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{{One source|date=October 2019}}
 
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== उद्देश्य ==
 
आधारभूत बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए<ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। संगीत यह विस्तार या जानकारी का विषय नहीं है अपितु मूल क्षमताओं के विकास का है। इसलिए शिक्षक, मातापिता एवं छात्रों को मूल क्षमताओं के विकास की ओर अभिमुख करना चाहिए।
 
आधारभूत बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए<ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। संगीत यह विस्तार या जानकारी का विषय नहीं है अपितु मूल क्षमताओं के विकास का है। इसलिए शिक्षक, मातापिता एवं छात्रों को मूल क्षमताओं के विकास की ओर अभिमुख करना चाहिए।
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पाठ्यक्रम
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== पाठ्यक्रम ==
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# स्वर, ताल एवं लय की समझ विकसित करना।
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## स्वर शुद्ध बने, बलवान बने, मधुर बने।
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## ताल की पहचान करना एवं ताल देना सीखें।
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## धीमी व तेज लय को पहचानें एवं अभिव्यक्त करें।
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# संगीत अर्थात् गायन, वादन एवं नर्तन। इसलिए छात्र गायन करना जानें, वाद्य का वादन करना (बजाना) जानें, एवं नृत्य करना भी जानें।
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१. स्वर, ताल एवं लय की समझ विकसित करना।
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== क्रियाकलाप ==
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वाणी कर्मेन्द्रिय है। संगीत का संबंध वाणी से है। कर्मेन्द्रिय की कृति ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव पर आधारित होती है। श्रवणेन्द्रिय संगीत की ज्ञानेन्द्रिय है। इसलिए सबसे पहले छात्रों को संगीत खूब सुनाना चाहिए। सुन सुन कर कान तैयार होंगे तभी गले से स्वर निकलेगा। सुनने का यह अनुभव जितना गहरा होगा उतना ही गाना आसान बनेगा। इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है कि 'कानसेन होंगे तभी तानसेन बनेंगे'।
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१. स्वर शुद्ध बने, बलवान बने, मधुर बने। २. ताल की पहचान करना एवं ताल देना सीखें।
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=== छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए ===
 
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# विद्यालय में संगीत श्रवण की उत्तम व्यवस्था करना चाहिए। उसके लिए ध्वनिमुद्रिकाएँ, उत्तम ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं उत्तम प्रसारण व्यवस्था होना चाहिए।  
३. धीमी व तेज लय को पहचानें एवं अभिव्यक्त करें। २. संगीत अर्थात् गायन, वादन एवं नर्तन। इसलिए छात्र गायन करना जानें,
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# छात्रों के विद्यालय में आने के समय में, मध्यावकाश के समय में, विद्यालय समय पूर्ण होने के समय में, भोजन के समय में, उद्योग या खेलकूद में मग्न हों तब संगीत सुनवाना चाहिए। इसके अतिरिक्त संगीत बैठकर शांति से भी सुन सकते हैं।
 
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# जो भी संगीत सुनाना हो उसकी गुणवत्ता उत्तम होना चाहिए। साथ ही उसमें विविधता भी होना चाहिए। अनेक राग, अनेक वाद्य, अनेक गायकों का वादन एवं गायन वे सुन पाएँ, ऐसी व्यवस्था करना चाहिए।
वाद्य का वादन करना (बजाना) जानें, एवं नृत्य करना भी जानें। ३. संगीत का ज्ञान अपने व्यवहार में सामंजस्य उत्पन्न करे इस हेतु कक्षा १ एवं
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# संगीत में शब्द की अपेक्षा स्वर का महत्त्व अधिक है। इसलिए स्वर की दृष्टि से विविधता एवं गुणवत्ता होनी चाहिए।
 
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# जो कुछ सुनें उसका आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत होना चाहिए। लोकसंगीत एक अलग विषय है। कानों को तैयार करने के लिए शास्त्रीय संगीत ही अधिक उपयोगी हो सकता है।
२ में इन क्रियाकलापों, प्रकल्पों एवं कार्यक्रमों की रचना की गई है। क्रियाकलाप
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# केवल ध्वनिमुद्रिकाएँ ही सुनवाना पर्याप्त नहीं है। जीवंत व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से गाएँ और छात्र सामने बैठकर सुनें ऐसी व्यवस्था करना चाहिए। इस दृष्टि से विद्यालय में संगीताचार्य हों यह आवश्यक है। इसके अतिरिक्त कभी कभी अच्छे गायक, वादक एवं नर्तक विद्यालय में जाएँ, ऐसी योजना भी बनाना चाहिए। इस तरह वातावरण से ही संगीत का अनुभव हो तो छात्रों को आसानी से संगीत अवगत होता है।
 
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वाणी कर्मेन्द्रिय है। संगीत का संबंध वाणी से है। कर्मेन्द्रिय की कृति ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव पर आधारित होती है। श्रवणेन्द्रिय संगीत की ज्ञानेन्द्रिय है। इसलिए सबसे पहले छात्रों को संगीत खूब सुनाना चाहिए। सुन सुन कर कान तैयार होंगे तभी गले से स्वर निकलेगा। सुनने का यह अनुभव जितना गहरा होगा उतना ही गाना आसान बनेगा। इसलिए हमारे
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यहाँ कहा गया है कि 'कानसेन होंगे तभी तानसेन बनेंगे'। छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए। १. विद्यालय में संगीत श्रवण की उत्तम व्यवस्था करना चाहिए। उसके लिए
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ध्वनिमुद्रिकाएँ, उत्तम ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं उत्तम प्रसारण व्यवस्था होना चाहिए। छात्रों के विद्यालय में आने के समय में, मध्यावकाश के समय में, विद्यालय समय पूर्ण होने के समय में, भोजन के समय में, उद्योग या खेलकूद में मग्न हों तब संगीत सुनवाना चाहिए। इसके अतिरिक्त संगीत बैठकर शांति से भी सुन सकते हैं।
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३. जो भी संगीत सुनाना हो उसकी गुणवत्ता उत्तम होना चाहिए। साथ ही
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उसमें विविधता भी होना चाहिए। अनेक राग, अनेक वाद्य, अनेक गायकों
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का वादन एवं गायन वे सुन पाएँ, ऐसी व्यवस्था करना चाहिए। ४. संगीत में शब्द की अपेक्षा स्वर का महत्त्व अधिक है। इसलिए स्वर की दृष्टि
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से विविधता एवं गुणवत्ता होनी चाहिए। ५. जो कुछ सुनें उसका आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत होना चाहिए।
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लोकसंगीत एक अलग विषय है। कानों को तैयार करने के लिए शास्त्रीय संगीत ही अधिक उपयोगी हो सकता है। केवल ध्वनिमुद्रिकाएँ ही सुनवाना पर्याप्त नहीं है। जीवंत व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से गाएँ और छात्र सामने बैठकर सुनें ऐसी व्यवस्था करना चाहिए। इस दृष्टि से विद्यालय में संगीताचार्य हों यह आवश्यक है। इसके अतिरिक्त कभी कभी अच्छे गायक, वादक एवं नर्तक विद्यालय में जाएँ, ऐसी योजना भी बनाना चाहिए। इस तरह वातावरण से ही संगीत का अनुभव हो तो छात्रों को आसानी से
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संगीत अवगत होता है। १. गायन १. सरल स्वररचनावाले छोटे गीत
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शास्त्रीय संगीत के रागों पर आधारित सरल स्वर रचना वाले छोटे गीत गाना सिखाना चाहिए। सरल स्वररचना अर्थात् जिसमें अधिक तान व लय एवं उतारचढ़ाव न हों। छात्रों का कंठ इस व्यवस्था में बहुत कोमल होता है। उस पर अधिक तनाव न आए यह देखना चाहिए। इसलिए बहुत ऊँचा स्वर नहीं होना चाहिए। आमतौर पर मध्यसप्तक का 'प' अथवा 'ध' (कभीकभी ही सम्हलकर तार सप्तक के 'सा' तक जाना चाहिए) तक की स्वररचना वाले गीत होने चाहिए। ऐसा करने से वे बेसुरे भी नहीं होंगे एवं गले को अच्छा व्यायाम भी मिलेगा। कक्षा १ एवं २ मिलाकर ऐसे पचीस से
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तीस गीत वे सीख सकते हैं। २. स्वर साधना ___गले के गठन का मुख्य उपाय स्वर का अभ्यास है। इसके लिए सबसे पहले एक ही स्वर घोंटना चाहिए। यह एक स्वर अर्थात् 'सा'। तानपूरे के साथ या
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हारमोनियम के साथ या आचार्य के साथ 'सा' के गायन का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास अर्थात् रोज थोड़ी थोड़ी मात्रा में रियाज करना।
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स्वरसाधना का उद्देश्य अपने स्वरका अभ्यास कर दूसरे के स्वर में स्वर मिलाना है। इस दष्टि से प्रथम 'सा' स्वर के लिए एक या दो मास अभ्यास करवाने के बाद ही अन्य स्वरों का अभ्यास करना चाहिए।
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जिस प्रकार स्वर साधना की शुरुआत 'सा' से करते हैं उसी प्रकार 'ॐ'से भी सकर सकते हैं, क्योंकि ॐकार का स्वर सदैव 'सा' ही होता है। ३. अलंकारों का अभ्यास
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स्वरसाधना के बाद या स्वर साधना के साथ साथ अलंकारों का अभ्यास हो सकता है। निम्न प्रकार से दस अलंकार सिखाए जाने चाहिए। १. सा रे ग म प ध नि सा - त्रिताल
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सा नि ध प म ग रे सा सासा रेरे गग मम पप धध निनि सासा - त्रिताल
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सासा निनि धध पप मम गग रेरे सासा ३. सारेग रेगम गमप मपध पधनि धनिसा - दादरा/त्रिताल
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सानिध निधप धमप पमग मगरे गरेसा सारेगम रेगमप गमपध मपधनि पधनिसा - त्रिताल सानिधप निधमप धपमग पमगरे मगरेसा साग रेम गप मध पनि धसा - एकताल साध निप धम पग मरे गसा सारेसारेग रेगरेगम गमगमप मपमपध पधपधनि धनिधनिसा - झपताल/दादरा सानिसानिध निधनिधप धपधपम पमपमग मगमगरे गरेगरेसा
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सारेगसारेगम रेगमरेगमप गमपगमपध मपधमपधनि पधनिपधनिसा सानिधसानिधप निधपनिधपम धपमधपमग पमगपमगरे मगरेमगरेसा
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सासारे रेरेग गगम ममप पपध धधनि निनिसा - दादरा सासानि निनिध धधम पपम ममग गगरे रेरेसा
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सारेसारेसारेग रेगरेगरेगम गमगमगमप मपमपमपध पधपधपधनि धनिधनिधनिसा - त्रिताल
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=== गायन ===
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# सरल स्वररचनावाले छोटे गीत: शास्त्रीय संगीत के रागों पर आधारित सरल स्वर रचना वाले छोटे गीत गाना सिखाना चाहिए। सरल स्वररचना अर्थात् जिसमें अधिक तान व लय एवं उतारचढ़ाव न हों। छात्रों का कंठ इस व्यवस्था में बहुत कोमल होता है। उस पर अधिक तनाव न आए यह देखना चाहिए। इसलिए बहुत ऊँचा स्वर नहीं होना चाहिए। आमतौर पर मध्यसप्तक का 'प' अथवा 'ध' (कभीकभी ही सम्हलकर तार सप्तक के 'सा' तक जाना चाहिए) तक की स्वररचना वाले गीत होने चाहिए। ऐसा करने से वे बेसुरे भी नहीं होंगे एवं गले को अच्छा व्यायाम भी मिलेगा। कक्षा १ एवं २ मिलाकर ऐसे पचीस से तीस गीत वे सीख सकते हैं।
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# स्वर साधना: गले के गठन का मुख्य उपाय स्वर का अभ्यास है। इसके लिए सबसे पहले एक ही स्वर घोंटना चाहिए। यह एक स्वर अर्थात् 'सा'। तानपूरे के साथ या हारमोनियम के साथ या आचार्य के साथ 'सा' के गायन का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास अर्थात् रोज थोड़ी थोड़ी मात्रा में रियाज करना। स्वरसाधना का उद्देश्य अपने स्वरका अभ्यास कर दूसरे के स्वर में स्वर मिलाना है। इस दष्टि से प्रथम 'सा' स्वर के लिए एक या दो मास अभ्यास करवाने के बाद ही अन्य स्वरों का अभ्यास करना चाहिए। जिस प्रकार स्वर साधना की शुरुआत 'सा' से करते हैं उसी प्रकार 'ॐ'से भी सकर सकते हैं, क्योंकि ॐकार का स्वर सदैव 'सा' ही होता है।
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# अलंकारों का अभ्यास: स्वरसाधना के बाद या स्वर साधना के साथ साथ अलंकारों का अभ्यास हो सकता है। निम्न प्रकार से दस अलंकार सिखाए जाने चाहिए:
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{| class="wikitable"
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!1.
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!त्रिताल
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!सा रे ग म प ध नि सा
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सा नि ध प म ग रे सा
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|त्रिताल
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|सासा रेरे गग मम पप धध निनि सासा
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सासा निनि धध पप मम गग रेरे सासा
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|3.
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|दादरा/त्रिताल
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|सारेग रेगम गमप मपध पधनि धनिसा
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सानिध निधप धमप पमग मगरे गरेसा
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|4.
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|त्रिताल
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|सारेगम रेगमप गमपध मपधनि पधनिसा
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सानिधप निधमप धपमग पमगरे मगरेसा
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|-
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|5.
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|एकताल
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|साग रेम गप मध पनि धसा
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साध निप धम पग मरे गसा
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|-
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|6.
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|झपताल/दादरा
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|सारेसारेग रेगरेगम गमगमप मपमपध पधपधनि धनिधनिसा
 +
सानिसानिध निधनिधप धपधपम पमपमग मगमगरे गरेगरेसा
 +
|-
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|7.
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|
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|सारेगसारेगम रेगमरेगमप गमपगमपध मपधमपधनि पधनिपधनिसा
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सानिधसानिधप निधपनिधपम धपमधपमग पमगपमगरे मगरेमगरेसा
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|-
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|8.
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|दादरा
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|सासारे रेरेग गगम ममप पपध धधनि निनिसा
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सासानि निनिध धधम पपम ममग गगरे रेरेसा
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|-
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|9.
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|त्रिताल
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|सारेसारेसारेग रेगरेगरेगम गमगमगमप मपमपमपध पधपधपधनि धनिधनिधनिसा
 
सानिसानिसानिध निधनिधनिधप धपधपधपम पमपमपमग मगमगमगरे गरेगरेगरेसा।
 
सानिसानिसानिध निधनिधनिधप धपधपधपम पमपमपमग मगमगमगरे गरेगरेगरेसा।
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|-
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|10.
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|त्रिताल
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|सारेगग रेगमम गमपप मपधध पधनिनि धनिसासा
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सानिधध निधपप धपमम पमगग मगरेरे गरेसासा
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इन अलंकारों को सिखाने में भी जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। एक एक अलंकार पक्का बैठ जाए उसके बाद ही दूसरा अलंकार सिखाना चाहिए। अलंकार के अभ्यास से जिस तरह स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह उच्चारण का भी अभ्यास होता है। इसलिए उच्चारण पर ध्यान देना चाहिए।
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१०. सारेगग रेगमम गमपप मपधध पधनिनि धनिसासा - त्रिताल
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मंत्र, सूत्र एवं श्लोकपाठ
 
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सानिधध निधपप धपमम पमगग मगरेरे गरेसासा इन अलंकारों को सिखाने में भी जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। एक एक अलंकार पक्का बैठ जाए उसके बाद ही दूसरा अलंकार सिखाना चाहिए। अलंकार के अभ्यास से जिस तरह स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह
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उच्चारण का भी अभ्यास होता है। इसलिए उच्चारण पर ध्यान देना चाहिए। ४. मंत्र, सूत्र एवं श्लोकपाठ
      
मंत्रों या श्लोकों के शब्द एवं अर्थ का हिस्सा देखें तो उसका समावेश योग में होता है। परंतु श्लोकों में छंद होते हैं एवं छंदों की स्वररचना निश्चित होती है। मंत्रो की भी स्वररचना निश्चित होती है। वैदिक मंत्र की गानपद्धति को स्वरित पद्धति कहते हैं। इसलिए इसका समावेश संगीत विषय में भी होता है। इस दृष्टि से बहुत से प्रचलित अनुष्टुप एवं शार्दूलविक्रिडित जैसे छंद एवं वेद के कुछ मंत्र शुद्ध एवं बलवान स्वर में गाना सिखाना चाहिए। ताली बजाना ताल सीखने के लिए सबसे पहले ताली बजाना सीखना चाहिए। संख्या के अनुसार ताली बजवाना एवं गीत के साथ ताली बजाकर ताली बजाने का अभ्यास करवाना चाहिए। सामान्य ताल एवं बोल जिस तरह अलंकारों से स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह ताल के बोल से ताल का अभ्यास होता है। इसलिए प्रचलित तीन ताल का समावेश यहाँ किया गया है। १. कहेरवा मात्रा ४ १ मात्रा पर ताली खंड २ ३ मात्रा पर खाली
 
मंत्रों या श्लोकों के शब्द एवं अर्थ का हिस्सा देखें तो उसका समावेश योग में होता है। परंतु श्लोकों में छंद होते हैं एवं छंदों की स्वररचना निश्चित होती है। मंत्रो की भी स्वररचना निश्चित होती है। वैदिक मंत्र की गानपद्धति को स्वरित पद्धति कहते हैं। इसलिए इसका समावेश संगीत विषय में भी होता है। इस दृष्टि से बहुत से प्रचलित अनुष्टुप एवं शार्दूलविक्रिडित जैसे छंद एवं वेद के कुछ मंत्र शुद्ध एवं बलवान स्वर में गाना सिखाना चाहिए। ताली बजाना ताल सीखने के लिए सबसे पहले ताली बजाना सीखना चाहिए। संख्या के अनुसार ताली बजवाना एवं गीत के साथ ताली बजाकर ताली बजाने का अभ्यास करवाना चाहिए। सामान्य ताल एवं बोल जिस तरह अलंकारों से स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह ताल के बोल से ताल का अभ्यास होता है। इसलिए प्रचलित तीन ताल का समावेश यहाँ किया गया है। १. कहेरवा मात्रा ४ १ मात्रा पर ताली खंड २ ३ मात्रा पर खाली

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