श्री रामकृष्ण परमहंस: - महापुरुषकीर्तन श्रंखला

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(1836-1886 ई.)

आसीद्‌ यदीयं हृदयं विशुद्धं, देवेशभक्तौ सततं प्रसक्तम्‌।

दयाद्रचित्तं विषये विरक्तं, श्री रामकुष्णं तमहं नमामि।।48॥।

जिन का हृदय पवित्र और परमेश्‍वर की भक्ति में निरन्तर लगा

हुआ था, ऐसे दयाद्रचित्त और विषयों में विरक्त श्री रामळुष्ण परमहंस को

मैं नमस्कार करता हूँ। _

आलोकयन्‌ ब्रह्म समस्तलोके, न जातिभेदं न मतादिभेदं।

योऽचिन्तयद्‌ ब्रह्मपरो महात्मा, श्री रामकुष्णं तमहं नमामि।।49॥।

सारे संसार में ब्रह्म के दर्शन करते हुए जिन्होंने जाति व मत आदि

के भेद की पर्वाह नहीं की, जिस महात्मा ने ब्रह्मपरायण हो कर सदा

चिन्तन किया, ऐसे श्री रामकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ।

सेवा परोधर्म इति स्वशिष्यान्‌, निर्दिश्य सेवाब्रतिनो व्यधत्त।

यो बालवत्‌ स्वार्जवमूर्तिरासीत्‌, श्री रामकृष्णं तमहं नमामि।।50॥

सेवा परमधर्म है ऐसा अपने शिष्यों को उपदेश देकर जिन्होंने

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उनको सेवात्रती बनाया, जो बालकों की तरह सरलता की मूर्ति थे, ऐसे

श्री रामकुष्ण को में प्रणाम करता हूँ।

माता परानन्दमयी दयालुस्तस्या अवाप्त्यै परमातुरः सन्‌।

तां निष्ठयावाप तपः प्रभावात्‌, श्री रामकृष्णं तमहं नमामि।।51॥

जगन्माता परम आनन्दमयी और दयालु है उस की प्राप्ति के लिए

अत्यन्त आतुर हो कर तप के प्रभाव से बड़ी निष्ठा के साथ उसे जिन्होंने

प्राप्त किया, उन श्री रामकृष्ण परमहंस को मैं नमस्कार करता हूँ।

अध्यात्मविज्ञानमृते न शान्तिः, सन्देशमेतं ददतं प्रशस्तम्‌।

समाधिमग्नं सरलं सुदान्तं, औ रामकृष्णं तमहं नमामि।।52॥

अध्यात्मज्ञान के बिना शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती इस अत्यन्त

प्रशंसनीय सन्देश को देते हुए, समाधिमग्न, सरल, मन पर विजय प्राप्त

करने वाले श्री रामकृष्ण परमहंस को मैं नमस्कार करता हूँ।