संकल्पनाओं का स्पष्टीकरण

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ज्ञान

ज्ञान का अर्थ है, जानना । परन्तु इतने मात्र से अर्थबोध नहीं होता । वास्तव में ज्ञान को अध्यात्म के प्रकाश में ही समझना होता है । ज्ञान ब्रह्म का स्वरूप है । “सत्य ज्ञानमनन्तम ब्रह्म ।" ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है । इसका अर्थ है ज्ञान अर्थात्‌ ब्रह्म का ज्ञान ।

ब्रह्म क्या है ? ब्रह्म तत्त्व है जो इस सृष्टि का निमित्त कारण और उपादान कारण है । निमित्त कारण वह है जो सृष्टि की उत्पत्ति में कर्ता या स्रष्टा की भूमिका निभाता है । ब्रह्म सृष्टि का सृजन करता है। उपादान कारण वह है जिससे सृष्टि का सूजन होता है । ब्रह्म से ही सृष्टि का सृजन होता है । अर्थात्‌ सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है । ब्रह्म को ही आत्मा या आत्मतत्त्व कहा जाता है । एक अर्थ में इसे पख्रह्म या परमात्मा भी कहा जाता है । सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है । अतःपरमात्मा का और सृष्टि का स्वरूप जानना ही ज्ञान है।

ब्रह्म के स्वरूप को जानने का अर्थ है, अपने स्वरूप को जानना क्योंकि हम भी ब्रह्म ही हैं । ब्रह्म ने स्वयं में से जिस सृष्टि का सृजन किया उसी सृष्टि के हम भी अंग हैं इसलिए हमारा भी सही स्वरूप ब्रह्म है । इस तथ्य का ज्ञान TAWA है और यही ज्ञान का परम अर्थ है ।

जिस प्रकार परमात्मा का व्यक्त रूप सृष्टि है उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान का व्यक्त रूप सृष्टि का ज्ञान है ।

इस प्रकार ज्ञान के दो आयाम हुए । एक है ब्रह्मज्ञान और दूसरा है सृष्टिज्ञान । वही लौकिक ज्ञान है ।

प्रचलित अर्थ में शिक्षा का क्षेत्र लौकिक ज्ञान का क्षेत्र हि ।

परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तब विविध रूप धारण करता है । उसी प्रकार ज्ञान भी विभिन्न

स्तरों पर विभिन्न रूप धारण करता है ।

कर्मन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कुशलता है । इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप कुशलता है ।

ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह संवेदन है। इसलिए ज्ञान का एक स्वरूप संबेदन है। संबेदन को अनुभव भी कहते हैं ।

मन विचार करता है । चिंतन, मनन, कल्पना विचार का क्षेत्र है । इसलिए मन के स्तर पर ज्ञान विचार है ।

बुद्धि विवेक करती है। विवेक का अर्थ है यथार्थज्ञान । यथार्थज्ञान का अर्थ है जो जैसा है उसी स्वरूप का ज्ञान । व्यवहार के क्षेत्र में सही गलत या उचित अनुचित का ज्ञान विवेक कहलाता है । पदार्थ के क्षेत्र में उनके गुणधर्म का ज्ञान विवेक कहलाता है । इसे विज्ञान भी कहते हैं । यह पदार्थ विज्ञान है अथवा भौतिक विज्ञान है । विज्ञान का यह क्षेत्र बहुत बड़ा है ।

विज्ञान प्रमुख रूप से fag के सारे पदार्थों की प्रक्रियाओं का ज्ञान है । नमक पानी में घुलता है परन्तु रेत नहीं घुलती, इस घुलने न घुलने की प्रक्रिया का ज्ञान विज्ञान है। पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है इस गुणधर्म का ज्ञान विज्ञान है । पंचमहाभूतात्मक पदार्थों के व्यवहार करने की प्रक्रियाओं का ज्ञान भौतिक विज्ञान है । उसी प्रकार मन के व्यवहार के बारे में जानना मनोविज्ञान है । आत्मा के व्यवहार को जानना आत्मविज्ञान है ।

विज्ञान बुद्धि का क्षेत्र है । अहंकार के स्तर पर ज्ञान का स्वरूप कर्ताभाव है । अत: अहंभाव भी ज्ञान का ही स्वरूप है ।

चित्त पर होने वाले संस्कार भी ज्ञान का एक स्वरूप

है।


ये सारे ज्ञान के विभिन्न लौकिक स्वरूप होने पर भी ज्ञान मूलरूप से ब्रह्मज्ञान है। वह इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से होने वाले ज्ञान से परे है । वह अनुभूति का क्षेत्र है ।

अनुभूति के स्तर पर ज्ञान शुद्ध ज्ञान है । शेष सारे ज्ञान के विभिन्न भौतिक स्वरूप है ।

भौतिक जगत में बुद्धि के स्तर पर होने वाला ज्ञान श्रेष्ठ स्वरूप का ज्ञान है ।

विभिन्न स्तरों पर विभिन्न स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने


हेतु उन-उन करणों का अभ्यास करना होता है और अभ्यास से अपने आपको सक्षम बनाना होता है । ज्ञान का सही स्वरूप जानने के बाद ज्ञानार्जन कैसे होता है, इसका पता चलता है ।

लौकिक ज्ञान प्राप्त करने की सारी यात्रा की दिशा ब्रह्जज्ञान प्राप्त करने की ओर उन्मुख होने से ही सही होती है । ब्रह्मजज्ञान तक पहुँचना ही सारे लौकिक ज्ञान का परम

उद्देश्य है।

धर्म

इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं । सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है । पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं । वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं । फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं । परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है । हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है । इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है । सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है । इस व्यवस्था का नाम धर्म है । इसे नियम भी कहते हैं । ये विश्वनियम @ | धर्म का यह मूल स्वरूप है । इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। इसलिए धर्म कि परिभाषा हुई,

  • धारणार्द्धर्ममित्याहु: । धारण करता है इसलिए उसे धर्म

कहते हैं ।

इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं ।

पढ़ार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं । अग्नि उष्ण होती है । उष्णता अग्नि का गुणधर्म है । शीतलता पानी का गुणधर्म है ।

प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं । सिंह घास नहीं खाता । यह सिंह का धर्म है । गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है ।

यह धर्म विश्वनियम का ही एक आयाम है ।

इस प्रकृतिधर्म का अनुसरण कर मनुष्य ने भी अपने जीवन के लिए व्यवस्था बनाई है । इस व्यवस्था को भी धर्म कहते हैं । अर्थात्‌ समाज को धारण करने हेतु जो भी अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि होती हैं वे व्यवस्थाधर्म है । इस धर्म का पालन करना नीति है । यह नीति भी धर्म कहलाती है ।

व्यक्ति की समाजजीवन में विभिन्न भूमिकायें होती हैं। एक व्यक्ति जब अध्यापन करता है तो वह शिक्षक होता है । घर में होता है तो वह पिता होता है, पुत्र होता है, भाई होता है । बाजार में होता है तब वह ग्राहक होता है या व्यापारी होता है। इन सभी भूमिकाओं में उसके विभिन्न स्वरूप के कर्तव्य होते हैं । इन कर्तव्यों को भी धर्म कहते हैं । उदाहरण के लिए पुत्रधर्म, पितृधर्म, शिक्षकधर्म इत्यादि ।

मनुष्य का पंचमहाभूतात्मक जगत के प्रति, प्राणियों के प्रति, वनस्पतिजगत के प्रति जो कर्तव्य है वह भी धर्म कहा जाता है।

मनुष्य के इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, राष्ट्रदेवता होते हैं । इन धर्मों के अनेक प्रकार के आचार होते हैं । इन आचारों के आधार पर अनेक प्रकार के सम्प्रदाय होते हैं । इन संप्रदायों को भी धर्म कहते हैं ।

सृष्टि की धारणा हेतु मनुष्य को अपने में अनेक गुण विकसित करने होते हैं । ये सदुण कहे जाते हैं । ये सदुण भी धर्म के आयाम हैं । इसीलिए कहा गया है .

धृतिक्षमा दमोस्तेयम्‌ शौचमिन्दट्रिय निग्रह: ।

धीर्विद्या सत्यमक्रो धो दशकं धर्म लक्षणम्‌ ।।

इन सभी आयामों में धर्म धारण करने का ही कार्य करता है । इन सभी धर्मों के पालन से व्यक्ति को और समष्टि को अभ्युद्य और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है । अभ्युद्य

का अर्थ है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है आत्यन्तिक कल्याण |

वैश्विकता

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समझ लेना चाहिये । भारत ने भी प्राचीन समय से निरन्तर विश्वयात्रा की । भारत के लोग अपने साथ ज्ञान, कारीगरी, कौशल लेकर गये हैं । विश्व के देशों को उन्होंने कलाकारी की विद्यार्ये सिखाई हैं । विश्व के हर देश में आज भी भारत की संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पश्चिम जहां भी गया अपने साथ उसने गुलामी, अत्याचार, पंथपरिवर्तन, लूट का कहर ढाया । भारत जहां भी गया अपने साथ ज्ञान, संस्कार और विद्या लेकर गया । भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं ...

कृण्वन्तो विश्वमार्यमू । अर्थात विश्व को आर्य बनायें । आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें

उदास्वरितानाम तु वसुधैव peavey | frat हृदय उदार होता है उनके लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है । वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है ।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया: । अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों । सब में केवल भारतीय नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।

तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक

ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है । आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है । पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है । परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है । भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है, अर्थातुराणाम न गुरुर्न बंधु:' अर्थात जो अर्थ के पीछे पड़ता है उसे न कोई गुरु होता है न स्वजन । ऐसे अनात्मीय सम्बन्ध से स्पर्धा, हिंसा, संघर्ष, विनाश ही फैलते हैं । पश्चिमी देशों की अर्थनिष्ठा उन्हें भी विनाश की ओर ही ले जा रही है । हम यदि उसका ही अनुसरण करेंगे तो हमारी दिशा भी विनाश की होगी । पश्चिमी वैश्विकताने भारत की शिक्षा को भी ग्रसित कर रखा है । पश्चिम ने शिक्षा का एक उद्योग बनाकर उसका बाजार निर्माण कर दिया है । यूनिवर्सिटी भी एक उद्योग है । हम शिक्षा के बाजार में शामिल हो गये हैं । वैश्विकता के भुलावे में आ गये हैं । शिक्षा ही हमें अस्वाभाविक संकल्पना के चंगुल से उबार सकती है । इसका विचार कर वैश्विकता और शिक्षा दोनों के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । विश्व को भी बचना है तो भारत की सांस्कृतिक वैश्विकता की ही आवश्यकता रहेगी |

राष्ट्र

राष्ट्र सांस्कृतिक है । हम पश्चिम की विचारप्रणाली के प्रभाव में आकर राष्ट्र को देश कहते हैं और उसे राजकीय और भौगोलिक इकाई के रूप में ही देखते हैं । राष्ट्र मूलतः जीवनदर्शन को ही कहते हैं । जीवनदूर्शन एक प्रजा का होता है । जगत में भिन्न भिन्न प्रजाओं का जीवनदर्शन भिन्न भिन्न होता है । जीवन और जगत को समझने के प्रजा के वैशिष्ठटय को उस प्रजा का जीवनदर्शन कहते हैं । कभी कभी लोग कहते हैं कि सृष्टि तो एक ही है, जैसी है वैसी, उसे समझने की पद्धति भिन्न भिन्न कैसे हो सकती है ? उसी प्रकार जीवन भी जैसा है वैसा है, प्रजाओं को वह भिन्न भिन्न कैसे दिखाई देता है ? तर्क की दृष्टि से प्रश्न भले ही ठीक हो परन्तु वास्तविकता की दृष्टि से प्रजाओं का दर्शन भिन्न भिन्न होता है यह सत्य

है । उदाहरण के लिये भारत की प्रजा जन्मजन्मान्तर को मानती है और अनेक जन्मों में जीवन एक ही होता है इस तथ्य में विश्वास करती है । जब कि यूरोप की इसाई प्रजा जन्मजन्मान्तर में विश्वास नहीं करती । भारतीय प्रजा सचराचर सृष्टि में मूल एकत्व है, ऐसा मानती है जबकि यूरोपीय प्रजा भिन्नत्व में विश्वास करती है । अर्थात्‌ प्रजाओं की जीवन और जगत को समझने की दृष्टि भिन्न भिन्न होती है । इस भिन्नत्व के कारण ही राष्ट्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं । भौगोलिक दृष्टि से जो एकदूसरे से भिन्न होते हैं वे महादट्रीप और देश कहे जाते हैं । समुद्रों के कारण जो भूभाग एकदूसरे से अलग होते हैं वे महाद्वीप और पर्वतों से जो अगल होते हैं वे देश कहे जाते हैं । उदाहरण के लिये आस्ट्रेलिया महाद्वीप है जबकि भारत देश है । यह उसकी

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वैज्ञानिकता

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है। भारत में वैज्ञानिकता का अर्थ है

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अध्यात्म

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नहीं हैं। भौतिक का अधिष्ठान आध्यात्मिक होता है। इयलिए विचार या तो. आध्यात्मिक होता है या अनाध्यात्मिक, आध्यात्मिक या भौतिक नहीं होता । कारण स्पष्ट है। आध्यात्मिक का व्यक्त रूप ही भौतिक है । इसलिए जिस प्रकार आध्यात्मिक अर्थशास्त्र संभव है उसी प्रकार आध्यात्मिक भौतिक विज्ञान भी सम्भव है ।

भारत में और पश्चिम में अन्तर यह है कि पश्चिम अनाध्यात्मिक भौतिक है और भारत आध्यात्मिक भौतिक



संस्कृति को छोड़कर ही समृद्धि सम्भव है । समृद्धि और संस्कृति को एकसाथ प्राप्त करने के लिये आध्यात्मिकता की बराबरी कर सके ऐसी कोई संकल्पना नहीं है ।

भारत के बौद्धिक जगत के लिये यह आध्यात्मिक और भौतिक का समन्वय स्थापित करना ही बड़ी चुनौती है। कई पीढ़ियों से बौद्धिक क्षेत्र, और उसके मूल में शिक्षाक्षेत्र उल्टी दिशा में चला है इसलिए वह कठिन तो है

है । आध्यात्मिक भौतिक होने के कारण भारत में समृद्धि के... परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है । साथ साथ संस्कृति भी विकसित होती है जबकि पश्चिम में ७. संस्कृति

संस्कृति का अर्थ है जीवनशैली । संस्कृति संज्ञा का संबन्ध धर्म के साथ है । धर्म विश्वनियम है । धर्म एक सार्वभौम व्यवस्था है । संस्कृति उसके अनुसरण में की हुई कृति है। संस्कृति धर्म की प्रणाली है । पीढ़ी दर पीढ़ी आचरण करते करते सम्पूर्ण प्रजा की जो रीति बन जाती है वही संस्कृति है । भारत की प्रजा की जो जीवनरीति है वह भारतीय संस्कृति है ।

आज संस्कृति का धर्म का पक्ष ध्यान में नहीं रहा है और केवल रीतियों को संस्कृति कहा जाने लगा है। उदाहरण के लिये रंगमंच कार्यक्रम में जो नाटक, नृत्य, गीतसंगीत होते हैं उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है । विदेशों में देश का सांस्कृतिक दल जाता है तब उसमें गायक और नर्तक होते हैं । वेषभूषा, खानपान के पदार्थ, अलंकार आदि के प्रदर्शन सांस्कृतिक प्रदर्शन कहे जाते हैं । ये सब संस्कृति के अंग तो हैं परन्तु ये ही केवल संस्कृति नहीं हैं ।

अन्न को, गाय को, तुलसी को, पानी को पवित्र मानकर जो व्यवहार की रीति बनाती है वह संस्कृति है । हम भोजन करने बैठे हैं तब जो भी कोई आता है उसे भोजन के लिये साथ बिठाना हमारी संस्कृति है, जबकि पूर्वसूचना देकर नहीं आए तो भोजन के लिये पुछने की आवश्यकता नहीं, आने वाला भी ऐसी अपेक्षा नहीं करेगा यह पश्चिम की संस्कृति है ।

केवल कलाकृतियाँ संस्कृति नहीं है अपितु प्रजा की जीवनदृष्टि जिस पद्धति से जिस रूप में कलाकृतियों में अभिव्यक्त होती है वह संस्कृति है । उदाहरण के लिये संस्कृत के महाकाव्य और महानाटक कभी दुःखान्त नहीं होते क्योंकि जीवन का विधायक दृष्टिकोण काव्य में व्यक्त होना चाहिये ऐसी प्रजा की मान्यता है । यतों धर्मस्ततो जय: का सूत्र सभी कलाकृतियों में व्यक्त होना चाहिये ऐसी दृष्टि है। “कला के लिये कला' का सूत्र भारतीय साहित्य में मान्य नहीं है । साहित्य का प्रयोजन भी जीवनलक्षी होना चाहिये ।

इतिहास क्यों पढ़ना चाहिये ?आज की तरह केवल राजकीय इतिहास पढ़ना भारत में कभी आवश्यक नहीं माना गया । सांस्कृतिक इतिहास पढ़ना ही आवश्यक माना गया क्योंकि इतिहास से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु कैसा व्यवहार करना चाहिये और कैसा नहीं इसकी प्रेरणा और उपदेश मिलता है । सांस्कृतिक भूगोल उसे कहते हैं जहां भूमि के साथ भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ता है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र उसे कहते हैं जहां धर्म की रक्षा के लिये उसका अनुसरण होता है । सांस्कृतिक अर्थशास्त्र उसे कहते हैं जहां धर्म के अविरोधी अथर्जिन होता है । तात्पर्य यह है कि संस्कृति केवल कला नहीं अपितु जीवनशैली है ।

मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव, आचार्य देवो भव, यह भारतीय संस्कृति का आचार है ।

युद्ध करते समय भी धर्म को नहीं संस्कृति में आनन्द का भाव भी जुड़ा हुआ है । छोड़ना यह भारतीय संस्कृति की रीत है । भूतमात्र का हित... जीवन में जब आनन्द का अनुभव होता है तो वह नृत्य, चाहना यह भारतीय संस्कृति की रीत है । भोजन को ब्रह्म... गीत, काव्य आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। मानना और उसे जठराय़ि को आहुती देने के रूप में ग्रहण. सौन्दर्य की. अनुभूति वस्त्रालंकार, शिल्पस्थापत्य में करना भारतीय संस्कृति की रीत है । अभिव्यक्त होती है । इसलिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में रस

धर्म और संस्कृति साथ साथ प्रयुक्त होने वाली संज्ञायें. है, आनन्द है, सौन्दर्य है । जीवन में सत्य और धर्म की हैं। इसका अर्थ यही है कि संस्कृति धर्म का अनुसरण अभिव्यक्ति को भी सुन्दर बना देना भारतीय संस्कृति की करती है । विशेषता है ।

संस्कृति और सभ्यता का सम्बन्ध

नेपोलियन १५३ से.मी. का नाटा नर था । अपनी. है। किन्तु मन्दिर की मूर्ति का वर्णन थोड़ा ही मिलता है । पहुँच से ऊँचे स्थान पर स्थित किसी चीज को उन्होंने. उस छोटी सी मूर्ति के बिना मन्दिर की कल्पना सम्भव देखा; उन्होंने उस ओर नजर डाल दी । इरादा समझकर... नहीं । किन्तु इसका विस्मरण होता है और वर्णन शिखर का पीछे खड़े तगड़े चौड़े सेनानी सहायक ने तुरन्त उस चीज. रहता है । वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और को लाकर उनको दिया और मजाक में कहा आपसे तो... सभ्यता का स्थान शिखर का है । जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर ऊँचा हूँ। झट से बन्दूक की गोली जैसा उत्तर निकल पड़ा, .. का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता “लम्बा कहो, ऊँचा मत कहो ।' संस्कृति और सभ्यता दोनों. असम्भव है । संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना का विवेचन करते समय इस छोटे से प्रसंग की याद आती... पड़ेगा । वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और है। तात्पर्य यही है कि संस्कृति ऊँची है और सभ्यता. उसको निस्कुश बनायेगी । लम्बी है । सभ्यता का विकास कैसे होता है ? सभ्यता का बीज

आद्य शंकराचार्य के निर्वाणाष्टक में विरोधाभास का... संस्कृति है । साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा एक शब्द है “निराकार रूप: । निराकार का आकार कैसे... जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता । ऊँचा जाने का हो सकता है ? किन्तु निराकारिता ही जिसका आकार है... काम पहाड़ चढ़ने का काम है । स्वयं सँभलकर सावधानी उसको दूसरे शब्द में कैसे कहें ? संस्कृति इस श्रेणी में. से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा । उसके लिए मानव आती है । वह निराकार रूपी है। अतः स्थूल दृष्टि से. ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे देखना परखना सम्भव नहीं हो पाता । किन्तु सभ्यता उसके... सुविधाजनक व्यवस्था करता है । धीरे धीरे वह चट्टानों पर परिचायक छोटी बड़ी वस्तुओं के रूप में दृष्टिगत होती है ।.. सीढ़ियाँ बनाता है । सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी यह भी मानव की प्रकृति है । सामान्य मानव को सूक्ष्मट्ूकू करता है । पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी (रांप) लगाता होना कठिन है और स्थूलदूक्‌ होना सरल है। इसीलिए है । इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता मापदण्ड संस्कृति पर कम लगता है । इसके विपरीत सभ्यता... की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता पर अधिक लगता है । है । उससे सभ्यता जन्म लेती है ।

रामेश्वरं, चिदंबरं, श्रीरंगं, मद जैसे प्राचीन मन्दिरों की संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के बात सोचें । सर्वत्र वहाँ के गगनचुंबी गोपुर, स्वर्ण मंडित. लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के शिखर, सहस्र स्तम्भ मण्डप आदि का चकार्चौंध वर्णन होता... लिए किसी धातु की तार । उसी प्रकार जीवन में संस्कृति

को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की जरूरत पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक । आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं । उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं । उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, veges, नेतागण, चरित्रवान्‌ सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि ।

उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं । शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है । वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है । उसके लिए मानव के आय दिनों में घोड़े जैसे जानवरों Al ds से जमीन are दी होगी । अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी । शनैः शनै:ः उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ । जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना शुरू किया । शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ । बिजली आयी, विज्ञान आगे बढ़ा, और झाड़ू के बदले आया “डस्टर' । घोड़े की पूँढ से “डस्टर'ं तक की यात्रा सभ्यता की है । इस सभ्यता का प्राणरूपी सांस्कृतिक मूल्य शुचिता है जो कभी नहीं बदला, स्थिर रहा ।

शुचिता को ही आगे बढ़ाएँ । व्यक्तिगत जीवन में शुचिता की माँग है स्नान । पशु पक्षी भी स्नान करते हैं । किन्तु मानव ने स्नान को विशेष स्थान दिया और नियमित स्नान उसके जीवन की चर्या बन गयी । प्रारम्भ के दिनों में उसने भी जानवर जैसा, जहाँ जहाँ पहुँचा वहाँ स्नान किया होगा । जब जब सूझा उस समय किया होगा । स्नान के समय की नियमितता नहीं रही होगी । जीवन सुल्यवस्थित

करने AL Sea A OMA: BA: उसने उसकी व्यवस्था की । वह नदी के किनारे जाने लगा | धीरे धीरे व्यवस्था में सुधार लाते उसने घाट बनाये, घाट पर सीढ़ियाँ बनायीं । इसकी नितांत आवश्यकता को मानकर लोकोपकार के नाते लोकप्रिय उदारमतियों ने अपने महल के बहुत दूर क्‍यों न हो लम्बे लम्बे घाट बनवाये । वास्तुकला का विकास होते होते उसने स्नान करने की अलग व्यवस्था घर के पास बनवायी । तालाब अस्तित्व में आया । कुँआ अस्तित्व में आया । विज्ञान आगे बढ़ते बंद कमरे में स्नान करने के लिए मकान के अन्दर नल का पानी आने लगा । अब गंगाजी से सौ मील दूर के नगर में आदमी अपने शयन कमरे से सटे हुए स्नानघर में गंगाजल से स्नान करता है !

यहाँ अपरिवर्तित मूल्य है शुचिता । उसके लिए जो व्यवस्थाएँ समय समय पर बनायी गयीं, वे बदलती गयीं । इस बदलाव का हेतु अनुसंधान व आविष्कार और मूलतः मानव की कल्पकता है । उसके कारण नया नया निर्माण होता गया, नयी नयी व्यवस्था आती रहीं। वह समाजव्यापी होती गयीं । आम जनता उसमें अधिक सुविधा महसूस करने लगी । उस मानवी प्रयास की परिणति दृष्टिगत हुई । इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं ।

शुचिता के समान और दो गुण हैं दया और दान । भिखारी को भीख देना, भूखे को खाना देना, मरीज की सेवा करना आदि मानवीयता से सम्पन्न सुसंस्कृत मानव के कर्तव्य हैं । भारत का हर गृहस्थ उन कर्तव्यों को वैयक्तिक तौर पर निभाता गया । धीरे धीरे वह समविचारी साथियों के सहयोग से अधिक लोगों को उनकी सेवा का लाभ मिले इस दृष्टि से योग्य व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ बनाता गया । उससे सार्वजनिक कुँआ, प्याऊ, लंगरखाना, चिकित्सालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि का निर्माण हुआ । भारत के इस पुरातन देश में प्राचीन काल से ही यह चलता आया । आचार्य चाणक्य के ग्रंथ में इसका स्पष्ट उद्लेख है । उसी प्रकार यहाँ आये विदेशी यात्रियों के अनुभव कथनों में भी इसका विवरण पर्याप्त मात्रा में है । उससे उनका निष्कर्ष था कि भारत की सभ्यता उच्च कोटि की थी ।

इसी प्रकार का है विद्यादान का. वैयक्तिक रहते हैं तब उस व्यक्ति का दृष्टिकोण परोपकार से गुण । उसके लिए आदिम स्थान था आचार्य का घर ।.... पुण्य कमाने का रहता है । दान देकर स्वर्ग में पहुँचने का क्रमशः गुरुकुल विकसित हुआ । बड़े बड़े विद्यालय निर्मित. रहता है। किन्तु उसके लिए किया जाता प्रबन्ध जब हुए । आगे चलकर समाज से प्राप्त धन से Ma = वृहदाकार का होता है, सामूहिक सहकारिता का होता है आचार्यों द्वारा अध्यापित नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला, ... तब भागीदारों का दृष्टिकोण वैयक्तिक पुण्य से ऊपर उठकर काश्वीपुरम्‌ू जैसे विश्वविद्यालयों का उदय हुआ । उनका... व्यक्ति निरपेक्ष समष्टि पुण्य का हो जाता है । तब उद्धार उल्लेख करते हुए विश्व के सभी इतिहासकारों का अभिप्राय है... समष्टि का होता है । कि तत्कालीन भारतीय सभ्यता अप्रतिम थी । वास्तव में यही है संस्कृति और सभ्यता का दूष्टान्त के नाते हमने ऊपर केवल चार गुणों का... सम्बन्ध । संस्कृति के कारण वृद्धिंगत ज्ञान के भरोसे विचार किया । इसी प्रकार का सभी सांस्कृतिक गुणों का... सभ्यता लोकोपकारी दिशा में विकसित हो जाती है और सभ्यता की ओर विकास होता रहा है । विकसित सभ्यता के कारण चिरन्तन मूल्यों से संस्कृति सभ्यता का यह विकास संस्कृति को भी विकसित... सर्वसमावेशी हो जाती है । करता है । जब दान, दया, शुचिता, विद्यादान गुण मात्र

आधुनिकता

“आधुनिक मात्र एक कालवाचक पद नहीं है, यह... सोलहवीं सदी के पुनर्जागरण ने यूनानी एवं रोमन सभ्यता गुणवाचक पद भी है। “आधुनिक' एक काल खंड है और की दुहाई देते हुए जिस “मानववाद' (Humanism) “आधुनिकता' जीवन और जगत के प्रति एक विचार दृष्टि। .. पुनर्प्रतिष्ठिति किया वह एक स्वयंभू AAMT (Masterless सोलहवीं सदी के इटली के लोरेंस आदि नगर राज्यों के... 27), एक. स्वत्वसंपन्न.. मनुष्य. (?0556९55४९

  • पुनर्जागरण' (Renaissance) & BAYA AT URE — Individual) at wiser etl ga मानववाद की अन्य

माना जाता है। यह ईसाई धर्म एवं परम्परा के विस्द्ध .. अभिव्यक्तियाँ नामवाद (Nominalism), व्यक्तिवाद feta oft fret wert ae at ast am aaa = (Individualism), इहलोकवाद = (Secularism) एवं

देशों पर अपना धार्मिक, वैचारिक एवं राजनीतिक वर्चस्व... वैज्ञानिक gfgare (Scientieic Rationalism) & fret बनाए रखा। वैसे आधुनिक विचार दृष्टि का बीजारोपण. आधुनिक विचार दृष्टि को बौद्धिक पोषण दिया है। चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दियों में ही हो गया था।.. प्रोटेस्टेट सुधार आन्दोलन के जनक मार्टिन लूथर ने विलियम ऑफ atten, altel ऑफ usa, प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयत के जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे वाइक्लिफ आदि दार्शनिकों ने चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार का... ईसाई धर्म परम्परा की साकल्यवादी (०58८) दृष्टि को सुधार करने का जो मार्ग बताया उसने व्यक्तिवादी, aan कर धर्म के क्षेत्र में भी “व्यक्तिवाद' की स्थापना बुद्धिबादी और इहलोकवादी मान्यताओं को पुष्ट किया। यही... करते हैं। यूँ तो मार्टिन लूथर तथा अन्यान्य धर्म सुधारकों मान्यताएं आधुनिकता का आधार स्तम्भ बनीं। इन... का उद्देश्य चर्च में व्याप्त नैतिक अधःपतन को दूर कर दार्शनिकों ने लौकिक एवं पारलौकिक के मध्य भेद करते. ईसाईयत को परिशुद्ध करना था, परन्तु वास्तव में इस धर्म हुए लौकिक मामलों में चर्च के हस्तक्षेप तथा धार्मिक एवं... सुधार आन्दोलन ने ईसाई धर्म परम्परा पर ही कुठाराघात नैतिक सिद्धांतों के अनुशासन को अनुचित बताया और इस. किया और धर्म तत्त्व का ही तिरस्कार किया। धर्मसुधार प्रकार धर्मसत्ता की सर्वोच्चता एवं व्यापकता को चुनौती दी। आन्दोलन ने पहले संशय और कालान्तर में अनास्था को

बल प्रदान किया। अत: जिस मानववाद का प्रतिपादन पुनर्जागरण काल के दार्शनिकों ने किया था, उसी प्रकार की विचार दृष्टि को मार्टिन लूथर आदि सुधारकों ने अंगीकार किया। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान आधुनिकता के दो स्रोत - पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार मानते हैं। पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार दोनों ने ही धर्माधिष्ठित सभ्यता को छिनन भिन्न करने का कार्य किया और अन्तत: भैतिक इहलोकवादी जीवन दृष्टि को आधिकारिक बनाने में सफल रहे। अठारहवीं सदी के wre & ‘fagaalerant’ (Encyclopaedist) & a4 से प्रसिद्ध दार्शनिकों जैसे दिदरो, वाल्तेयर, हॉलबाक आदि ने इस चिन्तन धारा को और तीव्र किया और कहा कि यदि मानव अपनी बुद्धि को धर्म व परम्परा के अधोगामी प्रभाव से मुक्त कर ले तो वह प्रगति का अन्तहीन मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उन्‍नीसवीं सदी में आगस्त काम्त नामक फ्रेंच दार्शनिक ने इन्ट्रियजन्य अनुभव व तर्क बुद्धि की सर्वोपरिता पर आधारित प्रत्यक्षवादी (०50५5) दर्शन का प्रतिपादन किया। उसका दावा था कि प्रत्यक्षवादी दर्शन में सम्पूर्ण मानव जीवन की पुर्नरचना के सूत्र प्रदान किए गए हैं जो एक कालजयी आधुनिक सभ्यता का निर्माण करेंगे। आधुनिकता मनुष्य को स्वयंभू (5616€-हा०५ा0९) मानती है। इसके अनुसार मनुष्य इन्ट्रियजन्य अनुभव एवं बुद्धिबल के संयोग से सृष्टि के सभी रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम है और मानव इतिहास इसी दिशा में गतिमान है। आधुनिक विचारदृष्टि मनुष्य की सर्वज्ञता की प्रतिपादक रही है। आधुनिक ज्ञान विज्ञान यह मानता है कि मनुष्य अनुभव, प्रयोग और तर्क शक्ति के बल पर प्रकृति व समाज के सभी पक्षों को प्रकाशित कर सकता है और इस प्रकार अभूतपूर्व भौतिक एवं आर्थिक उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है। आधुनिक ज्ञान मीमांसा में ऋतम्भरा प्रज्ञा व आत्मानुभूति के लिए कोई स्थान नहीं है। आधुनिक काल की तीन प्रमुख फ्रांतियाँ -१७७६ की. अमेरिकी क्रान्ति, १७८९ की फ्रांसीसी क्रान्ति और १९१७ की बोल्शेविक क्रान्ति के द्वारा प्रत्यक्षवादी सिद्धांतों के आधार पर राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थाओं का कायाकल्प करने का प्रयास किया गया। इन फ्रान्तियों ने

एक ऐसे “सेक्युलर यूटोपिया' की खोज का प्रयास किया जिसमें मनुष्य को पृथ्वी पर ही स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हो सके और परलोकवाद अप्रासंगिक हो जाए। प्रसिद्ध चिन्तक एरिक वोगलिन ने “नया यथार्थ' (Second Reality) Tet की इस महत्वाकांक्षा को आधुनिकता का मिशन बताते हुए टिप्पणी की है कि परम्परागत समाज की मान्यताएं सत्य का प्रतिबिम्ब होती हैं जबकि आधुनिक विचार दृष्टि सत्य को मान्यताओं की उपज मानती है। प्रत्यक्षबादी दृष्टिकोण ने किसी लोकोत्तर सत्ता व विधान को अस्वीकार किया. और aan: आधुनिक विचारकों (विशेशत: नीत्शे) ने “ईश्वर की मृत्यु' (Death of God) की घोषणा कर दी। बीसवीं सदी के परम्परावादी फ्रेंच विचारक रेने गेनों ने उचित ही कहा है कि आधुनिक मानववाद में किसी आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक सत्य व सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। आधुनिक मनुष्य अपने को विराटू पुरुष के अंग के रूप में नहीं देखता। वह सत्य का शिल्पी बनना चाहता है, अन्वेशक बने रहना उसे संतुष्ट नहीं करता।

आधुनिक विचार दृष्टि व्यक्ति, समाज एवं ब्रहमाण्ड को यंत्र के रूप में देखती है। उसके लिए व्यक्ति कुछ रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं व इच्छाओं, भावनाओं एवं तर्कबुद्धि का योग (888९88६९€) है; समाज व्यक्तियों व उनके द्वारा गढ़ी गई संस्थाओं का योग एवं ब्रह्माण्ड परमाणुओं व उनमें निहित ऊर्जा को योग है। इस विचारदृष्टि में किसी साकल्यवादी एवं सावयविक परिप्रेकष्य का अभाव है। इसमें एक के अनेक होने की मान्यता के लिए कोई गुंजाइश नहीं। यह स्वायत्त, असम्बद्ध अनेक को एक कृत्रिम एकता व संदेहास्पद्‌ स्थिरता प्रदान करने का प्रयास करती है। यूनानी, रोमन व ईसाई सभ्यताओं ने जिस ईश्वर केन्द्रित (06०८९) ब्रहमाण्ड की मान्यता को प्रतिपादित किया, आधुनिकता उसे अस्वीकार कर मानव केंद्रित (Homocentric) Seams Al aT al sfeafer करती है। ज्ञान एवं पुरुषार्थ के उच्चतर सोपानों के प्रति उपेक्षा या अस्वीकृति का भाव उसकी विशेषता है। समग्र जीवन दृष्टि के अभाव में मावन जीवन के सभी क्षेत्र

समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, कला एवं साहित्य आदि स्वतंत्र हो गए और अपने नियामक सिद्धांतों को स्वयं गढ़ने लगे। इसी कारण आधुनिक चिन्तन में गंभीर बिखराव दृष्टिगोचर होता है। आधुनिक विचारदृष्टि ने जीवन को असाधारण रूप से जटिल बना दिया है और इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कृत्रिम, आपातिक एवं तात्कालिक समाधानों से हल करने का उपक्रम होता है।

व्यक्ति को स्वपर्याप्त, पृथक एवं असम्बद्ध प्राणी मानने के फलस्वरूप सामाजिक संस्थाओं व सम्बन्धों को पवित्रता की दृष्टि से नहीं, वरन्‌ उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाता है। आधुनिक समाजशास्त्र, राजशास्त्र व नीतिशास्त्र में अनुबन्धवादी व्यवहारिकतावादी, उपयोगितावादी एवं परिणामवादी सिद्धांतों की जो बाढ़ आई उसका कारण व्यष्टि और समष्टि के अन्तर्सम्बन्ध को समझने की सम्यक्‌ दृष्टि का अभाव है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित समाज व्यवस्था अधिकार, स्वतंत्रता व समानता; अर्थ व्यवस्था भोग व लाभ; साहित्य, कला प्राकृत जन के स्तुतिगान और ज्ञानविज्ञान भौतिक उपलब्धियों पर केंद्रित हों यह स्वाभाविक ही है। स्पष्ट: मानवीय पुरुषार्थ को भौतिक एवं आर्थिक हितों व लक्ष्यों तक सीमित रखने का यह उपक्रम ईसा के इस उपदेश के नितान्त विरुद्ध है जिसमें उन्होनें यह घोषित किया कि मानव जीवन केवल रोटी के लिए नहीं है।

आधुनिक राजदार्शनिकों ने व्यक्ति-राज्य सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए अनेकानेक विचारधाराओं (1060108/९5) al wel el Seka, aaa, आदर्शवाद, अराजकतावाद और फिर प्रत्येक के अनेक संस्करणों के द्वारा राजनीति के मूल स्वरूप की व्याख्या की गई है। परन्तु राजशास्त्र के इन विद्वानों के बीच मूल प्रश्नों को लेकर इतना मत मतान्तर है, इतना विवाद है कि प्रश्न और उलझते जाते हैं और विचार की स्वतंत्रता एवं सापेक्षता को ढाल बनाकर इस संश्रम से आँख चुरा ली जाती है। चिन्तन के लोकतंत्रीकरण से उपजी “सापेक्षतावाद की तानाशाही' (Dictatorship of Relativism) 4 हर प्रश्न एवं हर उत्तर

को संदिग्ध बना दिया है। किसी भी विचार दृष्टि को विश्वदृष्टि माना जा सकता है। अब व्यक्ति-राज्य सम्बन्ध को ही लीजिए। कुछ राजशास्त्रियों ने उन्हें मूलतः विरोधात्मक मान कर राज्य को आवश्यक या अनावश्यक बुराई घोषित किया है तो कुछ ने राज्य को इतना महत्वाकांक्षी एवं महिमामय माना कि व्यक्ति का राज्य में विलोपन ही कर दिया। कहीं राज्य के विलोपन का पक्षपोषण और कहीं व्यक्ति के विलोपन का। कहीं राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार का पक्षपोषण व कहीं राज्य के संकुचन का। आधुनिक राजनीति ने राष्ट्रीयता को भी एक नया अर्थ प्रदान किया।. भाषा /प्रजातीयता पर. आधारित राष्ट्र-राज्य (एम0ा-5ए8६6) के मिथक को गढ़ा गया और इसी आधार पर पुनर्जागरण काल के उपरान्त यूरोप की राजनीतिक संरचना को एक नया स्वरूप प्राप्त हुआ। इस राष्ट्र-राज्य को AI (Sovereign) घोषित कर विधि का एकमात्र wd सर्वोच्च स्रोत माना गया। राज्य ही नहीं, परिवार, विवाह, अर्थ व्यवस्था, भाषा, संस्कृति आदि की प्रकृति व उद्देश्य की व्याख्या प्रत्यक्षबादी दृष्टिकोण से की गई। आधुनिकता का उदय तो यूरोप में हुआ परन्तु यूरोपीय साप्राज्यवाद के साथ वह विश्व के कोने कोने में पहुँची। आधुनिक विज्ञान के तीव्र विकास के फलस्वरूप औद्योगिक क्रान्ति हुई और उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। नव धनादय यूरोप ने अपनी इस भौतिक एवं आर्थिक प्रगति को आधुनिक विचार की श्रेष्ठता का प्रमाण माना। एशिया, अफ्रीका व लेटिन अमेरिका की परम्परागत संस्कृतियाँ कभी बलात्‌ और कभी स्वेच्छा से इस आधुनिक विचार दृष्टि को अंगीकार करने लगी। जीवन दृष्टि का यह उपनिवेशीकरण सर्वव्यापी . होता... गया... और. आधुनिकीकरण (00207) सामान्य व सुधीजनों , राजनीतिज्ञों व अर्थशास्त्रियों के लिए सर्वोच्च मानदण्ड और मूल्य बन गया। पूर्व के देशों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त इसी आधुनिकीकरण को अपना पाथेय बनाया। आधुनिकता का उदय तो ईसाई धर्म परम्परा के विरुद्ध हुआ पर वस्तुत: वह हर धर्म व परम्परा की विघातक है। आधुनिकता यदि प्रकट रूप से नहीं तो

प्रच्छनन रूप से नास्तिकता की पोषक है। महात्मा गांधी ने इसे ईश्वर से विमुख सभ्यता (Godless civilization) कहा भी है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक सभ्यता के प्रचार के समानान्तर उसकी निंदा व आलोचना के स्वर भी कम मुखर नहीं रहे हैं। यूरोप व अमेरिका के अनेक दार्शनिकों, कवियों व साहित्यकारों जैसे कि, एडमंड बर्क, जोसफ दे Feat, इमर्सन, fea ace, साल्जेनित्सिन, एरिक वोगलिन, लिओ स्ट्रॉस, टी. एस. इलियट, रेने गेनों, फ्रिथ्जॉफ शुआन आदि ने आधुनिकता को सिरे से खारिज किया है। भारत में महात्मा गांधी और डा. आनन्द कुमारस्वामी आधुनिकता के आसुरी स्वरूप के कट आलोचक रहे हैं। आधुनिक सभ्यता के मूल सिद्धांतों पर प्रहार करते हुए महात्मा गान्धी ने “हिन्द स्वराज' में लिखा है, “इस सभ्यता को धर्म व नैतिकता से कोई लेना देना ही नहीं है। उसके भक्त कहते हैं कि उनका काम धर्म की शिक्षा देना नहीं है। कुछ तो धर्म को निरा अन्धविश्वास मानते हैं। आधुनिक सभ्यता शारीरिक सुखों की वृद्धि पर केन्द्रित है, पर इसमें भी बुरी तरह विफल है। यह सभ्यता अआधर्मी है और यूरोप के लोग इसके मोहपाश में पागलपन की हद तक जकड़ चुके हैं। ...... बस थोड़ा धैर्य रखने की आवश्यकता है और यह स्वयं ही विनष्ट हो जाएगी। इस्लाम की मान्यता के अनुसार यह शैतानी सभ्यता है, हिन्दू मान्यता के अनुसार यह कलिकाल है।”'

आधुनिकता की मूल प्रतिस्थापनाओं को संक्षेप में निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है- &. Hast a vila (Creature) 7 WHat GST UT

१०,

शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है । वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण किये बिना वह रह ही नहीं सकता । इस जन्म के जीवन के लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका सीखना शुरू हो जाता है । संस्कारों के रूप में वह सीखता है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता

eal (Creator) मानना। ज्ञान को aqvarda (Transcendental), Ald (Perennial), अन्तर्मुखी (Introspective) एवं प्रतिवर्ती (९९९1९:॥४४) न मानकर मनुष्य कृत (४0ा- medicated, @=aal (Cumulative), बुद्धिपरक (Rational), seaaarét (Positivist), wa Mache (Instrumental) AAT |

नैतिकता को दैवीय विधान पर आश्रित न मानकर उपयोगिता एवं परिस्थितिजन्य मानना।

जीवन की साकल्यवादी एवं आत्मवादी विचार दृष्टि के स्थान पर भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी दृष्टि को मानना।

शिक्षा को सत्योपलब्धि एवं चरित्र गठन का माध्यम न मानकर मात्र व्यावसायिक मानना।

न्याय, स्वतंत्रता, समता की अवधारणाओं पर तत्त्वशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वरन्‌ स्थूल दृष्टि से विचार करना।

गुणात्मकता पर मात्रा और संख्या बल की प्रधानता। प्रकृति को विराट पुरुष का शरीर न मानकर संसाधन मात्र मानना।

राजनीति को शक्ति केंद्रित, अर्थव्यवस्था को भोग केंद्रित और सामाजिक संबंधों al मूलतः अनुबन्धात्मक मानना।

(यह आलेख लखनौ के डॉ. राकेश मिश्रा के द्वारा प्रस्तुत है)

शिक्षा

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है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ करता ही रहता है । उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं । उनसे वह सीखे बिना रह नहीं सकता । आसपास की दुनिया का हर तरह का व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है । विकास करने की, बड़ा बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती है । अंदर की प्रेरणा और

बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक निकालने के लिए है । पिण्ड बनाते ही रहते हैं । वह न केवल अनुभव करता है, शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है । वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है । यह यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है । भारत में इसीके उसके विकास का सहज क्रम है । मनुष्य की यह सहज... अनुसार शिक्षा चलती रही है । हर युग में, हर पीढ़ी में प्रवृत्ति है । शिक्षकों तथा विचारकों को अपनी पद्धति से इसे समझना

परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्तःकरण भी दिया है । जिज्ञासा... ढालना होता है । प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में उसके स्वभाव का लक्षण है । संस्कार ग्रहण करना उसका... परिवर्तन होता रहता है । तत्त्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए सहज कार्य है । विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति... यह परिवर्तन करना होता है । परन्तु वर्तमान समय में भारत है । यह सब मैं कर रहा हूँ, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए. में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह है, ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है । ये सब... परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत उसके सीखने के ही तो साधन हैं । ये सब हैं इसका अर्थ ही... आ गई है । शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है ।... रहा है । शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ

मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने... ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया । उसकी सहज प्रवृत्ति .. नहीं हुआ है । आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को... की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है । यह घुलना ऐसा है कि प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन. शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया । शिक्षा के मूर्त स्वरूप. लगता भी नहीं है । देश उसीके अनुसार चलता है । इसे के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्त्व... युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया । माता व्यक्ति की... जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं । इसलिए शिक्षा प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे... के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है । शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे । शिक्षा को... विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक... धीरे धीरे बलवती हो रही है । इसमें से ही मूल्यशिक्षा का नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए । उसने शिक्षा के... मुद्दा प्रभावी बन रहा है । अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए । ये आयाम इस प्रकार... और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है । यद्यपि यह कार्य

बने ... कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी शिक्षा मनुष्य की विशेषता है । आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है । शासन से लेकर शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है । छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन शिक्षा का मूल जिज्ञासा है । चल रहा है । इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है । चर्चा होना आवश्यक है । कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, शिक्षा सर्वत्र होती है । कहीं उसे लेकर, तत्त्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना शिक्षा सबके लिए है । कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का शिक्षा धर्म सिखाती है । उपक्रम है । इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत

शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से... करने का ही प्रयास किया गया है ।

References