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अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
 
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* इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
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* किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
 
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* उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच  जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन,  केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं ।
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* महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
 
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* ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं । इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता ।
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यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
 
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०... महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है ।
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०... ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं ।
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इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं ।
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०... यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
      
इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना अत्यन्त आवश्यक है ।
 
इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना अत्यन्त आवश्यक है ।
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==== मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु ====
 
==== मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु ====
 
अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा सकता है
 
अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा सकता है
 
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# सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की । चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता । चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही मन हमेशा खौलता ही रहता है ।
१, सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की । चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता । चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही मन हमेशा खौलता ही रहता है ।
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# इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय इसका आग्रह होना चाहिये । सात्त्विक आहार का चाहिये । वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र है इसलिये यहाँ विशेष निरूपण करने की आवश्यकता नहीं है ।
 
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# विद्यार्थियों को टीवी और मोबाइल का निषेध करने की आवश्यकता है । यह निषेध महाविद्यालयों तक होना चाहिये । यह निषेध स्वयंस्वीकृत बने ऐसी शिक्षा भी देनी चाहिये । हमेशा के लिये निर्बन्ध थोपे ही जायें और विद्यार्थी मौका मिलते ही उनका उल्लंघन करने की ताक में ही रहें ऐसी स्थिति ठीक नहीं है । अतः इस विषय में मातापिता के साथ और किशोर  आयु से विद्यार्थियों के साथ बातचीत की जाय, उन्हें  सहमत बनाया जाय यह अत्यन्त आवश्यक है । थोपे हुए निर्नन्ध से मन कभी भी शान्त नहीं होता ।
2. इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय
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# क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का  विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते ।  हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
 
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# संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार  पर की गई स्वररचना, भारतीय वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है ।
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# विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है ।
 
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विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे . हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने लगता है ।
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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इसका आग्रह होना चाहिये । सात्त्विक आहार का चाहिये । विद्यालय में, कक्षाकक्ष
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वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र है इसलिये यहाँ विशेष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान
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निरूपण करने की आवश्यकता नहीं है । पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वच्छता नहीं
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३... विद्यार्थियों को टीवी और मोबाइल का निषेध करने होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का
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की आवश्यकता है । यह निषेध महाविद्यालयों तक अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि
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होना चाहिये । यह निषेध स्वयंस्वीकृत बने ऐसी बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये ।
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शिक्षा भी देनी चाहिये । हमेशा के लिये निर्बन्ध थोपे भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।
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ही जायें और विद्यार्थी मौका मिलते ही उनका उल्लंघन रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं,
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करने की ताक में ही रहें ऐसी स्थिति ठीक नहीं है । सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता
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अतः इस विषय में मातापिता के साथ और किशोर और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन
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आयु से विद्यार्थियों के साथ बातचीत की जाय, उन्हें सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय
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सहमत बनाया जाय यह अत्यन्त आवश्यक है । थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या
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हुए निर्नन्ध से मन कभी भी शान्त नहीं होता । आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ
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¥. gH sit al छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे
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विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब
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अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर,
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जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से
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कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है।
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के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध
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अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते । व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम
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हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों
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अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों
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प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन
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उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश अच्छा होने लगता है ।
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दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे
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आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से. हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने
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संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. लगता है ।
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महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
      
==== मन की एकाग्रता के उपाय ====
 
==== मन की एकाग्रता के उपाय ====
५.. संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर
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मन को जिस प्रकार शान्त बनाने की आवश्यकता है उसी प्रकार एकाग्र भी बनाने की आवश्यकता है । मन जब तक एकाग्र नहीं होता तब तक विद्याग्रहण नहीं कर सकता | इस दृष्टि से विद्यालय में कुछ इस प्रकार प्रबन्ध हो सकता है सकता है...
 
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# जप करना मन को एकाग्र करने का अच्छा उपाय है। छोटी आयु से ही इसका अभ्यास होना लाभकारी है । इसे विधिवत्‌ सिखाना चाहिये । बडी कक्षाओं में इसके विषय में भी सिखाना चाहिये ताकि वह केवल कर्मकाण्ड न बन जाय ।
सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की मन को जिस प्रकार शान्त बनाने की आवश्यकता है
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# ॐकार्‌ उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को एकाग्र करने में सहायक हैं ।
 
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# प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है ।.. उसी प्रकार एकाग्र भी बनाने की आवश्यकता है । मन जब
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# शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की, इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती है।  अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
 
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# वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है। बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही बोलना शुरू कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के बाद काम शुरू करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।  
सभी गीतों के लिये भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार... तक एकाग्र नहीं होता तब तक विद्याग्रहण नहीं कर
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पर की गई स्वररचना, भारतीय वाद्यों का प्रयोग और. सकता | इस दृष्टि से विद्यालय में कुछ इस प्रकार प्रबन्ध हो
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बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है सकता है
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&. विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना... १. जप करना मन को एकाग्र करने का अच्छा उपाय
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मन की एकाग्रता के उपाय
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है। छोटी आयु से ही इसका अभ्यास होना लाभकारी है । इसे विधिवत्‌ सिखाना चाहिये । बडी कक्षाओं में इसके विषय में भी सिखाना चाहिये ताकि वह केवल कर्मकाण्ड न बन जाय ।
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२. ॐकार्‌ उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को एकाग्र करने में सहायक हैं ।
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३. प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
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४. शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की, इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती है।  अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
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५. वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है। बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही बोलना शुरू कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के बाद काम शुरू करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।  
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मन की शक्ति बढ़ाने के उपाय
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मन को शान्त और एकाग्र बनाने के साथ साथ उसकी शक्ति बढाने की भी आवश्यकता है । इसके लिये कुछ इस प्रकार के उपाय हो सकते हैं
 
मन को शान्त और एकाग्र बनाने के साथ साथ उसकी शक्ति बढाने की भी आवश्यकता है । इसके लिये कुछ इस प्रकार के उपाय हो सकते हैं
  
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