर कुछ लोगोंं का तो ध्यान गया है परन्तु पर्याप्त मात्रा में नहीं । वास्तव में पूर्व के तीन जितना ही महत्त्व इन दोनों का भी है। उतनी ही गम्भीरता से इनकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिये।
  6. आकाश का गुण है शब्द । शब्द अर्थात् ध्वनि । ध्वनि का प्रक्षण कानों की सुनने की क्षमता कम करता है यह तो ठीक है परन्तु मन की एकाग्रता और बुद्धि की सूक्ष्मता पर भी विपरीत असर करता है। कर्कशता, ऊँचापन, बेसूरापन, ध्वनि का प्रदूषण है। मधुरता, सौम्यता और सूरीलापन सुखदायी है। वाहनों की, बोलचाल की, कुछ वाद्ययन्त्रों की ध्वनि कर्कश होती है। ध्वनिवर्धक यन्त्र, तेज संगीत, चीखें और चिल्लाहट प्रदूषणकारी होते हैं । बेसूरापन प्रदूषण करता है यह तो सर्वविदित है । ध्वनिप्रदूषण का मानसिक और बौद्धिक स्तर पर दुष्प्रभाव होता है।
  7. अग्नि प्रकाश और उष्मा देता है। रासायनिक और प्लास्टिक से, पेट्रोल और डीझल से, अणुविकिरण से निकलने वाली उष्मा त्वचा, रक्त, नाडी संस्थान आदि पर गहरा दुष्प्रभाव करती है। यह ऊष्मा कितनी अधिक बढ़ गई है यह तो ग्लोबल वोमिंग की चिन्ता से ही पता चलता है । यह ऊष्मा और इन साधनों से ही मिलने वाला प्रकाश अत्यधिक हानिकारक है।
  8. परन्तु पर्यावरण केवल पंचमहाभूतों तक सीमित नहीं है। समस्त प्रकृति पंचमहाभूतों के साथ साथ तीन गुणों से भी युक्त है । ये तीन गुण हैं सत्त्व, रज और तम । मनुष्य के व्यक्तित्व में ये मन, बुद्धि और अहंकार के रूप में समाहित हुए हैं। मनुष्य के शरीर में ये कफ, पित्त और वात बनकर समाहित हुए हैं। शरीर के स्तर पर ये त्रिदोष कहे जाते हैं और व्यक्तित्व के स्तर पर अन्तःकरण । सृष्टि में सजीव या निर्जीव एक भी पदार्थ इन तीन गुणों से रहित नहीं होता है। न्यूनाधिक मात्रा में ये तीनों गुण रहते ही है।
  9. तीन गुण पंचमहाभूतों से अधिक प्रभावी होते हैं इसलिये उनका प्रदूषण भी अधिक दुष्प्रभाव करता है। वास्तव में पंचमहाभूतों का प्रदूषण भी इनके प्रदूषण से पैदा होता है । पंचमहाभूत स्थूल होते हैं, तीन गुण सुक्ष्म । सूक्ष्म स्थूल से अधिक प्रभावी होता हैं।
  10. भावनाओं का प्रदूषण, उत्तेजनापूर्ण क्रियाशीलता, चंचलता, भागदौड, जल्दबाजी, तेजगति, बढी हुई आवश्यकतायें, नित्य नया चाहिये की अधीरता रजोगुण के अर्थात् मन के प्रदूषण का परिणाम है । लोभ, लालच, लालसा, काम, क्रोध, इर्ष्या, मद, मोह आदि सब इन प्रवृत्तियों के जनक हैं। जगत में आज यह बढ़ गया है यह हम सब जानते हैं।
  11. गलत बातों को सही सिद्ध करने के प्रयास करना, शोषण और हिंसा के नये नये बहाने ढूँढना और युक्ति प्रयुक्तियाँ अपनाना, शास्त्रों को तोडना मरोडना, अपने पक्ष में शास्त्रों की रचना करना और करवाना सत्त्वगुण का अर्थात् बुद्धि का प्रदूषण है। सर्वत्र वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करना, एकाधिकार प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा रखना, अपने आपको नम्बर वन बताना तमोगुण अर्थात् अहंकार का प्रदूषण है। पश्चिम ने ऐसा प्रदूषण अत्यधिक मात्रा में बढाया है इसका अनुभव सारा जगत कर रहा है ।
  12. पश्चिम अपनी जीवनदृष्टि की मर्यादा के कारण ऐसा कुछ सोच ही नहीं सकता, तब उपाय करना तो उसके लिये नितान्त असम्भव कार्य है। वह केवल समस्या निर्माण कर सकता है, संत्रास फैला सकता है, जगत को संकट में डाल सकता है। उपाय ढूँढना भारत का काम है। भारत को केवल उपाय ही नहीं ढूँढना है उन्हें अपनाना है और पश्चिम को उन्हें अपनाने हेतु बाध्य करना है।
  13. भारतने आदिकाल से प्रदूषण की समस्या ही पैदा न हो इसका उपाय किया है । पंचमहाभूतों को भारत ने देवता माना है। ऋग्वेद के सूक्तों में पृथ्वीसूक्त है, वरुणदेवता, अग्निदेवता, वायुदेवता की स्तुति है। भूमि माता है और आकाश पिता है । देवताओं का हर प्रकार से सम्मान करने की पद्धति बनाई है।
  14. वेदों का शान्तिपाठ समस्त प्रकृति की शान्ति की कामना करता है। मनुष्य यज्ञ करता है और सारी सृष्टि के देवताओं को उनका हिस्सा देता है । अर्थात् वह केवल स्तुति नहीं तो पुष्टि भी करता है, सन्तर्पण भी करता है। पंचमहाभूतों को देवता मानता है इसलिये पवित्र मानता है और उनकी पवित्रता का भंग करना पाप समझता है।
  15. इस दर्शन और भावना को कृति में उतारता है। अग्नि में अपवित्र पदार्थ जलाता नहीं है, पानी को गंदा करता नहीं है, पैर रखने के लिये भूमि की क्षमा माँगता है, अपने स्वार्थ के लिये वृक्षों को काटता नहीं है, कर्कश आवाज का निषेध करता है। दुरुपयोग कर किसी भी पदार्थ की अवमानना करता नहीं है। सजीव निर्जीव हर पदार्थ के साथ आत्मीयता का व्यवहार करता है।
  16. भारत जानता है कि पंचमहाभूतों का प्रदूषण रोकना तो फिर भी सरल है, तीन गुणों को प्रदूषणमुक्त रखना बहुत कठिन काम है। इसलिये भारत ने इनके लिये अधिक गम्भीरतापूर्वक प्रयास किये हैं।
  17. व्यक्तित्व विकास की हर साधना के साथ सद्गुण और सदाचार को जोड़ा है, संयम और सेवा को अपनाने का आग्रह किया है । रजोगुण को कम करने हेतु मन को शान्त करने के हजार उपाय बताये हैं।
  18. मन वश में हुआ तो बुद्धि की विपरीतता का उपाय हो ही जाता है। अहंकार की विनाशकता को जानकर भारत ने सर्व प्रकार से स्पर्धा को निष्कासित किया है । विनयशीलता, परिचर्या, शुश्रुषा, सेवा को महत्त्वपूर्ण गुण माना है। इन गुणों के बिना अनेक श्रेष्ठ बातें मिलेंगी नहीं ऐसा बन्धन निर्माण किया है।
  19. सम्पन्नता, सामर्थ्य, विद्वत्ता पश्चिम के मनुष्य को उद्दण्डता बरतने का अधिकार देती है। भारत क्षमा, उदारता, विनय, सौजन्य से इनकी शोभा बढाने का परामर्श देता है। पश्चिम प्राप्ति को महत्त्व देता है। भारत प्राप्ति के बाद उसके त्याग को । विकास का मार्ग प्राप्ति और सामर्थ्य को पार करके आगे जाता है।
  20. भारत की सम्भावनायें बहत हैं । परन्तु भारत का मार्ग भी कठिन है । अपनी ही मूल्यवान बातें उसके लिये परायी सी हो गई है। उन्हें अपनी बनाने के बाद विश्व को भी देने हेतु उसे सिद्ध होना है। सम्भावनाओं को वास्तविकता में परिणत करना है।

५. अहिंसा का अर्थ

पातंजल योगसूत्र में योग के आठ अंगों का निरूपण है। उसमें पहला ही अंग है यम । यह पाँच प्रकार के हैं। ये हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । संकेत यह है कि सम्पूर्ण योगदर्शन का प्रस्थान अहिंसा है। पाँच यमों को देशकाल स्थिति में अपरिवर्तनीय सार्वभौम महाव्रत कहा गया है। अर्थात् व्यक्ति के व्यवहार और समाज की व्यवस्था का मूल आधार अहिंसा है।

अहिंसा का अर्थ है मन, कर्म, वचन से किसी का अहित नहीं करना । इसका अर्थ सूक्ष्मतापूर्वक समझने की आवश्यकता है । पुत्र के किसी अपराध पर पिता उसे डाँटता है अथवा दण्ड देता है । पुत्र को दुःख होता है । पुत्र को दःखी करना ऊपर से तो हिंसा का कृत्य लगता है, परन्तु बालबुद्धि पुत्र के हित के लिये डाँटना या दण्ड देना पिता का कर्तव्य ही है । उसके हित के लिये जो दण्ड दिया जाता है वह हिंसा नहीं है । इसी प्रकार अपराधी को, आततायी को, दुर्जनों को, दुष्टों को दण्ड देना हिंसा नहीं है यह सर्वविदित है। इसी प्रकार स्वरक्षण के लिये की जाने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है।

आज हिंसा और अहिंसा की विपरीतता हो गई है। मूल धार्मिक सिद्धान्त के अनुसार स्वार्थ के लिये किया गया कोई भी कार्य हिंसा है।

कभी कभी बालबुद्धि लोग भगवान कृष्ण द्वारा दिये गये युद्ध करने के परामर्श को हिंसा मानते हैं । महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश हआ। इतना विनाशक युद्ध करवाने वाले को अहिंसक कैसे कहा जा सकता है ? परन्तु भगवान कृष्ण को तो योगेश्वर भी कहा गया है। योगेश्वर स्वयं हिंसक कैसे हो सकते हैं ? महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिये किया गया था इसलिये वह हिंसापूर्ण कृत्य नहीं था । हाँ, दुर्योधन के लिये वह हिंसा पूर्ण कृत्य था क्योंकि वह स्वार्थ से प्रेरित था।

अन्याय, अनीति, स्वार्थ से प्रेरित ऐसा कोई भी कार्य हिंसा है। जो किसी भी रूप में दूसरे का अधिकार छीनता है अहित करता है वह हिंसापूर्ण कृत्य है। इस दृष्टि से वर्तमान अर्थव्यवस्था पराकोटि की हिंसक व्यवस्था है। पर्यावरण का प्रदूषण करने वाला व्यवहार और व्यवस्था - आचरण और व्यवसाय - हिंसा है। प्राणियों के लिये जीवन दूभर बनाने वाला कृत्य हिंसा है। उदाहरण के लिये पक्की सडक पर पक्षी दाना नहीं चुग सकते और पशुओं के पैरों के खुर खराब होते हैं। प्रदूषण के कारण पक्षी, प्लास्टिक के कारण गायें मरती हैं। यह हिंसा है। बीजों को उत्पादन के लिये अक्षम बनाना हिंसा है । खाद्य पदार्थों और औषधियों में मिलावट करना हिंसा है। दूसरों को बेरोजगार बनाना हिंसा है । अर्थात् आज की समृद्धि हिंसक समृद्धि है। इस समृद्धि को उचित बनाने वाला विचार हिंसक है। उसके अनुकूल शिक्षा देना हिंसक शिक्षा है। इसी के पक्ष में न्याय देना हिंसा है। योगशास्त्र में अहिंसा का परिणाम बताते हुए कहा है, 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठा होने से उसके आसपास का वै शान्त हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसक है उसकी उपस्थिति में एक दूसरे के स्वाभाविक शत्रु भी अपना वैर छोड़ देते हैं। हम ऋषियों के आश्रम के चित्र देखते हैं तब अनेक बार देखा है कि आश्रम के जलाशय में शेर और हिरन साथ साथ पानी पीते हैं। यह कल्पना नहीं है, ऋषि की अहिंसा का यह प्रभाव है। अर्थात् अहिंसक समाज में सुरक्षा, आश्वस्ति, सहृदयता, सज्जनता अपने आप पनपते हैं। हिंसक वातावरण में भय, चिन्ता, तनाव, असुरक्षा आदि बढते जाते हैं। हिंसक समाज में जेल, न्यायालय, अस्पताल, पुलीस आदि की बहुतायत होती है।

पश्चिमी जीवनव्यवस्था के जितने भी आयाम हैं वे सब हिंसक हैं । इसी लिये वह आसुरी समाज है । भारत में असुर नहीं है ऐसा तो नहीं है । युगों से असुर रहे ही हैं और प्रभावी भी रहे हैं परन्तु भारत की मान्य व्यवस्था आसुरी नहीं है। भारत सदा अहिंसक समाजव्यवस्था का पक्षधर रहा है। आज भारत का अहिंसक समाज हिंसा से दृषित हो गया है यह सत्य है । परन्तु वह अस्वास्थ्य है, बिमारी है, व्याधि और उपाधि है, स्वभाव नहीं है । इसलिये इस रोग से मुक्त होना है। भारत के प्रदीर्घ इतिहास में पाँचसौ वर्षों से लगी यह बिमारी बहत लम्बी नहीं कही जा सकती तथापि उपचार की दृष्टि से पर्याप्त रूप से कष्टसाध्य है। यह परमात्मा की कृपा माननी चाहिये कि अभी यह बिमारी असाध्य या प्राणघातक नहीं बनी है। परन्तु इसे हल्के से भी नहीं लेना चाहिये। इससे मुक्त हुए बिना न हमारा राष्ट्रजीवन ठीक हो सकता है न विश्व भारत से लाभान्वित हो सकता है।

६. एकरूपता नहीं एकात्मता

पश्चिम को समानता के लिये एकरूपता की आवश्यकता होती है, क्योंकि वह बाहर का देखता है। एकरूपता की संकल्पना का व्यवहार में भी परिणाम दिखाई देता है। समानता उसे बाहर से नापे जाने वाले समान व्यवहार करने को प्रेरित करती है। इससे अस्वाभाविक स्थितियाँ निर्माण होती हैं क्योंकि एकरूपता सृष्टि का स्वभाव नहीं है। उदाहरण के लिये जब हम रेल में यात्रा करते हैं तब राजधानी या शताब्दी में भोजन मिलता है। वह दस वर्ष के बच्चे, अस्सी वर्ष के वृद्ध और तीस वर्ष के युवा के लिये समान मात्रा में होता है । यह स्वाभाविक नहीं है। भोजन भूख के हिसाब से होना चाहिये, पैसे के हिसाब से नहीं, परन्तु रेल की दुनिया भूख के हिसाब से भोजन देने को ही अव्यावहारिक कहेगी । सबको समान मात्रा में भोजन देने की भी लम्बी कारण परम्परा होती है। अर्थात् एकरूपता में समानता का मापन एक अलग ही व्यवहार प्रणाली निर्माण करता है।

भारत को चाहिये कि वह एकरूपता में समानता न देखें अपितु एकात्मता में देखे । एकात्मता का व्यवहार जगत स्वाभाविक होता है । भूख के अनुसार भोजन में कोई दो, कोई चार और कोई छः रोटी खाता है तो भी वह समान ही है क्योंकि भूख शान्त होना मापदण्ड है, रोटी की संख्या नहीं।

दस लाख, एक लाख और दस हजार कमाने वाले तीनों यदि हजार रूपये का दान करते हैं तो राशि समान होने पर भी वह समान नहीं है। दान का मापन भावना और क्षमता के आधार पर होता है, राशि के आधार पर नहीं, क्योंकि दस हजार कमाने वाले तीनों व्यक्ति हजार हजार देते हैं तब भी हो सकता है कि वे समान न हों । क्षमता भी केवल राशि पर नहीं, परिस्थिति पर निर्भर करती है, लेनेवाले की आवश्यकता पर भी निर्भर करती है।

एकरूपता में कपड़े, जूते, टोपी आदि पहननेवाले के शरीर के नाप के अनुसार नहीं मिलते, बेचनेवाले और बनाने वाले ने तय किये हुए नम्बर के अनुसार मिलते हैं। ये तो बहुत छोटे उदाहरण हैं । परन्तु बड़े से बडी रचनाओं में भी यह एकरूपता दिखाई देती है । लोकतन्त्र की वर्तमान संकल्पना में एकरूपता ही आधारभूत तत्त्व है । एक व्यक्ति एक मत का सिद्धान्त बुद्धि की, भावना की, क्षमता की, नीयत की भिन्नता को कोई महत्त्व नहीं देता, एक अत्यन्त सज्जन और बुद्धिमान व्यक्ति के मत का जितना मूल्य है उतना ही मूल्य एक दुष्ट और निर्बुद्ध व्यक्ति के मत का। अर्थात् राजकीय परिपक्वता जैसा कोई विषय ही गणना में नहीं लिया जाता।

जो लोग भौतिक दृष्टि से ही जीवन और जगत को देखते हैं वे इस प्रकार की समानता की कल्पना करते हैं। उनके लिये सारा मापन यान्त्रिक हो जाता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ उनके लिये कोई मायने नहीं रखती।

भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से धार्मिक जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें बदल जायेंगी। दिशा बदली तो मार्ग और गन्तव्य दोनों बदल जाने जैसा ही है ।

एकरूपता के स्थान पर यदि स्वाभाविकता लाना है तो हमें, उदाहरण के लिये, हमारी दैनन्दिन उपयोग की छोटी छोटी बातें बदलने से प्रारम्भ करना होगा। छोटे प्रारम्भ से बडे बडे परिवर्तनों तक पहुँचा जा सकता है। यदि हम कारखाने में बने तैयार कपड़े और जूते पहनने के स्थान पर हाथ से बने कपड़े और जूते पहनने लगेंगे तो जूते और कपड़े के कारखाने बन्द हो जायेंगे, यन्त्रसामग्री निरुपयोगी बन जायेगी, दर्जी और मोची को काम मिलेगा, वे नौकर नहीं अपितु अपने व्यवसाय के मालिक बनेंगे। अपने व्यवसाय के लिये वे गाँव में जायेंगे, वहाँ सुख से रहेंगे, गाँवों का विकास होगा और हमें अपने नाप के, दर्जी और मोची के मानवीय स्पर्शवाले कपड़े और जूते मिलेंगे । सारा अर्थतन्त्र, यान्त्रिकीकरण और शहरीकरण रुक जायेगा । और दिशा बदल जायेगी। आज डिझाइनर कपड़ों और जूतों की बडी प्रतिष्ठा है । यन्त्र दूर करते ही हर व्यक्ति को डिझाइनर कपड़े और जूते मिलेंगे।

मूल संकल्पना बदलते ही कितनी दूर तक सारे परिवर्तन होते हैं इसका यह उदाहरण है।

जहाँ एकात्म समाजरचना होती है वहाँ ऊपरी भेद महत्त्वपूर्ण नहीं होते । उदाहरण के लिये बड़े भवन वाला, वातानुकूलित वाहनों वाला, ऊँचे शुल्क वाला विद्यालय सादे, छोटे विद्यालय से अच्छा नहीं माना जाता, अधिक वेतन मिलने पर शिक्षक अधिक अच्छा पढाते हैं ऐसा नहीं होता और माना भी नहीं जाता, निर्धन के घर में बुद्धिमान बालकों का जन्म नहीं होता ऐसा नहीं माना जाता । संक्षेप में भौतिक पदार्थों से नहीं, अपितु गुणों से व्यक्ति या स्थितियों का मूल्यांकन होता है।

इसलिये विश्व को बदलना है तो प्रथम भारत को चाहिये कि वह अपने आपको बदले। ऊपरी सतह से न देखे, आन्तरिक स्तर से जीवन और जगत को देखे । मूल एकत्व और ऊपरी विविधता का स्वीकार करे और कहाँ ऊपरी बातों के आधार पर और कहाँ आन्तरिक बातों के आधार पर व्यवहार करना है उसका विवेक करें।

७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता

यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की सदा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगोंं द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।

धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।

धर्म क्या है ?

  • धर्म विश्वनियम है जिसकी उत्पत्ति विश्व के साथ साथ हुई है।
  • धर्म विश्वनियम के अनुसार चलने वाली व्यवस्था है।
  • धर्म नामक इस विश्वनियम के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति संचालित होती है, नियमन में रहती है, सुरक्षित रहती है जिससे उसका नाश नहीं होता।
  • इन विश्वनियमों के अनुसरण में, अनुकूलन में, उसके अविरोधी मनुष्य ने अपने जगत के लिये जो नियम, जो व्यवस्था बनाई है वह मनुष्य के लिये धर्म है। यह मनुष्य जगत के लिये नियम है।
  • इस व्यवस्था के अनुसार अपनी विभिन्न भूमिकाओं में विभिन्न सन्दर्भो में जो कर्तव्य हैं वे भी मनुष्य के लिये धर्म है।
  • मनुष्य सहित सृष्टि के समस्त पदार्थों का जो स्वभाव है वह उस पदार्थ का धर्म, स्वभावधर्म या गुणधर्म है।
  • किसी भी व्यवहार का सर्वेषामविरोधेन सर्वहित कारी रूप में चलना व्यवहारधर्म है।
  • मनुष्य अपने व्यवहार, भावना, कर्तव्य आदि के आलम्बन हेतु अपना इष्टदेवता निश्चित करता है, उसकी उपासना, अर्चना, पूजा करता है, उसके अनुकूल आचार अपनाता है, जपतप करता है, व्रतउपवास करता है, कथाश्रवण और ग्रन्थवाचन करता है वह उसका सम्प्रदाय धर्म है।

इस प्रकार सम्प्रदाय अथवा पंथ, व्यवस्था, नियम, कर्तव्य, स्वभाव ऐसे विभिन्न आयामों में धर्म प्रकट होता है। पश्चिम में इन सब आयामों के लिये एथिक्स, ड्यूटी, नेचर, लॉ, रिलीजन आदि विभिन्न संज्ञायें हैं परन्तु ये सब जिस एक के विभिन्न आयाम हैं ऐसा कोई एक शब्द नहीं है । वे सब एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और भिन्न भिन्न दायरे बनाते हैं।

धर्म की संकल्पना की अनुपस्थिति में पश्चिम के जीवन में समग्रता और समरसता, परस्परपूरकता और परस्परावलम्बिता, एकता और एकात्मता सम्भव नहीं होते । एकाकीपन, पृथकता, खण्डितता, विभाजकता फैल जाते हैं। इन तत्त्वों को ही स्वाभाविक माना जाता है क्योंकि दूसरे का परिचय ही नहीं है। परिचय ही नहीं है तब अनुभव की तो बात ही नहीं है । परिणाम स्वरूप सर्वत्र विशृंखलता दिखाई देती है।

धर्म को पश्चिम ने रिलीजन समझा, कर्तव्य को कानून के पालन में सीमित किया, गुणधर्म को पदार्थ विज्ञान का और स्वभाव को मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया, नीतिओं को स्वार्थपूर्ति की सुविधा का सन्दर्भ दिया।

धर्म को रिलीजन मानकर सम्प्रदाय का स्वरूप देकर उसने अपना बल, सत्ता, धन प्राप्ति का साधन बनाया। साथ ही अपने अहंकार जनित श्रेष्ठत्व की भावना का रंग चढाया । इसाई हो या इसाई पूर्व रिलीजन हों, गैरइसाई को इसाई बनाने को अपना कर्तव्य माना । हम अन्य पंथों की बात न कर केवल इसाइयत की ही बात करें तो दुनिया का इसाईकरण करने हेतु रक्तपात, लूट, शोषण और नरसंहार की पराकाष्ठा पश्चिम ने की है। विश्व के अनेक देश, जो मूलतः इसाई नहीं थे, आज पूर्ण रूप से इसाई बन गये हैं। दुनिया को इसाई बनाने के लिये इन्होंने सारे अमानवीय हथकण्डे ही अपनाये हैं इसका प्रमाण इतिहास देता है।

धर्म सर्व प्रकार का अनुकूलन बनाने का मार्गदर्शन करता है परन्तु इतिहास दर्शाता है कि उसका भौतिक विज्ञान और सत्ता दोनों के साथ अनुकूलन नहीं रहा । पोप के रूप में रिलीजन की सत्ता है और राजसत्ता ने इस रिलीजन की सत्ता के अधीन होना स्वीकार नहीं किया। भौतिक विज्ञान और रिलीजन का भी परस्पर अनुकूलन नहीं रहा । आज पश्चिम में भौतिक विज्ञान और ईसाइयत दोनों हैं परन्तु एकदूसरे से निरपेक्ष हैं । रिलीजन का अर्थसत्ता से भी अंगागी सम्बन्ध नहीं रहा। अर्थात् रिलीजन, अर्थक्षेत्र, राज्य और विज्ञान सब एकदूसरे से स्वतन्त्र बनकर अस्तित्व में है, ऐसा जीवन विशृंखल ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

फिर रिलीजन का प्रयोजन क्या है ? रिलीजन का प्रयोजन 'साल्वेशन' है। 'साल्वेशन' हम जिसे मोक्ष कहते हैं वह नहीं है। साल्वेशन स्वर्ग प्राप्ति है जहाँ निरन्तर अबाधित सुख है । यह सुख पृथ्वी पर के सुख जैसा ही है, केवल वह निर्विरोध है । इसु की उपासना से ही स्वर्ग में जाया जाता है। 'धर्म' के समान ही अंग्रेजी में 'पुण्य' के लिये भी कोई संज्ञा नहीं है यह भी क्या केवल योगानुयोग है या उनके मानस की ओर संकेत है इसका भी विचार करना चाहिये।

इन सभी स्थिति से प्रेरित होकर सेकुलर शब्द निकला है जो सांस्कृतिक जीवन के लिये बड़ा अवरोध है। 'सेकुलर' संकल्पना का स्रोत विशृंखलता और शासन, रिलीजन, विज्ञान और अर्थक्षेत्र की आपसी खींचातानी हैं। यह पश्चिमी समाज की पहचान है। भारत के राष्ट्रजीवन में इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, न इसका कोई स्थान है। भारत में सत्ता और धर्म, अर्थ और धर्म जैसे संघर्ष की कल्पना ही नहीं की गई है, उल्टे इन 4 सभी के समन्वय और सन्तुलन की अद्भुत व्यवस्था की गई है। ऐसे भारत में रिलीजन का अनुवाद 'धर्म' करनेवाले ने भारत के जनजीवन को भारी अन्याय किया है।

आज भारत को स्वयं को इस विवाद से मुक्त होना है और उसके बाद विश्व को मार्गदर्शन करना है। प्रथम तो भारत को निश्चित करना होगा कि 'सर्वपन्थसमादर' की, सहअस्तित्व को निश्चयपूर्वक स्वीकार करने वाली भारत की विचारधारा सहअस्तित्व को सर्वथा नकारने वाली वृत्तिप्रवृत्ति के साथ समायोजन कैसे करेगी। अपने आप में निश्चित होने के बाद ही विश्वफलक पर अध्यात्म, धर्म, सम्प्रदाय आदि की चर्चा चलाने की आवश्यकता रहेगी।

धर्म को जब हम ‘धारण करने वाला' तत्त्व समझते हैं तब ऐसे किसी भी तत्त्व के अभाव में जगत में सुख, शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा सम्भव ही कैसे हो सकता है यह बात बार बार उठाने की आवश्यकता है। कानून और धर्म एक नहीं है, समकक्ष भी नहीं हैं इस मुद्दे को भी अधोरेखांकित करना होगा।

ऐसा करने के लिये श्रद्धा, विश्वास, आचार, ज्ञान आदि में सामर्थ्य प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि धर्म सिखाने वाली शिक्षा से ही ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होगा।

श्री भगवान अपनी गीता में विभूतियोग में कहते हैं कि समासो में मैं द्वन्द्व हूँ। समास का अर्थ यहाँ 'जुड़े हुए तत्त्व' है। अनेक रचनायें, अनेक पदार्थ, अनेक व्यक्ति परस्पर विविध सम्बन्धों से जुडते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध अंगांगी होता है। उदाहरण के लिये फूल और पंखुडियाँ, वृक्ष और डाली, शरीर और हाथ, हाथ और ऊँगली आदि का परस्पर सम्बन्ध अंग और अंगी का है जिसमें एक मुख्य है और दूसरा गौण है, मुख्य का हिस्सा है । कभी तो दो पद विभिन्न कारकों से जुडते हैं । उदाहरण के लिये पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, प्रजापालन आदि, जिसमें एक पद विशेषण और दूसरा विशेष्य, एक साधन और दूसरा कारक होता है।

परन्त इन्द्र समास विशेष है। इसमें दोनों पद समान हैं, लेशमात्र कमअधिक नहीं । इसमें एक के होने से दूसरा है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं, दूसरे की सार्थकता नहीं। इसमें दोनों दूसरे के पूरक हैं। दोनों दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं और एक होते हैं। द्वन्द्व मिटकर एक होने की प्रक्रिया और अवस्था का यह संकेत है।

द्वन्द्व समास सृष्टि में, व्यवहार में, सम्बन्धों में, एकात्मता का संकेत है, एकात्मता की व्यवस्था है।

कुछ उदाहरण देखें...

स्त्री पुरुष, पतिपत्नी, मातापिता, गुरुशिष्य, पितापुत्र, राजाप्रजा आदि।

द्वन्द्व समास से इन्हें जोडने का अर्थ है इनमें परस्पर पूरकता और एकात्मता निर्माण करना । मानवीय सम्बन्धों का यह मूल आधार है । इसमें परमात्मतत्त्व है इसलिये इसे द्वन्द्व समास कहा है। अध्यात्म को व्यवहार्य बनाने की कुशाग्र बुद्धि हमारे मनीषियों में थी यही हम कह सकते हैं।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे