शैक्षिक संगठन क्या करें

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१. आज शिक्षा का प्रश्न इतना अधिक उलझ गया है कि उसे सुलझाना किसी एक व्यक्ति या एक संस्था के बस की बात नहीं है । इसे सुलझाने के लिये संगठन की ही आवश्यकता है । वह भी अखिल धार्मिक स्तर के संगठन की ।

२. इसका अर्थ यह है कि संगठनों का सबसे प्रमुख कार्य है शिक्षा की समस्या सुलझाना । छोटे मोटे विद्यालय चलाना, छोटे बडे. सेमिनार करना, प्रकल्प खडे करना, शिक्षकों का या अभिभावकों का प्रबोधन करना, सरकार का मार्गदर्शन करना, संचालकों का सहयोग प्राप्त करना आदि कार्य दूसरे क्रम में आयेंगे ।

३. ये सब प्रमुख कार्य के साधन हो सकते हैं । उनकी ओर देखने की दृष्टि भी वैसी ही होनी चाहिये । यदि समस्या सुलझाना प्रथम कार्य नहीं रहा और उसके साधन रूप इस कार्यों की ही प्राथमिकता हो गई तो मुख्य समस्या कभी भी सुलझेगी नहीं ।

४. इसलिये प्रथम तो समस्या को ही समझने की आवश्यकता है । आज दिखाई यह देता है कि शिक्षा के भावात्मक पक्ष पर ही सारी शक्ति केन्द्रित की जाती है और उसे अधिक से अधिक प्रभावी बनाने के प्रयास किये जाते हैं । परन्तु मूल समस्या का निराकरण नहीं होता तब तक भावात्मक कार्य भी प्रभावी नहीं बनता ।

५. मूल समस्या शिक्षा के पश्चिमीकरण की है । इसे आज जिस स्वरूप में बोला जाता है उससे कहीं अधिक गहरी और व्यापक यह समस्या है । संगठनों ने इसका बहुत छोटा सा हिस्सा पकडा है । परन्तु अत्यन्त छोटा हिस्सा होने के कारण ही. वह परिणामकारी नहीं होता ।

६. शिक्षा की व्यापक और गहरी समस्या को समझने के लिये हर संगठन में अपनी ही एक व्यवस्था होनी चाहिये । संगठन के प्रमुख कार्यकर्ताओं को इसकी समझ प्राप्त करनी चाहिये । जिन्हें ऐसी समझ है ऐसे बाहर के लोग सहायक तो हो सकते हैं परन्तु प्रमुख भूमिका संगठन के लोगों की ही बननी चाहिये । आज संगठनों में भी संगठनात्मक और वैचारिक ऐसे दो भाग बन गये हैं । दो व्यवस्थायें भिन्न भिन्न लोगों के पास होने से क्रियान्वयन के स्तर पर सर्वत्र कठिनाई दिखाई देती है।

७. शिक्षा के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया, उसके उद्देश्य, उसके परिणाम आदि ठीक से समझने के बाद संगठन के विभिन्न कामों और रचनाओं का उसके साधन के रूप में कया स्वरूप रहेगा इसका विचार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । यह कार्य बहुत कठिन है क्योंकि वह व्यावहारिक है । वैचारिक कार्य से व्यावहारिक कार्य अधिक कठिन होता ही है । परन्तु संगठनों का कार्य इसलिये और भी कठिन हो जाता है क्योंकि वह वर्तमान प्रवाह से विपरीत जाना होता है । प्रवाह से विपरीत जाने पर विस्तार कार्य प्रभावित होता है । विस्तार और व्याप कम होना किसी भी संगठन को स्वीकार्य नहीं होता ।

८. इसीसे यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का सन्तुलन कैसे बिठायें । दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता है । दोनों का समान महत्त्व है । एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता । परन्तु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है । विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है, विकास को आनुषंगिक, इसलिये अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है । विकास उपेक्षित हो जाता है ।

९. अध्ययन, चिन्तन, अनुसन्धान आदि करने की सबकी प्रवृत्ति भी नहीं होती । इसलिये संगठनों में इनकी और ध्यान देना कठिन हो जाता है । परन्तु इससे समस्या तो बनी ही रहती है । अध्ययन चिन्तन आदि नहीं होने के कारण बढ़ते हुए विस्तार को दिशा देना ही कठिन हो जाता है । फिर सारा कार्य प्रवाह पतित जैसा बन जाता है । कार्य स्वयं समस्या बन जाता है ।

१०. विस्तार की सम्भावनायें असीमित होती हैं । उसका आकर्षण भी अपरिहार्य होता है। वह अपेक्षाकृत सरल भी होता है । इसलिये संगठन का मूल उद्देश्य ही विस्मृत हो जाता है और जिन्हें परिवर्तन करना है उनका ही परिवर्तन हो जाता है ।

११. इसलिये संगठनों का प्रथम कार्य तो अपनी नित्य परिष्कृति करते रहना है । यह तो जीने के लिये शरीर स्वास्थ्य बनाये रखने जैसी बात है । स्वस्थ शरीर धर्माचरण के लिये होता है, निरुद्देश्य नहीं होता । संगठन भी शिक्षा की समस्या सुलझाने के लिये होता है, केवल बने रहने के लिये नहीं ।

१२. शैक्षिक संगठनों ने अपना तन्त्र ठीक से बिठाने के बाद शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अन्य संगठनों के साथ संवाद स्थापित करना चाहिये । संवाद स्थापित करने का कार्य केवल संगठनों तक सीमित नहीं रखना चाहिये । देशभर में अनेक व्यक्तियों के मन में शिक्षा का धार्मिककरण करने की आकांक्षा है । वे प्रयोग भी करते हैं । परन्तु उनके प्रयोग व्यक्तिगत स्तर पर होने के कारण अच्छी शिक्षा के नमूने बन जाते हैं । शिक्षा की गहरी और व्यापक समस्या सुलझाने की दृष्टि से प्रभावी नहीं होते हैं । इन सभी प्रयासों को पिरोने के लिये संगठनों को सूत्र बनाना चाहिये ।

१२. पुनरावर्तन करके कहें तो शिक्षा के धार्मिककरण हेतु संगटन अनिवार्य है और संगठनों को धार्मिककरण के निहितार्थ समझकर अपनी योजना बनाना अनिवार्य हैं |

१३. संगठनों के बिना देश की अपेक्षा पूर्ण नहीं हो सकती । संगठनों में ही देश की अपेक्षा पूर्ण करने की क्षमता है । संगठन यदि इस तथ्य का स्मरण नहीं रखता तो क्या होगा यह कहना कठिन है ।