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| {{One source|date=March 2019}} | | {{One source|date=March 2019}} |
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− | यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), | + | यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय २, |
| प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | | प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
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| # शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है । | | # शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है । |
| # राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है । | | # राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है । |
− | # भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है इसलिए भारतीय शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है । | + | # भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है अतः धार्मिक शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है । |
| # शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है । | | # शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है । |
| # शिक्षा आजीवन चलती है । | | # शिक्षा आजीवन चलती है । |
− | # शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से शुरू होकर अन्त्येष्टि तक चलती है । | + | # शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से आरम्भ होकर अन्त्येष्टि तक चलती है । |
| # शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं । | | # शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं । |
| # घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है । | | # घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है । |
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| # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| | | # व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन कुटुंब, समुदाय, राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता है| |
| # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । | | # अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । |
− | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और | + | # आहार, निद्रा, श्रम, काम और मनःशान्ति से उसका विकास होता है । |
− | # . ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
| + | # प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन उसके विकास का स्वरूप है । |
− | मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे | + | # आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । |
− | | + | # प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक तत्व हैं। |
− | ७७. प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन आत्मतत्व है ।
| + | # मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा उसके स्वरूप हैं । |
− | | + | # चंचलता, उत्तेजितता, ट्रंद्रात्मकता और आसक्ति उसके स्वभाव है । |
− | उसके विकास का स्वरूप है । १००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय | + | # एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके विकास का स्वरूप है । |
− | | + | # योगाभ्यास, सेवा, संयम, स्वाध्याय, जप, सत्संग, सात्विक आहार मन के विकास के कारक तत्व हैं। |
− | ७८. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । है।
| + | # विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है। |
− | | + | # तेजस्विता, कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के विशेषण हैं । |
− | ७९. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक. १०१. आत्मतत्त्त . को... आत्मतत्त्त _ की... अनुभूति
| + | # विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है । |
− | | + | # निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संस्लेषण, बुद्धि के साधन हैं । |
− | तत्व हैं। आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है । | + | # अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । |
− | | + | # कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । |
− | ८०. मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा. ३१०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
| + | # आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सद्बुद्धि और दायित्वबोध में परिणत होते हैं । |
− | | + | # आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका कार्य है । |
− | उसके स्वरूप हैं । १०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति | + | # जन्मजान्मांतर, अनुवंश, संस्कृति और सन्निवेश के संस्कार होते हैं । |
− | | + | # चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । |
− | ८१. चंचलता, उत्तेजितता, द्ंद्रात्मकता और आसक्ति उसके होती है ।
| + | # सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । |
− | | + | # आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । |
− | स्वभाव है ।
| + | # शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रतिबिम्बित होता है । |
− | | + | # शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, आनंद का निवास है । |
− | १०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की
| + | # चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं । |
− | | + | # अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे आत्मतत्व है । |
− | ८२. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके सर्व खल्विद्म ब्रह्म ।
| + | # उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय है। |
− | | + | # आत्मतत्व को आत्मतत्व की अनुभूति आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है । |
− | विकास का स्वरूप है । १०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है।
| + | # शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है । |
− | | + | # एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति होती है । |
− | थक ae सेवा, a ree ” ~~ १०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण
| + | # एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की सर्वं खल्विदम ब्रह्म । |
− | | + | # प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है । |
− | सात्तक आहार मन के नकास के कारक तत्व है । व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं ।
| + | # सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण, व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । |
− | | + | # ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । |
− | ८४. विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है ।
| + | # शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को श्रेष्ठ बनाती है । |
− | | + | # समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है । |
− | हर और १०७. ये TRIN ATE |
| + | # संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है । |
− | | + | # श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव, सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । |
− | ८५. दर कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के १०८. शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को
| + | # शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है । |
− | | + | # शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व शिक्षक का होता है । |
− | विशेषण हैं ।
| + | # शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं । |
− | | + | # परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर आए संकट हैं । |
− | श्रेष्ठ बनाती है ।
| + | # राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है । |
− | | + | # राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है । |
− | ८६. विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है | ९. समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
| + | # ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना ज्ञाननिष्ठा है । |
− | | + | # विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । |
− | ८७. . निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संश्लेषण १०९. संस्कृति र सुसस्कृत समा मा
| + | # आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है । |
− | | + | # अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन बनाता है वह आचार्य है । |
− | बुद्धि के साधन हैं । ११०, के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि | + | # आचार्य का आचरण शास्त्रनिष्ठ होता है । |
− | | + | # विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता है। |
− | ८८. अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती |
| + | # आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । |
− | | + | # अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन की पंचपदी है। |
− | ८९. कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । १११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव,
| + | # कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना अधीति है। |
| + | # मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना बोध है । |
| + | # जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास है। |
| + | # अभ्यास से बोध परिपक्क होता है । |
| + | # परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है । |
| + | # आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता है। |
| + | # स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं । |
| + | # नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते रहना स्वाध्याय है । |
| + | # अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे प्रवचन के दो आयाम हैं । |
| + | # अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी का वह अधीति पद है । |
| + | # अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह निरन्तर बहता है । |
| + | # ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए । |
| + | # शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना अपेक्षित है । |
| + | # शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं, वह स्थान विद्यालय है । |
| + | # जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त होती है । |
| + | # शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य तथा समाज उसके सहयोगी हैं । |
| + | # स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने में समर्थ होती है । |
| + | # जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है । |
| + | # जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है । |
| + | # राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया जाता है वह पाठ्यक्रम होता है । |
| + | # विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया जाता है वह विद्यार्थी सापेक्ष पाठ्यक्रम होता है । |
| + | # राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है। |
| + | # विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है । |
| + | # सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है । |
| + | # भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है अतः राष्ट्रीय होकर शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है । |
| + | # सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है । |
| + | ==References== |
| + | <references /> |
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− | ९०. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदद्धि और दायित्वबोध सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है ।
| + | [[Category:पर्व 1: उपोद्धात्]] |
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− | में परिणत होते हैं । ११२. शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है ।
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− | ९१, आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका... ** रे: शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व
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− | कार्य है। शिक्षक का होता है ।
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− | ९२. जन्मजान्मांतर, अनुबंश, संस्कृति और सन्निवेश के. ११४. शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं ।
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− | संस्कार होते हैं । ११५, परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा
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− | ९३. चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर
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− | ९४. सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । आए संकट हैं ।
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− | ९५. आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । १४१६, राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन
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− | ९६, शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रति्बिबित होता है । संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है ।
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− | ९७. शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, ... १९७. राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके
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− | आनंद का निवास है । अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है ।
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− | gv
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− | ............. page-31 .............
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− | पर्व १ : उपोद्धात
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− | ११८, ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना... १३७. ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु
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− | ज्ञाननिष्ठा है । श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा
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− | ११९, विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए |
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− | और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । १३८. शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना
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− | १२०, आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है । अपेक्षित है ।
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− | १२१. अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन... १३९. शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं
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− | बनाता है वह आचार्य है । वह स्थान विद्यालय है ।
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− | १२२. आचार्य का आचरण शाख्रनिष्ठ होता है । १४०. जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और
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− | १२३. विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त
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− | है। होती है ।
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− | १२४. आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय... १४१. शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व
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− | विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य
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− | १२५. अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन तथा समाज उसके सहयोगी हैं ।
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− | की पंचपदी है । १४२. स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने
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− | १२६. कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना में समर्थ होती है ।
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− | अधीति है । १४३. जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते
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− | १२७.मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है ।
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− | बोध है । १४४. जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक
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− | १२८. जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है ।
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− | है। १४५. राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया
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− | १२९, अभ्यास से बोध परिपक्क होता है । जाता है वह पाठ्यक्रम होता है ।
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− | १३०. परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है । १४६, विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता
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− | १३१, आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया
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− | है। जाता है वह विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है ।
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− | १३२. स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं । १४७, राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर
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− | १३३. नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता
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− | रहना स्वाध्याय है । है।
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− | १३४, अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे १४८. विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए
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− | प्रवचन के दो आयाम हैं । क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है ।
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− | १३५, अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी १४९. सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है ।
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− | का वह अधीति पद है । १५०, भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है इसलिए राष्ट्रीय होकर
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− | १३६. अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है ।
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− | की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह १५१, सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है ।
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− | निरन्तर बहता है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है ।
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− | [[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]] | |
− | ==References==
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