Difference between revisions of "शिक्षा का अत्यन्त प्रभावी केन्द्र कुटुम्ब"

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शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । ऐसी ही एक गलत
 
 
पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
 
 
 
अध्याय २५
 
 
 
शिक्षा का अत्यन्त प्रभावी eg Hera
 
 
 
शिक्षा व संस्कार अगल नहीं है
 
 
 
शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने
 
 
 
आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी
 
 
 
कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते । ऐसी ही एक गलत
 
  
 
धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही
 
धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही

Revision as of 04:41, 12 August 2020

शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते[1] । ऐसी ही एक गलत

धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही

होती है। धीरे धीरे हम यह कहने लगते हैं कि जो

विद्यालय में नहीं होती वह शिक्षा ही नहीं है । इसका ही

परिणाम है कि हम लोग घर का महत्त्व मानकर उसके

सन्दर्भ में जब बात होती है तब यह नहीं कहते हैं कि घर में

शिक्षा होती है ।हम कहते हैं कि घर में संस्कार होते हैं ।

इसके साथ ही दूसरी गलत धारणा यह बनी है कि शिक्षा

और संस्कार अलग बातें हैं । फिर हम कहते हैं कि शिक्षा

संस्कारहीन नहीं होनी चाहिए । हम आज की स्थिति को

ध्यान में रखकर ही ऐसा कहते हैं यह सत्य है परन्तु इससे

सिद्ध यह होता है कि शिक्षा और संस्कार अलग हैं ।

अतः: पहला तो गृहीत यह है कि शिक्षा और संस्कार

अलग नहीं हैं । संस्कार को हम सदुण और सदाचार के रूप

में समझते हैं । सदुण और सदाचार वास्तव में धर्म शिक्षा

है । भारत में शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । अर्थकरी

शिक्षा को वास्तव में शिक्षा नहीं अपितु कौशल कहते हैं ।

धर्मकरी शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं ।

इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही

कम होती है । शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के

भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने

के बाद भी चलती है ।

हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में,

अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों

के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा,

इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा

श्८्३

जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की

आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास

मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न

तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अथर्जिन अथवा अन्य

भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास

से ही हो जाती थी ।

घर भी शिक्षा केन्द्र है

कुछ भी हो जीवनविकास के लिए यदि शिक्षा है तो

वह केवल विद्यालय में नहीं अपितु घर में प्राप्त होती थी ।

घर में शिक्षा के पहलू इस प्रकार कहे जा सकते हैं

बालक को जन्म देना पतिपत्नी का परम कर्तव्य है ।

वास्तव में विवाह किया ही इसलिए जाता है कि हम

पितृकऋण से उक्रण हो सकें । पितृकण से उक्रण होना

सांस्कृतिक कर्तव्य है क्योंकि बालक को जन्म देने से

ही नई पीढ़ी निर्माण होती है और नई पीढ़ी को पूर्व

पीढ़ी द्वारा परिवारगत जो भी सांस्कृतिक विरासत

होती है वह नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती

है । यदि नई पीढ़ी जनमी ही नहीं तो परम्परा खंडित

होती है । परम्परा खंडित होने का निमित्त बनना बहुत

बड़ा सामाजिक सांस्कृतिक अपराध है । इसे ही

भारत में पाप माना जाता था । आज हम व्यक्तिकेन्द्री

जीवनदृष्टि से प्रभावित हो गये हैं इसलिए सामाजिक

सांस्कृतिक दायित्व को महत्त्वपूर्ण मानते नहीं हैं ।

परन्तु हमें स्मरण में रखना चाहिए कि भारत परम्परा

निर्वहण के कारण ही चिरंजीवी बना है ।

घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण

केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण

माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था

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की जाती थी । भारत के मनीषियों ने

जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत

नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के

संस्कार लेकर आता है । वे उसके चस्त्र में बहुत

बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच

और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं ।

तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के

संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह

जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के

संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के

अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और

चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु

मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने

के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को

इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया

जाता था । भारत में अधिजननशाख्र का. बहुत

विकास हुआ है । यह शाख्र घर में जन्म पूर्व से ही

बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या

नहीं करना इसका ही शाख्र है ।

मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और

व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह

संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में

से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में

ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक

विकास की दृष्टि से ही होते हैं । खूबी की बात यह

है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी

माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं ।

गर्भावस्‍था में माता के माध्यम से बालक का

चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है ।

बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा,

उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत

विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी

परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने

की आवाश्यकता है ।

घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली

श्८्ढं

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी

अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है।

बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता

भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और

अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी

सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह

अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता

है । वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी

सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह

निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी

सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से

सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में

अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह

आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है।

सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य

लोगों के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात

को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक

तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता ।

परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम

नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और

दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं ।

वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो

गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क,

न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से,

आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है ।

कुट्म्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है

कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती

है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना,

साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के

आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है

जिसमें गुरुगृहबास अनिवार्य और स्वाभाविक माना

गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि

यातायात के साधन नहीं थे इसलिए गुरुकुल में शिक्षा

के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी

पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा

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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही

चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन

की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए वह कर देने से

विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का

अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई

शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण

से ही कदाचित आज के जैसा भारत में

अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र

अवश्य रचा गया ।

कुट्म्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में

संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र

प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं

है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक

के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा

करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया

गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य

अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।

भारतीय व्यवस्था में अधथार्जिन कुटुंबजीवन का ही

हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने

के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस

प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे

उसी प्रकार सब मिलकर अधथार्जिन भी कर लेते थे ।

कुट्म्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत:

व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य

कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास

जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता

था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय

हीथा।

अथर्जिन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र

बनाकर जीवन की रचना होती थी और aia

साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता

था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अथर्जिन यह

विषय ही नहीं था । अधथर्जिन अपने आपमें सबसे

प्रमुख विषय नहीं था । जीवन जीना प्रमुख विषय था

और निर्वाह के लिये सामग्री चाहिए इसलिए अधथार्जिन

श्८्५्‌

का विचार किया जाता था ।

व्यवसाय लोगों की आवश्यकता पूर्ण करने के लिये

किए जाते थे । आर्थिक आवश्यकता नहीं है इस

कारण से कोई अपना व्यवसाय छोड़ नहीं सकता

था । जिस प्रकार स्वयं को उपवास है और भोजन

नहीं चाहिए इसलिए घर में कोई भोजन बनाने को

मना नहीं करता है उसी प्रकार स्वयं को नहीं चाहिए

इसलिए कोई व्यवसाय छोड़ नहीं सकता । Hers

की इस रचना की शिक्षा कुट्म्ब में ही प्राप्त होती है ।

जिस प्रकार अथर्जिन घर का विषय है उसी प्रकार

चरित्रनिर्माण भी घर का ही विषय है । आज हम

बलात्कार की घटनाओं के बारे में बहुत सुनते हैं ।

सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है । सामाजिक दायित्वबोध

का भी अभाव दिखाई देता है । इन सब बातों की

शिक्षा घर में होती है । पराई स्त्री को माता और बहन

मानना और उसकी sik pels से देखना नहीं यह

सीख घर में मिलती है । जो अपना नहीं है वह लेना

नहीं चाहे कोई न भी देखता हो यह घर में सिखाया

जाता है । घर की गृहिणी पति को और बड़े बुजुर्ग

छोटों को अनीति के रास्ते पर जाने से रोकते थे ।

अतिथिसत्कार के निमित्त से व्यवहारदक्षता घर में ही

सीखी जाती थी । सामाजिक उत्सवों में सहभागिता

और उनके आयोजन में हिस्सेदारी से सामाजिक

शिक्षा होती थी ।

अपनों के लिये त्याग करना भी वे बड़ों से ही सीखते

हैं । नैतिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा अलग से देनी

नहीं पड़ती ।

दान करना, ब्रतपालन करना, उत्सवों का आयोजन

सीखना, विवाह जैसे समारोहों का आयोजन करना,

घर में ही सीखा जाता है । इष्टदेबता और कुलदेवता

की पूजा, धार्मिक समारोह, मन्त्र, स्तोत्र, धार्मिक

ग्रंथों का पठन आदि सब घर में दैनंदिन व्यवहार का

भाग बनकर सीखे जाते हैं । सेवा और परिचर्या,

वस्तुयें परखने की कुशलता, लोगों को भी परखने

की कुशलता घर में ही सीखी जाती है ।

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घर में जो सब्से बड़ी बात

सीखी जाती है वह है गृहस्थधर्म । घर सांस्कृतिक

परम्परा बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। उसे

बनाये रखना गृहस्थ का कर्तव्य है। यह बहुत

कुशलता से सीखना होता है । कई वर्षों तक यह

प्रक्रिया चलती है । इस कारण से अधिक से अधिक

समय घर में रहना आवश्यक माना गया है । जीवन

के लिये उपयोगी सारी बातें घर में सीखने की भी

इसी कारण से व्यवस्था की जाती रही है ।

ऐसा नहीं है कि कोई किसी कारण से घर से बाहर

जाता ही नहीं था । हुनर सीखने के लिये, व्यापार

करने के लिये, विद्याध्ययन के लिये, तीर्थयात्रा करने

के लिये अनेक लोग घर से बाहर जाते थे । फिर भी

जहां रहते थे घर के समान ही रहते थे । गुरुगृहवास

करते थे तो गुरु के घर के जैसा ही व्यवहार करते

थे । हुनर सीखने के लिये जिसके घर जाते थे उसके

घर के जैसा व्यवहार करते थे । तीर्थयात्रा के लिये

जाते थे तो घर की रीतिनीति का पूरा ध्यान रखते

थे । व्यापार के लिये जाते थे तो भी घर का घरपना

सम्हालकर रखते थे ।

व्यवहार का पूरा का पूरा ज्ञान घर में प्राप्त होता है ।

केवल शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को

गुरुकुल में जाना होता है । सबके सब शास्त्रीय ज्ञान

प्राप्त करना चाहते ही हैं ऐसा तो होता नहीं है । कुछ

जिज्ञासु लोग ही शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक

होते हैं । उनके लिये व्यवस्था हो जाती है ।

बालिका को स्त्री, गृहिणी, पत्नी और माता बनाना है

और बालक को पुरुष, पति, गृहस्थ और पिता

बनाना है इसका ध्यान रखना कुट़्म्ब में ही सम्भव

होता है। इस दृष्टि से यौनशिक्षा, पतिपत्नी के

सम्बन्ध की शिक्षा, शिशु संगोपन की शिक्षा, गर्भिणी

की, शिशु की, रूण की और वृद्धों की परिचर्या करने

की शिक्षा, व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने

की शिक्षा, संकटों का सामना करने की शिक्षा,

विपरीत परिस्थितियों में समता बनाये रखने की

१८६

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

शिक्षा, कष्ट सहने की शिक्षा घर में ही मिलती है ।

यह सब पाठ्यक्रम बनाकर, विधिवत कक्षायें

लगाकर, समयसारिणी बनाकर नहीं होता, सहजता से

होता जाता है ।

समाजव्यवस्था व्यक्ति केन्द्री बन गई है

इस प्रकार जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं जो घर में

सीखी जाती हैं । आज भी ऐसा हो सकता है । परन्तु आज

स्थिति बहुत बदल गई है । विगत दोसौ वर्षों में हमारी

समाजव्यवस्था छिन्नभिन्न हो गई है । अपनी व्यवस्था को

छोड़कर हम उल्टी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । यह दिशा

यदि अधिक सुख और अधिक संस्कारिता की ओर हमें ले

जाती तो दिशा बदलने में भी कोई आपत्ति नहीं होती ।

परन्तु हमारे भौतिक और सांस्कृतिक संकट तो बढ़ रहे हैं ।

सामाजिक सुरक्षा नहीं है, आर्थिक fife नहीं

है,पारिवारिक सम्बन्ध क्षीण हो रहे हैं । समाजव्यवस्था

व्यक्तिकेन्द्रित बन गई है। हमने पूर्ण रूप से पाश्चात्य

सामाजिक प्रतिमान अपना लिया है । कानून उसके अनुकूल

बना लिये हैं । इसके चलते कुट्म्ब शिक्षा का केन्द्र नहीं रह

गया है । कुट्म्ब में शिक्षा नहीं होने के कारण से शिक्षा की

कुट्म्बबाह्य व्यवस्था बनाना हमारे लिये अनिवार्य बन गया

है । अथवा यह भी कहना सही नहीं है । स्वतन्त्रता से पूर्व

ही विद्यालय शुरू हो गये थे, शिक्षा को बाजार में लाया

गया था, फक्रयविक्रय की स्थिति बन गई थी, सरकार ने

शिक्षा की व्यवस्था का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था

जिसके परिणामस्वरूप घर की शिक्षा में व्यवधान आने

लगा । लोग अपना घर का व्यवसाय छोड़ छोड़कर नौकरी

करने लगे । कहीं यह प्रतिष्ठा के कारण से था, कहीं यह

मजबूरी के कारण, परन्तु अर्थव्यवस्था के छिन्नभिन्न हो जाने

के कारण नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती गई, नौकरी

हेतु घर छोड़कर बाहर जाकर बसने वालों की संख्या भी

बढ़ती गई ।

पीढ़ीयाँ बदलती गईं वैसे वैसे यह सब हमारे लिये

स्वाभाविक होता गया क्योंकि शिक्षाव्यवस्था में भी यह सब

आ गया । नई पद्धति पाठ्यक्रमों के माध्यम से प्रतिष्ठित

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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

होती गई | कानून उसके अनुकूल बनने लगे । सरकारी. अधिक मात्रा में ठीक करना होगा |

नीतियाँ उसीके आधार पर बनने लगीं । हमने इस व्यवस्था... पर्यावरण के संकट को ठीक से पहचान कर उसे भारतीय

को अपना लिया । अब हम उसे पाश्चात्य या अभारतीय दृष्टि से दूर करने की योजना बनानी होगी । पर्यावरण के

नहीं कहते हैं, आधुनिक कहते हैं । हमें लगता है कि इसका... संकट के साथ हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का

कोई विकल्प नहीं है , न हो सकता है क्योंकि हमने हमारी. संकट कितना गहरा जुड़ा है यह भी समझना होगा । इन

अपनी व्यवस्थाओं का परिचय भी प्राप्त किया नहीं है।. दोनों संकटों के कारण चिकित्सा उद्योग, औषध उद्योग,

उल्टे कभी उल्लेख होता है तो उसे पिछड़े का लेबल लगा. वकीलों का उद्योग और न्यायालयों की संख्या कितनी

देते हैं। अब चारों ओर सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक. अधिक बढ़ गई है इसका गंभीरतापूर्वक विचार करना

क्षेत्र में समस्या ही समस्या है । होगा । शिक्षा का बाजार कितना घातक हो गया है यह भी

समझना होगा । इन सारी बातों को ध्यान में लेकर नई

नई रचना बनानी होगी स्चना बनानी होगी । थोड़ी दीर्घकालीन योजना बनानी

इस कारण से कितना भी अपरिचित या असंभव... होगी । दीर्घकालीन हो या त्वरित, कुट्म्बजीवन को केन्द्र में

लगता हो तो भी हमें पुनर्विचार तो करना ही होगा ।.. रखकर यह पुनर्विचार होने की आवश्यकता है ।

पुनर्विचार का प्रारंभ अध्ययन से करना चाहिए । हमारी इस कार्य में दो संस्थायें पहल कर सकती हैं । एक है

व्यवस्थायें कैसी थीं इसका परिचय प्राप्त करना प्रथम चरण विश्वविद्यालय और दूसरी है मन्दिर संस्था या धर्मसंस्था ।

होगा । अध्ययन प्रारंभ करने से पूर्व ही कुछ आस्था तो... भारतीय समाज और भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मानुसारी रही

रखनी ही पड़ेगी । अध्ययन करते करते आस्था बढ़ेगी । हमें... हैं । धर्म ही सुरक्षा और विकास की गारण्टी दे सकता है ।

उस व्यवस्था की परिणामकारकता भी दिखाई देने लगेगी । .. यदि हम ऐसा करते हैं तो हमारी स्थिति भी ठीक होगी और

अध्ययन के आधार पर वर्तमान समय के अनुकूल नई. विश्व को भी एक अच्छा प्रारूप मिल सकता है ।

व्यवस्थाओं का विचार करना होगा । आर्थिक क्षेत्र बहुत

अध्याय २६

कुट्म्ब में शिक्षा

सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब. में होती है । इस दृष्टि से कुट्म्ब में शिक्षा यह Pama

आपग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा... का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण


References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे