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==== अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण ====
 
==== अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण ====
 
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
 
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
 
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# घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
१. घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
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# घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
 
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# कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
२. घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
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# पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
 
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# जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
३. कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
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# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
 
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# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया । साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है ।
४. पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
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# घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
 
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# आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है ।
५. जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
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६. रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
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७. विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया । साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है ।
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८. घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
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९. आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है ।
      
=== अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है ===
 
=== अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है ===
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