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* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
 
* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
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* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
    
== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
 
== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है । अथर्जिन के लिए पात्रता चाहिए इसलिए बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह अथर्जिन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु अथर्जिन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अथर्जिन हेतु वास्तविक पात्रता उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते । शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अथर्जिन के लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना होती है । स्थिति यह है कि न अथर्जिन होता है न ज्ञानार्जन और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।  
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वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है । अर्थार्जन के लिए पात्रता चाहिए इसलिए बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह अर्थार्जन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु अर्थार्जन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अर्थार्जन हेतु वास्तविक पात्रता उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते । शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अर्थार्जन के लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना होती है । स्थिति यह है कि न अर्थार्जन होता है न ज्ञानार्जन और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।  
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आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए इसलिए है कि हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं । वास्तव में धार्मिक व्यवस्था कुट्म्ब को इकाई मानती है, व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण व्यक्ति के अथर्जिन और व्यक्ति के विकास और करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज तो संकटग्रस्त होता ही है ।
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आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए इसलिए है कि हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं । वास्तव में धार्मिक व्यवस्था कुट्म्ब को इकाई मानती है, व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण व्यक्ति के अर्थार्जन और व्यक्ति के विकास और करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज तो संकटग्रस्त होता ही है ।
    
अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे से करना होगा ।
 
अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे से करना होगा ।

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