Difference between revisions of "शिक्षक, प्रशासक, मन्त्री का वार्तालाप-१"

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यह तो हमारी आन्तरिक बात हुई । परन्तु मूल बात यह है कि यह विश्वविद्यालय वास्तव में केवल भारत के लिये नहीं अपितु विश्व के लिये होगा। कारण यह है कि जिस प्रकार यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार चलनेवाली शिक्षा से भारत संकट में है उसी प्रकार विश्व भी संकट ग्रस्त है। बढे हुए तापमान की समस्या हो या पर्यावरण के प्रदूषण की, संस्कारहीनता की हो या गुलामी की, दारिद्य की हो या स्वास्थ्य की, सर्वप्रकार की समस्याओं का मूल कारण पश्चिम की जीवनदृष्टि है। आज विश्व पर पश्चिम का प्रभाव है इसलिये केवल पश्चिम ही नहीं तो सारा विश्व समस्याओं से परेशान है।
 
यह तो हमारी आन्तरिक बात हुई । परन्तु मूल बात यह है कि यह विश्वविद्यालय वास्तव में केवल भारत के लिये नहीं अपितु विश्व के लिये होगा। कारण यह है कि जिस प्रकार यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार चलनेवाली शिक्षा से भारत संकट में है उसी प्रकार विश्व भी संकट ग्रस्त है। बढे हुए तापमान की समस्या हो या पर्यावरण के प्रदूषण की, संस्कारहीनता की हो या गुलामी की, दारिद्य की हो या स्वास्थ्य की, सर्वप्रकार की समस्याओं का मूल कारण पश्चिम की जीवनदृष्टि है। आज विश्व पर पश्चिम का प्रभाव है इसलिये केवल पश्चिम ही नहीं तो सारा विश्व समस्याओं से परेशान है।
  
विश्व की इन परेशानियों को दूर करने का सामर्थ्य भारत की जीवनदृष्टि में है। भारत के अलावा और कोई यह कार्य नहीं कर सकता। अतः भारत को यह भूमिका निभानी चाहिये । भारत ने अतीत में भी ऐसा कार्य किया
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विश्व की इन परेशानियों को दूर करने का सामर्थ्य भारत की जीवनदृष्टि में है। भारत के अलावा और कोई यह कार्य नहीं कर सकता। अतः भारत को यह भूमिका निभानी चाहिये । भारत ने अतीत में भी ऐसा कार्य किया है । आज भी वह ऐसा कर सकता है ।
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परन्तु भारत में दोहरी कठिनाई है। पहली तो यह कि भारत स्वयं ही तो पश्चिमी प्रभाव में जी रहा हैं । हम ही यदि पश्चिमी व्यवस्था से मुक्त नहीं होंगे तो विश्व को कैसे मुक्त करेंगे ? इसलिये प्रथम आवश्यकता है भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करने की । ऐसी प्रतिष्ठा करने हेतु शैक्षिक संगठन पहल करें और शासन तथा प्रशासन उन्हें सहयोग करें यह आवश्यक है। मैं इस पुस्तिका में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रारूप लाया हूँ । मेरा निवेदन है कि आप इसे पढ़ें, उस पर विचार करें और बाद में हम उस पर चर्चा करेंगे।
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'''मन्त्री''' : महाशय, आपने जो भी कहा, मैं उससे पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मैं भी तो शिक्षक रहा हूँ। प्रथम माध्यमिक विद्यालय में और बाद में विश्वविद्यालय में पढाते समय मुझे हमेशा लगता था कि हम वही सब कर रहे हैं जो हमें एक भारतीय शिक्षक के नाते नहीं करना चाहिये। उस समय मुजे लगता था कि सरकार क्यों कुछ नहीं करती, हमें क्यों यह सब पढाना पड़ रहा है । परन्तु राजनीतिमें आने के बाद सांसद और मन्त्री बनने के बाद अनुभव कर रहा हूँ कि हम तो बुरे फंसे हैं । शिक्षक के नाते तो शिक्षा की थोडी बहुत भी सेवा कर लेते थे, शिक्षामन्त्री बनने के बाद हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। पूरा देश हमसे अपेक्षा करता है परन्तु हम गैरशैक्षिक बातों में ही उलझे हैं। कभी आरक्षण के नाम पर, कभी वेतन को लेकर, कभी बजट को लेकर, कभी भगवाकरण के नाम पर इतना शोर मचता है कि शिक्षा की बात तो कभी होती ही नहीं है । विरोध पक्ष सही गलत देखे बिना सभी बातों का विरोध ही करता है। अब आप ही कुछ मार्ग बतायें ऐसा मेरा आग्रह है।
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आज हम तीनों साथ बैठे हैं यह सुयोग है वरना आप लोग भी हमें दोष देते हैं और प्रशासक हमें नियमों और कानूनों में उलझाते हैं । नियमों और कानूनों का अध्ययन करें उतने समय में या तो हमारा विभाग बदल जाता है अथवा चुनाव आ जाते हैं। अतः मुझे लगता है कि शिक्षकों और शिक्षक संगठनों को ही कुछ करना होगा।
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'''शिक्षक''' : मैं आपकी व्यथा समझ सकता हूँ। परन्तु यह कार्य इतना जटिल है कि इसमें शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्षों को एक साथ मिलकर प्रयास करने होंगे। विशेष रूप से शैक्षिक संगठन पहल अवश्य करेगा परन्तु आप लोगों को उसमें सक्रिय और जिम्मेदार सहयोगी बनना होगा। तीनों पक्ष साथ मिलकर योजना बनायेंगे और आपके सहयोग से हम क्रियान्वयन करेंगे।
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'''प्रशासक''' : हाँ, हाँ, हमारा सहयोग अवश्य रहेगा परन्तु आप योजना बतायें । उस पर हम सारी सम्भावनायें देखेंगे और सहयोग की नीति तय करेंगे।
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'''मन्त्री''' : परन्तु मुझे कुछ आशंकायें लग रही हैं। सरकार सहयोग भी करे और नियन्त्रण न करे तो चारों ओर से विरोध होगा। दूसरा, अनेक लोग अनेक प्रकार से प्रस्ताव लायेंगे, और हमें भी करने दें ऐसा कहेंगे । एक करते करते अनेक प्रश्न निर्माण हो जायेंगे।
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भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित शिक्षायोजना कहते ही धर्मनिरपेक्षता संकट में पड़ जायेगी और अनेक लोग करने ही नहीं देंगे । इसलिये मेरा सुझाव है कि शासन और प्रशासन की सहमति रहे परन्तु वे सक्रिय न रहें । अनेक बार लोग कहते हैं कि सरकार में परिवर्तन करने का साहस नहीं है। मैं कहता हूँ कि यह साहस का प्रश्न नहीं है, व्यावहारिकता का है। विरोध के लिये विरोध का उत्तर देते रहें और हमारा काम ही न हो ऐसा करने के स्थान पर सरकार इसमें सहभागी ही न हो यह बेहतर है। हम आपको व्यक्तिगत रूप से सहायता अवश्य करेंगे। आप हमारा भरोसा करें।
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'''शिक्षक''' : मैं आपकी कठिनाई समझता हूँ परन्तु साहस करने की आवश्यकता भी देखता हूँ। मैं देखता हूँ कि स्पष्टता के अभाव में हम कई प्रश्न सुलझाने का प्रयास ही नहीं कर रहे हैं। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये ऐसा सूत्र प्रस्तुत करना और उस पर चर्चा आमन्त्रित करना तो प्रारम्भ है । इसमें हमें संकोच क्यों करना चाहिये ? धर्म, अध्यात्म, राष्ट्र आदि संकल्पनाओं को हम जितना जल्दी ठीक करें उतना अच्छा है । 'भारतीय शिक्षा' कोई संविधान के विरोध की बात तो है नहीं। अतः मेरा आग्रह है कि हम अपनी बात दृढतापूर्वक रखें । स्वाधीनता प्राप्ति के बाद
  
 
==References==
 
==References==

Revision as of 20:06, 14 January 2020

अध्याय ४४

शिक्षक : आज बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है जब संगठन, प्रशासन और शासन के प्रमुख दायित्व निभाने वाले लोग सहृदयता पूर्वक एकदूसरे की बात सुनने के लिये और राष्ट्रजीवन की एक गम्भीर समस्या के हल की चर्चा करने के लिये एकत्रित आये हैं । मैं इसे शुभ शकुन समझता हूँ।

गत बार जब मैं और आदरणीय शिक्षा सचिव मिले थे तब हमने दो विषयों पर प्राथमिक स्वरूप की चर्चा की थी।

१. इस देश की शिक्षा ब्रिटीश व्यवस्थातन्त्र और यूरोपीय ज्ञान के ढाँचे में ही चल रही है। किसी भी स्वाधीन और स्वतन्त्र देश में ऐसा होता नहीं है । इसका ही एक अंग यह है कि शिक्षा शासन के और सम्पूर्ण नियन्त्रण में चल रही है। इसे इस व्यवस्थातन्त्र से मुक्त करना चाहिये।

दूसरा मुद्दा था आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का । इसके विषय में मैंने कुछ भी नहीं कहा था । अतः संक्षेप में थोडी जानकारी देकर हम उस पर चर्चा करेंगे ।

मेरे प्रस्ताव का सार इस प्रकार है ।

  1. स्वाधीनता से पूर्व के देढ या दो सौ वर्षों में भारत की शिक्षा ब्रिटीश पद्धति से चल रही है । इसका ज्ञान भी यूरोपीय है और ढाँचा भी। स्वाधीनता के बाद हमने उस व्यवस्था को जैसा का तैसा अपनाया है।
  2. हमें स्वाधीनता के तुरन्त बाद उसे पूर्ण रूप से छोडने की आवश्यकता थी क्योंकि शिक्षा के माध्यम से जो यूरोपीय जीवनदृष्टि और जीवनशैली हम पर थोपी गई थी वही वास्तव में गुलामी थी। हमने राजकीय स्वाधीनता प्राप्त कर ली परन्तु सारी व्यवस्थायें वैसी ही रहीं। सत्तर वर्षों तक हम उसे ही कुछ आन्तरिक परिवर्तनों के साथ चला रहे हैं । सबसे पहली आवश्यकता इस व्यवस्था को बदलने की है।
  3. इसका एक हिस्सा है शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना और शिक्षकों और समाज से आवाहन और निवेदन करना कि वे देश की शिक्षा को चलायें । शासन और प्रशासन उनके कार्य में सहयोगी और संरक्षक की भूमिका निभायेंगे, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करेंगे।

इतनी बात तो पिछली बार हुई थी। अब मेरा दूसरा प्रस्ताव है आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का। इसके सम्बन्ध में मेरा कुछ स्पष्टतापूर्वक बताने का मानस है। प्रशासक महोदय कह रहे थे कि संसद कानून पारित करके अनुमति देगी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मान्यता देगा और विश्वविद्यालय शुरू होगा। उसकी योजना में तो कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु मेरा तात्पर्य अलग है।

यह आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय सरकारी मान्यता से नहीं चलेगा। सरकारी नियन्त्रण से मुक्त शिक्षा का होगा।

यह तो हमारी आन्तरिक बात हुई । परन्तु मूल बात यह है कि यह विश्वविद्यालय वास्तव में केवल भारत के लिये नहीं अपितु विश्व के लिये होगा। कारण यह है कि जिस प्रकार यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार चलनेवाली शिक्षा से भारत संकट में है उसी प्रकार विश्व भी संकट ग्रस्त है। बढे हुए तापमान की समस्या हो या पर्यावरण के प्रदूषण की, संस्कारहीनता की हो या गुलामी की, दारिद्य की हो या स्वास्थ्य की, सर्वप्रकार की समस्याओं का मूल कारण पश्चिम की जीवनदृष्टि है। आज विश्व पर पश्चिम का प्रभाव है इसलिये केवल पश्चिम ही नहीं तो सारा विश्व समस्याओं से परेशान है।

विश्व की इन परेशानियों को दूर करने का सामर्थ्य भारत की जीवनदृष्टि में है। भारत के अलावा और कोई यह कार्य नहीं कर सकता। अतः भारत को यह भूमिका निभानी चाहिये । भारत ने अतीत में भी ऐसा कार्य किया है । आज भी वह ऐसा कर सकता है ।

परन्तु भारत में दोहरी कठिनाई है। पहली तो यह कि भारत स्वयं ही तो पश्चिमी प्रभाव में जी रहा हैं । हम ही यदि पश्चिमी व्यवस्था से मुक्त नहीं होंगे तो विश्व को कैसे मुक्त करेंगे ? इसलिये प्रथम आवश्यकता है भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करने की । ऐसी प्रतिष्ठा करने हेतु शैक्षिक संगठन पहल करें और शासन तथा प्रशासन उन्हें सहयोग करें यह आवश्यक है। मैं इस पुस्तिका में आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रारूप लाया हूँ । मेरा निवेदन है कि आप इसे पढ़ें, उस पर विचार करें और बाद में हम उस पर चर्चा करेंगे।

मन्त्री : महाशय, आपने जो भी कहा, मैं उससे पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मैं भी तो शिक्षक रहा हूँ। प्रथम माध्यमिक विद्यालय में और बाद में विश्वविद्यालय में पढाते समय मुझे हमेशा लगता था कि हम वही सब कर रहे हैं जो हमें एक भारतीय शिक्षक के नाते नहीं करना चाहिये। उस समय मुजे लगता था कि सरकार क्यों कुछ नहीं करती, हमें क्यों यह सब पढाना पड़ रहा है । परन्तु राजनीतिमें आने के बाद सांसद और मन्त्री बनने के बाद अनुभव कर रहा हूँ कि हम तो बुरे फंसे हैं । शिक्षक के नाते तो शिक्षा की थोडी बहुत भी सेवा कर लेते थे, शिक्षामन्त्री बनने के बाद हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। पूरा देश हमसे अपेक्षा करता है परन्तु हम गैरशैक्षिक बातों में ही उलझे हैं। कभी आरक्षण के नाम पर, कभी वेतन को लेकर, कभी बजट को लेकर, कभी भगवाकरण के नाम पर इतना शोर मचता है कि शिक्षा की बात तो कभी होती ही नहीं है । विरोध पक्ष सही गलत देखे बिना सभी बातों का विरोध ही करता है। अब आप ही कुछ मार्ग बतायें ऐसा मेरा आग्रह है।

आज हम तीनों साथ बैठे हैं यह सुयोग है वरना आप लोग भी हमें दोष देते हैं और प्रशासक हमें नियमों और कानूनों में उलझाते हैं । नियमों और कानूनों का अध्ययन करें उतने समय में या तो हमारा विभाग बदल जाता है अथवा चुनाव आ जाते हैं। अतः मुझे लगता है कि शिक्षकों और शिक्षक संगठनों को ही कुछ करना होगा।

शिक्षक : मैं आपकी व्यथा समझ सकता हूँ। परन्तु यह कार्य इतना जटिल है कि इसमें शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्षों को एक साथ मिलकर प्रयास करने होंगे। विशेष रूप से शैक्षिक संगठन पहल अवश्य करेगा परन्तु आप लोगों को उसमें सक्रिय और जिम्मेदार सहयोगी बनना होगा। तीनों पक्ष साथ मिलकर योजना बनायेंगे और आपके सहयोग से हम क्रियान्वयन करेंगे।

प्रशासक : हाँ, हाँ, हमारा सहयोग अवश्य रहेगा परन्तु आप योजना बतायें । उस पर हम सारी सम्भावनायें देखेंगे और सहयोग की नीति तय करेंगे।

मन्त्री : परन्तु मुझे कुछ आशंकायें लग रही हैं। सरकार सहयोग भी करे और नियन्त्रण न करे तो चारों ओर से विरोध होगा। दूसरा, अनेक लोग अनेक प्रकार से प्रस्ताव लायेंगे, और हमें भी करने दें ऐसा कहेंगे । एक करते करते अनेक प्रश्न निर्माण हो जायेंगे।

भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित शिक्षायोजना कहते ही धर्मनिरपेक्षता संकट में पड़ जायेगी और अनेक लोग करने ही नहीं देंगे । इसलिये मेरा सुझाव है कि शासन और प्रशासन की सहमति रहे परन्तु वे सक्रिय न रहें । अनेक बार लोग कहते हैं कि सरकार में परिवर्तन करने का साहस नहीं है। मैं कहता हूँ कि यह साहस का प्रश्न नहीं है, व्यावहारिकता का है। विरोध के लिये विरोध का उत्तर देते रहें और हमारा काम ही न हो ऐसा करने के स्थान पर सरकार इसमें सहभागी ही न हो यह बेहतर है। हम आपको व्यक्तिगत रूप से सहायता अवश्य करेंगे। आप हमारा भरोसा करें।

शिक्षक : मैं आपकी कठिनाई समझता हूँ परन्तु साहस करने की आवश्यकता भी देखता हूँ। मैं देखता हूँ कि स्पष्टता के अभाव में हम कई प्रश्न सुलझाने का प्रयास ही नहीं कर रहे हैं। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये ऐसा सूत्र प्रस्तुत करना और उस पर चर्चा आमन्त्रित करना तो प्रारम्भ है । इसमें हमें संकोच क्यों करना चाहिये ? धर्म, अध्यात्म, राष्ट्र आदि संकल्पनाओं को हम जितना जल्दी ठीक करें उतना अच्छा है । 'भारतीय शिक्षा' कोई संविधान के विरोध की बात तो है नहीं। अतः मेरा आग्रह है कि हम अपनी बात दृढतापूर्वक रखें । स्वाधीनता प्राप्ति के बाद

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे