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इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही कम होती है। शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद भी चलती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में, अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अर्थार्जन अथवा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास से ही हो जाती थी ।
 
इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही कम होती है। शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद भी चलती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में, अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अर्थार्जन अथवा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास से ही हो जाती थी ।
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इस विषय में [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|यह लेख]] भी पढ़ें ।
    
== घर भी शिक्षा केन्द्र है ==
 
== घर भी शिक्षा केन्द्र है ==
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* घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। भारत के मनीषियों ने जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है । वे उसके चरित्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं । तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया जाता था । भारत में अधिजननशास्त्र का बहुत विकास हुआ है । यह शास्त्र घर में जन्म पूर्व से ही बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या नहीं करना इसका ही शास्त्र है ।
 
* घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। भारत के मनीषियों ने जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है । वे उसके चरित्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं । तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया जाता था । भारत में अधिजननशास्त्र का बहुत विकास हुआ है । यह शास्त्र घर में जन्म पूर्व से ही बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या नहीं करना इसका ही शास्त्र है ।
 
* मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से ही होते हैं । खूबी की बात यह है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं । गर्भावस्‍था में माता के माध्यम से बालक का चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है । बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा, उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है ।  
 
* मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से ही होते हैं । खूबी की बात यह है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं । गर्भावस्‍था में माता के माध्यम से बालक का चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है । बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा, उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है ।  
* घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है। बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता है । वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है। सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य लोगोंं के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता । परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं । वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क, न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से, आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है ।  
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* घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है। बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता है । वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है। सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य लोगोंं के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक तीस, चालीस बच्चोंं को एक साथ पढ़ा नहीं सकता । परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं । वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क, न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से, आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है ।  
 
* कुटुम्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना, साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है जिसमें गुरुगृहवास अनिवार्य और स्वाभाविक माना गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि यातायात के साधन नहीं थे अतः गुरुकुल में शिक्षा के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन की व्यवस्था नहीं होती है अतः वह कर देने से विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण से ही कदाचित आज के जैसा भारत में अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र अवश्य रचा गया ।
 
* कुटुम्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना, साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है जिसमें गुरुगृहवास अनिवार्य और स्वाभाविक माना गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि यातायात के साधन नहीं थे अतः गुरुकुल में शिक्षा के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन की व्यवस्था नहीं होती है अतः वह कर देने से विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण से ही कदाचित आज के जैसा भारत में अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र अवश्य रचा गया ।
 
* कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।  
 
* कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।  
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* अपनों के लिये त्याग करना भी वे बड़ों से ही सीखते हैं । नैतिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा अलग से देनी नहीं पड़ती ।  
 
* अपनों के लिये त्याग करना भी वे बड़ों से ही सीखते हैं । नैतिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा अलग से देनी नहीं पड़ती ।  
 
* दान करना, व्रत पालन करना, उत्सवों का आयोजन सीखना, विवाह जैसे समारोहों का आयोजन करना, घर में ही सीखा जाता है । इष्ट देवता और कुलदेवता की पूजा, धार्मिक समारोह, मन्त्र, स्तोत्र, धार्मिक ग्रंथों का पठन आदि सब घर में दैनंदिन व्यवहार का भाग बनकर सीखे जाते हैं । सेवा और परिचर्या, वस्तुयें परखने की कुशलता, लोगोंं को भी परखने की कुशलता घर में ही सीखी जाती है ।  
 
* दान करना, व्रत पालन करना, उत्सवों का आयोजन सीखना, विवाह जैसे समारोहों का आयोजन करना, घर में ही सीखा जाता है । इष्ट देवता और कुलदेवता की पूजा, धार्मिक समारोह, मन्त्र, स्तोत्र, धार्मिक ग्रंथों का पठन आदि सब घर में दैनंदिन व्यवहार का भाग बनकर सीखे जाते हैं । सेवा और परिचर्या, वस्तुयें परखने की कुशलता, लोगोंं को भी परखने की कुशलता घर में ही सीखी जाती है ।  
* घर में जो सबसे बड़ी बात सीखी जाती है वह है गृहस्थधर्म । घर सांस्कृतिक परम्परा बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। उसे बनाये रखना गृहस्थ का कर्तव्य है। यह बहुत कुशलता से सीखना होता है । कई वर्षों तक यह प्रक्रिया चलती है । इस कारण से अधिक से अधिक समय घर में रहना आवश्यक माना गया है । जीवन के लिये उपयोगी सारी बातें घर में सीखने की भी इसी कारण से व्यवस्था की जाती रही है । ऐसा नहीं है कि कोई किसी कारण से घर से बाहर जाता ही नहीं था । हुनर सीखने के लिये, व्यापार करने के लिये, विद्याध्ययन के लिये, तीर्थयात्रा करने के लिये अनेक लोग घर से बाहर जाते थे । फिर भी जहां रहते थे घर के समान ही रहते थे । गुरुगृहवास करते थे तो गुरु के घर के जैसा ही व्यवहार करते थे । हुनर सीखने के लिये जिसके घर जाते थे उसके घर के जैसा व्यवहार करते थे । तीर्थयात्रा के लिये जाते थे तो घर की रीतिनीति का पूरा ध्यान रखते थे । व्यापार के लिये जाते थे तो भी घर का घरपना सम्हालकर रखते थे ।  
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* घर में जो सबसे बड़ी बात सीखी जाती है वह है गृहस्थधर्म । घर सांस्कृतिक परम्परा बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। उसे बनाये रखना गृहस्थ का कर्तव्य है। यह बहुत कुशलता से सीखना होता है । कई वर्षों तक यह प्रक्रिया चलती है । इस कारण से अधिक से अधिक समय घर में रहना आवश्यक माना गया है । जीवन के लिये उपयोगी सारी बातें घर में सीखने की भी इसी कारण से व्यवस्था की जाती रही है । ऐसा नहीं है कि कोई किसी कारण से घर से बाहर जाता ही नहीं था । हुनर सीखने के लिये, व्यापार करने के लिये, विद्याध्ययन के लिये, तीर्थयात्रा करने के लिये अनेक लोग घर से बाहर जाते थे । तथापि जहां रहते थे घर के समान ही रहते थे । गुरुगृहवास करते थे तो गुरु के घर के जैसा ही व्यवहार करते थे । हुनर सीखने के लिये जिसके घर जाते थे उसके घर के जैसा व्यवहार करते थे । तीर्थयात्रा के लिये जाते थे तो घर की रीतिनीति का पूरा ध्यान रखते थे । व्यापार के लिये जाते थे तो भी घर का घरपना सम्हालकर रखते थे ।  
 
* व्यवहार का पूरा का पूरा ज्ञान घर में प्राप्त होता है । केवल शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को गुरुकुल में जाना होता है । सबके सब शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना चाहते ही हैं ऐसा तो होता नहीं है । कुछ जिज्ञासु लोग ही शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं । उनके लिये व्यवस्था हो जाती है ।  
 
* व्यवहार का पूरा का पूरा ज्ञान घर में प्राप्त होता है । केवल शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को गुरुकुल में जाना होता है । सबके सब शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना चाहते ही हैं ऐसा तो होता नहीं है । कुछ जिज्ञासु लोग ही शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं । उनके लिये व्यवस्था हो जाती है ।  
 
* बालिका को स्त्री, गृहिणी, पत्नी और माता बनाना है और बालक को पुरुष, पति, गृहस्थ और पिता बनाना है इसका ध्यान रखना कुट़्म्ब में ही सम्भव होता है। इस दृष्टि से यौनशिक्षा, पतिपत्नी के सम्बन्ध की शिक्षा, शिशु संगोपन की शिक्षा, गर्भिणी की, शिशु की, रूण की और वृद्धों की परिचर्या करने की शिक्षा, व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने की शिक्षा, संकटों का सामना करने की शिक्षा, विपरीत परिस्थितियों में समता बनाये रखने की शिक्षा, कष्ट सहने की शिक्षा घर में ही मिलती है ।   
 
* बालिका को स्त्री, गृहिणी, पत्नी और माता बनाना है और बालक को पुरुष, पति, गृहस्थ और पिता बनाना है इसका ध्यान रखना कुट़्म्ब में ही सम्भव होता है। इस दृष्टि से यौनशिक्षा, पतिपत्नी के सम्बन्ध की शिक्षा, शिशु संगोपन की शिक्षा, गर्भिणी की, शिशु की, रूण की और वृद्धों की परिचर्या करने की शिक्षा, व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने की शिक्षा, संकटों का सामना करने की शिक्षा, विपरीत परिस्थितियों में समता बनाये रखने की शिक्षा, कष्ट सहने की शिक्षा घर में ही मिलती है ।   
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[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]
 
[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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