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=== विद्यार्थियों का भविष्य ===
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अध्याय ५
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==== कुछ चिन्ताजनक बातें ====
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विद्यार्थी देश का भविष्य है । कोठारी आयोग कहता है कि देश का भविष्य विद्यालयों के कक्षाकक्षों में गढा जा रहा है । कक्षाकक्षों में पढने वाले छात्र ही तो यह भविष्य है। इनका हो क्या रहा है इसका विचार गम्भीरतापूर्वक करने की आवश्यकता है । कुछ चिन्ताजनक बातें इस प्रकार हैं...
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1. आजकल सब इन्जिनीयर बनना चाहते हैं । ऐसी मान्यता है कि इन्जिनीयरों को जल्दी नौकरी मिल जाती है, अधिक वेतनवाली नौकरी मिलती है। इसलिये इन्जिनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश लेने वालों की संख्या बढ जाती है। यह देखकर इन्जिनीयरिंग कॉलेज शुरू करने वाले भी मैदान में आ जाते हैं । अनेक महाविद्यालय नये खुलते हैं। धीरे धीरे इन्जिनीयरों की संख्या बढती है परन्तु उनकी अब आवश्यकता नहीं होती है । वे नौकरी के लिये मारे मारे फिरते हैं और अल्पतम वेतन वाली नौकरी करते हैं, जो इन्जिनीयर का काम ही नहीं है ऐसी बाबूगीरी भी कर लेते हैं ।
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2. यही बात शिक्षकों के लिये, पाइलोटों के लिये कम्प्यूटरी सीखने वालों के लिये, डॉक्टरों के लिये सत्य है। इन सबको नौकरी मिलती नहीं है और स्वतन्त्र व्यवसाय करने की न हिम्मत है, न क्षमता है न अनुकूलता है ।
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शिक्षक का शिक्षकत्व
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3. इन सबको काम देने वालों की हमेशा शिकायत रहती है कि ये लोग काम करने के लायक ही नहीं है । इनको न काम आता है न काम करने की उनकी नीयत है । इन्हें मतलब काम से नहीं है, पैसे से ही है ।
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विद्यार्थियों का भविष्य
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4. शिक्षित या अशिक्षित युवकों को मोबाइल, बाईक और जिन्स पैण्ट न्यूनतम आवश्यकता है । नौकरी मिले या न मिले ये सब तो मिलने ही चाहिये ऐसा मानस है । येन केन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने का “पुरुषार्थ' भी चलता रहता है ।
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कुछ चिन्ताजनक बातें
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5. इन युवाओं को कार्यसंस्कृति का ज्ञान नहीं होता है । नौकरी या. व्यवसाय. करने. में नीतिमत्ता, व्यावसायिकता, उत्कृष्टता, जिम्मेदारी, प्रगति आदि के पैसे के अलावा कोई सन्दर्भ मालूम नहीं होते हैं । दिन के बारह घण्टे काम करने के बाद ही निर्वाह के लिये कुछ मिलता है । ऐसे में संस्कार और संस्कृति की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
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विद्यार्थी देश का भविष्य है । कोठारी आयोग कहता
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6. युवा होते होते नौकरी और छोकरी की चिन्ता लगती है और तनाव बढता जाता है । अनेक प्रकार के व्यसनों के भोग भी बन जाते हैं
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है कि देश का भविष्य विद्यालयों के कक्षाकक्षों में गढा जा
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7. असंख्य युवा गाँव छोड़कर नगरों में कारखानों में, उद्योगगृहों में, घरों में मजदूर, चपरासी, घरनौकर बनने के लिये आते हैं, परिवारों से दूर अकेले रहते हैं, शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य खराब कर लेते हैं, अनाचार में लिप्त हो जाते हैं ।
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रहा है कक्षाकक्षों में पढने वाले छात्र ही तो यह भविष्य
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8. खातेपीते घरों के बच्चों को व्यवहारज्ञान नहीं होता मातापिता की छत्रछाया में तो ये जी लेते हैं परन्तु अपने पैरों पर खडे होने का समय आता है तब बेहाल हो जाते हैं । अधिकांश लडकियों को घर सम्हालना नहीं आता और अधिकांश लडकों को गृहस्थी निभानी नहीं आती । ये जीवन जीते नहीं है, इनका जीवन बीत जाता है । ये कर्तृत्वहीन होते हैं।
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है। इनका हो क्या रहा है इसका विचार गम्भीरतापूर्वक
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9. विश्व में भारत की ख्याति है कि भारत युवाओं का देश है क्योंकि युवाओं की संख्या सबसे अधिक है । परन्तु भारत के युवाओं की स्थिति ही तो चिन्ताजनक है ।
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करने की आवश्यकता है । कुछ चिन्ताजनक बातें इस
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==== हमारे प्रयासों का स्वरूप ====
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शिशु से युवा होने तक की इनकी यात्रा निरंकुश, निराश्रय और अविचारित पद्धति से चलती है । यह ऐसी चलती है इसका दोष युवाओं का नहीं है, पूर्व पीढी का है । मुख्य बात यह है कि शिशु से युवा होने वाली पीढ़ी का संगोपन और शिक्षा ठीक होने से उनका भविष्य भी ठीक होगा और देश का भी ठीक होगा । ऐसा नहीं है कि सम्भावनायें नहीं हैं। हम सम्भावनाओं को वास्तविक बनाने के स्थान पर उन्हें नष्ट करने पर तुले हैं । हमारे उल्टे सीधे प्रयासों का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है
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प्रकार हैं...
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1. एक बालक का भविष्य, और उसके साथ ही देश का भविष्य परिवारों और विद्यालयों में साथ साथ बनता है। दोनों साथ मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । हमारी एक गलती यह हुई है कि हमने पीढी निर्माण और राष्ट्रनिर्माण में परिवार की भूमिका को विस्मृत कर दिया है । सारी जिम्मेदारी विद्यालयों पर ही आ पडी है । परिवारों के बिना यह कार्य होने वाला नहीं है। परिवारों का विकल्प और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । इसलिये जो अवश्यंभावी है ऐसा खामियाजा भुगत रहे हैं । हमारी गढी जाने वाली पीढ़ी परिवार में मिलनेवाली शिक्षा से वंचित रह जाती है । आज की युवा पीढी वंचित रह भी गई है । इस नुकसान की भरपाई करना बहुत कठिन हो रहा है ।
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2. पीढ़ी का निर्माण निर्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । पन्द्रह, बीस, पचीस वर्षों तक निरन्तर चलनेवाला काम आज खण्ड खण्ड में बँट गया है और खण्डों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है । उदाहरण के लिये प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और उच्चशिक्षा में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये एक विद्यार्थी जब प्राथमिक विद्यालय में पढता है तब वह क्या बनेगा, कैसे बनेगा, जो कुछ भी बनेगा वह बनकर क्या करेगा इसकी चिन्ता विद्यालय को नहीं है । वे तो बस पाँचवीं या आठवीं तक के जो पाठ्यक्रम सरकार ने बनाकर दिये हैं उन्हें 'पढ़ाने' का काम करते हैं । किंबहुना वे पाठ्यक्रम नहीं पढाते, पाठ्यपुस्तकें पढाते हैं, विषय भी नहीं पढ़ाते हैं, अपने हिस्से के पाठ पढ़ाते हैं । ऐसे में विद्यार्थी का भविष्य कया है इसकी चिन्ता उन्हें नहीं है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती । इन विद्यालयों में शिक्षा विषयों की होती है, परीक्षा में अंक लाने हेतु होती है, इन में जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्राथमिक विद्यालय में करियर का भी कोई प्रश्न नहीं है। विद्यार्थी क्या बनने वाला है इसका कोई विचार विद्यालय को करने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
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आजकल सब इन्जिनीयर बनना चाहते हैं । ऐसी
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3. माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशाख्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है
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मान्यता है कि इन्जिनीयरों को जल्दी नौकरी मिल
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उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना
 
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जाती है, अधिक वेतनवाली नौकरी मिलती है।
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इसलिये इन्जिनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश लेने वालों की
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संख्या बढ जाती है। यह देखकर इन्जिनीयरिंग
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कॉलेज शुरू करने वाले भी मैदान में आ जाते हैं ।
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अनेक महाविद्यालय नये खुलते हैं। धीरे धीरे
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इन्जिनीयरों की संख्या बढती है परन्तु उनकी अब
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आवश्यकता नहीं होती है । वे नौकरी के लिये मारे
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हैं, जो इन्जिनीयर का काम ही नहीं है ऐसी बाबूगीरी
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भी कर लेते हैं ।
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यही बात शिक्षकों के लिये, पाइलोटों के लिये
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कम्प्यूटरी सीखने वालों के लिये, डॉक्टरों के लिये
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सत्य है। इन सबको नौकरी मिलती नहीं है और
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स्वतन्त्र व्यवसाय करने की न हिम्मत है, न क्षमता है
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न अनुकूलता है ।
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इन सबको काम देने वालों की हमेशा शिकायत रहती
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है कि ये लोग काम करने के लायक ही नहीं है ।
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इनको न काम आता है न काम करने की उनकी नीयत
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है । इन्हें मतलब काम से नहीं है, पैसे से ही है ।
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शिक्षित या अशिक्षित युवकों को मोबाइल, बाईक
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और जिन्स पैण्ट न्यूनतम आवश्यकता है । नौकरी
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मिले या न मिले ये सब तो मिलने ही चाहिये ऐसा
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मानस है । येन केन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने का
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“पुरुषार्थ' भी चलता रहता है ।
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इन युवाओं को कार्यसंस्कृति का ज्ञान नहीं होता है ।
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नौकरी या. व्यवसाय. करने. में नीतिमत्ता,
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व्यावसायिकता, उत्कृष्टता, जिम्मेदारी, प्रगति आदि के
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पैसे के अलावा कोई सन्दर्भ मालूम नहीं होते हैं ।
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दिन के बारह घण्टे काम करने के बाद ही निर्वाह के
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लिये कुछ मिलता है । ऐसे में संस्कार और संस्कृति
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की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
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युवा होते होते नौकरी और छोकरी की चिन्ता लगती
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है और तनाव बढता जाता है । अनेक प्रकार के
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व्यसनों के भोग भी बन जाते हैं ।
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असंख्य युवा गाँव छोड़कर नगरों में कारखानों में,
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उद्योगगृहों में, घरों में मजदूर, चपरासी, घरनौकर बनने
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के लिये आते हैं, परिवारों से दूर अकेले रहते हैं,
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शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य खराब कर लेते हैं,
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अनाचार में लिप्त हो जाते हैं ।
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मातापिता की छत्रछाया में तो ये जी लेते हैं परन्तु
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अपने पैरों पर खडे होने का समय आता है तब
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बेहाल हो जाते हैं । अधिकांश लडकियों को घर
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सम्हालना नहीं आता और अधिकांश लडकों को
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गृहस्थी निभानी नहीं आती । ये जीवन जीते नहीं है,
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इनका जीवन बीत जाता है । ये कर्तृत्वहीन होते हैं ।
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विश्व में भारत की ख्याति है कि भारत युवाओं का देश
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है क्योंकि युवाओं की संख्या सबसे अधिक है । परन्तु
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भारत के युवाओं की स्थिति ही तो चिन्ताजनक है ।
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हमारे प्रयासों का स्वरूप
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शिशु से युवा होने तक की इनकी यात्रा निरंकुश,
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निराश्रय और अविचारित पद्धति से चलती है । यह ऐसी
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चलती है इसका दोष युवाओं का नहीं है, पूर्व पीढी का
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है । मुख्य बात यह है कि शिशु से युवा होने वाली पीढ़ी
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का संगोपन और शिक्षा ठीक होने से उनका भविष्य भी
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ठीक होगा और देश का भी ठीक होगा । ऐसा नहीं है कि
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सम्भावनायें नहीं हैं। हम सम्भावनाओं को वास्तविक
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बनाने के स्थान पर उन्हें नष्ट करने पर तुले हैं । हमारे उल्टे
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सीधे प्रयासों का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है
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एक बालक का भविष्य, और उसके साथ ही देश का
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भविष्य परिवारों और विद्यालयों में साथ साथ बनता
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है। दोनों साथ मिलकर यह कार्य कर सकते हैं ।
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हमारी एक गलती यह हुई है कि हमने पीढी निर्माण
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और राष्ट्रनिर्माण में परिवार की भूमिका को विस्मृत
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कर दिया है । सारी जिम्मेदारी विद्यालयों पर ही आ
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पडी है । परिवारों के बिना यह कार्य होने वाला नहीं
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नहीं सकता । इसलिये जो अवश्यंभावी है ऐसा
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खामियाजा भुगत रहे हैं । हमारी गढी जाने वाली
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पीढ़ी परिवार में मिलनेवाली शिक्षा से वंचित रह
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जाती है । आज की युवा पीढी वंचित रह भी गई
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है । इस नुकसान की भरपाई करना बहुत कठिन हो
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रहा है ।
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पीढ़ी का निर्माण निर्तर चलनेवाली प्रक्रिया है ।
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पन्द्रह, बीस, पचीस वर्षों तक निरन्तर चलनेवाला
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काम आज खण्ड खण्ड में बँट गया है और खण्डों का
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आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है । उदाहरण के लिये
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प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और
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उच्चशिक्षा में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है।
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इसलिये एक विद्यार्थी जब प्राथमिक विद्यालय में
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पढता है तब वह क्या बनेगा, कैसे बनेगा, जो कुछ
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भी बनेगा वह बनकर क्या करेगा इसकी चिन्ता
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विद्यालय को नहीं है । वे तो बस पाँचवीं या आठवीं
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तक के जो पाठ्यक्रम सरकार ने बनाकर दिये हैं उन्हें
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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‘USM का काम करते हैं । किंबहुना वे पाठ्यक्रम
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नहीं पढाते, पाठ्यपुस्तकें पढाते हैं, विषय भी नहीं
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पढ़ाते हैं, अपने हिस्से के पाठ पढ़ाते हैं । ऐसे में
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विद्यार्थी का भविष्य कया है इसकी चिन्ता उन्हें नहीं
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है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा भी
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नहीं की जा सकती । इन विद्यालयों में शिक्षा
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विषयों की होती है, परीक्षा में अंक लाने हेतु
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होती है, इन में जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
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प्राथमिक विद्यालय में करियर का भी कोई प्रश्न
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नहीं है। विद्यार्थी क्या बनने वाला है इसका
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कोई विचार विद्यालय को करने की आवश्यकता ही
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नहीं होती ।
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माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है ।
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प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है
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इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या
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शिक्षाशाख्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी
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विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है
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कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और
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सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने
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वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा
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नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय
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होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा
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प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं
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होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के
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भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में
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शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते
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हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है,
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विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं ।
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यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे
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अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में
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भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे
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जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में
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उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
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उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे
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