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→‎शिक्षा: लेख सम्पादित किया
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शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण किये बिना वह रह ही नहीं सकता। इस जन्म के जीवन के लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका सीखना शुरू हो जाता है। संस्कारों के रूप में वह सीखता है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ करता ही रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं। उनसे वह सीखे बिना रह नहीं सकता। आसपास की दुनिया का हर तरह का व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है। विकास करने की, बड़ा बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती है। अंदर की प्रेरणा और बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है।
 
शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ श्वास के समान ही जुड़ी हुई है। अच्छी या बुरी, शिक्षा के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है। वह चाहे या न चाहे शिक्षा ग्रहण किये बिना वह रह ही नहीं सकता। इस जन्म के जीवन के लिये वह माता की कोख में पदार्पण करता है और उसका सीखना शुरू हो जाता है। संस्कारों के रूप में वह सीखता है। जन्म होता है और उसका शरीर क्रियाशील हो जाता है। वह प्रयोजन के या बिना प्रयोजन के कुछ न कुछ करता ही रहता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर बाहरी वातावरण से असंख्य अनुभव पड़ते ही रहते हैं। उनसे वह सीखे बिना रह नहीं सकता। आसपास की दुनिया का हर तरह का व्यवहार उसे सीखाता ही रहता है। विकास करने की, बड़ा बनने की अंतरतम इच्छा उसे अन्दर से ही कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती है। अंदर की प्रेरणा और बाहर के सम्पर्क ऐसे उसका मानसिक पिण्ड बनाते ही रहते हैं। वह न केवल अनुभव करता है, वह प्रतिसाद भी देता है क्योंकि वह विचार करता है। यह उसके विकास का सहज क्रम है। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति है।
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परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है। जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है। संस्कार ग्रहण करना उसका
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परमात्मा ने मनुष्य को केवल शरीर ही नहीं दिया है, परमात्मा ने उसे सक्रिय अन्त:करण भी दिया है। जिज्ञासा उसके स्वभाव का लक्षण है। संस्कार ग्रहण करना उसका सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है। "यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है", ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है।
सहज कार्य है। विचार करते ही रहना उसकी सहज प्रवृत्ति | है। यह सब मैं कर रहा है, यह मुझे चाहिये, यह मेरे लिए है, ऐसा अहंभाव उसमें अभिमान जागृत करता है। ये सब | उसके सीखने के ही तो साधन हैं। ये सब हैं इसका अर्थ ही यह है कि सीखना उसके लिए स्वाभाविक है, अनिवार्य है।
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मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया। उसकी सहज प्रवृत्ति को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन | किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया। शिक्षा के मूर्त स्वरूप
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मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का ही मनीषियों ने शास्त्र बनाकर उसे व्यवस्थित किया। उसकी सहज प्रवृत्ति को समझा, उसके लक्ष्य को अवगत किया, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में जो बाधायें आती हैं उनका आकलन किया और शिक्षा का शास्त्र बनाया। शिक्षा के मूर्त स्वरूप के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्व को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया। माता व्यक्ति की प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे। शिक्षा को मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए। उसने शिक्षा के कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए। ये आयाम इस प्रकार बने:
के रूप में उसने शिक्षकत्व की कल्पना की और उस तत्व को विभिन्न भूमिकाओं में स्थापित किया। माता व्यक्ति की प्रथम गुरु बनी, पिता ने उसे साथ दिया, आचार्य ने उसे शास्त्र सिखाया, शास्त्र के अनुसार आचार सिखाए, धर्माचार्य लोकशिक्षक बन उसे आजीवन सिखाते रहे। शिक्षा को मनीषियों ने प्रेरणा, मार्गदर्शन, उपदेश, संस्कार आदि अनेक नाम दिये और उनके स्वरूप निश्चित किए। उसने शिक्षा के कुछ प्रमुख आयाम निश्चित किए। ये आयाम इस प्रकार बने ...
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# शिक्षा मनुष्य की विशेषता है।
शिक्षा मनुष्य की विशेषता है।।
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# शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है।
शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है।
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# शिक्षा का मूल जिज्ञासा है।
शिक्षा का मूल जिज्ञासा है।
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# शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।
शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।  
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# शिक्षा सर्वत्र होती है।
शिक्षा सर्वत्र होती है।
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# शिक्षा सबके लिए है।
शिक्षा सबके लिए है। शिक्षा धर्म सिखाती है।
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# शिक्षा धर्म सिखाती है।
शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
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# शिक्षा सभी प्रश्नों का हल ज्ञानात्मक मार्ग से निकालने के लिए है।
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# शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
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यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है। भारत में इसी के अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
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शिक्षा मुक्ति के मार्ग पर ले जाती है।
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यह शिक्षा का भारतीय दर्शन है। भारत में इसीके अनुसार शिक्षा चलती रही है। हर युग में, हर पीढ़ी में शिक्षकों तथा विचारों को अपनी पद्धति से इसे समझना होता है और अपनी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार उसे ढालना होता है। प्रकृति परिवर्तनशील है इसलिए तंत्र में परिवर्तन होता रहता है। तत्व को अपरिवर्तनीय रखते हुए यह परिवर्तन करना होता है। परन्तु वर्तमान समय में भारत में जो परिवर्तन हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है। यह परिवर्तन ऐसा है कि शिक्षा को अभारतीय कहने की नौबत आ गई है। शिक्षा का अभारतीयकरण दो शतकों से चल रहा है। शुरू हुआ तबसे उसे रोकने का प्रयास नहीं हुआ ऐसा तो नहीं है परन्तु दैवदुर्विलास से उसे रोकना बहुत संभव नहीं हुआ है। आज अभारतीयकरण भारत की मुख्य धारा
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की शिक्षा में अंतरबाह्य घुल गया है। यह घुलना ऐसा है कि शिक्षा अभारतीय है ऐसा सामान्यजन और अभिजातजन को लगता भी नहीं है। देश उसके अनुसार चलता है। इसे युगानुकूल परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय जीवन के सारे संकट उसमें से जन्म लेते हैं। इसलिए शिक्षा के भारतीयकरण का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
   
मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।
 
मुख्य प्रवाह की शिक्षा अभारतीय होने पर भी देश के विभिन्न तबकों में यह कुछ ठीक नहीं हो रहा है ऐसी भावना धीरे धीरे बलवती हो रही है। इसमें से ही मूल्यशिक्षा का मुद्दा प्रभावी बन रहा है। अब शिक्षाक्षेत्र में भी भारतीय और अभारतीय की चर्चा शुरू हुई है। यद्यपि यह कार्य कठिन है ऐसा सबको लग रहा है तथापि इसकी आवश्यकता भी अनुभव में आ रही है। शासन से लेकर छोटी बड़ी संस्थाओं में भारतीयकरण के विषय में मन्थन चल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा की सांगोपांग चर्चा होना आवश्यक है। कहीं वर्तमान सन्दर्भ छोड़कर, कहीं उसे लेकर, तत्व में परिवर्तन नहीं करते हुए नई रचना कैसे करना यह नीति रखकर यहाँ चिंतन प्रस्तुत करने का उपक्रम है। इस प्रथम ग्रन्थ में शिक्षाविषयक चिंतन प्रस्तुत करने का ही प्रयास किया गया है।
  

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