Changes

Jump to navigation Jump to search
लेख सम्पादित किया
Line 1: Line 1:  
{{One source|date=August 2019}}
 
{{One source|date=August 2019}}
   −
सत्य और धर्म
+
== सत्य और धर्म<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ==
 +
हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की धारणा करने वाले मूल तत्त्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं । इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है।वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व प्रथम करणीय कार्य है ।
   −
हम सब यह जानते हैं कि सत्य और धर्म इस सृष्टि की
+
सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
   −
धारणा करने वाले मूल तत्त्व हैं । धर्म विश्वनियम हैं इस
+
सम्पूर्ण सृष्टि के लिये है मनुष्य और शेष सृष्टि में अन्तर केवल इतना है कि शेष सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से ही करती है जबकि मनुष्य को धर्म को और धर्म के पालन को सीखना पड़ता है । वह स्वभाव से ही धर्म का पालन करता ऐसा नहीं है। सत्य केवल मनुष्य के लिये ही इसलिए है क्योंकि मनुष्य ही वाणी का प्रयोग कर सकता है और सत्य वाणी का विषय है । अपने मन, बुद्धि और अहंकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोल सकता है और अधर्म का आचरण भी कर सकता है
   −
सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई है ।
+
परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है । जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं
   −
वर्तमान सृष्टि के प्रलय के बाद भी नई सृष्टि के सृजन के
+
मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और दारिद्रय फैल जाएँगे। असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो कोई किसी का विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण करता था। धर्माचरण करता था इसलिए सत्यभाषण भी करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय, दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का व्यवहार शुरू हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष शुरू हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी, छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले थे, वेद के दृष्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था । परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक था । इसलिए धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ । तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष जारी ही है ।
   −
लिये जो बीज बचे रहते हैं उनके साथ धर्म के भी बीज बचे
+
यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में भी है। इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये सहज नहीं होता है ।
   −
रहते हैं । इस धर्म को जानना, समझना और अपनाना मनुष्य
+
शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्त्व जानना कितना दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है:<blockquote>तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌</blockquote><blockquote>धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।</blockquote>अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
 
  −
का कर्तव्य है । यही मनुष्य के लिये प्रमुख रूप से और सर्व
  −
 
  −
प्रथम करणीय कार्य है ।
  −
 
  −
सत्य इसकी वाचिक अभिव्यक्ति है। जो धर्म नहीं
  −
 
  −
बोलता वह सत्य नहीं है और जो सत्य में प्रतिष्ठित नहीं होता
  −
 
  −
वह धर्म नहीं है । सत्य केवल मनुष्य के लिये है जबकि धर्म
  −
 
  −
सम्पूर्ण सृष्टि के लिये है । मनुष्य और शेष सृष्टि में अन्तर
  −
 
  −
केवल इतना है कि शेष सृष्टि धर्म का अनुसरण स्वभाव से
  −
 
  −
ही करती है जबकि मनुष्य को धर्म को और धर्म के पालन
  −
 
  −
को सीखना पड़ता है । वह स्वभाव से ही धर्म का पालन
  −
 
  −
करता हो ऐसा नहीं है। सत्य केवल मनुष्य के लिये ही
  −
 
  −
इसलिए है क्योंकि मनुष्य ही वाणी का प्रयोग कर सकता है
  −
 
  −
और सत्य वाणी का विषय है । अपने मन, बुद्धि और
  −
 
  −
अहंकार से प्रेरित होकर वह असत्य भी बोल सकता है और
  −
 
  −
अधर्म का आचरण भी कर सकता है ।
  −
 
  −
परन्तु इसी कारण से जब वह सत्य बोलता है और
  −
 
  −
धर्म का आचरण करता है तब उसमें उसकी महत्ता होती है ।
  −
 
  −
जो असत्य बोल ही नहीं सकता या अधर्म का आचरण कर
  −
 
  −
नहीं सकता, जो धर्म क्या और अधर्म क्या यह समझने में
  −
 
  −
उलझ नहीं जाता, असत्य बोलने से तत्काल स्वार्थ पूर्ति हो
  −
 
  −
सकती है, आराम से सारी सुविधायें प्राप्त हो सकती हैं ऐसा
  −
 
  −
नहीं जानता उसके अज्ञाननश किए हुए धर्माचरण और
  −
 
  −
सत्यभाषण का कोई महत्त्व नहीं ।
  −
 
  −
&S
  −
 
  −
मनुष्य के लिये ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण ही नहीं तो
  −
 
  −
अनिवार्य हैं । इनके अभाव में सर्वत्र दुःख, दैन्य, रोग और
  −
 
  −
aga het जाएँगे । असत्यभाषण का प्रचलन होगा तो
  −
 
  −
कोई किसीका विश्वास ही नहीं करेगा । अधर्म का आचरण
  −
 
  −
होगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित ही नहीं रहेगा । यह सृष्टि
  −
 
  −
विश्वास के आधार पर ही चल सकती है । ऐसा कहते हैं कि
  −
 
  −
सत्ययुग में तो मनुष्य भी स्वाभाविक रूप से ही धर्माचरण
  −
 
  −
करता Ml waka करता था इसलिए सत्यभाषण भी
  −
 
  −
करता था । परन्तु त्रेतायुग से ही मनुष्य की धर्माचरण और
  −
 
  −
सत्यभाषण की शक्ति क्षीण होने लगी और कानून, न्याय,
  −
 
  −
दण्ड और इन तीनों का प्रवर्तन करने वाले राज्य का उदय
  −
 
  −
हुआ । इसके साथ ही धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य
  −
 
  −
का व्यवहार शुरू हुआ और व्यवहार से ही जनमा संघर्ष शुरू
  −
 
  −
हुआ । अहंकारजनित बल और दर्प तथा मन के लोभ, मोह,
  −
 
  −
मद, मत्सर जैसे भावों का प्रवर्तन होने लगा । संग्रह, चोरी,
  −
 
  −
छल, कपट अत्याचार आदि में बुद्धि का विनियोग होने
  −
 
  −
लगा । इसी समय वेद के द्रष्टा जन्मे, वेद प्रकट हुए और वेद
  −
 
  −
के ज्ञाता भी पैदा हुए । वेद सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा करने
  −
 
  −
वाले थे, वेद के द्र्टा और ज्ञाता सत्य और धर्म को जानते थे
  −
 
  −
परन्तु वेदों के ज्ञाता भी अधर्म में प्रवृत्ति होते थे । रावण जैसा
  −
 
  −
त्रेतायुग का चरित्र इसी बात को सिद्ध करता है । रावण वेदों
  −
 
  −
का ज्ञाता तो था परन्तु अहंकार के कारण अपने सुवर्ण और
  −
 
  −
सैन्य पर ही उसे अधिक गर्व था । रावण केवल ज्ञानी था
  −
 
  −
ऐसा भी नहीं है । वह परम भक्त भी था । अपनी भक्ति और
  −
 
  −
तपश्चर्या से उसने भगवान शंकर को भी रिझा लिया था ।
  −
 
  −
परन्तु बल और सुवर्ण का प्रभाव धर्म और सत्य से अधिक
  −
 
  −
था । इसलिए धर्म और सत्य के साथ उसका संघर्ष हुआ ।
  −
 
  −
तबसे आज तक धर्म अधर्म और सत्य असत्य का संघर्ष
  −
 
  −
जारी ही है ।
  −
 
  −
............. page-86 .............
  −
 
  −
यह संघर्ष मनुष्य के मन में भी है
  −
 
  −
और मनुष्य का जहाँ जहाँ संचार है वहाँ बाहर के जगत में
  −
 
  −
भी है । इस संघर्ष का कारण मनुष्य ही है । बाहरी संघर्ष का
  −
 
  −
स्रोत भी उसका आन्तरिक संघर्ष है । मनुष्य सत्य और धर्म
  −
 
  −
को नहीं जानता है ऐसा भी नहीं है । सत्य और धर्म का भान
  −
 
  −
ही ज्ञान है । परन्तु इन बातों पर अज्ञान का आवरण छाया
  −
 
  −
हुआ होने के कारण वह असत्य और अधर्म का आचरण
  −
 
  −
करता है। कभी कभी तो वह असत्य और अधर्म को
  −
 
  −
जानता भी है तथापि मन की दुर्बलता के कारण अनुचित
  −
 
  −
व्यवहार करता है । सत्य और धर्म का आचरण उसके लिये
  −
 
  −
सहज नहीं होता है ।
  −
 
  −
शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन उसे सत्य और धर्म सिखाना
  −
 
  −
है । यह काम सरल नहीं है । धर्म का तत्त्व जानना कितना
  −
 
  −
दुष्कर है इसे बताते हुए सुभाषित कहता है
  −
 
  −
तरकों प्रतिष्ठ स्पृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्थ वच: प्रमाणम्‌
  −
 
  −
धर्मस्य तत्त्वम निहितम गुहायाम्‌ महाजनो येन गत: स पंथा ।।
  −
 
  −
अर्थात्‌ तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क कुछ भी
  −
 
  −
सिद्ध कर सकता है । स्मृतियाँ सब अलग अलग बातें बताती
  −
 
  −
हैं । सारे मुनि अर्थात्‌ मनीषी ऐसी बात करते हैं जिन्हें प्रमाण
  −
 
  −
मानने को मन नहीं करता है । धर्म का तत्त्व ऐसी गुफा में
  −
 
  −
छिपा हुआ है कि हमारे लिये महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं
  −
 
  −
उसी मार्ग पर जाना श्रेयस्कर होता है ।
      
सामान्य जन की यह कठिनाई है । तर्क उसकी बुद्धि में
 
सामान्य जन की यह कठिनाई है । तर्क उसकी बुद्धि में
Line 269: Line 120:  
प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
 
प्रयास करने की आवश्यकता है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
   −
शिक्षा राष्ट्रीय होती है
+
== शिक्षा राष्ट्रीय होती है ==
 
   
पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार
 
पूर्व के अध्याय में हमने राष्ट्र संकल्पना का विचार
   Line 537: Line 387:  
लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा ।
 
लिये भी शिक्षा को राष्ट्रीय बनाना ही होगा ।
   −
शिक्षा समाजनिष्ट होनी चाहिये
+
== शिक्षा समाजनिष्ठ  होनी चाहिये ==
 
   
मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ
 
मनुष्य समाज में रहता है । मनुष्य का मनुष्य के साथ
   Line 801: Line 650:  
पूर्ण नहीं हो सकते ।
 
पूर्ण नहीं हो सकते ।
   −
व्यक्ति को समर्थ बनाना
+
== व्यक्ति को समर्थ बनाना ==
 
   
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो
 
वर्तमान का सारा शिक्षा विचार व्यक्ति के लिए ही हो
  

Navigation menu