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→‎अधिक भाग्यवान कौन ?: लेख संपादित किया
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पढ़ी लिखी युवती ३३ वर्ष की आयु में बालक को जन्म देती है, कम शिक्षित २४ वर्ष की आयु में और अशिक्षित १९ या २० वर्ष की आयु में किसका बालक अधिक आरोग्यवान होगा ?
 
पढ़ी लिखी युवती ३३ वर्ष की आयु में बालक को जन्म देती है, कम शिक्षित २४ वर्ष की आयु में और अशिक्षित १९ या २० वर्ष की आयु में किसका बालक अधिक आरोग्यवान होगा ?
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सुशिक्षित और बहुत धनाढय मातासिता अपने बच्चों को पॉच-सात-दस वर्ष की आयु में छात्रावास में भेज देते हैं। वहाँ वे परायों के बीच रहते हैं, पराये हाथों का अन्न  खाते हैं, परायी भाषा में पढ़ते हैं । सामान्य बालक घर में मातापिता के साथ रहते हैं, उधम मचाते हैं, घर का खाना खाते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं । दोनों में से कौन से जालक का जीवनविकास बहेतर होगा ?  
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सुशिक्षित और बहुत धनाढय माता पिता अपने बच्चों को पॉच-सात-दस वर्ष की आयु में छात्रावास में भेज देते हैं। वहाँ वे परायों के बीच रहते हैं, पराये हाथों का अन्न  खाते हैं, परायी भाषा में पढ़ते हैं । सामान्य बालक घर में मातापिता के साथ रहते हैं, उधम मचाते हैं, घर का खाना खाते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं । दोनों में से कौन से बालक का जीवनविकास बेहतर होगा ?  
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यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है।   
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यदि हम पैसे से ही सुख मिलता है ऐसा मानेनवाले हीं हैं तो निश्चित रूप से कहेंगे कि कम पढ़े लिखे, अशिक्षित या सामान्य मातापिता के बच्चे अधिक अच्छा जीवन पाते हैं । अधिक पढाई करने पर, अधिक कमाई करने पर अच्छे मातापिता बनना कठिन हो जाता है। क्या इनके विद्यालयों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को, जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है, यह सिखायें ? परन्तु जैसा हमने पूर्व में देखा, विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।  
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क्या इनके विद्यालयों नस यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने विद्यार्थियों को जीवन में सुख, सन्तोष, समृद्धि, प्रसन्नता आदि कैसे प्राप्त होता है यह सिखायें ?
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुट्म्बकम्‌" के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
 
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परन्तु नहीं, पूर्व में देखा वैसे विद्यालयों को विद्यार्थियों के जीवनविकास से कोई लेनादेना नहीं है ।
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परन्तु यह करना अनिवार्य है । घर संस्कृतिरक्षा का केन्द्र है । घर पतिपत्नी, मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि के सम्बन्धों की एकात्मता से बनता है । यह एकात्मता ही परिवार भावना है जो “वसुधैव कुट्म्बकम्‌ के रूप में सम्पूर्ण विश्व तक फैलती है । भारत की यह विशेषता है और विश्वसंस्कृति को देन है । घर में व्यक्ति को जीवनभर रहना है। ऐसे घर की रक्षा होनी ही चाहिये । ऐसे घर की रक्षा हो इस दृष्टि से बच्चों, युवाओं, स्त्रीपुरुषों को घर में रहना, घर बसाना, घर बनाना सीखना चहिये।  वर्त्तमान शिक्षा सर्वथा विपरीत दिशा में जा रही है और परिवार भावना तथा परिवार जीवन नष्ट हो रहे हैं ।   
      
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
 
=== विद्यालय अपने विद्यार्थियों को क्या सिखाए ? ===
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# जिसे देश कहते हैं उसे वास्तविक रूप में राष्ट्र कहा जाता है । राष्ट्र केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक इकाई है ।
 
# जिसे देश कहते हैं उसे वास्तविक रूप में राष्ट्र कहा जाता है । राष्ट्र केवल भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक इकाई है ।
 
# राष्ट्र भूमि का टुकडा मात्र नहीं है । वह भूमि, भूमि के ऊपर रहने वाली प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । तत्व के रूप में राष्ट्र जीवनदर्शन है और व्यवहार के रूप में जीवनदर्शन, प्रजा और भूमि ये तीनों मिलकर राष्ट्र बनता है ।
 
# राष्ट्र भूमि का टुकडा मात्र नहीं है । वह भूमि, भूमि के ऊपर रहने वाली प्रजा और उस प्रजा का जीवनदर्शन मिलकर राष्ट्र बनता है । तत्व के रूप में राष्ट्र जीवनदर्शन है और व्यवहार के रूप में जीवनदर्शन, प्रजा और भूमि ये तीनों मिलकर राष्ट्र बनता है ।
# भूमि और उस पर रहनेवाली प्रजा का माता और पुत्र का सम्बन्ध होना अनिवार्य है । जगत में इस सम्बन्ध को विभिन्न नाम भले ही दिये गये हों तो भी भावना एक ही है । जैसे कि अंग्रेजी भाषा में मातृभामि के स्थान पर पितृभूमि और अरबी, फारसी आदि भाषाओं में वतन अथवा मादरे वतन कहा जाता है । भूमि के लिये भक्तिभाव होना राष्ट्रीय होने की अर्थात्‌ देश के नागरिक होने की प्रथम शर्त है ।
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# भूमि और उस पर रहनेवाली प्रजा का माता और पुत्र का सम्बन्ध होना अनिवार्य है। जगत में इस सम्बन्ध को विभिन्न नाम भले ही दिये गये हों तो भी भावना एक ही है । जैसे कि अंग्रेजी भाषा में मातृभामि के स्थान पर पितृभूमि और अरबी, फारसी आदि भाषाओं में वतन अथवा मादरे वतन कहा जाता है । भूमि के लिये भक्तिभाव होना राष्ट्रीय होने की अर्थात्‌ देश के नागरिक होने की प्रथम शर्त है ।
 
# भूमि यदि माता है तो प्रजा में आपस में बन्धुभाव है यह भी स्वाभाविक है । देश की सम्पत्ति मेरी है, देश की प्रजा मेरी है, देश की नदियाँ, पर्वत, अरण्य सब मेरे हैं ऐसा भाव होना भी उतना ही स्वाभाविक है ।  
 
# भूमि यदि माता है तो प्रजा में आपस में बन्धुभाव है यह भी स्वाभाविक है । देश की सम्पत्ति मेरी है, देश की प्रजा मेरी है, देश की नदियाँ, पर्वत, अरण्य सब मेरे हैं ऐसा भाव होना भी उतना ही स्वाभाविक है ।  
 
# देश की भूमि, देश की सम्पत्ति मेरी है इसके दो अर्थ होते हैं । मेरे हैं अर्थात्‌ उन पर मेरा स्वामीत्व है, मैं उनका उपभोग मेरे सुख के लिये कर सकता हूँ ऐसा भी अर्थ होता है और मेरे हैं इसलिये मुझे उनका आदर करना चाहिये, उनकी रक्षा करनी चाहिये, उनके प्रति प्रेम और कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये ऐसा अर्थ भी होता है। भारत में हमेशा इस दूसरे अर्थ को ही माना है क्योंकि बन्धुभाव का सही अर्थ वही है ।
 
# देश की भूमि, देश की सम्पत्ति मेरी है इसके दो अर्थ होते हैं । मेरे हैं अर्थात्‌ उन पर मेरा स्वामीत्व है, मैं उनका उपभोग मेरे सुख के लिये कर सकता हूँ ऐसा भी अर्थ होता है और मेरे हैं इसलिये मुझे उनका आदर करना चाहिये, उनकी रक्षा करनी चाहिये, उनके प्रति प्रेम और कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये ऐसा अर्थ भी होता है। भारत में हमेशा इस दूसरे अर्थ को ही माना है क्योंकि बन्धुभाव का सही अर्थ वही है ।
# जीवनदूर्शन की इस स्पष्टता के बाद विद्यार्थियों को राष्ट्रविषयक जानकारी भी होना आवश्यक है । मेरे देश का भूगोल, मेरे देश की सीमायें, मेरे देश की जलवायु, मेरे देश की प्रकृतिसम्पदा आदि का सम्यक्‌ परिचय मुझे अर्थात्‌ विद्यार्थियों को होना ही चाहिये । दुनिया के विभिन्न राष्ट्रीं से भिन्न मेरे देश के भूगोल की क्या विशेषतायें हैं यह मुझे जानना चाहिये । उदाहरण के लिये केवल भारत में छः ऋऋतुयें हैं, केवल भारत में ऐसा भूभाग है जहाँ वर्ष में तीन फसलें ली जा सकती हैं, भारत की गंगा नदी की बराबरी करने वाली नदी पृथ्वी पर कहीं नहीं है । भारत की गाय की बराबरी करने वाला कोई प्राणी विश्व में नहीं है और ऐसी गंगा और गाय को गंगामैया और गोमाता कहने वाली प्रजा भी विश्व में कहीं नहीं है । भारत की ऐसी विशेषताओं का ज्ञान भारत के हर विद्यार्थी को दिया जाना चाहिये । देशभक्ति का यह प्रथम सोपान है ।
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# जीवनदर्शन की इस स्पष्टता के बाद विद्यार्थियों को राष्ट्रविषयक जानकारी भी होना आवश्यक है । मेरे देश का भूगोल, मेरे देश की सीमायें, मेरे देश की जलवायु, मेरे देश की प्रकृतिसम्पदा आदि का सम्यक्‌ परिचय मुझे अर्थात्‌ विद्यार्थियों को होना ही चाहिये । दुनिया के विभिन्न राष्ट्रीं से भिन्न मेरे देश के भूगोल की क्या विशेषतायें हैं यह मुझे जानना चाहिये । उदाहरण के लिये केवल भारत में छः ऋतुयें हैं, केवल भारत में ऐसा भूभाग है जहाँ वर्ष में तीन फसलें ली जा सकती हैं, भारत की गंगा नदी की बराबरी करने वाली नदी पृथ्वी पर कहीं नहीं है । भारत की गाय की बराबरी करने वाला कोई प्राणी विश्व में नहीं है और ऐसी गंगा और गाय को गंगामैया और गोमाता कहने वाली प्रजा भी विश्व में कहीं नहीं है । भारत की ऐसी विशेषताओं का ज्ञान भारत के हर विद्यार्थी को दिया जाना चाहिये । देशभक्ति का यह प्रथम सोपान है ।
# भूगोल की तरह भारत के इतिहास की भी जानकारी चाहिये । हम कितने प्राचीन हैं, विश्व में हमारी क्या छबी रही है, भारत पर कब, किसके, क्यों आक्रमण हुए हैं और भारत ने आक्रान्ताओं के साथ कैसा व्यवहार किया है, विश्व के अन्य राष्ट्रीं के साथ भारत का व्यवहार कैसा रहा है इसकी जानकारी विद्यार्थियों को होनी चाहिये । भारत का इतिहास अर्थात्‌ हमारे पूर्वजों का इतिहास ऐसी दृष्टि भी बननी चाहिये ।
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# भूगोल की तरह भारत के इतिहास की भी जानकारी चाहिये । हम कितने प्राचीन हैं, विश्व में हमारी क्या छवि रही है, भारत पर कब, किसके, क्यों आक्रमण हुए हैं और भारत ने आक्रान्ताओं के साथ कैसा व्यवहार किया है, विश्व के अन्य राष्ट्रों के साथ भारत का व्यवहार कैसा रहा है इसकी जानकारी विद्यार्थियों को होनी चाहिये । भारत का इतिहास अर्थात्‌ हमारे पूर्वजों का इतिहास, ऐसी दृष्टि भी बननी चाहिये ।
# यह देश कैसे चलता है अर्थात्‌ अपने समाजजीवन की व्यवस्थायें कैसे करता है यह भी हर विद्यार्थी को जानना जरूरी है । अर्थात्‌ भारत को जानने के लिये इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, आदि जानने की आवश्यकता होती है । तभी हम ज्ञानपूर्वक देश के साथ ज़ुड सकते हैं और देश के सच्चे नागरिक बन सकते हैं ।इस सन्दर्भ में विचार करने पर लगता है कि हमने देशभक्ति विषय का सर्वथा विपर्यास कर दिया है। यहाँ उट्लिखित सभी विषयों की घोर उपेक्षा होती है। कोई उन्हें पढ़ना नहीं चाहता क्योंकि उससे अच्छे वेतन वाली नौकरी नहीं मिलती । इन विषयों का सम्बन्ध देशभक्ति के साथ है ऐसा न पढनेवाला मानता है न पढ़ाने वाला । मूल सर्न्दर्भ ही नहीं होने के कारण इनका पाठ्यक्रम भी निर्रर्थक होता है और अध्ययन अध्यापन पद्धति शुष्क और उदासीभरी । इसके चलते समय और शक्ति का अपव्यय होता है । यही नहीं तो राष्ट्रविरोधी अनेक बातें पाठ्यक्रम में घुस जाती हैं, अनेक गलत तथ्य पढाये जाने लगते हैं। इन विषयों की शिक्षा सन्दर्भरहित और देशभक्ति केवल औपचारिक प्रदर्शन की वस्तु बन जाती है ।
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# यह देश कैसे चलता है अर्थात्‌ अपने समाजजीवन की व्यवस्थायें कैसे करता है यह भी हर विद्यार्थी को जानना जरूरी है । अर्थात्‌ भारत को जानने के लिये इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, आदि जानने की आवश्यकता होती है । तभी हम ज्ञानपूर्वक देश के साथ ज़ुड सकते हैं और देश के सच्चे नागरिक बन सकते हैं। इस सन्दर्भ में विचार करने पर लगता है कि हमने देशभक्ति विषय का सर्वथा विपर्यास कर दिया है। यहाँ उल्लिखित सभी विषयों की घोर उपेक्षा होती है। कोई उन्हें पढ़ना नहीं चाहता क्योंकि उससे अच्छे वेतन वाली नौकरी नहीं मिलती । इन विषयों का सम्बन्ध देशभक्ति के साथ है ऐसा न पढनेवाला मानता है न पढ़ाने वाला । मूल संदर्भ ही नहीं होने के कारण इनका पाठ्यक्रम भी निर्रर्थक होता है और अध्ययन अध्यापन पद्धति शुष्क और उदासीभरी । इसके चलते समय और शक्ति का अपव्यय होता है । यही नहीं तो राष्ट्रविरोधी अनेक बातें पाठ्यक्रम में घुस जाती हैं, अनेक गलत तथ्य पढाये जाने लगते हैं। इन विषयों की शिक्षा सन्दर्भरहित और देशभक्ति केवल औपचारिक प्रदर्शन की वस्तु बन जाती है ।
# यह देश कैसा है और कैसे चलता है इसकी जानकारी बडी कक्षाओं में बडी आयु के छात्रों को ही दी जा सकती है ऐसा नहीं है । शिशुअवस्था से ही विभिन्न क्रियाकलापों तथा गतिविधियों के माध्यम से यह कार्य शुरू हो जाता है । देशभक्ति केवल कार्यक्रमों और गतिविधियों का ही विषय नहीं है । मुख्य और केन्द्रवर्ती विषयों के माध्यम से सिखाया जानेवाला विषय है । भूगोल अर्थात्‌ मातृभूमि का गुणसंकीर्तन, इतिहास अर्थात्‌ हमारे पूर्वजों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु उनका स्मरण, समाजशास्त्र अर्थात्‌ हमारी परम्परा और कर्तव्यों की समझ ऐसा हमारे विभिन्न विषयों का स्वरूप बनना चाहिये । अर्थात्‌ देशभक्ति का ज्ञानात्मक स्वरूप विभिन्न विषयों के साथ समरस होना चाहिये ।
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# यह देश कैसा है और कैसे चलता है इसकी जानकारी बड़ी कक्षाओं में बड़ी आयु के छात्रों को ही दी जा सकती है ऐसा नहीं है। शिशु अवस्था से ही विभिन्न क्रियाकलापों तथा गतिविधियों के माध्यम से यह कार्य शुरू हो जाता है । देशभक्ति केवल कार्यक्रमों और गतिविधियों का ही विषय नहीं है । मुख्य और केन्द्रवर्ती विषयों के माध्यम से सिखाया जानेवाला विषय है । भूगोल अर्थात्‌ मातृभूमि का गुणसंकीर्तन, इतिहास अर्थात्‌ हमारे पूर्वजों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु उनका स्मरण, समाजशास्त्र अर्थात्‌ हमारी परम्परा और कर्तव्यों की समझ ऐसा हमारे विभिन्न विषयों का स्वरूप बनना चाहिये । अर्थात्‌ देशभक्ति का ज्ञानात्मक स्वरूप विभिन्न विषयों के साथ समरस होना चाहिये ।
    
==== देशभक्ति की भावना ====
 
==== देशभक्ति की भावना ====
 
देशभक्ति की केवल जानकारी होना पर्याप्त नहीं होती । देश के साथ हृदय से भी जुड़ना चाहिये । अतः जानकारी देने के साथ साथ भावजागरण के विभिन्न उपायों की योजना विद्यालयों में करनी चाहिये । इस सम्बन्ध में कुछ इस प्रकार से विचार हो सकता है...
 
देशभक्ति की केवल जानकारी होना पर्याप्त नहीं होती । देश के साथ हृदय से भी जुड़ना चाहिये । अतः जानकारी देने के साथ साथ भावजागरण के विभिन्न उपायों की योजना विद्यालयों में करनी चाहिये । इस सम्बन्ध में कुछ इस प्रकार से विचार हो सकता है...
 
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# हम भारतीय हैं इसका गौरव जगाने वाली गाथायें सुनने का अवसर प्राप्त होना चाहिये ।  
१, हम भारतीय हैं इसका गौरव जगाने वाली गाथायें सुनने का अवसर प्राप्त होना चाहिये ।  
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# हमारे देश के पूर्वजों के कर्तृत्व, गुण और पराक्रमों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गीतों, नाटकों एवं कथाओं के कार्यक्रम हो सकते हैं ।  
 
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# भारतमाता पूजन, मातृभूमि वंदन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन हो सकता है।  
२... हमारे देश के पूर्वजों के कर्तृत्व, गुण और पराक्रमों से प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गीतों, नाटकों एवं कथाओं के कार्यक्रम हो सकते हैं ।  
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# देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत हो सकता है।  
 
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# हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार धाम आदि एक और मुग़ल विषय का अंग है तो दूसरी और तीर्थयात्रा के केंद्र है। इनके अतिरिक्त देशभर में असंख्य मंदिर है और हजारों वर्षों से लोगो के श्रद्धा केंद्र बने हुए है। इन सब के साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़ें ऐसा आयोजन करना चाहिए। विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी चाहिए यह विशेषता है।  
3.  भारतमाता पूजन, मातृभूमि वंदन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन हो सकता है।
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# विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।  
 
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# मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।  
4.  देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत हो सकता है।
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# देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव स्थायी बनना चाहिये ।  
 
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# स्वतन्त्रता की चाह जगनी चाहिये, हमारा देश स्वतन्त्र रहना चाहिये ऐसा समस्त प्रजा को लगना चाहिये । देश की स्वतन्त्रता भूमि और संस्कृति दोनों की स्वतन्त्रता है । दोनों के प्रति गौरव और श्रद्धा होनी चाहिये और स्वतन्त्रता हेतु त्याग, बलिदान, समर्पण, निष्ठा आदि सब कुछ होना चाहिये ।  
5. हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार धाम आदि एक और मुग़ल विषय का अंग है तो दूसरी और तीर्थयात्रा के केंद्र है। इनके अतिरिक्त देशभर में असंख्य मंदिर है और हजारों वर्षों से लोगो के श्रद्धा केंद्र बने हुए है। इन सब के साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़ें ऐसा आयोजन करना चाहिए। विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी चाहिए यह विशेषता है।
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६.. विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।
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७. मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।
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८... देश मेरे लिये नहीं, मैं देश के लिये हूँ यह भाव स्थायी बनना चाहिये ।  
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९. स्वतन्त्रता की चाह जगनी चाहिये, हमारा देश स्वतन्त्र रहना चाहिये ऐसा समस्त प्रजा को लगना चाहिये । देश की स्वतन्त्रता भूमि और संस्कृति दोनों की स्वतन्त्रता है । दोनों के प्रति गौरव और श्रद्धा होनी चाहिये और स्वतन्त्रता हेतु त्याग, बलिदान, समर्पण, निष्ठा आदि सब कुछ होना चाहिये ।  
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विभिन्न विषयों की शिक्षा ऐसा भाव जगाने हेतु भी होना चाहिए।   
 
विभिन्न विषयों की शिक्षा ऐसा भाव जगाने हेतु भी होना चाहिए।   
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ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है ।
 
ज्ञान और भावना जब तक कृति में परिणत नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है । केवल जानना और मानना कभी भी पर्याप्त नहीं होता, करना अत्यन्त आवश्यक होता है। अतः कृतिशील देशभक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है ।
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कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये...
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कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये:
 
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# हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे  ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि काम होकर देश गरीब बनता है।  विदेशी वास्तु कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिए, कितनी भि सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं करना चाहिए।  विदेशी वास्तु कितनी भी दुर्लभहो, हमें सय्यम करना चाहिए।  एक तर्क ऐसा हो सकता है कि हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुएं आती ही थी। ईरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती, अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम उन्हें  खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह क्यों ? एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था । भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था। सोलहवी  शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन, दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार, मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
1. हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे  ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि काम होकर देश गरीब बनता है।  विदेशी वास्तु कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिए, कितनी भि सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं करना चाहिए।  विदेशी वास्तु कितनी भी दुर्लभहो, हमें सय्यम करना चाहिए।  एक तर्क ऐसा हो सकता है कि हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुएं आती ही थी। ईरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती, अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम उन्हें  खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह क्यों ?
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# आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है। कई महानुभाव विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं। क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें । लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं । वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ? जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता के पुत्र हो जाने के बराबर है । विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, विश्वभर से भारत में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि, व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़ गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र, अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं । सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि, वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही है।
 
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# कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें। हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था । भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था। सोलहवी  शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन, दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार, मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
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२. आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है । कई महानुभाव विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं।
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क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें ।
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लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं । वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ?  
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जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता के पुत्र हो जाने के बराबर है ।
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विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो
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हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, विश्वभर से भारत में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि, व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़ गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र, अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं ।
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सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि, वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था । “कृण्वन्तो विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही है।
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३. कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें ...
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हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और भारतीय भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
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इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता ।
 
इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता ।
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इस प्रकार ज्ञान, भावना और क्रिया के तीनों पहलुओं में देशभक्ति सिखाना विद्यालयों का परम कर्तव्य है।
 
इस प्रकार ज्ञान, भावना और क्रिया के तीनों पहलुओं में देशभक्ति सिखाना विद्यालयों का परम कर्तव्य है।
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आज इस विषय की बहुत उपेक्षा हो रही है यह हम देख ही रहे हैं । पाठ्यपुस्तकों में लिखी हुई प्रतिज्ञा का तोतारटन्त पाठ तो होता है परन्तु शिक्षा की योजना उसके अनुकूल नहीं बनती |
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आज इस विषय की बहुत उपेक्षा हो रही है यह हम देख ही रहे हैं । पाठ्यपुस्तकों में लिखी हुई प्रतिज्ञा का तोतारटन्त पाठ तो होता है परन्तु शिक्षा की योजना उसके अनुकूल नहीं बनती आवश्यकता है हमारे जीवन की वरीयताओं को बदलने की, हमारे व्यवहार को और मानसिकता को बदलने की, हमारी व्यवस्थाओं को बदलने की । विद्यार्थियों को यह सब सिखाना विद्यालयों का ही काम है । इस दृष्टि से हमारे विद्यालयों की व्यवस्थाओं , व्यवहारों और शिक्षाक्रम में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है ।
 
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आवश्यकता है हमारे जीवन की वरीयताओं को बदलने की, हमारे व्यवहार को और मानसिकता को बदलने की, हमारी व्यवस्थाओं को बदलने की ।
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विद्यार्थियों को यह सब सिखाना विद्यालयों का ही काम है । इस दृष्टि से हमारे विद्यालयों की व्यवस्थाओं , व्यवहारों और शिक्षाक्रम में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है ।
      
==References==
 
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