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'''द्वितीय ज्ञान है''' समाज या हमारे आस-पास के अनुभवों का ज्ञान जिसे हम दूसरो के माध्यम से सीखते है। जैसे विद्यालय शिक्षा या माता पिता द्वारा सिखाया गया ज्ञान या समाज में आचरण करने का ज्ञान जिसे सीखने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है। इस ज्ञान में हम दूसरों पर निर्भर होते है और ज्ञान धारा कभी भी बदल जाती है; जैसे गुरु, वैसा ज्ञान और वैसा आचरण। कोई भी ज्ञान अर्जित करने के पहले उसके सारे  पहलुओं पर विचार करके ही ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए। किसी भी ज्ञान को देखना सुनना और अनुभव करना गलत नहीं है परन्तु उसे अपने जीवन में आत्मसात करना और उसके अनुरूप आचरण करने से पहले बहुत ही विचार करने के बाद ही अपने जीवन में उतारना चाहिए।  
 
'''द्वितीय ज्ञान है''' समाज या हमारे आस-पास के अनुभवों का ज्ञान जिसे हम दूसरो के माध्यम से सीखते है। जैसे विद्यालय शिक्षा या माता पिता द्वारा सिखाया गया ज्ञान या समाज में आचरण करने का ज्ञान जिसे सीखने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है। इस ज्ञान में हम दूसरों पर निर्भर होते है और ज्ञान धारा कभी भी बदल जाती है; जैसे गुरु, वैसा ज्ञान और वैसा आचरण। कोई भी ज्ञान अर्जित करने के पहले उसके सारे  पहलुओं पर विचार करके ही ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए। किसी भी ज्ञान को देखना सुनना और अनुभव करना गलत नहीं है परन्तु उसे अपने जीवन में आत्मसात करना और उसके अनुरूप आचरण करने से पहले बहुत ही विचार करने के बाद ही अपने जीवन में उतारना चाहिए।  
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इसलिए बिना गुरु ज्ञान प्राप्त करना, अधूरा ज्ञान प्राप्त करने के समान होता है। ज्ञान प्राप्ति का स्थान और वातावरण भी हमारे ज्ञान पर प्रभाव डालते है। इसीलिए पूर्व काल में सभी शिक्षाएं एक विशिष्ठ गुरु द्वारा विशेष स्थान पर दी जाती थी, जहाँ ना अपने परिवार, समाज या उस वातावरण से कोई सम्बन्ध होता था जहाँ हम रहते थे। किसी जंगल के एकांत जगह पर जाकर रहना जहाँ न कोई श्रीमंत  ना कोई गरीब, ना कोई जाति न कोई भेदभाव जहाँ केवल ज्ञान ज्ञान और ज्ञान ही दिखाई, सुनाई और अनुभव में आता था।  
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अतः बिना गुरु ज्ञान प्राप्त करना, अधूरा ज्ञान प्राप्त करने के समान होता है। ज्ञान प्राप्ति का स्थान और वातावरण भी हमारे ज्ञान पर प्रभाव डालते है। इसीलिए पूर्व काल में सभी शिक्षाएं एक विशिष्ठ गुरु द्वारा विशेष स्थान पर दी जाती थी, जहाँ ना अपने परिवार, समाज या उस वातावरण से कोई सम्बन्ध होता था जहाँ हम रहते थे। किसी जंगल के एकांत जगह पर जाकर रहना जहाँ न कोई श्रीमंत  ना कोई गरीब, ना कोई जाति न कोई भेदभाव जहाँ केवल ज्ञान ज्ञान और ज्ञान ही दिखाई, सुनाई और अनुभव में आता था।  
    
किसी भी कार्य को करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जैसे भोजन कैसे करना चाहिए, कैसे चलना चाहिए। बिना विद्या या ज्ञान के मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। विद्या द्वारा ही सभ्य, संस्कारी, और गुणवान मनुष्य या समाज का निर्माण होता है। <blockquote>विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।</blockquote><blockquote>पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥{{Citation needed}} </blockquote>विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
 
किसी भी कार्य को करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जैसे भोजन कैसे करना चाहिए, कैसे चलना चाहिए। बिना विद्या या ज्ञान के मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। विद्या द्वारा ही सभ्य, संस्कारी, और गुणवान मनुष्य या समाज का निर्माण होता है। <blockquote>विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।</blockquote><blockquote>पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥{{Citation needed}} </blockquote>विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
    
== विद्या, ज्ञान या संस्कार की नींव रखने की शुरुआत कबसे करनी चाहिए ? ==
 
== विद्या, ज्ञान या संस्कार की नींव रखने की शुरुआत कबसे करनी चाहिए ? ==
हमारे शास्त्रो के अनुसार हमारे पूरे जीवन में १६ प्रकार के संस्कार होते है, जिसकी शुरुआत गर्भ-धारण से ही आरम्भ हो जाती है । इसलिए मान्यता अनुसार गर्भावस्था से ही माहौल, वातावरण और व्यवहार भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कार के अनुसार होनी चाहिए, क्योंकि आकस्मिक या अचानक वाला ज्ञान बालक गर्भावस्था से ही अनुसरण करने लगता है।  
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हमारे शास्त्रो के अनुसार हमारे पूरे जीवन में १६ प्रकार के संस्कार होते है, जिसकी शुरुआत गर्भ-धारण से ही आरम्भ हो जाती है । अतः मान्यता अनुसार गर्भावस्था से ही माहौल, वातावरण और व्यवहार भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कार के अनुसार होनी चाहिए, क्योंकि आकस्मिक या अचानक वाला ज्ञान बालक गर्भावस्था से ही अनुसरण करने लगता है।  
    
बच्चो की जब सुनने और बोलने की शुरुआत होने लगे उस समय से ही बच्चो को भारत के बारे में जानकारी, अपने भारतीय संस्कारो का परिचय और घर में भारतीय वातावरण की निर्मिति कर बच्चो को अनुभव आधारित ज्ञान की शुरुआत कर देनी चाहिए, क्योकि संस्कारो और ज्ञानो की नींव का प्रथम स्थान हमारा घर होता है जहाँ हमारे प्रथम गुरु हमारी माता ही होती है, जो हमें जीवन का मूल सार सिखाती है।  
 
बच्चो की जब सुनने और बोलने की शुरुआत होने लगे उस समय से ही बच्चो को भारत के बारे में जानकारी, अपने भारतीय संस्कारो का परिचय और घर में भारतीय वातावरण की निर्मिति कर बच्चो को अनुभव आधारित ज्ञान की शुरुआत कर देनी चाहिए, क्योकि संस्कारो और ज्ञानो की नींव का प्रथम स्थान हमारा घर होता है जहाँ हमारे प्रथम गुरु हमारी माता ही होती है, जो हमें जीवन का मूल सार सिखाती है।  
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# मानसिक  या बौद्धिक शिक्षा
 
# मानसिक  या बौद्धिक शिक्षा
 
# शारीरिक शिक्षा  
 
# शारीरिक शिक्षा  
जब शरीर स्वस्थ होगा तो मन और बुद्धि दोनों स्वस्थ होगी । किसी भी कार्य को करने के लिए बुद्धि और शरीर दोनों की आवश्यकता होती है चाहे वह कार्य किसी भी प्रकार का क्यों न हो । शारीरिक क्षमता अच्छी होने पर सोचने और विचार करने की क्षमता भी अच्छी होती है। इसलिए शिक्षा का आरम्भ बच्चो को  उत्साह के साथ करना, उनके मन में पहले अपने धर्म और राष्ट्र  के प्रति प्रेम भाव को जगाना उसके लिए बच्चो की प्रेरक कहानियाँ और बच्चो  में अपने शरीर को स्वस्थ मजबूत बनाने के लिए प्रेरक प्रसंग के बारे में बताना, ना केवल बताना प्रत्यक्ष दिखने का प्रयास करना ताकि वह अपने आप को सपने न रखते हुए हकीकत मानकर प्रत्यक्ष करने का प्रयास करे ।  
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जब शरीर स्वस्थ होगा तो मन और बुद्धि दोनों स्वस्थ होगी । किसी भी कार्य को करने के लिए बुद्धि और शरीर दोनों की आवश्यकता होती है चाहे वह कार्य किसी भी प्रकार का क्यों न हो । शारीरिक क्षमता अच्छी होने पर सोचने और विचार करने की क्षमता भी अच्छी होती है। अतः शिक्षा का आरम्भ बच्चो को  उत्साह के साथ करना, उनके मन में पहले अपने धर्म और राष्ट्र  के प्रति प्रेम भाव को जगाना उसके लिए बच्चो की प्रेरक कहानियाँ और बच्चो  में अपने शरीर को स्वस्थ मजबूत बनाने के लिए प्रेरक प्रसंग के बारे में बताना, ना केवल बताना प्रत्यक्ष दिखने का प्रयास करना ताकि वह अपने आप को सपने न रखते हुए हकीकत मानकर प्रत्यक्ष करने का प्रयास करे ।  
    
३ से ५ वर्ष के बच्चो को जितना अनुभव देंगे उतना ही उस विषय को बच्चे अपने अंदर आत्मसात करने का प्रयास करेंगे ।    
 
३ से ५ वर्ष के बच्चो को जितना अनुभव देंगे उतना ही उस विषय को बच्चे अपने अंदर आत्मसात करने का प्रयास करेंगे ।    

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