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आज के समय में भी जिसे विद्या प्राप्त करनी है उसे ये सारी बातें स्मरण में रखना जरुरी है । आज के संदर्भ में इस प्रकार कह सकते हैं -
 
आज के समय में भी जिसे विद्या प्राप्त करनी है उसे ये सारी बातें स्मरण में रखना जरुरी है । आज के संदर्भ में इस प्रकार कह सकते हैं -
 
* विद्यार्थी को प्रात: जल्दी उठने की, रात को जल्दी सोने की, नित्य व्यायाम करने की, श्रम करने की, मैदानी खेल खेलने की, पौष्टिक आहार लेने की, शरीर को स्वच्छ करने की आदतें डालकर अपना शरीर स्वस्थ और बलवान बनाना चाहिये ।
 
* विद्यार्थी को प्रात: जल्दी उठने की, रात को जल्दी सोने की, नित्य व्यायाम करने की, श्रम करने की, मैदानी खेल खेलने की, पौष्टिक आहार लेने की, शरीर को स्वच्छ करने की आदतें डालकर अपना शरीर स्वस्थ और बलवान बनाना चाहिये ।
* टी.वी., मोबाइल, स्कूटर या अन्य वाहन, होटल, नए नए कपडे और गहने, मित्रों के साथ गपशप, मस्ती, व्यसन, तामसी भोजन, अश्लील हरकतों आदि को छोड़कर अपना मन सदूगुणयुक्त, बलवान और ज्ञान प्राप्ति के अनुकूल बनाना चाहिये ।
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* टी.वी., मोबाइल, स्कूटर या अन्य वाहन, होटल, नए नए कपड़े और गहने, मित्रों के साथ गपशप, मस्ती, व्यसन, तामसी भोजन, अश्लील हरकतों आदि को छोड़कर अपना मन सदूगुणयुक्त, बलवान और ज्ञान प्राप्ति के अनुकूल बनाना चाहिये ।
 
* नित्य ॐकार उच्चारण , मंत्रपठन, ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास कर प्राणशक्ति बढानी चाहिये और \ और नियंत्रित चाहिये और मन को एकाग्र और नियंत्रित करना चाहिये ।
 
* नित्य ॐकार उच्चारण , मंत्रपठन, ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास कर प्राणशक्ति बढानी चाहिये और \ और नियंत्रित चाहिये और मन को एकाग्र और नियंत्रित करना चाहिये ।
 
* नित्य स्वाध्याय, नित्य सेवा और आदरयुक्त व्यवहार से चित्त को शुद्ध बनाना चाहिये ।  
 
* नित्य स्वाध्याय, नित्य सेवा और आदरयुक्त व्यवहार से चित्त को शुद्ध बनाना चाहिये ।  
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# असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है
 
# असन्तुलित आहार इसका मुख्य कारण है । इसका प्रारम्भ उनकी माता ने सगर्भावसथा में जो खाया है इससे होता है । जन्म के बाद दूध, पौष्टिक आहार के नाम पर दिया गया आहार और पेय, चॉकलेट, बिस्कीट, केक, थोडा बडा होने के बाद खाये हुए वेफर, कुरकुरे आदि बाजार के पदार्थ ही उसका मुख्य कारण है । फल, सब्जी, रोटी आदि न खाने के कारण भी शरीर दुर्बल रहता है। आज बाजार में मिलने वाले अनाज, दूध, फल, सब्जी, मसाले आदि पोषकता की दृष्टि से बहुत कम या तो विपरीत परिणाम करने वाले होते हैं । बच्चों को बहुत छोटी आयु से होटेल का चस्का लग जाता है और मातापिता स्वयं उन्हें खाने का चसका लगाते है या तो खाने का मना नहीं कर सकते । संक्षेप में आहार की अत्यन्त अनुचित व्यवस्था के कारण से शरीर दुर्बल रह जाता है
 
# बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं ।
 
# बच्चों की जीवनचर्या से खेल, व्यायाम और श्रम गायब हो गये हैं । घर में एक ही बालक, पासपडौस में सम्पर्क और सम्बन्ध का अभाव, घर से बाहर जाकर खेलने की कोई सुविधा नहीं - न मैदान, न मिट्टी, वाहनों का या कोई उठाकर ले जायेगा उसका भय, विद्यालय की दूरी के कारण बढता हुआ समय, गृहकार्य, ट्यूशन आदि के कारण खेलने के लिये समय का अभाव, टीवी और विडियो गेम, मोबाइल पर चैटिंग आदि के कारण से शिशु से लेकर युवाओं तक खेलने का समय और सुविधा ही नहीं है । हाथ से काम करने के प्रति हीनता का भाव, यंत्रों का अनावश्यक उपयोग, वाहनों की अतिशयता, घर के कामों का तिरस्कार आदि कारणों से श्रम कभी होता ही नहीं है । व्यायाम करने में रुचि नहीं है । गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक ही महत्वपूर्ण विषय रह गये हैं इस कारण से विद्यालयों में व्यायाम का आग्रह कम हो गया है । विद्यालयों में व्यायाम हेतु स्थान और सुविधा का अभाव है। इन कारणों से विद्यार्थियों के शरीर दुर्बल रह जाते हैं ।
# घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपडे सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं ।
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# घर में या विद्यालयों में हाथों के लिये कोई काम नहीं रह गया है । घर में न झाड़ू पकडना है, न बिस्तर समेटने या बिछाने हैं, न पानी भरना है, न पोंछा लगाना है, न कपडों की तह करना है न चटनी पीसना है। स्वेटर गूँथना, रंगोली बनाना, कील ठोकना, कपड़े सूखाने के लिए रस्सी बाँधना जैसे काम भी नहीं करना है। या तो नौकर हैं, या मातापिता हैं या यन्त्र हैं जो ये काम करते हैं । बच्चों को इन कामों से दूर ही रखा जाता है । लिखने का काम भी धीरे धीरे कम होता जा रहा है । इस कारण से हाथ काम करने की कुशलता गँवा रहे हैं ।
 
# टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं ।
 
# टी.वी., मोबाईल, कम्प्यूटर, वाहन, फ्रीज, होटेल, एसी आदि सब शरीर स्वास्थ्य के प्रबल शत्रु हैं परन्तु हमने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना संगी बनाया है। हम उनके आश्रित बन गये हैं ।
 
# बातबात में दवाई खाने की आदत एक और कारण है । खाँसी, जुकाम, साधारण सा बुखार, सरदर्द, पेटर्द्द आदि में दवाई खाना, डॉक्टर के पास जाना, मूल कारण को नष्ट नहीं करना शरीर पर भारी विपरीत परिणाम करता है । बिमारी तो दूर होती नहीं उल्टे शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है । छोटे मोटे कारणों से होने वाली इन छोटी मोटी बिमारियों के उपचार भी घर में होते हैं जो सस्ते, सुलभ, प्राकृतिक और शरीर के अनुकूल होते हैं । इनके विषय में ज्ञान और आस्था दोनों का अभाव होता है इसलिये हम संकट मोल लेते हैं ।
 
# बातबात में दवाई खाने की आदत एक और कारण है । खाँसी, जुकाम, साधारण सा बुखार, सरदर्द, पेटर्द्द आदि में दवाई खाना, डॉक्टर के पास जाना, मूल कारण को नष्ट नहीं करना शरीर पर भारी विपरीत परिणाम करता है । बिमारी तो दूर होती नहीं उल्टे शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है । छोटे मोटे कारणों से होने वाली इन छोटी मोटी बिमारियों के उपचार भी घर में होते हैं जो सस्ते, सुलभ, प्राकृतिक और शरीर के अनुकूल होते हैं । इनके विषय में ज्ञान और आस्था दोनों का अभाव होता है इसलिये हम संकट मोल लेते हैं ।
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वस्त्र स्वास्थ्यरक्षा के साथ साथ शील रक्षा के लिये, लज्जारक्षा के लिये भी होते हैं । शरीर स्वास्थ्य के लिये उपयोगी सूती वस्त्र भी शीलरक्षा नहीं कर सकते तो उन्हें पहनना अवैज्ञानिक है ।  
 
वस्त्र स्वास्थ्यरक्षा के साथ साथ शील रक्षा के लिये, लज्जारक्षा के लिये भी होते हैं । शरीर स्वास्थ्य के लिये उपयोगी सूती वस्त्र भी शीलरक्षा नहीं कर सकते तो उन्हें पहनना अवैज्ञानिक है ।  
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कारखाने में बने तैयार कपडे पहनने वाले लोग अनेक कारीगरों को बेरोजगार बनाने में निमित्त बनते हैं। किसी की रोजगारी छीन लेना, किसी की आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट करना हिंसा है। ऐसे वस्त्र पहनना हिंसा है। हिंसा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती । इसलिये विशालकाय यंत्र, केन्द्रीकृत उत्पादन प्रक्रिया और विज्ञापन तथा परिवहन आधारित वितरणव्यवस्था से गुजर कर बने हुए वस्त्र पहनना अवैज्ञानिक है।   
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कारखाने में बने तैयार कपड़े पहनने वाले लोग अनेक कारीगरों को बेरोजगार बनाने में निमित्त बनते हैं। किसी की रोजगारी छीन लेना, किसी की आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट करना हिंसा है। ऐसे वस्त्र पहनना हिंसा है। हिंसा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती । इसलिये विशालकाय यंत्र, केन्द्रीकृत उत्पादन प्रक्रिया और विज्ञापन तथा परिवहन आधारित वितरणव्यवस्था से गुजर कर बने हुए वस्त्र पहनना अवैज्ञानिक है।   
    
जिस प्रकार सूती के स्थान पर सिन्थेटिक वस्त्र होते हैं उस प्रकार रेशमी और गरम कपड़ों के स्थान पर भी सिन्थेटिक कपड़े होते हैं। इनका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि अधिकांश लोगोंं को इसकी कल्पना तक नहीं होती। ये कपड़े मोजे, स्वेटर, शाल आदि के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
 
जिस प्रकार सूती के स्थान पर सिन्थेटिक वस्त्र होते हैं उस प्रकार रेशमी और गरम कपड़ों के स्थान पर भी सिन्थेटिक कपड़े होते हैं। इनका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि अधिकांश लोगोंं को इसकी कल्पना तक नहीं होती। ये कपड़े मोजे, स्वेटर, शाल आदि के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
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बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, युवक-युवती जो तंग कपड़े पहनते हैं उनसे उनके स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचता है। ऐसे कपड़े पहनना अवैज्ञानिक है।   
 
बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, युवक-युवती जो तंग कपड़े पहनते हैं उनसे उनके स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचता है। ऐसे कपड़े पहनना अवैज्ञानिक है।   
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कपड़ा पहनने के लिये तो काम में आता ही है, साथ में उसके अन्य अनेक उपयोग हैं। बिस्तर, बिछाने ओढने की चादर, दरी, विभिन्न प्रकार की थैलियाँ और थैले, मेजपोश, सोफाकवर, पर्दे आदि में भी सूती का स्थान सिन्थेटिक कपडे ने लिया है। अब तो सूती माँगने पर भी दुकानदार सूती जैसे लगने वाले सिन्थेटिक कपडे देते हैं । वे इतने सूती जैसे लगते हैं कि अधिकांश ग्राहक इन्हें पहचान भी नहीं सकते । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
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कपड़ा पहनने के लिये तो काम में आता ही है, साथ में उसके अन्य अनेक उपयोग हैं। बिस्तर, बिछाने ओढने की चादर, दरी, विभिन्न प्रकार की थैलियाँ और थैले, मेजपोश, सोफाकवर, पर्दे आदि में भी सूती का स्थान सिन्थेटिक कपड़े ने लिया है। अब तो सूती माँगने पर भी दुकानदार सूती जैसे लगने वाले सिन्थेटिक कपड़े देते हैं । वे इतने सूती जैसे लगते हैं कि अधिकांश ग्राहक इन्हें पहचान भी नहीं सकते । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
    
==== अलंकार, सौन्दर्यप्रसाधन, अन्य छोटी मोटी वस्तुओं में वैज्ञानिकता ====
 
==== अलंकार, सौन्दर्यप्रसाधन, अन्य छोटी मोटी वस्तुओं में वैज्ञानिकता ====
 
विद्यार्थियों के बस्ते का थैला, जूते, रबड, पेन्सिल, लेखन पुस्तिका और पठनपुस्तिका के आवरण, कंपास पेटिका, नास्ते का डिब्बा, पानी की बोतल यदि प्राकृतिक के स्थान पर सिन्थेटिक है तो उनका प्रयोग करना अवैज्ञानिक है।
 
विद्यार्थियों के बस्ते का थैला, जूते, रबड, पेन्सिल, लेखन पुस्तिका और पठनपुस्तिका के आवरण, कंपास पेटिका, नास्ते का डिब्बा, पानी की बोतल यदि प्राकृतिक के स्थान पर सिन्थेटिक है तो उनका प्रयोग करना अवैज्ञानिक है।
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नहाने और धोने का साबुन, कपडे धोने का पाउडर, बाल धोने का शेम्पू, क्रीम, पाउडर, नेल पॉलिश, हाथ के और गले के अलंकार यदि सिन्थेटिक है तो उनका प्रयोग अवैज्ञानिक है।
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नहाने और धोने का साबुन, कपड़े धोने का पाउडर, बाल धोने का शेम्पू, क्रीम, पाउडर, नेल पॉलिश, हाथ के और गले के अलंकार यदि सिन्थेटिक है तो उनका प्रयोग अवैज्ञानिक है।
    
मेहंदी, रबर बैण्ड, बिन्दी, पिन, बकल टेटू आदि में से आज कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। इनका प्रयोग करना अवैज्ञानिक है। ऊँची एडी के सैण्डल का प्रयोग अवैज्ञानिक है।
 
मेहंदी, रबर बैण्ड, बिन्दी, पिन, बकल टेटू आदि में से आज कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। इनका प्रयोग करना अवैज्ञानिक है। ऊँची एडी के सैण्डल का प्रयोग अवैज्ञानिक है।
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चारों ओर भय का.साम्राज्य है। यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब  इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है।  
 
चारों ओर भय का.साम्राज्य है। यह सर्वव्यापी भय अनेक रूप धारण करता है। तनाव, निराशा, हताशा, आत्मग्लानि, हीनताग्रंथि, सरदर्द, चक्कर आना, चश्मा लगाना, पेटदर्द, कब्ज़ आदि सब  इस भय के ही विकार हैं । पढा हुआ याद नहीं होना, सिखाया जानेवाला नहीं समझना, सरल बातें भी कठिन लगना इसका परिणाम है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सदा उत्तेजना, उदासी अथवा थके माँदे रहना उसके लक्षण हैं । महत्वाकांक्षा समाप्त हो जाना इसका परिणाम है। यह सब सह नहीं सकने के कारण या तो व्यसनाधीनता या तो आत्महत्या ही एकमेव मार्ग बचता है।  
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दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पडें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना ।  
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दूसरी ओर शास्त्रों की, बडे बुजुर्गों की, अच्छी पुस्तकों की सीख होती है कि मनोबल इतना होना चाहिये कि मुसीबतों के पहाड टूट पड़ें तो भी हिम्मत नहीं हारना, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, कितना भी नुकसान हो जाय, पलायन नहीं करना, सामना करना और जीतकर दिखाना ।  
    
आज सर्वत्र विपरीत वातावरण दिखाई देता है । धैर्य, मनोबल, डटे रहने का साहस युवाओं में भी नहीं दिखाई देता । पलायन करना, समझौते कर लेना, अल्पता में ही सन्तोष मानना सामान्य बात हो गई है । यह अत्यन्त घातक लक्षण है। जिसमें मन की शक्ति नहीं है वह कभी भी अपना विकास नहीं कर सकता ।  
 
आज सर्वत्र विपरीत वातावरण दिखाई देता है । धैर्य, मनोबल, डटे रहने का साहस युवाओं में भी नहीं दिखाई देता । पलायन करना, समझौते कर लेना, अल्पता में ही सन्तोष मानना सामान्य बात हो गई है । यह अत्यन्त घातक लक्षण है। जिसमें मन की शक्ति नहीं है वह कभी भी अपना विकास नहीं कर सकता ।  
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अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
* इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
 
* इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
* किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
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* किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपड़े, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
 
* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
 
* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
 
* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
 
* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
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# क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का  विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते ।  हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
 
# क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का  विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते ।  हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
 
# संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये धार्मिक शास्त्रीय संगीत के आधार  पर की गई स्वररचना, धार्मिक वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है ।  
 
# संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये धार्मिक शास्त्रीय संगीत के आधार  पर की गई स्वररचना, धार्मिक वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है ।  
# विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगोंं की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है ।
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# विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपड़े नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगोंं की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है ।
 
विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे . हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने लगता है ।
 
विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे . हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने लगता है ।
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# इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा निश्चय करना और पार उतारना ।
 
# इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा निश्चय करना और पार उतारना ।
 
# कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना, हिम्मत नहीं हारना ।
 
# कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना, हिम्मत नहीं हारना ।
# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है। इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है । ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
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# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है। इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पड़े ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है । ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
 
# विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
 
# विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
 
# सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगोंं का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगोंं को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
 
# सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगोंं का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगोंं को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
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# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्सीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँ ने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाड़ीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
 
# रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्सीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता  आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँ ने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाड़ीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
 
# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है। उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है। रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया। साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है।
 
# विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है। उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है। रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया। साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है।
# घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं। नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं। चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शास्त्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का दरिद्र होना अवश्यंभावी है ।
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# घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं। नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं। चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपड़े पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शास्त्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का दरिद्र होना अवश्यंभावी है ।
 
# आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । धार्मिक अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हफ्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है।
 
# आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । धार्मिक अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हफ्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है।
  

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