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परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है । जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं ।
 
परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है । जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं ।
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मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और दारिद्रय फैल जाएँगे। असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो कोई किसी का विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण करता था। धर्माचरण करता था इसलिए सत्यभाषण भी करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय, दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का व्यवहार शुरू हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष शुरू हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी, छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले थे, वेद के दृष्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था । परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक था । इसलिए धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ । तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष जारी ही है ।
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मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और दारिद्रय फैल जाएँगे। असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो कोई किसी का विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण करता था। धर्माचरण करता था इसलिए सत्यभाषण भी करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय, दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का व्यवहार आरम्भ हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष आरम्भ हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी, छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले थे, वेद के दृष्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था । परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक था । इसलिए धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ । तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष जारी ही है ।
    
यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
 
यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
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शिक्षा सम्यक नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है । जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का था |
 
शिक्षा सम्यक नहीं होने का एक दूसरा स्वरूप भी है । जब शिक्षा और राष्ट्र के जीवनदर्शन का संबंध विच्छेद हो जाता है तब राष्ट्रजीवन गम्भीर रूप से क्षत विक्षत हो जाता है । ऐसा एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर सांस्कृतिक आक्रमण के परिणामस्वरूप होता है । भारत का ही उदाहरण हम ले सकते हैं । भारत में सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिशों का राज्य रहा । उस दौरान उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोपीय बनाना चाहा । उनका उद्देश्य अपने शासन को सुदूढ़ बनाने का था |
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उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था, अत: राज्य किसी का भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही रहती थी। प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा का आधार ही उन्होंने बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे। यह केवल जानकारी नहीं थी। इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी। ऐसा सभी विषयों के साथ हुआ। यह केवल विषयों और उनकी विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की व्यवस्था बदल दी। भारत में शिक्षा स्वायत्त थी। ब्रिटिशों ने उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार शिक्षा दृष्टि भी बदल गई। व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन शुरू हुआ। विगत दस पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम बहुत हानिकारक हुए हैं। केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रों से भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण नष्ट नहीं हुआ है। समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन चलते रहे। परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना सके । आज भी धार्मिक और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। चूँकि शिक्षा का आधार ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।
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उन्होंने अनुभव किया था कि भारत की व्यवस्था में समाज शासन से स्वतन्त्र और स्वायत्त था, अत: राज्य किसी का भी हो प्रजा सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही रहती थी। प्रजा को अपने अधीन बनाने के लिये उन्होंने शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा का आधार ही उन्होंने बदल दिया । वे यूरोप का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य आदि पढ़ाने लगे। यह केवल जानकारी नहीं थी। इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की दृष्टि ही उन्होंने बदल दी । अब भारत में यूरोप का इतिहास नहीं अपितु यूरोप की इतिहासदृष्टि पढ़ाई जाने लगी। ऐसा सभी विषयों के साथ हुआ। यह केवल विषयों और उनकी विषयवस्तु तक सीमित नहीं रहा । उन्होंने शिक्षा की व्यवस्था बदल दी। भारत में शिक्षा स्वायत्त थी। ब्रिटिशों ने उसे शासन के अधीन बना दिया । भारत में शिक्षा नि:शुल्क चलती थी । ब्रिटिशों ने उसे सशुल्क बना दिया । इस प्रकार शिक्षा दृष्टि भी बदल गई। व्यवस्थित ढंग से शिक्षा के माध्यम से जीवनदृष्टि में परिवर्तन आरम्भ हुआ। विगत दस पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है । जीवनदृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की इस प्रक्रिया के परिणाम बहुत हानिकारक हुए हैं। केवल जगत के कुछ अन्य राष्ट्रों से भारत की भिन्नता यह है कि दस पीढ़ियों से यह संघर्ष निरन्तर रूप से चल रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में भारत पूर्ण नष्ट नहीं हुआ है। समय समय पर यूरोपीय जीवनदृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिये राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन चलते रहे। परन्तु वे पूर्ण रूप से शिक्षा को राष्ट्रीय नहीं बना सके । आज भी धार्मिक और यूरोपीय जीवनदृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। चूँकि शिक्षा का आधार ऐसा सम्मिश्र है राषट्रजीवन भी सम्मिश्र स्वरूप का ही है।
    
एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या धार्मिक और क्या अधार्मिक इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही हो जाती है । इसलिए किसी भी राष्ट्र को अपना स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है । विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, अफ्रीका में अफ्रीकी और जापान में जापानी ।
 
एक भीषण परिणाम यह हुआ है कि हम समाज के रूप में हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और क्या धार्मिक और क्या अधार्मिक इसकी समझ स्पष्ट नहीं हो रही है । शिक्षा जब राष्ट्रीयता की पुष्टि करने वाली नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही हो जाती है । इसलिए किसी भी राष्ट्र को अपना स्वत्व बनाये रखना है तो उस राष्ट्र की शिक्षा को राष्ट्रीय होना चाहिये । यह केवल भारत के लिये ही सत्य है ऐसा नहीं है । विश्व के किसी भी राष्ट्र को यह लागू है । अमेरिका में शिक्षा अमेरिकन होगी, चीन में चीनी, अफ्रीका में अफ्रीकी और जापान में जापानी ।
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* इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और मानवतायुक्त बनायें।
 
* इन दोनों संगठनों के साथ साथ आर्थिक संगठन बनाने होंगे जो समाज को आर्थिक दृष्टि से स्वायत्त और मानवतायुक्त बनायें।
 
* जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश होता है। स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में और बाद में व्यवहार में लानी होगी।
 
* जो समाज आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं और समृद्ध नहीं उसकी संस्कृति का और उत्तम गुणों का नाश होता है। स्वतन्त्रता और स्वायत्तता प्रथम हृदय में और बाद में व्यवहार में लानी होगी।
* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की शुरूआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
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* शिक्षा को कुटुम्ब व्यवस्था को अधिक सार्थक बनाना होगा । इस दृष्टि से साधु-संतों को और शिक्षाविदों ने कुटुम्बशिक्षा की योजना बनानी होगी। समाज को स्वायत्त बनाने की आरम्भआत कुटुम्ब को स्वायत्त बनाने से करनी होगी।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
 
* आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था रूढ हो गई है उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा, संस्कृति, धर्म, अर्थार्जन आदि का केन्द्र कुटुम्ब को बनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एकसाथ हों और एकदूसरे के साथ ओतप्रोत हों ऐसा करना होगा।
 
* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।
 
* देश में शिक्षा के क्षेत्र में समाजव्यवस्था को आधार बनाकर अनुसन्धान और अध्ययन करने वाले निर्माण करने होंगे और संन्यासी लोगों को तथा शिक्षा को समर्पित लोगों को अध्ययन की योजना में लगना होगा । वानप्रस्थी लोगों का तो यह सामाजिक दायित्व ही है। आज सेवानिवृत्ति के बाद भी जो लोग अर्थार्जन करते हैं उन्हें उससे परावृत होकर इस काम में लगना होगा ।

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