Difference between revisions of "शिक्षा के प्रयोजन"

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सत्य और धर्म
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{{One source|date=August 2019}}
  
हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की
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== सत्य और धर्म<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १०, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ==
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हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है।वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व प्रथम करणीय कार्य है ।
  
धारणा करने वाले मूल तत्त्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस
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सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं है सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
  
सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है ।
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सम्पूर्ण सृष्टि के लिये है । मनुष्य और शेष सृष्टि में अन्तर केवल इतना है कि शेष सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से ही करती है जबकि मनुष्य को धर्म को और धर्म के पालन को सीखना पड़ता है । वह स्वभाव से ही धर्म का पालन करता ऐसा नहीं है। सत्य केवल मनुष्य के लिये ही अतः है क्योंकि मनुष्य ही वाणी का प्रयोग कर सकता है और सत्य वाणी का विषय है । अपने मन, बुद्धि और अहंकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोल सकता है और अधर्म का आचरण भी कर सकता है ।
  
वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के
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परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है । जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं ।
  
लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे
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मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और दारिद्रय फैल जाएँगे। असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो कोई किसी का विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण करता था। धर्माचरण करता था अतः सत्यभाषण भी करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय, दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का व्यवहार आरम्भ हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष आरम्भ हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी, छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले थे, वेद के दृष्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था । परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक था । अतः धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ । तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष जारी ही है ।
  
रहते हैं इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य
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यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
  
का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व
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शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्व जानना कितना दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है{{Citation needed}}
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:<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
  
प्रथम करणीय कार्य है ।
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सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं अतः उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं अतः कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक अतः नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। अतः सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है।
  
सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं
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धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय प्रेमपूर्ण चाहिये। हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया और करुणा, अनुकम्पा और उदारता, मैत्री और बन्धुता का व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे भाव जिसके पास नहीं हैं उसका हृदय कठोर कहा जाता है। कठोर हृदयी व्यक्ति को आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । उसे जीवन में रस भी नहीं आता । अत: प्रथम तो हृदय की शिक्षा चाहिये । दूसरा विवेक चाहिये। सत्य तो बुद्धि का ही विषय है । तात्त्विक और व्यावहारिक सत्य जानना आवश्यक है । तात्विक सत्य जानना तो एक बार सरल है परन्तु व्यावहारिक सत्य जानना कठिन है। उदाहरण के लिये सुवर्ण और मिट्टी दोनों ही पृथ्वी नामक महाभूत हैं यह जानना सरल है परन्तु सुवर्ण के अलंकार बनते हैं और मिट्टी का घड़ा यह जानने के लिये व्यावहारिक विवेक चाहिये। जगत के व्यवहार इतने जटिल होते हैं कि प्राप्त परिस्थिति में सत्य असत्य और धर्म अधर्म का निर्णय करना कठिन हो जाता है । ऐसा धर्म और सत्य जानना सबके लिये बहुत आवश्यक होता है। शिक्षा धर्म सिखाती है। सत्य की पहचान सिखाती है । हृदय, बुद्धि, मन आदि को सत्य और धर्म के आचरण हेतु सक्षम बनाती है। अर्थात्‌ शिक्षा का यह प्रथम दायित्व बनना चाहिये ।
  
बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता
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वर्तमान में स्थिति इससे बहुत विपरीत है यह बात सत्य है। परन्तु स्थिति विपरीत होने से वह न्याय्य नहीं हो जाती । शिक्षा के अन्य प्रयोजन भी हैं । वे भी महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु इस प्रथम प्रयोजन के बिना उन सभी प्रयोजनों की सार्थकता ही नहीं होती। सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा जाता है। कभी उसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है। परन्तु उसका प्रयास बहुत गौण रूप से होता है । धर्म विवाद का विषय बना है और सत्य कानून का। कानून यान्त्रिक है और सत्य को समझने में भी अक्षम है । इस स्थित में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिये बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं।
  
वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
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== शिक्षा राष्ट्रीय होती है ==
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पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार किया है । प्रजा, भूमि और जीवनदृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता है। तीनों का एकदूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । प्रजा भूमि को माता मानती है । यह स्वाभाविक है । इसके लिये किसी संविधान की आवश्यकता नहीं है । उस भूमि और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि है।
  
सम्पूर्ण सृष्टि के लिये है । मनुष्य और शेष सृष्टि में अन्तर
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राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें, प्रजा के सारे व्यवहार उस स्वभाव के अनुसार बनते हैं । यह जीवनदृष्टि उस राष्ट्र की शिक्षा का आधार होती है और शिक्षा से जीवनदृष्टि पुष्ट होती है। ऐसा जीवनदृष्टि और शिक्षाका परस्पर सम्बन्ध होता है । राष्ट्रजीवन समरस, समृद्ध, सुखी होना चाहिये । इसका अर्थ है राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिये । इतना ही नहीं तो एक राष्ट्र का हित विश्व के अन्य राष्ट्रों से अविरोधी होकर सुखी होना चाहिये । राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है एक एक व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूतात्मक प्रकृति, वृक्ष, वनस्पति और प्राणिजगत । इन सबके एकसाथ समरस, सुखी और समृद्ध बनने के लिये बहुत सारा सोचविचार करना होता है, बहुत सारी व्यवस्थायें करनी होती हैं।
  
केवल इतना है कि शेष सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से
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राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं:
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* यह सृष्टि आत्मतत्व का विस्तार है
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* जीवन एक और अखण्ड है ।
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* सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी सम्बन्ध एकात्मता का है ।
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* सज्जन व्यक्ति दूसरों का विचार प्रथम करता है, बाद में अपना ।
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* त्याग और सेवा व्यवहार के आदर्श हैं ।
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* अन्न पवित्र है।
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* विद्या, अन्न, औषध क्रय विक्रय की वस्तुयें नहीं हैं ।
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* एक ही सत्य को मनीषी भिन्न भिन्न नामों से पहचानते हैं ।
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* जगत में सभी भिन्न भिन्न दिखने वाले पदार्थों का तथा प्रजाओं का सहअस्तित्व सत्कार योग्य है ।
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* स्वतन्त्रता सबका मूल अधिकार है अतः सभी पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का सम्मान करना चाहिये ।
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* जगत मनुष्य के उपभोग के लिये नहीं बना है, मनुष्य ही सबकी रक्षा हेतु बना है ।
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* जगत में सर्व व्यवहार परिवारभावना से होना अपेक्षित है।
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ऐसे और भी अनेक सूत्र हैं जो भारत को अन्य देशों से भिन्न पहचान देते हैं । यह पहचान बनाए रखने के लिये शिक्षा होती है ।
  
ही करती है जबकि मनुष्य को धर्म को और धर्म के पालन
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भारत परम्परा का देश है। भारत में परम्परा के वाहक मुख्य दो केन्द्र हैं । एक है कुटुम्ब और दूसरा है विद्यालय । घर में वंशपरम्परा होती है जबकि विद्यालय में ज्ञानपरम्परा । एक में पितापुत्र परम्परा के वाहक हैं, दूसरे में गुरुशिष्य । इन दोनों परम्पराओं से जीवनशैली और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है। हस्तांतरण का यह कार्य जब सम्यक रूप में होता है तब राष्ट्रजीवन समरस, सुखी और समृद्ध बना रहता है । परम्परा खण्डित होती है तब राष्ट्रजीवन भी विश्रंखल हो जाता है । जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं रहती तब परम्परा खण्डित होती है ।
  
को सीखना पड़ता है । वह स्वभाव से ही धर्म का पालन
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शिक्षा सम्यक नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है । जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का था |
  
करता हो ऐसा नहीं है। सत्य केवल मनुष्य के लिये ही
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उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था, अत: राज्य किसी का भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही रहती थी। प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा का आधार ही उन्होंने बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे। यह केवल जानकारी नहीं थी। इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी। ऐसा सभी विषयों के साथ हुआ। यह केवल विषयों और उनकी विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की व्यवस्था बदल दी। भारत में शिक्षा स्वायत्त थी। ब्रिटिशों ने उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार शिक्षा दृष्टि भी बदल गई। व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन आरम्भ हुआ। विगत दस पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम बहुत हानिकारक हुए हैं। केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रों से भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण नष्ट नहीं हुआ है। समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन चलते रहे। परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना सके । आज भी धार्मिक और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। चूँकि शिक्षा का आधार ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।
  
इसलिए है क्योंकि मनुष्य ही वाणी का प्रयोग कर सकता है
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एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या धार्मिक और क्या अधार्मिक इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही हो जाती है । अतः किसी भी राष्ट्र को अपना स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है । विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, अफ्रीका में अफ्रीकी और जापान में जापानी ।
  
और सत्य वाणी का विषय है । अपने मन, बुद्धि और
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जब तक किसी भी राष्ट्र की जीवनदृष्टि लोकजीवन में प्रतिष्ठित रहती है तबतक राष्ट्र ज़िंदा रहता है । हम विश्व के इतिहास में देखते हैं कि अनेक राष्ट्र जो किसी एक कालखण्ड में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उच्च स्थिति पर थे वे कुछ समय के बाद काल के प्रवाह में लुप्त हो गये । परन्तु भारत विश्व के सभी राष्ट्रीं से पूर्व भी था और आज भी है।
  
अहंकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोल सकता है और
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विश्व में भारत सबसे प्राचीन देश है । इस चिरंजीविता का कारण यह है कि भारत की जीवनदृष्टि सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है। हम क्षीणप्राण हुए हैं परन्तु गतप्राण नहीं हुए। राष्ट्र की शिक्षाव्यवस्था इस चिरंजीविता के लिये प्रमुख रूप से कारणभूत है।
  
अधर्म का आचरण भी कर सकता है ।
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आज भी राष्ट्र के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की महती चुनौती खड़ी है। अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन इस कार्य में लगे हुए हैं । अनेक शोध संस्थान इस दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे हुए हैं। अनेक संस्थायें जनमानस प्रबोधन का कार्य भी कर रही है।
  
परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और
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आज देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं। एक प्रवाह अराष्ट्रीय शिक्षा का है, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का। दोनों तुल्यबल हैं। संवाद और संघर्ष दोनों चल रहे हैं। एक के पास अधिकार है, दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव। राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास भी डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। हमें आशा करनी चाहिये की हमारे पुरुषार्थ से हम शिक्षा को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय बनायें । भारत नामक राष्ट्र को विश्वगुरु बनने का दायित्व मिला है। उस दायित्व को निभाने के लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा।
  
धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है ।
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== शिक्षा समाजनिष्ठ  होनी चाहिये ==
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मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ जीना सामाजिक जीवन है । सामाजिक जीवन भौतिक समृद्धि, सुरक्षा और स्वतन्त्रता से युक्त हो यह आवश्यक है ।मनुष्य की आवश्यकतायें अधिक होती हैं । मनुष्य की इच्छायें अनंत होती हैं । मनुष्य रागद्वेष आदि के कारण स्वार्थी भी होता है । इस कारण से सुख,शान्ति, सुरक्षा आदि सब खतरे में पड़ जाते हैं । अपने मन के कारण यदि वह खतरे निर्माण करता है तो अपनी बुद्धि के सहारे वह खतरे से बचने के उपाय खोजता है ।
  
जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर
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इस मन और बुद्धि की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य ने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थायें बनाई हैं, विभिन्न शास्त्रों का निर्माण किया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित
  
नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में
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किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें अतः भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। अतः  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
  
उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो
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मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम]], चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर धार्मिक मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुटुम्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
  
सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा
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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
  
नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और
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यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर धार्मिक के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार सदा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
  
सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं
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वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे ।  
  
&S
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आज भी शिक्षकों को ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा। बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का धार्मिककरण करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता।
  
मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं तो
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इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं:
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* सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर निकल जाना होगा।
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* समाज को अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना होगा।
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* अर्थार्जन हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस बात को बढ़ावा देना होगा।
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* धार्मिक समाज का नियंत्रक तत्व धर्म है। ब्रिटिश राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को आधार देना होगा। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक धार्मिक ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर खड़ा हो।
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* शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा। केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा।
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* अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के साथ जोड़ना होगा।
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* लोगोंं का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानून के अनुसार अठारह वर्ष में ही हो । अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त अव्यवहारिक है।
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* बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों को ही समझाना होगा।
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* शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से योजना करनी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं। शासन ने अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना होगा।
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* प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों का काम है। उन्हें यह काम करना होगा।
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* ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते।
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* देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा।
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* इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और मानवतायुक्त बनायें।
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* जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश होता है। स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में और बाद में व्यवहार में लानी होगी।
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* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की आरम्भआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
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* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
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* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगोंं को तथा शिक्षा को समर्पित लोगोंं को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगोंं का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
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संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
  
अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और
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== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
 +
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है । अर्थार्जन के लिए पात्रता चाहिए अतः बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह अर्थार्जन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु अर्थार्जन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अर्थार्जन हेतु वास्तविक पात्रता उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते । शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अर्थार्जन के लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना होती है स्थिति यह है कि न अर्थार्जन होता है न ज्ञानार्जन और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।
  
aga het जाएँगे असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो
+
आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए अतः है कि हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं वास्तव में धार्मिक व्यवस्था कुटुम्ब को इकाई मानती है, व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण व्यक्ति के अर्थार्जन और व्यक्ति के विकास और करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज तो संकटग्रस्त होता ही है ।
  
कोई किसीका विश्वास ही नहीं करेगा अधर्म का आचरण
+
अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे से करना होगा
  
होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा यह सृष्टि
+
देशदुनिया की जो भी स्थिति हम चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को ही पुरुषार्थ करना होता है । व्यवस्था कुटुम्बकेन्द्री होती है, विचार अध्यात्मनिष्ठ होता है, व्यवहार आत्त्मीयतायुक्त होता है परन्तु पुरुषार्थ व्यक्तिकेन्द्री ही होता है । समर्थ राष्ट्र और सुन्दर विश्व के लिये प्रत्येक व्यक्ति को ही समर्थ और सज्जन बनना होता है । शिक्षा व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने वाली होनी चाहिए
  
विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि
+
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा:
 +
* प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग जगत के भले के लिये कर सकूँ अतः मुझे सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
 +
* सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है अतः प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगोंं के सुख का विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगोंं की परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
 +
* मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है । मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना चाहिए ।
 +
* मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
 +
* मनुष्य की भिन्न भिन्न संदर्भों में, भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न भूमिकायें निभानी होती हैं । वह व्यक्ति के रूप में तो युवा या वृद्ध, सुन्दर या कुरूप, बुद्धिमान या निर्बुद्ध, बलवान या दुर्बल होता है । इस व्यक्तित्व को पहचानकर उसे व्यवहार करना चाहिए । परन्तु कुटुम्ब में वह किसी का भाई, किसी का पति, किसी का पिता और किसी का पुत्र होता है । अन्य भी अनेक रिश्ते होते हैं । इन सब सम्बन्धों के कारण उसके अनेक कर्तव्य और अधिकार होते हैं । इनको भी सम्यक रूप में जानकर व्यवहार करना आना चाहिए । समाज में वह एक व्यवसायी है । उसे लेकर भी उसके अनेक दायित्व होते हैं । एक नागरिक के नाते वह एक धार्मिक है । उसे धार्मिक के नाते व्यवहार करना अपेक्षित है । यह व्यवहार सिखाना शिक्षा का ही काम है ।
 +
* सृष्टि के प्राणीजगत, वनस्पतिजगत को, पंचमहाभूतों को उससे सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । वे मनुष्य से भयभीत न हों उसी में उसका बड़प्पन है, उसका श्रेष्ठत्व है । मैं श्रेष्ठ हूँ अतः मैं सबको अपने वश में करूँगा ऐसा नहीं अपितु मैं बड़ा हूँ अतः सबकी रक्षा करूँगा ऐसा उसका भाव और व्यवहार होना चाहिये ।
 +
* व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है उसमें अपने मन को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए । अपनी इच्छाशक्ति को बलवान बनाने से ही कार्यसिद्धि होती है यह व्यक्ति की समझ में आना चाहिए । स्वामी विवेकानंद मन से संबंधित दो शक्तियों की चाह रखते हैं । ये दो शक्तियाँ हैं एकाग्रता की और ब्रह्मचर्य की । ये दोनों सामर्थ्य बढ़ाने की शक्तियाँ हैं । इस दृष्टि से पाठ्यक्रमों की रचना होना आवश्यक है ।
 +
* मनुष्य को बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उसकी बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए । अपनी बुद्धि से ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके ऐसा सामर्थ्य उसमें है । शिक्षा के माध्यम से उसका विकास होना चाहिए । पूर्व में कहा है उसके अनुसार समाजधारणा के लिये आवश्यक शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्र के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करना ही बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना है । स्वयं शास्त्र की रचना करना और अन्यों ने की हुई रचना समझना उसका काम है । ऐसी बुद्धि का विकास शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए।
 +
* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 +
* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
 +
इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए। वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत वस्तुस्थिति है। परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है अतः वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता। उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है। शिक्षा का अधार्मिक प्रतिमान दूर कर यदि धार्मिक प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे। यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है। अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है। कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है। आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए। भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत सदा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है।
  
सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण
+
==References==
 +
<references />
  
करता Ml waka करता था इसलिए सत्यभाषण भी
+
[[Category:पर्व 2: उद्देश्य निर्धारण]]
 
 
करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और
 
 
 
सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय,
 
 
 
दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय
 
 
 
हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य
 
 
 
का व्यवहार शुरू हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष शुरू
 
 
 
हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह,
 
 
 
मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी,
 
 
 
छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने
 
 
 
लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद
 
 
 
के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने
 
 
 
वाले थे, वेद के द्र्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे
 
 
 
परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा
 
 
 
त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों
 
 
 
का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और
 
 
 
सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था
 
 
 
ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और
 
 
 
तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था ।
 
 
 
परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक
 
 
 
था । इसलिए धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ ।
 
 
 
तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष
 
 
 
जारी ही है ।
 
 
 
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यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है
 
 
 
और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में
 
 
 
भी है । इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का
 
 
 
स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म
 
 
 
को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान
 
 
 
ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया
 
 
 
हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण
 
 
 
करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को
 
 
 
जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित
 
 
 
व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये
 
 
 
सहज नहीं होता है ।
 
 
 
शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना
 
 
 
है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्त्व जानना कितना
 
 
 
दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है
 
 
 
तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌
 
 
 
धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।
 
 
 
अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी
 
 
 
सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती
 
 
 
हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण
 
 
 
मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में
 
 
 
छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं
 
 
 
उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
 
 
 
सामान्य जन की यह कठिनाई है । तर्क उसकी बुद्धि में
 
 
 
उतरता नहीं इसलिए उसके जंगल में भटक जाता है।
 
 
 
स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं इसलिए कालबाह्म भी होती
 
 
 
हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक
 
 
 
करना होता है जो उसके पास नहीं होता है । विवेक इसलिए
 
 
 
नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है ।
 
 
 
मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है । उनके
 
 
 
वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती । अत: वह और किसी झंझट
 
 
 
में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण
 
 
 
और अनुकरण करता है । किसे महाजन मानना यह निश्चित
 
 
 
करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह
 
 
 
सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि
 
 
 
go
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है । इसलिए
 
 
 
सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता
 
 
 
है।
 
 
 
धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय
 
 
 
प्रेमपूर्ण चाहिये । हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया और
 
 
 
करुणा, अनुकम्पा और उदारता, मैत्री और बन्धुता का
 
 
 
व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे भाव जिसके पास नहीं हैं
 
 
 
उसका हृदय कठोर कहा जाता है । कठोर हृदयी व्यक्ति को
 
 
 
आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । उसे जीवन में रस भी
 
 
 
नहीं आता । अत: प्रथम तो हृदय की शिक्षा चाहिये । दूसरा
 
 
 
विवेक चाहिये । सत्य तो बुद्धि का ही विषय है । तात्त्विक
 
 
 
और व्यावहारिक सत्य जानना आवश्यक है । तात्विक सत्य
 
 
 
जानना तो एक बार सरल है परन्तु व्यावहारिक सत्य जानना
 
 
 
कठिन है । उदाहरण के लिये सुवर्ण और मिट्टी दोनों ही
 
 
 
पृथ्वी नामक महाभूत हैं यह जानना सरल है परन्तु सुवर्ण के
 
 
 
अलंकार बनते हैं और मिट्टी का घड़ा यह जानने के लिये
 
 
 
व्यावहारिक विवेक चाहिये । जगत के व्यवहार इतने जटिल
 
 
 
होते हैं कि प्राप्त परिस्थिति में सत्य असत्य और धर्म अधर्म
 
 
 
का निर्णय करना कठिन हो जाता है । ऐसा धर्म और सत्य
 
 
 
जानना सबके लिये बहुत आवश्यक होता है ।
 
 
 
शिक्षा धर्म सिखाती है । सत्य की पहचान सिखाती
 
 
 
है । हृदय, बुद्धि, मन आदि को सत्य और धर्म के आचरण
 
 
 
हेतु सक्षम बनाती है । अर्थात्‌ शिक्षा का यह प्रथम दायित्व
 
 
 
बनना चाहिये ।
 
 
 
वर्तमान में स्थिति इससे बहुत विपरीत है यह बात
 
 
 
सत्य है । परन्तु स्थिति विपरीत होने से वह न्याय्य नहीं हो
 
 
 
जाती । शिक्षा के अन्य प्रयोजन भी हैं । वे भी महत्त्वपूर्ण हैं
 
 
 
परन्तु इस प्रथम प्रयोजन के बिना उन सभी प्रयोजनों की
 
 
 
सार्थकता ही नहीं होती ।
 
 
 
सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा
 
 
 
जाता है। कभी उसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा
 
 
 
जाता है। परन्तु उसका प्रयास बहुत गौण रूप से होता है ।
 
 
 
धर्म विवाद का विषय बना है और सत्य कानून का । कानून
 
 
 
यान्त्रिक है और सत्य को समझने में भी अक्षम है । इस
 
 
 
स्थित में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिये बहुत अधिक
 
 
 
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पर्व : उद्देश्यनिर्धारण
 
 
 
प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
 
 
 
शिक्षा राष्ट्रीय होती है
 
 
 
पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार
 
 
 
किया है । प्रजा, भूमि और जीवनदृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता
 
 
 
है। तीनों का एकदूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है ।
 
 
 
प्रजा भूमि को माता मानती है । यह स्वाभाविक है । इसके
 
 
 
लिये किसी संविधान की आवश्यकता नहीं है । उस भूमी
 
 
 
और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि है ।
 
 
 
राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें, प्रजा के सारे व्यवहार उस
 
 
 
स्वभाव के अनुसार बनते हैं । यह जीवनदृष्टि उस राष्ट्र की
 
 
 
शिक्षा का आधार होती है और शिक्षा से जीवनदृष्टि पुष्ट होती
 
 
 
है । ऐसा जीवनदृष्टि और शिक्षाका परस्पर सम्बन्ध होता है ।
 
 
 
राष्ट्रजीवन समरस, समृद्ध, सुखी होना चाहिये । इसका
 
 
 
अर्थ है राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिये । इतना ही नहीं
 
 
 
तो एक राष्ट्र का हित विश्व के अन्य राष्ट्रों से अविरोधी होकर
 
 
 
सुखी होना चाहिये । राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है एक एक
 
 
 
व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूतात्मक प्रकृति, वृक्ष
 
 
 
वनस्पति और प्राणिजगत । इन सबके एकसाथ समरस, सुखी
 
 
 
और समृद्ध बनने के लिये बहुत सारा सोचविचार करना होता
 
 
 
है, बहुत सारी व्यवस्थायें करनी होती हैं ।
 
 
 
राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और
 
 
 
जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की
 
 
 
जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं ...
 
 
 
०... यह सृष्टि आत्मतत्त्व का विस्तार है ।
 
 
 
०... जीवन एक और अखण्ड है ।
 
 
 
०... सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी
 
 
 
सम्बन्ध एकात्मता का है ।
 
 
 
<nowiki>*</nowiki>... सऊ्न व्यक्ति दूसरों का विचार प्रथम करता है, बाद
 
 
 
में अपना ।
 
 
 
०... त्याग और सेवा व्यवहार के आदर्श हैं ।
 
 
 
०. अन्न पवित्र है।
 
 
 
०... विद्या, अन्न, औषध क्रय विक्रय की वस्तुयें नहीं हैं ।
 
 
 
© एक ही सत्य को मनीषी भिन्न भिन्न नामों से पहचानते
 
 
 
हैं । उपासना के मार्गों का वैविध्य होने पर भी ईश्वर
 
 
 
७१
 
 
 
एक है । उपासना के सभी मार्गों
 
 
 
का गंतव्य एक ही है । इसलिए सर्वपंथसमादर ही
 
 
 
सज्जनों का व्यवहार है ।
 
 
 
०... जगत में सभी भिन्न भिन्न दिखने वाले पदार्थों का तथा
 
 
 
प्रजाओं का सहअस्तित्व सत्कार योग्य है ।
 
 
 
०... स्वतन्त्रता सबका मूल अधिकार है इसलिए सभी
 
 
 
पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का सम्मान करना
 
 
 
चाहिये ।
 
 
 
०... जगत मनुष्य के उपभोग के लिये नहीं बना है, मनुष्य
 
 
 
ही सबकी रक्षा हेतु बना है ।
 
 
 
०... जगत में सर्व व्यवहार परिवारभावना से होना अपेक्षित
 
 
 
है।
 
 
 
ऐसे और भी अनेक सूत्र हैं जो भारत को अन्य देशों
 
 
 
से भिन्न पहचान देते हैं । यह पहचान बनाए रखने के लिये
 
 
 
शिक्षा होती है ।
 
 
 
भारत परम्परा का देश है । भारत में परम्परा के वाहक
 
 
 
मुख्य दो केन्द्र हैं । एक है कुट्म्ब और दूसरा है विद्यालय ।
 
 
 
घर में वंशपरम्परा होती है जबकि विद्यालय में ज्ञानपरम्परा ।
 
 
 
एक में पितापुत्र परम्परा के वाहक हैं, दूसरे में गुरुशिष्य । इन
 
 
 
दोनों परम्पराओं से जीवनशैली और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी
 
 
 
पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है । हस्तांतरण का यह कार्य जब
 
 
 
wap रूप में होता है तब राष्ट्रजीवन समरस, सुखी और
 
 
 
समृद्ध बना रहता है । परम्परा खण्डित होती है तब राष्ट्रजीवन
 
 
 
भी विशुूँखल हो जाता है । जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक
 
 
 
नहीं रहती तब परम्परा खण्डित होती है ।
 
 
 
शिक्षा सम्यकू नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है ।
 
 
 
जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो
 
 
 
जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता
 
 
 
है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के
 
 
 
परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले
 
 
 
सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध
 
 
 
तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं
 
 
 
शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना
 
 
 
चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का AT |
 
 
 
उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज
 
 
 
............. page-88 .............
 
 
 
शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था,
 
 
 
अत: राज्य किसीका भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र
 
 
 
ही रहती थी । प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने
 
 
 
शिक्षा का यूरोपीकरण किया । शिक्षा का आधार ही उन्होंने
 
 
 
बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र,
 
 
 
मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे । यह केवल जानकारी
 
 
 
नहीं थी । इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही
 
 
 
उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं
 
 
 
अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी । ऐसा सभी
 
 
 
विषयों के साथ हुआ । यह केवल विषयों और उनकी
 
 
 
विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की
 
 
 
व्यवस्था बदल दी । भारत में शिक्षा स्वायत्त थी । ब्रिटिशों ने
 
 
 
उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क
 
 
 
चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार
 
 
 
शिक्षा दृष्टि भी बदल गई । व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के
 
 
 
माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन शुरू हुआ । विगत दस
 
 
 
पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि
 
 
 
और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम
 
 
 
बहुत हानिकारक हुए हैं । केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रीं से
 
 
 
भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष
 
 
 
निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण
 
 
 
नष्ट नहीं हुआ है । समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के
 
 
 
चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन
 
 
 
चलते रहे । परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना
 
 
 
सके । आज भी भारतीय और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण
 
 
 
शिक्षा का आधार बना हुआ है । चूँकि शिक्षा का आधार
 
 
 
ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।
 
 
 
एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में
 
 
 
हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या भारतीय और क्या
 
 
 
अभारतीय इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब
 
 
 
राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति
 
 
 
ऐसी ही हो जाती है । इसलिए किसी भी राष्ट्र को अपना
 
 
 
स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना
 
 
 
चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है ।
 
 
 
विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा
 
 
 
७२
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, आफ्रिका में आफ्रीकी और
 
 
 
जापान में जापानी ।
 
 
 
जबतक किसी भी राष्ट्र कि जीवनदृष्टि लोकजीवन में
 
 
 
प्रतिष्ठित रहती है तबतक राष्ट्र ज़िंदा रहता है । हम विश्व के
 
 
 
इतिहास में देखते हैं कि अनेक राष्ट्र जो किसी एक
 
 
 
कालखण्ड में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उच्च स्थिति पर थे वे
 
 
 
कुछ समय के बाद काल के प्रवाह में लुप्त हो गये । परन्तु
 
 
 
भारत विश्व के सभी राष्ट्रीं से पूर्व भी था और आज भी है ।
 
 
 
विश्व में भारत सबसे प्राचीन देश है । इस चिरंजीविता का
 
 
 
कारण यह है कि भारत की जीवनदृष्टि सर्वथा लुप्त नहीं हो
 
 
 
गई है । हम क्षीणप्राण हुए हैं परन्तु गतप्राण नहीं हुए । राष्ट्र
 
 
 
की शिक्षाव्यवस्था इस चिरंजीविता के लिये प्रमुख रूप से
 
 
 
कारणभूत है ।
 
 
 
आज भी राष्ट्र के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की
 
 
 
महती चुनौती खड़ी है । अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक
 
 
 
संगठन इस कार्य में लगे हुए हैं । अनेक शोध संस्थान इस
 
 
 
दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे हुए हैं ।
 
 
 
अनेक संस्थायें जनमानस प्रबोधन का कार्य भी कर रही है ।
 
 
 
आज देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं । एक प्रवाह
 
 
 
अराष्ट्रीय शिक्षा का है, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का । दोनों
 
 
 
तुल्यबल हैं । संवाद और संघर्ष दोनों चल रहे हैं । एक के
 
 
 
पास अधिकार है, दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव ।
 
 
 
राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास भी डेढ़सौ वर्ष पुराना
 
 
 
है । हमें आशा करनी चाहिये की हमारे पुरुषार्थ से हम शिक्षा
 
 
 
को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय बनायें । भारत नामक राष्ट्र को विश्वगुरु
 
 
 
बनने का दायित्व मिला है । उस दायित्व को निभाने के
 
 
 
लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा ।
 
 
 
शिक्षा समाजनिष्ट होनी चाहिये
 
 
 
मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ
 
 
 
जीना सामाजिक जीवन है । सामाजिक जीवन भौतिक
 
 
 
समृद्धि, सुरक्षा और स्वतन्त्रता से युक्त हो यह आवश्यक है ।
 
 
 
मनुष्य की आवश्यकतायें अधिक होती हैं । मनुष्य की
 
 
 
इच्छायें अनंत होती हैं । मनुष्य रागद्रष आदि के कारण
 
 
 
स्वार्थी भी होता है । इस कारण से सुख,शान्ति, सुरक्षा आदि
 
 
 
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
 
 
 
सब खतरे में पड़ जाते हैं । अपने मन के कारण यदि वह
 
 
 
खतरे निर्माण करता है तो अपनी बुद्धि के सहारे वह खतरे से
 
 
 
बचने के उपाय खोजता है ।
 
 
 
इस मन और बुद्धि की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य ने
 
 
 
विभिन्न सामाजिक व्यवस्थायें बनाई हैं, विभिन्न शास्त्रों का
 
 
 
निर्माण किया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित
 
 
 
किया है ।
 
 
 
भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के
 
 
 
उत्पादन की कला सीखी है । साथ ही उनके निर्माण, वितरण
 
 
 
और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में
 
 
 
सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए । अपने कई काम सुकर हो सकें
 
 
 
इसलिए भी यंत्र बनाए । इस सृष्टि को जानना चाहा और
 
 
 
भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से
 
 
 
उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये । विज्ञान को
 
 
 
उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु
 
 
 
अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन
 
 
 
बनाया । ( इसलिए  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ
 
 
 
गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित
 
 
 
करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये । )
 
 
 
मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने
 
 
 
का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार
 
 
 
पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की
 
 
 
रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित
 
 
 
करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही
 
 
 
समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा
 
 
 
और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव
 
 
 
धर्मशास्त्र कहकर भारतीय मनीषा ने अपने आपको भारत में
 
 
 
सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र
 
 
 
बनाया ।
 
 
 
मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने
 
 
 
कुट्म्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को
 
 
 
पतिपत्नी बनाने हेतु विवाहसंस्कार और विवाहसंस्था की
 
 
 
tat की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया
 
 
 
और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे
 
 
 
उदार Aaa को विकास का पर्याय बनाया ।
 
 
 
9%
 
 
 
परिवारभावना को ही. राज्यसंस्था,
 
 
 
वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्त्व बनाया ।
 
 
 
इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित
 
 
 
शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये
 
 
 
खुलापन भी रखा ।
 
 
 
काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की
 
 
 
परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को
 
 
 
परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें
 
 
 
विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि
 
 
 
को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों
 
 
 
में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज
 
 
 
को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले
 
 
 
मूल तत्त्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास
 
 
 
लक्षण बना ।
 
 
 
यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का
 
 
 
उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो
 
 
 
समाजव्यवस्था है उसे हर भारतीय के हृदय और बुद्धि में
 
 
 
उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के
 
 
 
अलावा उसका कोई साधन नहीं है ।
 
 
 
शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही
 
 
 
है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका
 
 
 
विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन
 
 
 
करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों
 
 
 
का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता
 
 
 
को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका
 
 
 
विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी
 
 
 
निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा
 
 
 
शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
 
 
 
वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार
 
 
 
वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं ।
 
 
 
ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे
 
 
 
और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की
 
 
 
ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी
 
 
 
करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति,
 
 
 
संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके steal
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
स्थापित करने वाले ही थे । आज भी शासन की सहायता, वि्ेंद्रित उत्पादन और आर्थिक
 
 
 
शिक्षकों ने ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से
 
 
 
शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा । योजना करनी होगी । आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था
 
 
 
बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं । शासन ने
 
 
 
करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को
 
 
 
को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना
 
 
 
योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता । होगा ।
 
 
 
इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं ... ०... प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों
 
 
 
०... सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर का काम है । उन्हें यह काम करना होगा ।
 
 
 
निकल जाना होगा । ०... ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी
 
 
 
०... समाज को अथर्जिन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या
 
 
 
होगा । के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते ।
 
 
 
© aah हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस... *... देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी
 
 
 
बात को बढ़ावा देना होगा। प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के
 
 
 
०... भारतीय समाज का नियंत्रक तत्त्व धर्म है । ब्रिटिश संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर
 
 
 
राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक
 
 
 
नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा ।
 
 
 
आधार देना होगा । धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने. *. इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने
 
 
 
मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक भारतीय होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और
 
 
 
ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर मानवतायुक्त बनायें ।
 
 
 
खड़ा हो । ०... जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध
 
 
 
०. शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश
 
 
 
स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा | होता है । स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में
 
 
 
केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा । और बाद में व्यवहार में लानी होगी ।
 
 
 
०... अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के... *... शिक्षा ने कुट्म्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना
 
 
 
साथ जोड़ना होगा । होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने
 
 
 
०... लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है कुट्म्बशिक्षा की योजना बनानी होगी । समाज को
 
 
 
उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुट्म्ब को स्वायत्त बनाने
 
 
 
भले ही प्रत्यक्ष अथर्जिन कानून के अनुसार अठारह से करनी होगी ।
 
 
 
वर्ष में ही हो । अथर्जिन की पात्रता कम से कम दस... *... आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है
 
 
 
वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह उसके स्थान पर कुट्म्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी ।
 
 
 
वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अथर्जिन आदि का केन्द्र
 
 
 
अव्यवहारिक है । erst को बनाना होगा । सांस्कृतिक इकाई और
 
 
 
०... बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों ने आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ
 
 
 
ही समझाना होगा । ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा ।
 
 
 
ov
 
 
 
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
 
 
 
देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार
 
 
 
बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण
 
 
 
करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को
 
 
 
समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना
 
 
 
होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व
 
 
 
ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग
 
 
 
अथर्जिन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम
 
 
 
में लगना होगा ।
 
 
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन
 
 
 
का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह
 
 
 
यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी
 
 
 
पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
 
 
व्यक्ति को समर्थ बनाना
 
 
 
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो
 
 
 
रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की
 
 
 
आवश्यकता होती है । अथर्जिन के लिए पात्रता चाहिए
 
 
 
इसलिए बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया
 
 
 
जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह
 
 
 
अधथर्जिन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु
 
 
 
अथर्जिन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके
 
 
 
पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अथर्जिन हेतु वास्तविक पात्रता
 
 
 
उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी
 
 
 
व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते ।
 
 
 
शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह
 
 
 
कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अधथर्जिन के
 
 
 
लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना
 
 
 
होती है । स्थिति यह है कि न अथर्जिन होता है न ज्ञानार्जन
 
 
 
और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।
 
 
 
आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए इसलिए है कि हम
 
 
 
व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं ।
 
 
 
वास्तव में भारतीय व्यवस्था कुट्म्ब को इकाई मानती है,
 
 
 
व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के
 
 
 
कारण व्यक्ति के अथर्जिन और व्यक्ति के विकास और
 
 
 
करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी
 
 
 
७५
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य
 
 
 
समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है
 
 
 
वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज
 
 
 
तो संकटग्रस्त होता ही है ।
 
 
 
अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे
 
 
 
से करना होगा ।
 
 
 
देशदुनिया की जो भी स्थिति हम चाहते हैं उसे प्राप्त
 
 
 
करने के लिये व्यक्ति को ही पुरुषार्थ करना होता है ।
 
 
 
व्यवस्था कुटुम्बकेन्द्री होती है, विचार अध्यात्मनिष्ठ होता है,
 
 
 
व्यवहार आत्त्मीयतायुक्त होता है परन्तु पुरुषार्थ व्यक्तिकेन्द्री
 
 
 
ही होता है । समर्थ राष्ट्र और सुन्दर विश्व के लिये प्रत्येक
 
 
 
व्यक्ति को ही समर्थ और सज्जन बनना होता है । शिक्षा
 
 
 
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने वाली होनी चाहिए ।
 
 
 
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस
 
 
 
प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा ...
 
 
 
०... प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है
 
 
 
और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ
 
 
 
इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर
 
 
 
मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग
 
 
 
जगत के भले के लिये कर सकूँ इसलिए मुझे सामर्थ्य
 
 
 
प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
 
 
 
०... सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है इसलिए
 
 
 
प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ
 
 
 
करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ
 
 
 
देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगों के सुख का
 
 
 
विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं
 
 
 
हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं
 
 
 
सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगों की
 
 
 
परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
 
 
 
०... मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है
 
 
 
परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल
 
 
 
खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है ।
 
 
 
मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट
 
 
 
नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही
 
 
 
कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख
 
 
 
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प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना
 
 
 
चाहिए ।
 
 
 
मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा
 
 
 
का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और
 
 
 
समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
 
 
 
मनुष्य की भिन्न भिन्न संदर्भों में, भिन्न भिन्न
 
 
 
परिस्थितियों में भिन्न भिन्न भूमिकायें निभानी होती हैं ।
 
 
 
वह व्यक्ति के रूप में तो युवा या वृद्ध, सुन्दर या
 
 
 
कुरूप, बुद्धिमान या निर्बुद्ध, बलवान या दुर्बल होता
 
 
 
है । इस व्यक्तित्व को पहचानकर उसे व्यवहार करना
 
 
 
चाहिए । परन्तु कुटुम्ब में वह किसीका भाई, किसीका
 
 
 
पति, किसीका पिता और किसीका पुत्र होता है ।
 
 
 
अन्य भी अनेक रिश्ते होते हैं । इन सब सम्बन्धों के
 
 
 
कारण उसके अनेक कर्तव्य और अधिकार होते हैं ।
 
 
 
इनको भी सम्यक रूप में जानकर व्यवहार करना
 
 
 
आना चाहिए । समाज में वह एक व्यवसायी है । उसे
 
 
 
लेकर भी उसके अनेक दायित्व होते हैं । एक नागरिक
 
 
 
के नाते वह एक भारतीय है । उसे भारतीय के नाते
 
 
 
व्यवहार करना अपेक्षित है । यह व्यवहार सिखाना
 
 
 
शिक्षा का ही काम है ।
 
 
 
सृष्टि के प्राणीजगत ot, वनस्पतिजगत को,
 
 
 
पंचमहाभूतों को उससे सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । वे
 
 
 
मनुष्य से भयभीत न हों उसी में उसका बड़प्पन है,
 
 
 
उसका श्रेष्ठत्व है । मैं श्रेष्ठ हूँ इसलिए मैं सबको अपने
 
 
 
वश में करूँगा ऐसा नहीं अपितु मैं बड़ा हूँ इसलिए
 
 
 
सबकी रक्षा करूँगा ऐसा उसका भाव और व्यवहार
 
 
 
होना चाहिये ।
 
 
 
व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है उसमें अपने मन
 
 
 
को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए । अपनी
 
 
 
इच्छाशक्ति को बलवान बनाने से ही कार्यसिद्धि होती
 
 
 
है यह व्यक्ति की समझ में आना चाहिए । स्वामी
 
 
 
विवेकानंद मन से संबंधित दो शक्तियों की चाह रखते
 
 
 
हैं । ये दो शक्तियाँ हैं एकाग्रता की और ब्रह्मचर्य की ।
 
 
 
ये दोनों सामर्थ्य बढ़ाने की शक्तियाँ हैं । इस दृष्टि से
 
 
 
पाठ्यक्रमों की रचना होना आवश्यक है ।
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
मनुष्य को बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उसकी
 
 
 
बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए । अपनी बुद्धि से
 
 
 
ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके ऐसा सामर्थ्य उसमें है ।
 
 
 
शिक्षा के माध्यम से उसका विकास होना चाहिए ।
 
 
 
पूर्व में कहा है उसके अनुसार समाजधारणा के लिये
 
 
 
आवश्यक शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्र के
 
 
 
अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करना ही बुद्धिपूर्वक व्यवहार
 
 
 
करना है । स्वयं शास्त्र की रचना करना और अन्यों ने
 
 
 
की हुई रचना समझना उसका काम है । ऐसी बुद्धि का
 
 
 
विकास शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए ।
 
 
 
स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है ।
 
 
 
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक
 
 
 
और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त
 
 
 
स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना
 
 
 
चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा
 
 
 
पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों
 
 
 
की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी
 
 
 
स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है ।
 
 
 
अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का
 
 
 
उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा
 
 
 
कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक
 
 
 
कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य,
 
 
 
संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे
 
 
 
इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 
 
 
मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक
 
 
 
पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना
 
 
 
करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है ।
 
 
 
संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो
 
 
 
सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना
 
 
 
करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास
 
 
 
हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता
 
 
 
है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और
 
 
 
निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
 
 
 
इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में
 
 
 
करना चाहिए । वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत है यह
 
 
 
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पर्व २ : उद्देश्यनिर्धारण
 
 
 
वस्तुस्थिति है । परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है
 
 
 
इसलिए वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता । उसे
 
 
 
ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना
 
 
 
अपेक्षित है । शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान दूर कर यदि
 
 
 
भारतीय प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक
 
 
 
प्रयास करने होंगे । यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है,
 
 
 
चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है ।
 
 
 
अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए
 
 
 
ऐसा यह कार्य है । कहीं पर भी समझौते
 
 
 
न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते
 
 
 
हुए करने का यह कार्य है । आज समझौते करने की प्रवृत्ति
 
 
 
बहुत दिखाई देती है । उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए ।
 
 
 
भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही
 
 
 
नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा
 
 
 
समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है ।
 

Latest revision as of 18:21, 15 January 2021

सत्य और धर्म[1]

हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है।वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व प्रथम करणीय कार्य है ।

सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म

सम्पूर्ण सृष्टि के लिये है । मनुष्य और शेष सृष्टि में अन्तर केवल इतना है कि शेष सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से ही करती है जबकि मनुष्य को धर्म को और धर्म के पालन को सीखना पड़ता है । वह स्वभाव से ही धर्म का पालन करता ऐसा नहीं है। सत्य केवल मनुष्य के लिये ही अतः है क्योंकि मनुष्य ही वाणी का प्रयोग कर सकता है और सत्य वाणी का विषय है । अपने मन, बुद्धि और अहंकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोल सकता है और अधर्म का आचरण भी कर सकता है ।

परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है । जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं ।

मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और दारिद्रय फैल जाएँगे। असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो कोई किसी का विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण करता था। धर्माचरण करता था अतः सत्यभाषण भी करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय, दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का व्यवहार आरम्भ हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष आरम्भ हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी, छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले थे, वेद के दृष्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था । परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक था । अतः धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ । तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष जारी ही है ।

यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।

शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्व जानना कितना दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है[citation needed]

तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌

धर्मस्य तत्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।

अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।

सामान्य जन की यह कठिनाई है। तर्क उसकी बुद्धि में उतरता नहीं अतः उसके जंगल में भटक जाता है। स्मृतियाँ कालानुरूप होती हैं अतः कालबाह्म भी होती हैं। अनेक स्मृतियों में से कौनसी मानना इसका विवेक करना होता है जो उसके पास नहीं होता है। विवेक अतः नहीं होता क्योंकि उसकी उसे शिक्षा नहीं मिली होती है । मनीषियों का भी मामला स्मृतियों जैसा ही होता है। उनके वचनों में उसे श्रद्धा नहीं होती। अत: वह और किसी झंझट में न पड़ते हुए स्वयं जिन्हें महाजन मानता है उनका अनुसरण और अनुकरण करता है। किसे महाजन मानना यह निश्चित करने का विवेक अथवा परम्परा यदि उसके पास है तो यह सरल मार्ग है । परन्तु यह विवेक होना ही कठिन है क्योंकि ऐसा विवेक सिखाने वाला भी धर्म ही होता है। अतः सामान्य जन हो या विशेष जन उसे धर्म तो सीखना ही होता है।

धर्म और सत्य सीखने के लिये मनुष्य का हृदय प्रेमपूर्ण चाहिये। हृदय में प्रेम नहीं है तो वह दया और करुणा, अनुकम्पा और उदारता, मैत्री और बन्धुता का व्यवहार नहीं कर सकता । ऐसे भाव जिसके पास नहीं हैं उसका हृदय कठोर कहा जाता है। कठोर हृदयी व्यक्ति को आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । उसे जीवन में रस भी नहीं आता । अत: प्रथम तो हृदय की शिक्षा चाहिये । दूसरा विवेक चाहिये। सत्य तो बुद्धि का ही विषय है । तात्त्विक और व्यावहारिक सत्य जानना आवश्यक है । तात्विक सत्य जानना तो एक बार सरल है परन्तु व्यावहारिक सत्य जानना कठिन है। उदाहरण के लिये सुवर्ण और मिट्टी दोनों ही पृथ्वी नामक महाभूत हैं यह जानना सरल है परन्तु सुवर्ण के अलंकार बनते हैं और मिट्टी का घड़ा यह जानने के लिये व्यावहारिक विवेक चाहिये। जगत के व्यवहार इतने जटिल होते हैं कि प्राप्त परिस्थिति में सत्य असत्य और धर्म अधर्म का निर्णय करना कठिन हो जाता है । ऐसा धर्म और सत्य जानना सबके लिये बहुत आवश्यक होता है। शिक्षा धर्म सिखाती है। सत्य की पहचान सिखाती है । हृदय, बुद्धि, मन आदि को सत्य और धर्म के आचरण हेतु सक्षम बनाती है। अर्थात्‌ शिक्षा का यह प्रथम दायित्व बनना चाहिये ।

वर्तमान में स्थिति इससे बहुत विपरीत है यह बात सत्य है। परन्तु स्थिति विपरीत होने से वह न्याय्य नहीं हो जाती । शिक्षा के अन्य प्रयोजन भी हैं । वे भी महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु इस प्रथम प्रयोजन के बिना उन सभी प्रयोजनों की सार्थकता ही नहीं होती। सत्य और धर्म की शिक्षा को आज मूल्य शिक्षा कहा जाता है। कभी उसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा भी कहा जाता है। परन्तु उसका प्रयास बहुत गौण रूप से होता है । धर्म विवाद का विषय बना है और सत्य कानून का। कानून यान्त्रिक है और सत्य को समझने में भी अक्षम है । इस स्थित में सत्य और धर्म की शिक्षा के लिये बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं।

शिक्षा राष्ट्रीय होती है

पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार किया है । प्रजा, भूमि और जीवनदृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता है। तीनों का एकदूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । प्रजा भूमि को माता मानती है । यह स्वाभाविक है । इसके लिये किसी संविधान की आवश्यकता नहीं है । उस भूमि और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवनदृष्टि है।

राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें, प्रजा के सारे व्यवहार उस स्वभाव के अनुसार बनते हैं । यह जीवनदृष्टि उस राष्ट्र की शिक्षा का आधार होती है और शिक्षा से जीवनदृष्टि पुष्ट होती है। ऐसा जीवनदृष्टि और शिक्षाका परस्पर सम्बन्ध होता है । राष्ट्रजीवन समरस, समृद्ध, सुखी होना चाहिये । इसका अर्थ है राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिये । इतना ही नहीं तो एक राष्ट्र का हित विश्व के अन्य राष्ट्रों से अविरोधी होकर सुखी होना चाहिये । राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है एक एक व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूतात्मक प्रकृति, वृक्ष, वनस्पति और प्राणिजगत । इन सबके एकसाथ समरस, सुखी और समृद्ध बनने के लिये बहुत सारा सोचविचार करना होता है, बहुत सारी व्यवस्थायें करनी होती हैं।

राष्ट्रीयता की व्यवस्थाओं को ही व्यवस्थाधर्म और जीवनशैली कहते हैं । उदाहरण के लिये भारत राष्ट्र की जीवनदृष्टि की कुछ धारणायें इस प्रकार हैं:

  • यह सृष्टि आत्मतत्व का विस्तार है ।
  • जीवन एक और अखण्ड है ।
  • सृष्टि के सारे सजीव निर्जीव पदार्थों का आपसी सम्बन्ध एकात्मता का है ।
  • सज्जन व्यक्ति दूसरों का विचार प्रथम करता है, बाद में अपना ।
  • त्याग और सेवा व्यवहार के आदर्श हैं ।
  • अन्न पवित्र है।
  • विद्या, अन्न, औषध क्रय विक्रय की वस्तुयें नहीं हैं ।
  • एक ही सत्य को मनीषी भिन्न भिन्न नामों से पहचानते हैं ।
  • जगत में सभी भिन्न भिन्न दिखने वाले पदार्थों का तथा प्रजाओं का सहअस्तित्व सत्कार योग्य है ।
  • स्वतन्त्रता सबका मूल अधिकार है अतः सभी पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का सम्मान करना चाहिये ।
  • जगत मनुष्य के उपभोग के लिये नहीं बना है, मनुष्य ही सबकी रक्षा हेतु बना है ।
  • जगत में सर्व व्यवहार परिवारभावना से होना अपेक्षित है।

ऐसे और भी अनेक सूत्र हैं जो भारत को अन्य देशों से भिन्न पहचान देते हैं । यह पहचान बनाए रखने के लिये शिक्षा होती है ।

भारत परम्परा का देश है। भारत में परम्परा के वाहक मुख्य दो केन्द्र हैं । एक है कुटुम्ब और दूसरा है विद्यालय । घर में वंशपरम्परा होती है जबकि विद्यालय में ज्ञानपरम्परा । एक में पितापुत्र परम्परा के वाहक हैं, दूसरे में गुरुशिष्य । इन दोनों परम्पराओं से जीवनशैली और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है। हस्तांतरण का यह कार्य जब सम्यक रूप में होता है तब राष्ट्रजीवन समरस, सुखी और समृद्ध बना रहता है । परम्परा खण्डित होती है तब राष्ट्रजीवन भी विश्रंखल हो जाता है । जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं रहती तब परम्परा खण्डित होती है ।

शिक्षा सम्यक नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है । जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का था |

उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था, अत: राज्य किसी का भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही रहती थी। प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा का आधार ही उन्होंने बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे। यह केवल जानकारी नहीं थी। इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी। ऐसा सभी विषयों के साथ हुआ। यह केवल विषयों और उनकी विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की व्यवस्था बदल दी। भारत में शिक्षा स्वायत्त थी। ब्रिटिशों ने उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार शिक्षा दृष्टि भी बदल गई। व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन आरम्भ हुआ। विगत दस पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम बहुत हानिकारक हुए हैं। केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रों से भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण नष्ट नहीं हुआ है। समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन चलते रहे। परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना सके । आज भी धार्मिक और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। चूँकि शिक्षा का आधार ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।

एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या धार्मिक और क्या अधार्मिक इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही हो जाती है । अतः किसी भी राष्ट्र को अपना स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है । विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, अफ्रीका में अफ्रीकी और जापान में जापानी ।

जब तक किसी भी राष्ट्र की जीवनदृष्टि लोकजीवन में प्रतिष्ठित रहती है तबतक राष्ट्र ज़िंदा रहता है । हम विश्व के इतिहास में देखते हैं कि अनेक राष्ट्र जो किसी एक कालखण्ड में सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत उच्च स्थिति पर थे वे कुछ समय के बाद काल के प्रवाह में लुप्त हो गये । परन्तु भारत विश्व के सभी राष्ट्रीं से पूर्व भी था और आज भी है।

विश्व में भारत सबसे प्राचीन देश है । इस चिरंजीविता का कारण यह है कि भारत की जीवनदृष्टि सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है। हम क्षीणप्राण हुए हैं परन्तु गतप्राण नहीं हुए। राष्ट्र की शिक्षाव्यवस्था इस चिरंजीविता के लिये प्रमुख रूप से कारणभूत है।

आज भी राष्ट्र के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की महती चुनौती खड़ी है। अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन इस कार्य में लगे हुए हैं । अनेक शोध संस्थान इस दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे हुए हैं। अनेक संस्थायें जनमानस प्रबोधन का कार्य भी कर रही है।

आज देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं। एक प्रवाह अराष्ट्रीय शिक्षा का है, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का। दोनों तुल्यबल हैं। संवाद और संघर्ष दोनों चल रहे हैं। एक के पास अधिकार है, दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव। राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास भी डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। हमें आशा करनी चाहिये की हमारे पुरुषार्थ से हम शिक्षा को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय बनायें । भारत नामक राष्ट्र को विश्वगुरु बनने का दायित्व मिला है। उस दायित्व को निभाने के लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा।

शिक्षा समाजनिष्ठ होनी चाहिये

मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ जीना सामाजिक जीवन है । सामाजिक जीवन भौतिक समृद्धि, सुरक्षा और स्वतन्त्रता से युक्त हो यह आवश्यक है ।मनुष्य की आवश्यकतायें अधिक होती हैं । मनुष्य की इच्छायें अनंत होती हैं । मनुष्य रागद्वेष आदि के कारण स्वार्थी भी होता है । इस कारण से सुख,शान्ति, सुरक्षा आदि सब खतरे में पड़ जाते हैं । अपने मन के कारण यदि वह खतरे निर्माण करता है तो अपनी बुद्धि के सहारे वह खतरे से बचने के उपाय खोजता है ।

इस मन और बुद्धि की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य ने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थायें बनाई हैं, विभिन्न शास्त्रों का निर्माण किया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित

किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें अतः भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। अतः तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।

मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर धार्मिक मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुटुम्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।

काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।

यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर धार्मिक के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार सदा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।

वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे ।

आज भी शिक्षकों को ही पहल करनी होगी और समाज के सहयोग से शिक्षा को समाज के लिए वास्तव में उपयोगी बनाना होगा। बार बार कहा जाता है कि शिक्षा का धार्मिककरण करना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि यह काम शिक्षकों को ही करना चाहिए । परन्तु इस काम को करने की एक योजना बनाये बिना यह काम हो नहीं सकता।

इस काम के कुछ चरण इस प्रकार हो सकते हैं:

  • सर्व प्रथम शिक्षकों को नौकरी की व्यवस्था से बाहर निकल जाना होगा।
  • समाज को अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करना सिखाना होगा।
  • अर्थार्जन हेतु भौतिक वस्तुओं का उत्पादन हो इस बात को बढ़ावा देना होगा।
  • धार्मिक समाज का नियंत्रक तत्व धर्म है। ब्रिटिश राज्य के चलते वह अर्थ हो गया है । धर्म को पुन: नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों ने शिक्षकों को आधार देना होगा। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का एक धार्मिक ढाँचा तैयार करना होगा जो समाज के ही बल पर खड़ा हो।
  • शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा। केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा।
  • अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के साथ जोड़ना होगा।
  • लोगोंं का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानून के अनुसार अठारह वर्ष में ही हो । अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त अव्यवहारिक है।
  • बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों को ही समझाना होगा।
  • शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से योजना करनी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं। शासन ने अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना होगा।
  • प्रजा के काम पुरुषार्थ को व्यवस्थित करना साधु-संतों का काम है। उन्हें यह काम करना होगा।
  • ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए साधु संत, संन्यासी आदि ने अपनी तपश्चर्या का पुण्य देना होगा । तपश्चर्या के पुण्य के बिना महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होते।
  • देश में जिस प्रकार धार्मिक संगठन चल रहे हैं उसी प्रकार शैक्षिक संगठन भी चल रहे हैं । दोनों प्रकार के संगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर समाजमुखापेक्षी बनाना होगा और समाज को अधिक दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा।
  • इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और मानवतायुक्त बनायें।
  • जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश होता है। स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में और बाद में व्यवहार में लानी होगी।
  • शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की आरम्भआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
  • आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
  • देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगोंं को तथा शिक्षा को समर्पित लोगोंं को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगोंं का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।

संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।

व्यक्ति को समर्थ बनाना

वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो रहा है। मनुष्य को जीवनयात्रा चलाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है । अर्थार्जन के लिए पात्रता चाहिए अतः बहुत छोटी आयु से उसे विद्यालय में भेज दिया जाता है । पन्द्रह बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है । वह अर्थार्जन के लिए पात्र बना है ऐसा माना तो जाता है परन्तु अर्थार्जन कर सकता है ऐसा नहीं होता । एक ओर उसके पास प्रमाणपत्र होते हुए भी अर्थार्जन हेतु वास्तविक पात्रता उसमें नहीं होती । दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर भी व्यवस्थित आयोजन नहीं होने के कारण प्राप्त नहीं होते । शिक्षा की चर्चा होती है तब शिक्षाविद सबसे पहले यह कहते हैं कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है अर्थार्जन के लिए नहीं परन्तु व्यवहार में अथार्जिन के संदर्भ में ही योजना होती है । स्थिति यह है कि न अर्थार्जन होता है न ज्ञानार्जन और जीवन के अमूल्य वर्ष बर्बाद हो जाते हैं ।

आज की शिक्षा व्यक्ति के लिए अतः है कि हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनव्यवस्था को स्वीकार करके चलते हैं । वास्तव में धार्मिक व्यवस्था कुटुम्ब को इकाई मानती है, व्यक्ति को नहीं । व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था को स्वीकार करने के कारण व्यक्ति के अर्थार्जन और व्यक्ति के विकास और करियर को ही प्राथमिकता दी जाती है । इससे भी बड़ी बड़ी समस्याएँ निर्माण होती हैं । मुख्य समस्या तो यह है कि जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है । साथ ही समाज तो संकटग्रस्त होता ही है ।

अत: व्यक्ति को लेकर भी शिक्षा का विचार नये सिरे से करना होगा ।

देशदुनिया की जो भी स्थिति हम चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को ही पुरुषार्थ करना होता है । व्यवस्था कुटुम्बकेन्द्री होती है, विचार अध्यात्मनिष्ठ होता है, व्यवहार आत्त्मीयतायुक्त होता है परन्तु पुरुषार्थ व्यक्तिकेन्द्री ही होता है । समर्थ राष्ट्र और सुन्दर विश्व के लिये प्रत्येक व्यक्ति को ही समर्थ और सज्जन बनना होता है । शिक्षा व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने वाली होनी चाहिए ।

व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा:

  • प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग जगत के भले के लिये कर सकूँ अतः मुझे सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
  • सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है अतः प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगोंं के सुख का विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगोंं की परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
  • मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है । मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना चाहिए ।
  • मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
  • मनुष्य की भिन्न भिन्न संदर्भों में, भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न भूमिकायें निभानी होती हैं । वह व्यक्ति के रूप में तो युवा या वृद्ध, सुन्दर या कुरूप, बुद्धिमान या निर्बुद्ध, बलवान या दुर्बल होता है । इस व्यक्तित्व को पहचानकर उसे व्यवहार करना चाहिए । परन्तु कुटुम्ब में वह किसी का भाई, किसी का पति, किसी का पिता और किसी का पुत्र होता है । अन्य भी अनेक रिश्ते होते हैं । इन सब सम्बन्धों के कारण उसके अनेक कर्तव्य और अधिकार होते हैं । इनको भी सम्यक रूप में जानकर व्यवहार करना आना चाहिए । समाज में वह एक व्यवसायी है । उसे लेकर भी उसके अनेक दायित्व होते हैं । एक नागरिक के नाते वह एक धार्मिक है । उसे धार्मिक के नाते व्यवहार करना अपेक्षित है । यह व्यवहार सिखाना शिक्षा का ही काम है ।
  • सृष्टि के प्राणीजगत, वनस्पतिजगत को, पंचमहाभूतों को उससे सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए । वे मनुष्य से भयभीत न हों उसी में उसका बड़प्पन है, उसका श्रेष्ठत्व है । मैं श्रेष्ठ हूँ अतः मैं सबको अपने वश में करूँगा ऐसा नहीं अपितु मैं बड़ा हूँ अतः सबकी रक्षा करूँगा ऐसा उसका भाव और व्यवहार होना चाहिये ।
  • व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है उसमें अपने मन को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए । अपनी इच्छाशक्ति को बलवान बनाने से ही कार्यसिद्धि होती है यह व्यक्ति की समझ में आना चाहिए । स्वामी विवेकानंद मन से संबंधित दो शक्तियों की चाह रखते हैं । ये दो शक्तियाँ हैं एकाग्रता की और ब्रह्मचर्य की । ये दोनों सामर्थ्य बढ़ाने की शक्तियाँ हैं । इस दृष्टि से पाठ्यक्रमों की रचना होना आवश्यक है ।
  • मनुष्य को बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उसकी बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए । अपनी बुद्धि से ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके ऐसा सामर्थ्य उसमें है । शिक्षा के माध्यम से उसका विकास होना चाहिए । पूर्व में कहा है उसके अनुसार समाजधारणा के लिये आवश्यक शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्र के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करना ही बुद्धिपूर्वक व्यवहार करना है । स्वयं शास्त्र की रचना करना और अन्यों ने की हुई रचना समझना उसका काम है । ऐसी बुद्धि का विकास शिक्षा के माध्यम से होना चाहिए।
  • स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
  • मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।

इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए। वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत वस्तुस्थिति है। परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है अतः वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता। उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है। शिक्षा का अधार्मिक प्रतिमान दूर कर यदि धार्मिक प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे। यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है। अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है। कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है। आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए। भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत सदा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १०, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे