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यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है। क्या इनके विद्यालयों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को, जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है, यह सिखायें ? परन्तु जैसा हमने पूर्व में देखा, विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।   
 
यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है। क्या इनके विद्यालयों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को, जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है, यह सिखायें ? परन्तु जैसा हमने पूर्व में देखा, विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।   
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुट्म्बकम्‌" के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्‌" के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
    
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
 
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
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# सारे मनुष्य एक हैं, समान हैं, समान रूप से स्नेह और आदर के पात्र हैं ऐसा भाव जागय्रत करना प्रमुख बात है । इसे परिवारभावना कहते हैं, आत्मीयता कहते हैं । मिलबाँटकर उपभोग करने की वृत्ति और प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले, ऐसा करने की प्रेरणा मिले. ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन करना चाहिये । ऐसी कहानियाँ, चरित्रकथन, सत्यघटनाओं का वृत्त विद्यार्थियों को बताना चाहिये ।  
 
# सारे मनुष्य एक हैं, समान हैं, समान रूप से स्नेह और आदर के पात्र हैं ऐसा भाव जागय्रत करना प्रमुख बात है । इसे परिवारभावना कहते हैं, आत्मीयता कहते हैं । मिलबाँटकर उपभोग करने की वृत्ति और प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले, ऐसा करने की प्रेरणा मिले. ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन करना चाहिये । ऐसी कहानियाँ, चरित्रकथन, सत्यघटनाओं का वृत्त विद्यार्थियों को बताना चाहिये ।  
 
# समाज में तरह तरह के मनुष्य होते हैं । सब एकदूसरे से भिन्न होते हैं । सबके स्वभाव, रूपरंग, कौशल, ज्ञान, गुणदोष भिन्न भिन्न होते हैं । इन भेदों के कारण सुन्दरता निर्माण होती है । भेदों को ऊँचनीच  न मानकर वैविध्य और सुन्दरता मानना सिखाना चाहिये । भेदभाव न पनपे यह देखना चाहिये । जो  जैसा है वैसा ही स्नेह का पात्र है, आत्मीय है ऐसा भाव जागृत करना चाहिये । यह सामाजिक समरसता है । समरसता से ही समाज में सुख, शान्ति, सुरक्षा, निश्चितता पनपते हैं, संस्कृति की रक्षा होती है और समृद्धि बढती है ।
 
# समाज में तरह तरह के मनुष्य होते हैं । सब एकदूसरे से भिन्न होते हैं । सबके स्वभाव, रूपरंग, कौशल, ज्ञान, गुणदोष भिन्न भिन्न होते हैं । इन भेदों के कारण सुन्दरता निर्माण होती है । भेदों को ऊँचनीच  न मानकर वैविध्य और सुन्दरता मानना सिखाना चाहिये । भेदभाव न पनपे यह देखना चाहिये । जो  जैसा है वैसा ही स्नेह का पात्र है, आत्मीय है ऐसा भाव जागृत करना चाहिये । यह सामाजिक समरसता है । समरसता से ही समाज में सुख, शान्ति, सुरक्षा, निश्चितता पनपते हैं, संस्कृति की रक्षा होती है और समृद्धि बढती है ।
# समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसी में से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुट्म्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता गया, बढ़ता गया। परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये ।
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# समाज में रहना मनुष्य के लिये स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । स्वाभाविक इसलिये कि स्नेह, प्रेम, मैत्री आदि के बिना जीवन उसके लिये दूभर बन जाता है। दूसरों के साथ संवाद या विसंवाद, चर्चा, विचारविमर्श, आनन्दुप्रमोद, सहवास के बिना जीवन असह्य बन जाता है। परमात्माने अपने आपको स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित किया परन्तु दोनों पुनः एक हों इस हतु से दोनों के बीच ऐसा आकर्षण निर्माण किया कि वे विविध उपायों से एक होने के लिये, साथ रहने के लिये प्रवृत्त होते हैं । इसी में से विवाहसंस्था निर्माण हुई । विवाहसंस्था कुटुम्बसंस्था का केन्द्र बनी । आगे बढ़ते हुए मातापिता और सन्तान, भाईबहन तथा आगे सगेसम्बन्धी, कुटुम्बीजन आदि के रूप में विस्तार होता गया । इसमें आत्मीयता और स्नेह तथा आदर्युक्त लेनदेन, परस्परावलम्बन बनता गया, बढ़ता गया। परिवारभावना समाजव्यवस्था का आधार बनी । समाज के सभी घटकों के साथ, सभी व्यवस्थाओं में परिवारभावना को बनाये रखना सभी घटकों का सामाजिक दायित्व है । यह विषय विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिये ।
 
# समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है। हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात्‌ विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है ।
 
# समाज में कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सारी व्यवस्थाओं की पूर्ति नहीं कर सकता । स्वभाव से ही समाज के सभी घटक परस्परावलम्बी हैं । इस दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय और समाज के पोषण और रक्षण की व्यवस्था हमारे पूर्व मनीषियों ने की है। हर युग में ऐसी परस्परावलम्बी व्यवस्था उस युग के मनीषियों को करनी ही होती है । परस्परावलम्बन की इस रचना में हरेक को अपना अपना काम निश्चित करना होता है । किसी को शिक्षक का, किसी को डॉक्टर का, किसी को दर्जी का, किसी को मोची का, किसी को सैनिक का तो किसी को राजनयिक का काम करना होता है । अपने अपने कौशल और रुचि के अनुसार सब अपना अपना काम निश्चित करते हैं । अपनी रुचि और कौशल पहचानकर समाज की सेवा के रूप में अपना काम करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । अपना काम उत्तम पद्धति से करना और सबका सत्कार करना, सबके अविरोध में करना प्रत्येक समाजघटक का दायित्व है । कौन क्या काम करता है यह किसी को ऊँच या नीच मानने का आधार नहीं हो सकता, कौन कैसे, कैसा, क्यों और किस वृत्ति से काम करता है यह श्रेष्टता और कनिष्ठता का मापदंड बनना चाहिये । अर्थात्‌ विद्यार्थियों को अपना काम निश्चित करने की, वह काम उचित पद्धति से करने की तथा अन्यों के काम का सम्मान करने की शिक्षा देना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है ।
 
# विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान,  अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये ।
 
# विद्यार्थियों को यह सब सिखाने हेतु समाजशास्त्र, तत्वज्ञान,  अर्थशास्त्र, गृहशास्त्र, उत्पादनशास्त्र आदि विषयों का माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहिये । ये सारे विषय अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं हैं, समाजधारणा हेतु उनका नियोजन होने पर ही उनकी सार्थकता है यह शिक्षकों को ध्यान में आना चाहिये ।

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