शिक्षक, प्रशासक, मन्त्री का वार्तालाप-2

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अध्याय ४५

मन्त्री : मैने आपका आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रारूप पढा । मैंने और मन्त्रियों को भी पढने हेतु दिया । शिक्षा विभाग के सभी अधिकारियों को भी पढने का आग्रह किया। फिर एक सप्ताह पूर्व हमने शिक्षाविभाग की एक बैठक की। हमने प्रधानमन्त्रीजी से भी इस विषय की चर्चा की। सरकार इस अभिप्राय पर पहुंची है कि ऐसा विश्वविद्यालय बनना तो चाहिये ही। यह विश्व में हमारी भूमिका के अनुकूल है यह बात तो सत्य है । सरकार इसे न करे यह आपकी भूमिका भी उचित ही है। सरकार की मर्यादा सब जानते हैं । वास्तव में शिक्षा तो क्या अधिकांश व्यवस्थायें समाज के अधीन हों यही सही पद्धति है। आपकी यह बात भी ठीक ही है कि स्वायत्त समाज ही स्वतन्त्र समाज होता है। समाज स्वतन्त्र होता है तभी सार्थक स्वतन्त्रता होती है। समाज को स्वतन्त्र बनाने हेतु शिक्षा को ही जिम्मेदारी लेनी चाहिये यह बात भी ठीक ही है। इसलिये अब आप अपनी कार्ययोजना बताइये और हमसे क्या अपेक्षा है यह भी बताइये ।

शिक्षक : आप इस योजना से सहमत हैं यह जानकार वडी प्रसन्नता हुई । वास्तव में पुरुषार्थ तो हमें ही करना है परन्तु अविरोधी शासन बहुत बडी अनुकूलता होता है।

हमने कुछ कार्ययोजना की रूपरेखा भी बनाई है । मैं केवल बिन्दु ही आपके सम्मुख रखता हूँ। (१) हम पूरा एक वर्ष समाज सम्पर्क करेंगे । इनमें राज्यों के शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय तथा अन्य शोधसंस्थान होंगे । आप इन सभी राज्य सरकारों से बात कर हमारा यह सम्पर्क अभियान यशस्वी हो ऐसा करें यही निवेदन है। हम सभी राज्यों के शिक्षा विभागों से बात करेंगे। सभी विश्वविद्यालयों के अध्ययन मण्डलों तथा उनकी कार्यवाहक समितियों से बात करेंगे। देश में अभी सातसौ से अधिक विश्वविद्यालय हैं, हम उनमें से एकसौ विश्वविद्यालयों का सम्पर्क करेंगे । उन्हें इस विचार के अनुकूल भी बनायेंगे और शैक्षिक दृष्टि से सहायता करने का निवेदन भी करेंगे। हम इन्हीं विश्वविद्यालयों से अध्यापक और विद्यार्थियों का चयन करेंगे।

  1. हम संचार माध्यमों का उपयोग कर जनसमाज को भी इस विषय से अवगत करायेंगे । अर्थात् समस्त प्रजा को जानना चाहिये कि आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की क्यों आवश्यकता है।
  2. हम देशभर में चार विद्वत् परिषदों का आयोजन करेंगे। इनमें आपके शिक्षाविभाग के प्रमुख अधिकारियों सहित आप तथा उन उन राज्यों के शिक्षाविभाग के प्रमुख अधिकारी सहभागी हों ऐसा हम चाहेंगे। आप लोगों की उपस्थिति से लोगों के मन आश्वस्त होंगे । आपकी सिस्टम का भय नहीं रहेगा। साथ ही हमारा संवाद बना रहेगा।
  3. विश्व के अन्यान्य देशों में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के विद्यार्थी और अध्यापक जायेंगे। इनके लिये उन उन देशों में कोई प्रतिकूलता न रहे यह देखना तो आपका ही दायित्व है। उन देशों की सरकारें उनके विश्वविद्यालयों से बात करें और हमारे विद्यार्थी तथा अध्यापकों को सहयोग करें ऐसा हम चाहेंगे। सरकारी बाधायें दूर हों।
  4. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को सहयोग करने का किसी पर सरकारी दबाव बने ऐसा हम नहीं चाहते । परन्तु अविरोध अवश्य चाहेंगे।
  5. धीरे धीरे बिना सरकारी मान्यता के भी पढा जाता है ऐसी मानसिकता बनाने में आपका बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। आप जहाँ जायें वहाँ औपचारिक अनौपचारिक तौर पर इस विश्वविद्यालय की चर्चा हो ऐसे अवसर आप बनायें। अनेक लोग इस विश्वविद्यालय की संकल्पना सुनने समझने के लिये आयें इस हेतु प्रोत्साहन दें। शिक्षा धीरे धीरे सरकार से समाज की ओर किस प्रकार जाय इसका विचार करें। आज सरकार शिक्षा को उद्योगों को हस्तान्तरित कर रही है। इससे शिक्षा का बाजारीकरण होने की सम्भावनायें बढती हैं। शिक्षा को बाजार के हाथ में न दें, शिक्षकों के हाथ में दें।
  6. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में शिक्षित लोगों को सरकारी नौकरियाँ न दें। यह एक आपद्धर्म होगा । मैं ऐसा उल्टा कथन आपकी सहायता हेतु ही कर रहा हूँ । सरकारी नौकरियाँ मिलती ही रहेगी तो अन्य लोग भी अपने अपने निजी विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। वे कुछ भी पढायेंगे और आपके लिये नौकरियाँ देने का बोज बढ़ जायेगा। धीरे धीरे हम समाज को नौकरी मुक्त भी बनाना चाहेंगे । इसलिये जिस प्रकार शिक्षा को स्वतन्त्रत करना है उस प्रकार अर्थार्जन को भी स्वतन्त्र करने की आवश्यकता रहेगी। नौकरी नहीं करने वाले और अपनी मालिकी का व्यवसाय करने वालों का सामाजिक और राजकीय सम्मान बढाने के उपाय करने चाहिये । समाज जागरण के कार्यक्रमों को अर्थनिरपेक्ष बनाने की दिशा में हम सबको मिलकर बहुत प्रयास करने होंगे। शिक्षा का अर्थार्जन से सम्बन्ध तोडकर ज्ञानार्जन से जोड़ने की दिशा में यह पहल होगी सरकार और विश्वविद्यालय ये संयुक्त प्रयासों से ही यह बदल होने वाला है।

मन्त्री : मैं आपकी बात समझ रहा हूँ। परन्तु एक बात हमें ठीक से समझ लेनी होगी। आप समाज में कार्य कर रहे हैं । आप स्थिरतापूर्वक काम कर सकते हैं । हमारी सरकार चुनाव के बाद बनती है और चुनाव हर पाँच वर्षों में आते हैं। कभी कभी जल्दी भी आ जाते हैं। अतः पाँच वर्षों के बाद हम होंगे कि नहीं यह अनिश्चित होता है। दूसरे पक्ष की सरकार बनते ही आपके जैसे कार्यों में सहयोग करने के स्थान पर रूकावटें ही शुरू हो जाती हैं। इस अनिश्चितता का विचार कैसे करें ?

शिक्षक : हम पक्ष से ऊपर उठकर काम करेंगे। देशभक्ति और देश की मिट्टी और पूर्वजों का गौरव सभी पक्षों के लिये समान मुद्दा बनना चाहिये । इसलिये हमारे सम्पर्क अभियान में सभी पक्षों की सरकारों का समावेश होगा । हम कमअधिक मात्रा में सहयोग और अवरोध की सम्भावनाओं को नकार नहीं रहे हैं परन्तु हम निवेदन करना नहीं चूकेंगे। आखिर शिक्षा जैसे विषय के लिये बहुमत अल्पमत का मुद्दा न बने इसका भी हमें ध्यान रखना ही होगा । अतः आप चुनावों की और पक्ष की सरकार बनती है कि नहीं इसकी चिन्ता न करें। और फिर आप विपक्ष में हों तो भी सहयोग तो कर ही सकते हैं।

प्रशासक : और हमारा प्रशासकों का वर्ग तो पक्षीय राजनीति में है ही नहीं । वह अच्छे और सही कामों में सहयोग करने के लिये तत्पर रहेगा ही।

शिक्षक : हमारी प्रशासकीय सेवाओं का धार्मिक करण करने का आपके लिये भी अच्छा अवसर है। वास्तव में हमारी सभी व्यवस्थाओं का पुनर्विचार करने का प्रारम्भ हमें कर देना चाहिये । सारा राष्ट्रजीवन धार्मिक बने इसलिये ऐसा करना आवश्यक है।

प्रशासक : यह आपने अच्छा सुझाव दिया । हमारी प्रशासकीय सेवाओं के पाठ्यक्रमों का हम पुनर्विचार करेंगे । उसका प्रशिक्षण चलता है। उसमें भी धार्मिकता का मुद्दा चर्चा में आना आवश्यक है। हमें आपकी सहायता चाहिये । हमारे वर्गों में वर्तमान विश्वविद्यालयों में पढे हुए लोग होते हैं। उन्हें भारत का धार्मिक दृष्टि से लिखा हुआ इतिहास, धार्मिक जीवनदृष्टि, राष्ट्रजीवन आदि बातों का परिचय ही नहीं होता। परन्तु वे बुद्धिमान होते हैं। व्यवहारदक्ष और चतुर भी होते हैं । शासन और प्रजा दोनों यदि धार्मिकता चाहते हैं तो उन्हें धार्मिकता क्या है यह समझने में देर नहीं लगेगी । हाँ, उन्हें अपने आपको प्रजा से अलग समझना बन्द करना होगा। मैं इसके लिये प्रयास करूँगा।

मन्त्री : यह अच्छा विचार है। शासन इस पर अवश्य विचार करेगा । हमें भारत को भारत केन्द्री होना चाहिये इस सूत्र को प्रचार में लाना चाहिये । मैंने अभी एक लेख पढा था । उसमें एक मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई थी। लेखक कहता था कि आज भारत के बौद्धिकों का वैचारिक गतिविधियों का गुरुत्वमध्यबिन्दु भारत के बाहर है, उसे पुनः भारत में लाना चाहिये । लेखकने भारत के शिक्षा आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलतसिंह कोठारी के सन्दर्भ से यह कहा था। लेखक ने इसके कई उदाहरण भी दिये थे। वैचारिक गुरुत्व मध्यबिन्दु को भारत में कैसे लाया जाय इसके कई सुझाव भी दिये थे। मैंने कई लोगों से इसकी चर्चा की। कुछ लोगों को बहुत विस्मय हुआ कि आज तक हमें यह बात सूझी क्यों नहीं । मुद्दा तो एकदम सही है ।इस बात पर व्यापक चर्चा होनी चाहिये ।

प्रशासक : मुझे एक विचार आ रहा है। हमारे सारे राष्ट्रीय संकटों की जड दो सौ वर्षों का ब्रिटीशों का आधिपत्य ही है। उस कालखण्ड में उन्होंने हमारे सारे विषयों के पाठ्यक्रम और स्वरूप बदल दिये । इतिहास भी फिर से लिखा ताकि हमें भविष्य में कुछ पता ही न चले। हमारी व्यवस्थायें छिन्नभिन्न कर दी । इसलिये मुझे लगता है कि हमें इन दो सौ वर्षों का प्रमाणभूत इतिहास पुनः लिखना चाहिये । हमें इसके लिये पर्याप्त अनुसन्धान भी करना होगा। हम किसी अच्छे विश्वविद्यालय को यह प्रकल्प दे सकते हैं और उसके लिये सहायता भी कर सकते हैं।

दूसरा मुजे लगता है कि एक शिक्षा आयोग की रचना की जाय जो भारत केन्द्री शिक्षा की संकल्पना और स्वरूप का दस्तावेज तैयार करे तथा साथ में उसे लागू कैसे किया जाय इसकी व्यावहारिक योजना भी दे। यह बात ठीक है कि सरकार द्वारा गठित आयोगों पर किसी को श्रद्धा या विश्वास नहीं होते, परन्तु हम इस बार आयोग की रचना और उसके कामकाज को पर्याप्त गम्भीरता से लेंगे।

इस आयोग में सुलझे हुए विद्वजनों को लेना चाहिये । आयोग में बहुत अधिक व्यक्ति नहीं होने चाहिये । इस आयोग का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण देश होना चाहिये । साथ ही विश्व के प्रमुख देशों में भी उन्होंने जाना चाहिये । यह ध्यान में रखना चाहिये कि केवल अच्छी शिक्षा हमारा उद्देश्य नहीं है, अच्छी धार्मिक शिक्षा हमारा उद्देश है। वर्तमान समय में हम अच्छी शिक्षा की संकल्पना विचार में लेते हैं, परन्तु धार्मिक शिक्षा का मुद्दा छूट ही जाता है। हम सरकार के मन्त्रीमण्डल से इस आयोग के गठन हेतु परामर्श भी ले सकते हैं।

शिक्षक : आपका यह विचार उत्तम है। आपका दोसौ वर्षों के इतिहास के लेखन का प्रस्ताव तो हमें पूर्ण रूप से स्वीकार्य है। मैं आज से ही योग्य व्यक्तियों को खोजकर उनसे बात करना शुरू कर देता हैं। शीघ्र ही मैं उनके नाम और अन्य जानकारी, अनुकूल विश्वविद्यालयों की जानकारी तथा प्रकल्प की रूपरेखा आपके सम्मुख प्रस्तुत करूँगा । आयोग हेतु आप दोनों सक्रिय हों तो पर्याप्त

मन्त्री : आपने एक वर्ष की सम्पर्क योजना तो प्रस्तुत की परन्तु आगे की क्या योजना होगी ? मुझे लगता है कि कम से कम पाँच वर्षों की योजना बनाकर हमने काम प्रारम्भ करना चाहिये । अर्थात् आप अभी ही योजना बतायें ऐसा आग्रह नहीं है।

शिक्षक : मैं विस्तार पूर्वक तो योजना कुछ दिनों बाद बताऊँगा परन्तु अभी मैं इतना कह सकता हूँ कि हमें तीन विभाग एक साथ शुरू करने होंगे। एक होगा विश्वअध्ययन केन्द्र, दूसरा होगा भारत अध्ययन केन्द्र और तीसरा होगा राष्ट्रीय ग्रन्थालय । हम तीनों विभागों की टोली को अपनी अपनी पाँच वर्षों की योजना बनाने के लिये बतायेंगे। प्रथम दो विभागों में अनुसन्धान से कार्य का प्रारम्भ होगा और धीरे धीरे नीचे की ओर चलते जायेंगे।

इस विश्वविद्यालय की व्याप्ति सम्पूर्ण विश्व की रहेगी परन्तु वह जहाँ भी होगा धार्मिक दृष्टि से विश्व का अध्ययन यह प्रमुख विषय रहेगा । इस दृष्टि को स्पष्ट करने हेतु चार आयामों में विचार होगा...

  1. भारत की दृष्टि से विश्व का अध्ययन...
  2. भारत की दृष्टि से भारत का अध्ययन...
  3. पश्चिम की दृष्टि से विश्व का अध्ययन...
  4. पश्चिम की दृष्टि से भारत का अध्ययन...

इन चारों आयामों के साथ तुलनात्मक अध्ययन और व्यवहार में परिवर्तन हेतु सुझाव अनिवार्य रूप से रहेंगे।

प्रशासक : इस सम्पूर्ण कार्य हेतु खर्च तो बहुत होगा। उसका क्या करेंगे ? मुझे नहीं लगता कि आप सरकार से कुछ अपेक्षा करेंगे। अनेक व्यावहारिक कारणों से सरकार सहायता करने में समर्थ नहीं रहेगी। आपने इस विषय में भी कुछ विचार किया ही होगा।

शिक्षक : आपकी बात ठीक है । खर्च बहुत होगा । हम सरकार से अपेक्षा नहीं करेंगे । हम समाज पर ही निर्भर करेंगे । वैसे आज जितने भी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन और संस्थायें इस देश में कार्यरत हैं उन सब का कार्य समाज के भरोसे ही चलता है । हम समाज से भिक्षा माँगेंगे। समाज पर भरोसा रखेंगे। आप लोगों के पास व्यक्तिगत रूप से भी हम भिक्षा माँगेंगे और सरकारों से भी माँगेंगे । वह अनुदान या कृपा नहीं होंगे, केवल सहयोग होगा।

मन्त्री : यह विचार अच्छा है। हम भी आपके कार्य में अवश्य सहयोग करेंगे । परन्तु क्या धार्मिक के साथ साथ विदेशों से भी विद्वान शोध और अध्ययन करने हेतु या अध्यापन करने हेतु आयेंगे ? या आप केवल धार्मिकों को ही पढाने की अनुमति देंगे ?

शिक्षक : अरे यह आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय है तो हम सम्पूर्ण विश्व से अध्यापकों को आमान्त्रित करेंगे। वास्तव में पूर्व और पश्चिम का भेद दिशाओं का, अथवा भारत और अमेरिका का नहीं है, वह दैवी और आसुरी सम्पदा का विरोध है । इसलिये विश्व के किसी भी स्थान से अध्यापक और विद्यार्थी यहा आयेंगे।

मैं एकबार पुनः स्पष्टता करता हूँ कि यह विश्वविद्यालय केवल भारत के लिये नहीं है, मुख्य रूप से यह विश्व के लिये है। विश्व जिन भीषण संकटों से घिरा हुआ है उसका निवारण करने हेतु वह अपने तरीके से प्रयास तो कर रहा है, परन्तु उसमें उसे यश नहीं मिल रहा है। हमारा पक्का विश्वास है कि पश्चिम को उसके प्रयास में यश मिल ही नहीं सकता क्योंकि उसकी जीवनशैली ही सारे संकटों का मूल है । वह अपनी शैली छोडना नहीं चाहता और संकट दूर करना चाहता है । ये दोनों बातें साथ साथ नहीं हो सकती । हमें पक्का विश्वास यह भी है कि भारत की जीवनदृष्टि इन संकटों का निवारण कर सकती है । परन्तु इसके लिये भारत को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होना पड़ेगा। आज तो भारत की स्थिति भी चिन्ताजनक है । इसलिये हमें भारत अध्ययन केन्द्र और विश्वअध्ययन केन्द्र बनाने पडेंगे । प्रथम भारत को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करना और बाद में भारत विश्व को संकटों से मुक्ति का मार्ग दिखायेगा । दोनों काम साथ साथ चलेंगे । इस कार्य में पश्चिम को भी तो साथ में लेना होगा।

मैंने संक्षेप में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का विचार आपके सामने रखा है। मैं पुनः एक बार बता दें कि हमारा आदर्श हार्वर्ड विश्वविद्यालय नहीं अपितु तक्षशिला विद्यापीठ रहेगा । हम आपसे सहयोग और समर्थन दोनों चाहते हैं। वह प्राप्त होगा ही ऐसा विश्वास अब होने लगा है।

प्रशासक : आप पूर्ण रूप से हमारा भरोसा कर सकते हैं । मैं स्वयं मेरे कुछ मित्रों के साथ अध्ययन करने के लिये आऊँगा । ग्रन्थालय में भी सेवा दूंगा । मुझे आप काम भी दे सकते हैं।

मुझे लगता है कि मेरे जैसे अनेकों के लिये आपका ग्रन्थालय आकर्षण का केन्द्र बनेगा। आप आवाहन करके अनेक विद्वानों और जिज्ञासुओं को अध्ययन हेतु निमंत्रित कर सकते हैं। लोगों का बिना प्रमाणपत्र के अध्ययन करने का मानस बने यह आवश्यक है।

शिक्षक : देखा, अभी तो हमने विचार शुरू ही किया है और हमें नई नई बातें सूझने लगी हैं। वास्तव में काम शुरू होगा तब तो अनेक नई नई बातें सूझेंगी।

मन्त्री : मैं भी यह सब सुनकर बहुत ही रोमांचित हो रहा हूँ। अब तो आप शीघ्र ही अपनी तैयारी कर लीजिये और प्रारम्भ कब करेंगे यह बताइये ।

शिक्षक : आप ही कोई अच्छा दिन बतायें ।

मन्त्री : मुझे लगता है आगामी वर्षप्रतिपदा का दिन विश्वविद्यालय शुरू करने के लिये उचित रहेगा। सृष्टि संवत्सर के प्रारम्भ जैसा और कौन सा दिन उचित हो सकता है ? आपको पूर्व तैयारी के लिये भी समय मिल जायेगा।

शिक्षक : बिलकुल ठीक है । मैं आज से ही काम शुरू करता हूँ। इस ऐतिहासिक कार्य हेतु समर्थन और सहयोग देने हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद । अब मुझे आज्ञा दें।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे