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# एक बालक का भविष्य, और उसके साथ ही देश का भविष्य परिवारों और विद्यालयों में साथ साथ बनता है। दोनों साथ मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । हमारी एक गलती यह हुई है कि हमने पीढी निर्माण और राष्ट्रनिर्माण में परिवार की भूमिका को विस्मृत कर दिया है । सारी जिम्मेदारी विद्यालयों पर ही आ पडी है । परिवारों के बिना यह कार्य होने वाला नहीं है। परिवारों का विकल्प और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । इसलिये जो अवश्यंभावी है ऐसा खामियाजा भुगत रहे हैं । हमारी गढी जाने वाली पीढ़ी परिवार में मिलनेवाली शिक्षा से वंचित रह जाती है । आज की युवा पीढी वंचित रह भी गई है । इस नुकसान की भरपाई करना बहुत कठिन हो रहा है ।
 
# एक बालक का भविष्य, और उसके साथ ही देश का भविष्य परिवारों और विद्यालयों में साथ साथ बनता है। दोनों साथ मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । हमारी एक गलती यह हुई है कि हमने पीढी निर्माण और राष्ट्रनिर्माण में परिवार की भूमिका को विस्मृत कर दिया है । सारी जिम्मेदारी विद्यालयों पर ही आ पडी है । परिवारों के बिना यह कार्य होने वाला नहीं है। परिवारों का विकल्प और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । इसलिये जो अवश्यंभावी है ऐसा खामियाजा भुगत रहे हैं । हमारी गढी जाने वाली पीढ़ी परिवार में मिलनेवाली शिक्षा से वंचित रह जाती है । आज की युवा पीढी वंचित रह भी गई है । इस नुकसान की भरपाई करना बहुत कठिन हो रहा है ।
 
# पीढ़ी का निर्माण निर्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । पन्द्रह, बीस, पचीस वर्षों तक निरन्तर चलनेवाला काम आज खण्ड खण्ड में बँट गया है और खण्डों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है । उदाहरण के लिये प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और उच्चशिक्षा में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये एक विद्यार्थी जब प्राथमिक विद्यालय में पढता है तब वह क्या बनेगा, कैसे बनेगा, जो कुछ भी बनेगा वह बनकर क्या करेगा इसकी चिन्ता विद्यालय को नहीं है । वे तो बस पाँचवीं या आठवीं तक के जो पाठ्यक्रम सरकार ने बनाकर दिये हैं उन्हें 'पढ़ाने' का काम करते हैं । किंबहुना वे पाठ्यक्रम नहीं पढाते, पाठ्यपुस्तकें पढाते हैं, विषय भी नहीं पढ़ाते हैं, अपने हिस्से के पाठ पढ़ाते हैं । ऐसे में विद्यार्थी का भविष्य कया है इसकी चिन्ता उन्हें नहीं है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती । इन विद्यालयों में शिक्षा विषयों की होती है, परीक्षा में अंक लाने हेतु होती है, इन में जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्राथमिक विद्यालय में करियर का भी कोई प्रश्न नहीं है। विद्यार्थी क्या बनने वाला है इसका कोई विचार विद्यालय को करने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
 
# पीढ़ी का निर्माण निर्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । पन्द्रह, बीस, पचीस वर्षों तक निरन्तर चलनेवाला काम आज खण्ड खण्ड में बँट गया है और खण्डों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है । उदाहरण के लिये प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और उच्चशिक्षा में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये एक विद्यार्थी जब प्राथमिक विद्यालय में पढता है तब वह क्या बनेगा, कैसे बनेगा, जो कुछ भी बनेगा वह बनकर क्या करेगा इसकी चिन्ता विद्यालय को नहीं है । वे तो बस पाँचवीं या आठवीं तक के जो पाठ्यक्रम सरकार ने बनाकर दिये हैं उन्हें 'पढ़ाने' का काम करते हैं । किंबहुना वे पाठ्यक्रम नहीं पढाते, पाठ्यपुस्तकें पढाते हैं, विषय भी नहीं पढ़ाते हैं, अपने हिस्से के पाठ पढ़ाते हैं । ऐसे में विद्यार्थी का भविष्य कया है इसकी चिन्ता उन्हें नहीं है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती । इन विद्यालयों में शिक्षा विषयों की होती है, परीक्षा में अंक लाने हेतु होती है, इन में जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्राथमिक विद्यालय में करियर का भी कोई प्रश्न नहीं है। विद्यार्थी क्या बनने वाला है इसका कोई विचार विद्यालय को करने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
# माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशाख्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
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# माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशास्त्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
 
# उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते । इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
 
# उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते । इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
 
# तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती । हर मातापिता  चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है । अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा । अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगे पीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है । एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना शुरू हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत शुरू होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते।  तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ? अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर शुरू होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है । कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है ।  
 
# तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती । हर मातापिता  चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है । अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा । अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगे पीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है । एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना शुरू हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत शुरू होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते।  तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ? अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर शुरू होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है । कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है ।  
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==== ऐसे शिक्षक कहाँ से मिलेंगे ? ====
 
==== ऐसे शिक्षक कहाँ से मिलेंगे ? ====
# समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो शिक्षा को चिन्तित हैं । इन के दो प्रकार हैं । एक ऐसे हैं जो अपनी सन्तानों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं और अन्यत्र कहीं अच्छी शिक्षा नहीं है इसलिये स्वयं पढ़ना  चाहते है।  दुसरे ऐसे लोग हैं जो समाज के सभी बच्चों की शिक्षा के लिये चिन्तित हैं और अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं । देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं । ये सब शिक्षक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हैं अथवा सरकारमान्य शिक्षक हैं ऐसा नहीं होगा, परन्तु ये धार्मिक शिक्षा की सेवा करनेवाले अच्छे शिक्षक हैं । इनकी सूची दस हजार से ऊपर की बन सकती है । इन स्वेच्छा से बने शिक्षकों को शिक्षाशास्त्रियों ट्वारा समर्थन, सहयोग, मार्गदर्शन मिलना चाहिये । उनके प्रयोग को. निखारने और बढाने में शिक्षाशाख्रियों का योगदान होना चाहिये क्योंकि ये धार्मिक शिक्षा हेतु आदर्श प्रयोग हैं । देशके शैक्षिक संगठनों ट्वारा इन प्रयोगों को समर्थन और सुरक्षा की सिद्धता होनी चाहिए।
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# समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो शिक्षा को चिन्तित हैं । इन के दो प्रकार हैं । एक ऐसे हैं जो अपनी सन्तानों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं और अन्यत्र कहीं अच्छी शिक्षा नहीं है इसलिये स्वयं पढ़ना  चाहते है।  दुसरे ऐसे लोग हैं जो समाज के सभी बच्चों की शिक्षा के लिये चिन्तित हैं और अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं । देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं । ये सब शिक्षक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हैं अथवा सरकारमान्य शिक्षक हैं ऐसा नहीं होगा, परन्तु ये धार्मिक शिक्षा की सेवा करनेवाले अच्छे शिक्षक हैं । इनकी सूची दस हजार से ऊपर की बन सकती है । इन स्वेच्छा से बने शिक्षकों को शिक्षाशास्त्रियों ट्वारा समर्थन, सहयोग, मार्गदर्शन मिलना चाहिये । उनके प्रयोग को. निखारने और बढाने में शिक्षाशास्त्रियों का योगदान होना चाहिये क्योंकि ये धार्मिक शिक्षा हेतु आदर्श प्रयोग हैं । देशके शैक्षिक संगठनों ट्वारा इन प्रयोगों को समर्थन और सुरक्षा की सिद्धता होनी चाहिए।
 
# विद्यालयों में आज तो ऐसी व्यवस्था या पद्धति नहीं है कि वे स्वयं अपने विद्यालयों या महाविद्यालयों के लिये स्वयं शिक्षक तैयार कर सर्के । इसका एक कारण यह भी है कि पूर्ण शिक्षा कहीं एक स्थान पर होती हो ऐसी व्यवस्था नहीं है । किसी एक संस्थामें पूर्व प्राथमिक से महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा होती हो तब भी वे सारे विभाग भिन्न भिन्न सरकारी स्चनाओं के नियमन में चलते हैं । इसलिये कोई एक विद्यालय स्वयं चाहे उस विद्यार्थी को या उस शिक्षक को अपने विद्यालय में नियुक्त नहीं कर सकता । अपने विद्यार्थी के साथ साथ उसे अन्य लोगों को भी चयनप्रक्रिया में समाविष्ट करना होता है । एक अच्छा विद्यार्थी जब तक शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं करता तब तक वह शिक्षक नहीं बन सकता । उसी प्रकार से सभी प्रमाणपत्र प्राप्त विद्यार्थी अच्छे शिक्षक होते ही हैं ऐसा नियम नहीं है । शिक्षकों के चयन में विद्यालय के मापदण्ड नहीं चलते, सरकार के चलते हैं । इसलिये उस व्यवस्था से ही शिक्षक लेने होते हैं । इस स्थिति में इतना तो किया जा सकता है कि जो शिक्षक बनने योग्य हैं ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक ही बनने की प्रेरणा दी जाय और उन्हें इस हेतु से मार्गदर्शन, अवसर और शिक्षण भी दिया जाय । विभिन्न विषयों के महाविद्यालयीन अध्यापकों ने भी अध्यापक बनने योग्य विद्यार्थियों को प्रगत अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जाकर अध्यापक बनने के लिये प्रेरित करना चाहिये । ये विद्यार्थी अपने ही विद्यालय या महाविद्यालय में शिक्षक न भी बनें तो भी जहाँ जायें वहाँ अच्छे शिक्षक के रूप में कार्य कर सकेंगे । इसके साथ ही जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक बनने से परावृत्त करने की भी योजना बनानी चाहिये । जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है वे जब शिक्षक बन जाते हैं तब वे शिक्षा की और समाज की कुसेवा करते हैं ।
 
# विद्यालयों में आज तो ऐसी व्यवस्था या पद्धति नहीं है कि वे स्वयं अपने विद्यालयों या महाविद्यालयों के लिये स्वयं शिक्षक तैयार कर सर्के । इसका एक कारण यह भी है कि पूर्ण शिक्षा कहीं एक स्थान पर होती हो ऐसी व्यवस्था नहीं है । किसी एक संस्थामें पूर्व प्राथमिक से महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा होती हो तब भी वे सारे विभाग भिन्न भिन्न सरकारी स्चनाओं के नियमन में चलते हैं । इसलिये कोई एक विद्यालय स्वयं चाहे उस विद्यार्थी को या उस शिक्षक को अपने विद्यालय में नियुक्त नहीं कर सकता । अपने विद्यार्थी के साथ साथ उसे अन्य लोगों को भी चयनप्रक्रिया में समाविष्ट करना होता है । एक अच्छा विद्यार्थी जब तक शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं करता तब तक वह शिक्षक नहीं बन सकता । उसी प्रकार से सभी प्रमाणपत्र प्राप्त विद्यार्थी अच्छे शिक्षक होते ही हैं ऐसा नियम नहीं है । शिक्षकों के चयन में विद्यालय के मापदण्ड नहीं चलते, सरकार के चलते हैं । इसलिये उस व्यवस्था से ही शिक्षक लेने होते हैं । इस स्थिति में इतना तो किया जा सकता है कि जो शिक्षक बनने योग्य हैं ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक ही बनने की प्रेरणा दी जाय और उन्हें इस हेतु से मार्गदर्शन, अवसर और शिक्षण भी दिया जाय । विभिन्न विषयों के महाविद्यालयीन अध्यापकों ने भी अध्यापक बनने योग्य विद्यार्थियों को प्रगत अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जाकर अध्यापक बनने के लिये प्रेरित करना चाहिये । ये विद्यार्थी अपने ही विद्यालय या महाविद्यालय में शिक्षक न भी बनें तो भी जहाँ जायें वहाँ अच्छे शिक्षक के रूप में कार्य कर सकेंगे । इसके साथ ही जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक बनने से परावृत्त करने की भी योजना बनानी चाहिये । जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है वे जब शिक्षक बन जाते हैं तब वे शिक्षा की और समाज की कुसेवा करते हैं ।
 
# सही मार्ग तो यह है कि अपने विद्यालय के छात्र ही विद्यालय में शिक्षक बनें । शिक्षा की परम्परा निर्माण करना धार्मिक शिक्षा का एक खास लक्षण है । हर पिताश्री को जिस प्रकार अपने कुल की परम्परा अपने पुत्र को सौंपनी चाहिये उसी प्रकार हर शिक्षक को अपना दायित्व वहन करे ऐसा योग्य विद्यार्थी निर्माण करना चाहिये । ऐसे एक से अधिक विद्यार्थी निर्माण करना उचित होगा क्योंकि तब शिक्षा का प्रसार होगा । अपने विद्यार्थियों में कौन प्राथमिक में, कौन माध्यमिक में, कौन महाविद्यालय में और कौन सभी स्तरों पर पढा सकेगा यह पहचानना शिक्षक का कर्तव्य है। अच्छे विद्यार्थी ही नहीं तो अच्छे शिक्षक भी देना यह शिक्षक की शिक्षासेवा और समाजसेवा है ।
 
# सही मार्ग तो यह है कि अपने विद्यालय के छात्र ही विद्यालय में शिक्षक बनें । शिक्षा की परम्परा निर्माण करना धार्मिक शिक्षा का एक खास लक्षण है । हर पिताश्री को जिस प्रकार अपने कुल की परम्परा अपने पुत्र को सौंपनी चाहिये उसी प्रकार हर शिक्षक को अपना दायित्व वहन करे ऐसा योग्य विद्यार्थी निर्माण करना चाहिये । ऐसे एक से अधिक विद्यार्थी निर्माण करना उचित होगा क्योंकि तब शिक्षा का प्रसार होगा । अपने विद्यार्थियों में कौन प्राथमिक में, कौन माध्यमिक में, कौन महाविद्यालय में और कौन सभी स्तरों पर पढा सकेगा यह पहचानना शिक्षक का कर्तव्य है। अच्छे विद्यार्थी ही नहीं तो अच्छे शिक्षक भी देना यह शिक्षक की शिक्षासेवा और समाजसेवा है ।
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# श्रेष्ठ विद्यार्थियों को पढ़ाने का अवसर छोटी आयु से ही प्राप्त होना चाहिये । दूसरी या चौथी कक्षा के छात्र शिशुकक्षामें कहानी बतायें, पहाडे रटवायें, आठवीं के छात्र चौथी कक्षा को गणित पढ़ायें इस प्रकार नियोजित, नियमित पढाने का क्रम बनना चाहिये । अभिव्यक्ति अच्छी बनाना, कठिन विषय को सरल बनाना, उदाहरण खोजना, व्यवहार में लागू करना, शुद्धि का आग्रह रखना, कमजोर विद्यार्थियों की कठिनाई जानना, उन्हें पुनः पुनः पढाना आदि शिक्षक के अनेक गुणों का विकास इनमें किस प्रकार होगा यह देखना चाहिये । ये विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी होंगे । शिक्षक की सेवा करना, अध्यापन में सहयोग करना, साथी विद्यार्थियों की सहायता करना आदि उनकी शिक्षा का ही अंग बनना चाहिये । शिक्षकों को उन्हें विशेष ध्यान देकर पढाना चाहिये । शिक्षक के रूप में उनके चरित्र का विकास हो यह देखना चाहिये । उनके परिवार के साथ भी सम्पर्क बनाना चाहिये । ये विद्यार्थी पन्द्रह वर्ष के होते होते उनमें पूर्ण शिक्षकत्व प्रकट होना चाहिये । उसके बाद वे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रकार से काम करेंगे परन्तु उनका मुख्य कार्य अध्ययन ही रहेगा ।
 
# श्रेष्ठ विद्यार्थियों को पढ़ाने का अवसर छोटी आयु से ही प्राप्त होना चाहिये । दूसरी या चौथी कक्षा के छात्र शिशुकक्षामें कहानी बतायें, पहाडे रटवायें, आठवीं के छात्र चौथी कक्षा को गणित पढ़ायें इस प्रकार नियोजित, नियमित पढाने का क्रम बनना चाहिये । अभिव्यक्ति अच्छी बनाना, कठिन विषय को सरल बनाना, उदाहरण खोजना, व्यवहार में लागू करना, शुद्धि का आग्रह रखना, कमजोर विद्यार्थियों की कठिनाई जानना, उन्हें पुनः पुनः पढाना आदि शिक्षक के अनेक गुणों का विकास इनमें किस प्रकार होगा यह देखना चाहिये । ये विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी होंगे । शिक्षक की सेवा करना, अध्यापन में सहयोग करना, साथी विद्यार्थियों की सहायता करना आदि उनकी शिक्षा का ही अंग बनना चाहिये । शिक्षकों को उन्हें विशेष ध्यान देकर पढाना चाहिये । शिक्षक के रूप में उनके चरित्र का विकास हो यह देखना चाहिये । उनके परिवार के साथ भी सम्पर्क बनाना चाहिये । ये विद्यार्थी पन्द्रह वर्ष के होते होते उनमें पूर्ण शिक्षकत्व प्रकट होना चाहिये । उसके बाद वे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रकार से काम करेंगे परन्तु उनका मुख्य कार्य अध्ययन ही रहेगा ।
 
# जो विद्यार्थी शिक्षक ही बनेंगे उनके प्रगत अध्ययन हेतु एक विशेष संस्था का निर्माण हो सकता है जहाँ विद्यालय अपने चयनित शिक्षकों को विशेष शिक्षा के लिये भेज सकते हैं । यहाँ मुख्य रूप से राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना, राष्ट्रनिर्माण, ज्ञान की सेवा, वैश्विक समस्याओं के ज्ञानात्मक हल, धर्म और संस्कृति, धार्मिक शिक्षा का वर्तमान, भारत का भविष्य शिक्षा के माध्यम से कैसे बनेगा, उत्तम अध्यापन आदि विषय प्रमुख रूप से पढाये जायेंगे ।
 
# जो विद्यार्थी शिक्षक ही बनेंगे उनके प्रगत अध्ययन हेतु एक विशेष संस्था का निर्माण हो सकता है जहाँ विद्यालय अपने चयनित शिक्षकों को विशेष शिक्षा के लिये भेज सकते हैं । यहाँ मुख्य रूप से राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना, राष्ट्रनिर्माण, ज्ञान की सेवा, वैश्विक समस्याओं के ज्ञानात्मक हल, धर्म और संस्कृति, धार्मिक शिक्षा का वर्तमान, भारत का भविष्य शिक्षा के माध्यम से कैसे बनेगा, उत्तम अध्यापन आदि विषय प्रमुख रूप से पढाये जायेंगे ।
# उत्तमोत्तम शिक्षकों के दो काम होंगे। एक तो विद्यालयों के शिक्षकों को सिखाना और दूसरा अनुसन्धान करना । नये नये शाख्रग्रन्थों का निर्माण करना जिसमें छोटे से छोटे विद्यार्थी से लेकर विट्रज्जनों तक सबके लिये सामग्री हो । इस कार्य के लिये देशविदेश के श्रेष्ठ विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का काम भी करना होगा। इसके लिये अनुसन्धान पीठों की भी रचना करनी होगी । बीस पचीस वर्ष की अवधि में विद्यालय के छात्र अनुसन्धान करने में जुट जाय ऐसी स्थिति बनानी होगी ।
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# उत्तमोत्तम शिक्षकों के दो काम होंगे। एक तो विद्यालयों के शिक्षकों को सिखाना और दूसरा अनुसन्धान करना । नये नये शास्त्रग्रन्थों का निर्माण करना जिसमें छोटे से छोटे विद्यार्थी से लेकर विट्रज्जनों तक सबके लिये सामग्री हो । इस कार्य के लिये देशविदेश के श्रेष्ठ विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का काम भी करना होगा। इसके लिये अनुसन्धान पीठों की भी रचना करनी होगी । बीस पचीस वर्ष की अवधि में विद्यालय के छात्र अनुसन्धान करने में जुट जाय ऐसी स्थिति बनानी होगी ।
# कई व्यक्ति जन्मजात शिक्षक होते हैं । इनका स्वभाव ही शिक्षक का होता हैं क्योंकि स्वभाव जन्मजात होता है । ऐसे जन्मजात शिक्षकों को पहचानने का शाख्र और विधि हमें अनुसन्धान करके खोजनी होगी । इसके आधार पर शिक्षक बनने की सम्भावना रखने वाले विद्यार्थियों का चयन करना सरल होगा । अधिजननशास्त्र, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र आदि ऐसे शास्त्र हैं जो इसमें हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । अर्थात्‌ ये सब अपनी अपनी पद्धति से व्यक्ति को पहचानने का कार्य करते हैं । शिक्षक को इन सब का समायोजन कर अपने लिये उपयोगी सामग्री बनानी होगी ।
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# कई व्यक्ति जन्मजात शिक्षक होते हैं । इनका स्वभाव ही शिक्षक का होता हैं क्योंकि स्वभाव जन्मजात होता है । ऐसे जन्मजात शिक्षकों को पहचानने का शास्त्र और विधि हमें अनुसन्धान करके खोजनी होगी । इसके आधार पर शिक्षक बनने की सम्भावना रखने वाले विद्यार्थियों का चयन करना सरल होगा । अधिजननशास्त्र, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र आदि ऐसे शास्त्र हैं जो इसमें हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । अर्थात्‌ ये सब अपनी अपनी पद्धति से व्यक्ति को पहचानने का कार्य करते हैं । शिक्षक को इन सब का समायोजन कर अपने लिये उपयोगी सामग्री बनानी होगी ।
 
# अभिभावकों में भी स्वभाव से शिक्षक परन्तु अन्य व्यवसाय करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं । इन्हें शिक्षक बनने हेतु प्रेरित किया जा सकता है । इन्हें विद्यालय के शैक्षिक कार्य में, शिक्षा विचार के प्रसार में, विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं में सहभागी बनाया जा सकता है ।
 
# अभिभावकों में भी स्वभाव से शिक्षक परन्तु अन्य व्यवसाय करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं । इन्हें शिक्षक बनने हेतु प्रेरित किया जा सकता है । इन्हें विद्यालय के शैक्षिक कार्य में, शिक्षा विचार के प्रसार में, विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं में सहभागी बनाया जा सकता है ।
 
# विभिन्न प्रकार के कार्य कर सेवानिवृत्त हुए कई लोग स्वभाव से शिक्षक होते हैं । उन्हें भी उनकी क्षमता  और रुचि के अनुसार शिक्षा की पुर्नरचना के विभिन्न कार्यों के साथ जोडा जा सकता है ।
 
# विभिन्न प्रकार के कार्य कर सेवानिवृत्त हुए कई लोग स्वभाव से शिक्षक होते हैं । उन्हें भी उनकी क्षमता  और रुचि के अनुसार शिक्षा की पुर्नरचना के विभिन्न कार्यों के साथ जोडा जा सकता है ।

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