Difference between revisions of "संकेन्द्री दृष्टि"

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=== मनुष्य केन्द्री रचना का स्वरूप ===
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ऐसा कहते हैं कि भगवान जब सृष्टि की रचना करने लगे तब प्रथम पंचमहाभूत बनाये। फिर क्रमशः वनस्पति सृष्टि और प्राणीसृष्टि बनाई। प्राणीसृष्टि में प्रथम एककोशीय जीव का निर्माण हुआ और क्रमशः जटिल रचना निर्माण होती गई। जब तक मनुष्य को नहीं बनाया था तब तक भगवान को सन्तोष नहीं हो रहा था । अन्त में जब मनुष्य को बनाया तब भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने मनुष्य को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम मेरे श्रेष्ठ सर्जन हो । मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यह सारी सृष्टि तुम्हारे लिये हैं। तुम उसका यथेच्छ उपभोग करो और सुखपूर्वक जीवनयापन करो।
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तब से मनुष्य भगवान की कृपा के अनुसार सृष्टि का उपभोग कर रहा है।
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वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...
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१. वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।
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अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।
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३. सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।
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४. पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।
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अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।
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६. वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।
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अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।
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प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।
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९. प्लास्टिक की खोज प्रकृति के  स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।
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१०. सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।
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११. प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।
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१२. प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।
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१३. प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।
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१४. इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है। पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा। प्रथम तो भारत में प्रकृति की भी स्वतन्त्र सत्ता मानी गई है। मनुष्य के ही समान सृष्टि के छोटे बडे सभी पदार्थ आत्मतत्त्व का ही आविष्कार है। उनकी भी स्वतन्त्रता सत्ता है और मनुष्य का कर्तव्य है कि उन सबकी स्वतन्त्रता सत्ता का सम्मान करे । भगवानने मनुष्य को अपनी सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ बनाया है और श्रेष्ठ होने के नाते अपने से छोटों की रक्षा करने का दायित्व भी उसे दिया है। भारत की दृष्टि कहती है कि मनुष्य के प्रकृति के साथ के सम्बन्ध के चार आयाम हैं। पहला आयाम है आत्मीयता । प्रकृति के सभी पदार्थों के साथ आत्मीयता का, स्नेह का, सम्बन्ध अपेक्षित है । ऐसे प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप सृष्टि में भी प्रेमपूर्ण वातावरण बनता है। सबका अन्तःकरण प्रेम से प्रसन्न रहता है। इससे हिंसा कम होती है। हिंसा कम होने से भय कम होता है और सुरक्षा का भाव बढ़ता है।
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दूसरा आयाम है कृतज्ञता का । मनुष्य का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव है। उसकी सभी आवश्यकतायें प्रकृति के द्वारा ही पूर्ण होती हैं इसलिये प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना उसका धर्म है । कृतज्ञता का व्यवहार आदर और सम्मान का होता है। मनुष्य की ओर से आदर और सम्मान पाकर प्रकृति सुख का अनुभव करती है। सुख का अनुभव करनेवाली प्रकृति मनुष्य को भी सुख देती है। सुख देने से जो सुख मिलता है वह और किसी भौतिक पदार्थ से नहीं मिलता।
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तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है।
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चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे हमेशा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है।
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परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को । आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।
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==References==
 
==References==
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे

Revision as of 03:17, 10 January 2020

अध्याय २६

मनुष्य केन्द्री रचना का स्वरूप

ऐसा कहते हैं कि भगवान जब सृष्टि की रचना करने लगे तब प्रथम पंचमहाभूत बनाये। फिर क्रमशः वनस्पति सृष्टि और प्राणीसृष्टि बनाई। प्राणीसृष्टि में प्रथम एककोशीय जीव का निर्माण हुआ और क्रमशः जटिल रचना निर्माण होती गई। जब तक मनुष्य को नहीं बनाया था तब तक भगवान को सन्तोष नहीं हो रहा था । अन्त में जब मनुष्य को बनाया तब भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने मनुष्य को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम मेरे श्रेष्ठ सर्जन हो । मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यह सारी सृष्टि तुम्हारे लिये हैं। तुम उसका यथेच्छ उपभोग करो और सुखपूर्वक जीवनयापन करो।

तब से मनुष्य भगवान की कृपा के अनुसार सृष्टि का उपभोग कर रहा है।

वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...

१. वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।

अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।

३. सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।

४. पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।

अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।

६. वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।

अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।

प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।

९. प्लास्टिक की खोज प्रकृति के स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।

१०. सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।

११. प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।

१२. प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।

१३. प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।

१४. इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है। पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा। प्रथम तो भारत में प्रकृति की भी स्वतन्त्र सत्ता मानी गई है। मनुष्य के ही समान सृष्टि के छोटे बडे सभी पदार्थ आत्मतत्त्व का ही आविष्कार है। उनकी भी स्वतन्त्रता सत्ता है और मनुष्य का कर्तव्य है कि उन सबकी स्वतन्त्रता सत्ता का सम्मान करे । भगवानने मनुष्य को अपनी सभी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ बनाया है और श्रेष्ठ होने के नाते अपने से छोटों की रक्षा करने का दायित्व भी उसे दिया है। भारत की दृष्टि कहती है कि मनुष्य के प्रकृति के साथ के सम्बन्ध के चार आयाम हैं। पहला आयाम है आत्मीयता । प्रकृति के सभी पदार्थों के साथ आत्मीयता का, स्नेह का, सम्बन्ध अपेक्षित है । ऐसे प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप सृष्टि में भी प्रेमपूर्ण वातावरण बनता है। सबका अन्तःकरण प्रेम से प्रसन्न रहता है। इससे हिंसा कम होती है। हिंसा कम होने से भय कम होता है और सुरक्षा का भाव बढ़ता है।

दूसरा आयाम है कृतज्ञता का । मनुष्य का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव है। उसकी सभी आवश्यकतायें प्रकृति के द्वारा ही पूर्ण होती हैं इसलिये प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना उसका धर्म है । कृतज्ञता का व्यवहार आदर और सम्मान का होता है। मनुष्य की ओर से आदर और सम्मान पाकर प्रकृति सुख का अनुभव करती है। सुख का अनुभव करनेवाली प्रकृति मनुष्य को भी सुख देती है। सुख देने से जो सुख मिलता है वह और किसी भौतिक पदार्थ से नहीं मिलता।

तीसरा आयाम है दोहन का । प्रकृति से सबकुछ प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य को उतना ही लेना चाहिये जितना उसके लिये आवश्यक है। भारत के सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक लेता है वह चोर है। मनुष्य को प्रकृति पर अधिकार धन, बल, सत्ता, बुद्धि आदि से प्राप्त नहीं होता है, केवल आवश्यकता के अनुपात में ही प्राप्त होता है। इसे दोहन का सिद्धान्त कहते हैं। अधिकार जमा कर आवश्यकता से अधिक लेने को शोषण कहते हैं। प्रकृति का शोषण करने से सर्वत्र दुःख फैलता है और अभाव निर्माण होता है। दोहन करने से सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और सुख मिलता है। आज पश्चिम अपने स्वामित्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति का शोषण करता है, उसे दुःखी करता है और स्वयं भी दुःखी होता है। पश्चिम के ऐसे व्यवहार से गैरपश्चिमी जगत को भी दुःखी होना पडता है। शोषण बन्द नहीं करना अपितु अन्य उपाय ही करते रहना कदापि परिणामकारी होने वाला नहीं है। पश्चिम को यही मान्य नहीं है।

चौथा आयाम है रक्षण करना । भारत का कहना है कि अपने से छोटे हैं उनका बडों ने रक्षण करना चाहिये । उनका रक्षण नहीं किया तो वे हमेशा भय और आशंका से ग्रस्त रहेंगे। इससे उनके मनोभावों का असन्तुलन होगा। प्रकृति भी यदि भयभीत और आशंकित रहती है तो सिकुड जाती है। उससे प्राप्त होने वाले पदार्थों की गुणवत्ता कम हो जाती है, उनकी पोषकता, सुख देने की क्षमता, उनका रस कम हो जाता है । मनुष्य को उपभोग के बाद भी आनन्द और तृप्ति का अनुभव नहीं होता इसका कारण भी यही है।

परन्तु जीवन को भौतिक दृष्टि से ही देखने के कारण पश्चिम को प्रकृति को । आत्मतत्त्व का ही आविष्कार मानने की कल्पना भी नहीं आती। जब तक यह मूल बात में परिवर्तन होता नहीं तब तक दुःख और अभाव दूर नहीं हो सकते यह बात पश्चिम को भारत से ही सीखनी होगी। अपनी पश्चिमाभिमुखता दर कर भारत को भी शिक्षक की भूमिका अपनानी होगी।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे