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काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
 
काल की गति और प्रभाव को तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर उसने सारे व्यवहारशास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा । भेदों को स्वाभाविक मानकर उसमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में समदृष्टि को ही आधार बनाया, भेदों को नहीं । दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया । इस प्रकार समाज को चिरंजीविता प्रदान की । समाज को चिरंजीव बनाने वाले मूल तत्वों को ही पहचानना भारत की मनीषा का खास लक्षण बना ।
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यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर धार्मिक के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार हमेशा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
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यहाँ शास्त्रों और व्यवस्थाओं का निरूपण करने का उद्देश्य नहीं है । यहाँ यह बताने का उद्देश्य है कि यह जो समाजव्यवस्था है उसे हर धार्मिक के हृदय और बुद्धि में उतारने की व्यवस्था शिक्षा में होनी चाहिये क्योंकि शिक्षा के अलावा उसका कोई साधन नहीं है । शिक्षा समाज को धर्म सिखाती है यह कथन यदि सही है तो इस कथन को लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी इसका विचार करना होगा । यह विचार कौन करे और पहल कौन करे यह भी समस्या है क्योंकि आज सरकार ही सभी बातों का विचार करेगी ऐसा मानस बन गया है । इस मानसिकता को बदलने की प्रथम आवश्यकता है । यदि शासन इसका विचार नहीं करता है तो कौन इसका विचार करेगा यह भी निश्चित करना होगा । परम्परा देखें तो ऐसा विचार सदा शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है ।
    
वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे ।  
 
वेदकाल के वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर दो या ढाई हजार वर्ष पूर्व के चाणक्य तक सभी आचार्य इसके उदाहरण हैं । ये सब आचार्य थे, ऋषि थे । वे प्रमुख रूप से धर्म जानते थे और ज्ञान के क्षेत्र के दिग्गज थे । वे सब मुक्ति के मार्ग की ही बात करते थे तो भी युद्ध भी करते थे और राजनीति भी करते थे । भगवान श्रीकृष्ण अध्यात्म, धर्म, युद्ध, राजनीति, संगीत, योग, अध्यापन, धर्मोपदेश आदि सबके आदर्श स्थापित करने वाले ही थे ।  
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* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 
* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 
* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
 
* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए। वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत वस्तुस्थिति है। परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है अतः वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता। उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है। शिक्षा का अधार्मिक प्रतिमान दूर कर यदि धार्मिक प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे। यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है। अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है। कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है। आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए। भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है।
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इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए। वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत वस्तुस्थिति है। परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है अतः वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता। उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है। शिक्षा का अधार्मिक प्रतिमान दूर कर यदि धार्मिक प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे। यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है। अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है। कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है। आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए। भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत सदा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है।
    
==References==
 
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