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==== समस्यायें कैसी हैं ? ====
 
==== समस्यायें कैसी हैं ? ====
# बच्चों को बहुत छोटी आयु में चश्मा लग जाता है । यह इतना सामान्य हो गया है कि चश्मा लगना लज्जा की बात नहीं लगती । यह दुर्बलता धीरे धीरे फैल रही है ।
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# बच्चोंं को बहुत छोटी आयु में चश्मा लग जाता है । यह इतना सामान्य हो गया है कि चश्मा लगना लज्जा की बात नहीं लगती । यह दुर्बलता धीरे धीरे फैल रही है ।
# छोटी आयु में ही दाँत दुर्बल हो जाते हैं । हम लोगोंं ने दाँत से सुपारी तोडने के किस्से सुने हैं । अब दाँत से छीलना, गन्ना चूसना या छुहारा तोडकर खाना असम्भव सा है । चॉकलेट खाने से मेरे दाँत सड गये हैं ऐसा कहने में बच्चों को संकोच नहीं लगता । युवा होने तक दाँत निकालकर नकली दाँत पहनने की नौबत आ जाती है ।
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# छोटी आयु में ही दाँत दुर्बल हो जाते हैं । हम लोगोंं ने दाँत से सुपारी तोडने के किस्से सुने हैं । अब दाँत से छीलना, गन्ना चूसना या छुहारा तोडकर खाना असम्भव सा है । चॉकलेट खाने से मेरे दाँत सड गये हैं ऐसा कहने में बच्चोंं को संकोच नहीं लगता । युवा होने तक दाँत निकालकर नकली दाँत पहनने की नौबत आ जाती है ।
 
# वजन कम होना, पाचनशक्ति दुर्बल होना, भूख कम होना, कम खाना आदि की मात्रा बढ गई है । पाचन की बीमारियाँ भी बढी है । इसके साथ किशोरवयीन लड़कियों की पतले रहने हेतु डायेटिंग करने और कम खाने का पागलपन बढ गया है ।
 
# वजन कम होना, पाचनशक्ति दुर्बल होना, भूख कम होना, कम खाना आदि की मात्रा बढ गई है । पाचन की बीमारियाँ भी बढी है । इसके साथ किशोरवयीन लड़कियों की पतले रहने हेतु डायेटिंग करने और कम खाने का पागलपन बढ गया है ।
 
# ग्यारह या बारह वर्ष के छात्र मुट्ठी में नरम वस्तु को भी दबा नहीं सकते, नारियल पटककर तोड नहीं सकते, पत्थर से चटनी पीस नहीं सकते, आटा गूँध नहीं सकते । उनके हाथों में इतना दम ही नहीं होता है ।  
 
# ग्यारह या बारह वर्ष के छात्र मुट्ठी में नरम वस्तु को भी दबा नहीं सकते, नारियल पटककर तोड नहीं सकते, पत्थर से चटनी पीस नहीं सकते, आटा गूँध नहीं सकते । उनके हाथों में इतना दम ही नहीं होता है ।  
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==== कठिनाई के कारण क्या हैं ? ====
 
==== कठिनाई के कारण क्या हैं ? ====
# असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है
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# असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चोंं को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है
# बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं ।
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# बच्चोंं की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं ।
# घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपड़े सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं ।
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# घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपड़े सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चोंं को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं ।
 
# टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं ।
 
# टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं ।
 
# बातबात में दवाई खाने की आदत एक और कारण है । खाँसी, जुकाम, साधारण सा बुखार, सरदर्द, पेटर्द्द आदि में दवाई खाना, डॉक्टर के पास जाना, मूल कारण को नष्ट नहीं करना शरीर पर भारी विपरीत परिणाम करता है । बिमारी तो दूर होती नहीं उल्टे शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है । छोटे मोटे कारणों से होने वाली इन छोटी मोटी बिमारियों के उपचार भी घर में होते हैं जो सस्ते, सुलभ, प्राकृतिक और शरीर के अनुकूल होते हैं । इनके विषय में ज्ञान और आस्था दोनों का अभाव होता है इसलिये हम संकट मोल लेते हैं ।
 
# बातबात में दवाई खाने की आदत एक और कारण है । खाँसी, जुकाम, साधारण सा बुखार, सरदर्द, पेटर्द्द आदि में दवाई खाना, डॉक्टर के पास जाना, मूल कारण को नष्ट नहीं करना शरीर पर भारी विपरीत परिणाम करता है । बिमारी तो दूर होती नहीं उल्टे शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है । छोटे मोटे कारणों से होने वाली इन छोटी मोटी बिमारियों के उपचार भी घर में होते हैं जो सस्ते, सुलभ, प्राकृतिक और शरीर के अनुकूल होते हैं । इनके विषय में ज्ञान और आस्था दोनों का अभाव होता है इसलिये हम संकट मोल लेते हैं ।
# अनुचित आहारविहार का सबसे पहला विपरीत परिणाम शरीर पर होता है और दुर्बल और रोगी शरीर का परिणाम मन और बुद्धि पर होता है । साथ ही इससे उल्टा भी सत्य है मन का प्रभाव शरीर पर होता है । अब तो यह स्वीकृत होने लगा है कि रक्तचाप, डायाबीटीज, अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ मन में जन्मती हैं और शरीर में प्रकट होती हैं । बच्चों में छोटी आयु से ही भय, तनाव, निराशा, हताशा आदि निर्माण होते हैं जिनका उनके शरीर-स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। ईर्ष्या, ट्रेष, आसक्ति, लालच आदि मनोविकार भी शारीरिक विकारों को जन्म देते हैं ।
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# अनुचित आहारविहार का सबसे पहला विपरीत परिणाम शरीर पर होता है और दुर्बल और रोगी शरीर का परिणाम मन और बुद्धि पर होता है । साथ ही इससे उल्टा भी सत्य है मन का प्रभाव शरीर पर होता है । अब तो यह स्वीकृत होने लगा है कि रक्तचाप, डायाबीटीज, अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ मन में जन्मती हैं और शरीर में प्रकट होती हैं । बच्चोंं में छोटी आयु से ही भय, तनाव, निराशा, हताशा आदि निर्माण होते हैं जिनका उनके शरीर-स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। ईर्ष्या, ट्रेष, आसक्ति, लालच आदि मनोविकार भी शारीरिक विकारों को जन्म देते हैं ।
 
==== विद्यालय क्या करे ====
 
==== विद्यालय क्या करे ====
 
विद्यालय को यह बात गम्भीरतापूर्वक लेनी चाहिये । शरीर स्वस्थ और बलवान बनाने हेतु परिणामकारी उपाय करने को प्रधानता देनी चाहिये । कुछ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं:
 
विद्यालय को यह बात गम्भीरतापूर्वक लेनी चाहिये । शरीर स्वस्थ और बलवान बनाने हेतु परिणामकारी उपाय करने को प्रधानता देनी चाहिये । कुछ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं:
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# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है। राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
 
# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है। राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगोंं के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
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# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगोंं के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चोंं की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
 
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं।
 
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं।
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ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें:
 
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें:
 
# घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
 
# घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
# घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का एहसास होता है ।
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# घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चोंं को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का एहसास होता है ।
 
# कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
 
# कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
 
# पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निरदर्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
 
# पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निरदर्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
# जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
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# जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चोंं का मानस बन जाता है ।
 
# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्सीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँ ने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाड़ीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
 
# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्सीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँ ने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाड़ीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
 
# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है। उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है। रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया। साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है।
 
# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है। उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है। रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया। साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है।
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# देश की समृद्धि के आधार कौन से होते हैं इसका विचार करने पर तीन बातें ध्यान में आती हैं । एक है प्रकृति सम्पदा, दूसरी है मनुष्य की बुद्धि और तीसरी है मनुष्य के हाथों की कुशलता । भारत की प्रकृति सम्पदा विश्व में सबसे अधिक है यह तो अनेक रूपों में सिद्ध हुआ है। भारत के मनुष्य के हाथों ने अदूभुत कारीगरी के नमूने दिये हैं और भारत के मनीषियों की बुद्धि ने उत्पादन, वितरण और उपभोग का अदूभुत सामंजस्य बिठाया है। यहाँ उसकी विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं है परन्तु भारत का आर्थिक इतिहास सरलता से पढने को मिलता है। इन तीन संसाधनों का धर्म के अविरोधी उपयोग करने पर चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त हो सकती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं भारत ही है और भारत जैसा और कोई नहीं है । भारत के विद्यालयों में भारत के शिक्षकों को भारत के विद्यार्थियों को ऐसा अर्थशास्त्र पढाना चाहिये और विद्यालय की तथा घर की व्यवस्था इसके अनुसार करनी चाहिये ।
 
# देश की समृद्धि के आधार कौन से होते हैं इसका विचार करने पर तीन बातें ध्यान में आती हैं । एक है प्रकृति सम्पदा, दूसरी है मनुष्य की बुद्धि और तीसरी है मनुष्य के हाथों की कुशलता । भारत की प्रकृति सम्पदा विश्व में सबसे अधिक है यह तो अनेक रूपों में सिद्ध हुआ है। भारत के मनुष्य के हाथों ने अदूभुत कारीगरी के नमूने दिये हैं और भारत के मनीषियों की बुद्धि ने उत्पादन, वितरण और उपभोग का अदूभुत सामंजस्य बिठाया है। यहाँ उसकी विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं है परन्तु भारत का आर्थिक इतिहास सरलता से पढने को मिलता है। इन तीन संसाधनों का धर्म के अविरोधी उपयोग करने पर चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त हो सकती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं भारत ही है और भारत जैसा और कोई नहीं है । भारत के विद्यालयों में भारत के शिक्षकों को भारत के विद्यार्थियों को ऐसा अर्थशास्त्र पढाना चाहिये और विद्यालय की तथा घर की व्यवस्था इसके अनुसार करनी चाहिये ।
 
# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगोंं की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
 
# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगोंं की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
# लोगोंं के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगोंं की अर्थार्जन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
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# लोगोंं के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगोंं की अर्थार्जन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
 
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
 
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
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पढ़ी लिखी युवती ३३ वर्ष की आयु में बालक को जन्म देती है, कम शिक्षित २४ वर्ष की आयु में और अशिक्षित १९ या २० वर्ष की आयु में किसका बालक अधिक आरोग्यवान होगा ?
 
पढ़ी लिखी युवती ३३ वर्ष की आयु में बालक को जन्म देती है, कम शिक्षित २४ वर्ष की आयु में और अशिक्षित १९ या २० वर्ष की आयु में किसका बालक अधिक आरोग्यवान होगा ?
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सुशिक्षित और बहुत धनाढय माता पिता अपने बच्चों को पॉच-सात-दस वर्ष की आयु में छात्रावास में भेज देते हैं। वहाँ वे परायों के मध्य रहते हैं, पराये हाथों का अन्न  खाते हैं, परायी भाषा में पढ़ते हैं । सामान्य बालक घर में मातापिता के साथ रहते हैं, उधम मचाते हैं, घर का खाना खाते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं । दोनों में से कौन से बालक का जीवनविकास बेहतर होगा ?  
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सुशिक्षित और बहुत धनाढय माता पिता अपने बच्चोंं को पॉच-सात-दस वर्ष की आयु में छात्रावास में भेज देते हैं। वहाँ वे परायों के मध्य रहते हैं, पराये हाथों का अन्न  खाते हैं, परायी भाषा में पढ़ते हैं । सामान्य बालक घर में मातापिता के साथ रहते हैं, उधम मचाते हैं, घर का खाना खाते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं । दोनों में से कौन से बालक का जीवनविकास बेहतर होगा ?  
    
यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है। क्या इनके विद्यालयों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को, जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है, यह सिखायें ? परन्तु जैसा हमने पूर्व में देखा, विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।   
 
यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है। क्या इनके विद्यालयों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को, जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है, यह सिखायें ? परन्तु जैसा हमने पूर्व में देखा, विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।   
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्‌" के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्‌" के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चोंं, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
    
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
 
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
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# घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के मध्य में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
 
# घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के मध्य में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
 
# एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है। महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
 
# एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है। महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
# गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगोंं को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगोंं को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
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# गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चोंं को सम्हालने का काम आया का, बच्चोंं को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगोंं को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगोंं को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
 
# जीवन की कौन सी आयु में क्या क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
 
# जीवन की कौन सी आयु में क्या क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
 
#* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा आरम्भ करना लाभदायी नहीं है ।
 
#* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा आरम्भ करना लाभदायी नहीं है ।
 
#* पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये ।
 
#* पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह करना लडके-लडकियाँ दोनों को आ जाना चाहिये ।
 
#* बीस वर्ष की आयु तक लडकियों की और पचीस तक लडकों की शादी हो जाना अच्छा है ।
 
#* बीस वर्ष की आयु तक लडकियों की और पचीस तक लडकों की शादी हो जाना अच्छा है ।
#* बत्तीस से पैंतीस वर्ष की आयु तक दो तीन बच्चों के मातापिता बन जाना अच्छा है ।
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#* बत्तीस से पैंतीस वर्ष की आयु तक दो तीन बच्चोंं के मातापिता बन जाना अच्छा है ।
 
#* एक ही सन्तान होना कभी भी अच्छा नहीं है, दो या तीन तो होने ही चाहिये ।
 
#* एक ही सन्तान होना कभी भी अच्छा नहीं है, दो या तीन तो होने ही चाहिये ।
 
#* साठ वर्ष की आयु में सभी सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ हो जाना अत्यन्त लाभकारी है। वानप्रस्थ अवस्था में समाजसेवा करना अनिवार्य मानना चाहिये ।
 
#* साठ वर्ष की आयु में सभी सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ हो जाना अत्यन्त लाभकारी है। वानप्रस्थ अवस्था में समाजसेवा करना अनिवार्य मानना चाहिये ।
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==== समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा कैसे नहीं हो सकती ? ====
 
==== समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा कैसे नहीं हो सकती ? ====
 
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
 
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
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* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चोंं का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगोंं को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चरित्र की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
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* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगोंं को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चोंं के चरित्र की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
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# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही स्त्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
 
# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही स्त्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगोंं का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगोंं को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को, दुर्घटनाग्रस्त लोगोंं को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
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# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगोंं का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगोंं को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चोंं को, दुर्घटनाग्रस्त लोगोंं को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
 
# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है। इस दृष्टि से सम्यक व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
 
# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है। इस दृष्टि से सम्यक व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  

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