Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 66: Line 66:  
किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें अतः भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। अतः  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
 
किया है। भौतिक समृद्धि के लिये मनुष्य ने अनेक वस्तुओं के उत्पादन की कला सीखी है। साथ ही उनके निर्माण, वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई । वस्तुओं के निर्माण में सहायक हों ऐसे यंत्र बनाए। अपने कई काम सुकर हो सकें अतः भी यंत्र बनाए। इस सृष्टि को जानना चाहा और भौतिक विज्ञानों के शास्त्र बने । इन विज्ञानों की सहायता से उसने यंत्र तथा अन्य उपभोग के पदार्थ बनाये। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया। अतः  तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान के साथ और मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिये।
   −
मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार आश्रम, चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर धार्मिक मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुटुम्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
+
मनुष्य ने चिन्तन किया और अपने जीवन को समझने का प्रयास किया । उस समझ को व्यवस्थित बनाने हेतु चार पुरुषार्थों, चार [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम]], चार वर्ण, असंख्य जातियाँ आदि की रचना की और उन सबके व्यवहार के नियमों को निरूपित करने वाला धर्मशास्त्र बनाया । वास्तव में धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है जिसे भारत की मनीषा ने मानव धर्मशास्त्र कहा और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा । मानव धर्मशास्त्र कहकर धार्मिक मनीषा ने अपने आपको भारत में सीमित नहीं रखा अपितु संपूर्ण विश्व को अपना व्यवहारक्षेत्र बनाया। मानवसम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु उसने कुटुम्ब की व्यवस्था बनाई, एक स्त्री और एक पुरुष को पतिपत्नी बनाने हेतु विवाह संस्कार और विवाह संस्था की रचना की, एकात्मता को परिवारभावना का स्वरूप दिया और इस परिवारभावना का विस्तार संपूर्ण वसुधा बने ऐसे उदार अंतःकरण को विकास का पर्याय बनाया । परिवारभावना को ही राज्यसंस्था, वाणिज्यसंस्था, शिक्षाशास्त्र का भी केन्द्रवर्ती तत्व बनाया । इस प्रकार उसने अगणित व्यवस्थायें और अगणित शास्त्र बनाये । साथ ही अगणित शास्त्र बनाने के लिये खुलापन भी रखा ।
    
काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
 
काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
Line 83: Line 83:  
* शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा। केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा।
 
* शिक्षा का जो भी ढाँचा निर्माण हो उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता का विचार सबसे पहले करना होगा। केवल शिक्षा के ढाँचे से काम नहीं चलेगा।
 
* अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के साथ जोड़ना होगा।
 
* अर्थकरी शिक्षा को उत्पादन के साथ आर्थिक क्षेत्र के साथ जोड़ना होगा।
* लोगों का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानून के अनुसार अठारह वर्ष में ही हो । अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त अव्यवहारिक है।  
+
* लोगोंं का रोजगार आज जिस आयु में निश्चित होता है उससे कहीं जल्दी निश्चित हो जाय ऐसा करना होगा, भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानून के अनुसार अठारह वर्ष में ही हो । अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित हो जाना आवश्यक है । अठारह वर्ष तक पात्रता ही निर्माण नहीं करना अत्यन्त अव्यवहारिक है।  
 
* बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों को ही समझाना होगा।  
 
* बड़े उद्योजकों को विकेन्द्रीकरण के लिए धर्माचार्यों को ही समझाना होगा।  
 
* शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से योजना करनी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं। शासन ने अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना होगा।
 
* शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतन्त्रता की संकल्पना की प्रतिष्ठा हो इस प्रकार से योजना करनी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों शासन की ज़िम्मेदारी बन गए हैं। शासन ने अपने आपकी मुक्ति के लिए भी अर्थ पुरुषार्थ को समाज आधारित बनाने की दिशा में प्रयत्नशील बनना होगा।
Line 93: Line 93:  
* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की आरम्भआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
 
* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की आरम्भआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
+
* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगोंं को तथा शिक्षा को समर्पित लोगोंं को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगोंं का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिन्तन का विषय नहीं है । वह कृति का विषय बनाना होगा । वह यदि कृति का विषय नहीं बनता तो पूर्व के दो प्रयोजन भी पूर्ण नहीं हो सकते ।
   Line 107: Line 107:  
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा:
 
व्यक्ति को समर्थ और सज्जन बनाने के लिये कुछ इस प्रकार से शिक्षा का विचार करना होगा:
 
* प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग जगत के भले के लिये कर सकूँ अतः मुझे सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
 
* प्रथम उसकी सोच बदलनी होगी । जगत मेरे लिये है और मैं उसका मेरे सुख के लिये उपयोग कर सकता हूँ इस विचार को उसे त्याग देना होगा । उसके स्थान पर मैं इस जगत के लिये हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग जगत के भले के लिये कर सकूँ अतः मुझे सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ऐसा विचार उसे देना होगा ।
* सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है अतः प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगों के सुख का विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगों की परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
+
* सुख प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है अतः प्रत्येक व्यक्ति ने उसे प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना ही चाहिए परन्तु पढ़ने वाले व्यक्ति को समझ देनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगोंं के सुख का विचार किए बिना अकेले को कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी इच्छा कभी भी पूर्ण हो नहीं सकती । उल्टे व्यक्ति की और अन्य लोगोंं की परेशानियाँ ही बढ़ती हैं ।
 
* मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है । मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना चाहिए ।
 
* मनुष्य सुख चाहता है उसमें तो कोई बुराई नहीं है परन्तु सुख क्या है यह समझना आवश्यक है । केवल खानेपीने और इंद्रियों के उपभोग में ही सुख नहीं है । मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से संतुष्ट नहीं होता है । उसे आत्मिक सुख की उतनी ही कामना होती है जितनी इंद्रियों के सुख की । यह सुख प्राप्त कैसे करना यह उसे सिखाना चाहिए ।
 
* मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और समझने की बात तो बहुत दूर की है ।
 
* मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष है । आज मोक्ष संज्ञा का प्रयोग भी होता नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की और समझने की बात तो बहुत दूर की है ।

Navigation menu