Difference between revisions of "शिक्षक, प्रशासक, मन्त्री का वार्तालाप-१"

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मेरे प्रस्ताव का सार इस प्रकार है ।
 
मेरे प्रस्ताव का सार इस प्रकार है ।
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# स्वाधीनता से पूर्व के देढ या दो सौ वर्षों में भारत की शिक्षा ब्रिटीश पद्धति से चल रही है । इसका ज्ञान भी यूरोपीय है और ढाँचा भी। स्वाधीनता के बाद हमने उस व्यवस्था को जैसा का तैसा अपनाया है।
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# हमें स्वाधीनता के तुरन्त बाद उसे पूर्ण रूप से छोडने की आवश्यकता थी क्योंकि शिक्षा के माध्यम से जो यूरोपीय जीवनदृष्टि और जीवनशैली हम पर थोपी गई थी वही वास्तव में गुलामी थी। हमने राजकीय स्वाधीनता प्राप्त कर ली परन्तु सारी व्यवस्थायें वैसी ही रहीं। सत्तर वर्षों तक हम उसे ही कुछ आन्तरिक परिवर्तनों के साथ चला रहे हैं । सबसे पहली आवश्यकता इस व्यवस्था को बदलने की है।
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# इसका एक हिस्सा है शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना और शिक्षकों और समाज से आवाहन और निवेदन करना कि वे देश की शिक्षा को चलायें । शासन और प्रशासन उनके कार्य में सहयोगी और संरक्षक की भूमिका निभायेंगे, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करेंगे।
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इतनी बात तो पिछली बार हुई थी। अब मेरा दूसरा प्रस्ताव है आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का। इसके सम्बन्ध में मेरा कुछ स्पष्टतापूर्वक बताने का मानस है। प्रशासक महोदय कह रहे थे कि संसद कानून पारित करके अनुमति देगी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मान्यता देगा और विश्वविद्यालय शुरू होगा। उसकी योजना में तो कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु मेरा तात्पर्य अलग है।
  
(१) स्वाधीनता से पूर्व के देढ या दो सौ वर्षों में भारत की शिक्षा ब्रिटीश पद्धति से चल रही है । इसका ज्ञान भी यूरोपीय है और ढाँचा भी। स्वाधीनता के बाद हमने उस व्यवस्था को जैसा का तैसा अपनाया है।
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यह आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय सरकारी मान्यता से नहीं चलेगा। सरकारी नियन्त्रण से मुक्त शिक्षा का होगा।
  
(२) हमें स्वाधीनता के तुरन्त बाद उसे पूर्ण रूप से छोडने की आवश्यकता थी क्योंकि शिक्षा के माध्यम से जो यूरोपीय जीवनदृष्टि और जीवनशैली हम पर थोपी गई थी वही वास्तव में गुलामी थी। हमने राजकीय स्वाधीनता प्राप्त कर ली परन्तु सारी व्यवस्थायें वैसी ही रहीं। सत्तर वर्षों तक हम उसे ही कुछ आन्तरिक परिवर्तनों के साथ चला रहे हैं । सबसे पहली आवश्यकता इस व्यवस्था को बदलने की है।
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यह तो हमारी आन्तरिक बात हुई । परन्तु मूल बात यह है कि यह विश्वविद्यालय वास्तव में केवल भारत के लिये नहीं अपितु विश्व के लिये होगा। कारण यह है कि जिस प्रकार यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार चलनेवाली शिक्षा से भारत संकट में है उसी प्रकार विश्व भी संकट ग्रस्त है। बढे हुए तापमान की समस्या हो या पर्यावरण के प्रदूषण की, संस्कारहीनता की हो या गुलामी की, दारिद्य की हो या स्वास्थ्य की, सर्वप्रकार की समस्याओं का मूल कारण पश्चिम की जीवनदृष्टि है। आज विश्व पर पश्चिम का प्रभाव है इसलिये केवल पश्चिम ही नहीं तो सारा विश्व समस्याओं से परेशान है।
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विश्व की इन परेशानियों को दूर करने का सामर्थ्य भारत की जीवनदृष्टि में है। भारत के अलावा और कोई यह कार्य नहीं कर सकता। अतः भारत को यह भूमिका निभानी चाहिये । भारत ने अतीत में भी ऐसा कार्य किया
  
 
==References==
 
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Revision as of 20:02, 14 January 2020

अध्याय ४४

शिक्षक : आज बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है जब संगठन, प्रशासन और शासन के प्रमुख दायित्व निभाने वाले लोग सहृदयता पूर्वक एकदूसरे की बात सुनने के लिये और राष्ट्रजीवन की एक गम्भीर समस्या के हल की चर्चा करने के लिये एकत्रित आये हैं । मैं इसे शुभ शकुन समझता हूँ।

गत बार जब मैं और आदरणीय शिक्षा सचिव मिले थे तब हमने दो विषयों पर प्राथमिक स्वरूप की चर्चा की थी।

१. इस देश की शिक्षा ब्रिटीश व्यवस्थातन्त्र और यूरोपीय ज्ञान के ढाँचे में ही चल रही है। किसी भी स्वाधीन और स्वतन्त्र देश में ऐसा होता नहीं है । इसका ही एक अंग यह है कि शिक्षा शासन के और सम्पूर्ण नियन्त्रण में चल रही है। इसे इस व्यवस्थातन्त्र से मुक्त करना चाहिये।

दूसरा मुद्दा था आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का । इसके विषय में मैंने कुछ भी नहीं कहा था । अतः संक्षेप में थोडी जानकारी देकर हम उस पर चर्चा करेंगे ।

मेरे प्रस्ताव का सार इस प्रकार है ।

  1. स्वाधीनता से पूर्व के देढ या दो सौ वर्षों में भारत की शिक्षा ब्रिटीश पद्धति से चल रही है । इसका ज्ञान भी यूरोपीय है और ढाँचा भी। स्वाधीनता के बाद हमने उस व्यवस्था को जैसा का तैसा अपनाया है।
  2. हमें स्वाधीनता के तुरन्त बाद उसे पूर्ण रूप से छोडने की आवश्यकता थी क्योंकि शिक्षा के माध्यम से जो यूरोपीय जीवनदृष्टि और जीवनशैली हम पर थोपी गई थी वही वास्तव में गुलामी थी। हमने राजकीय स्वाधीनता प्राप्त कर ली परन्तु सारी व्यवस्थायें वैसी ही रहीं। सत्तर वर्षों तक हम उसे ही कुछ आन्तरिक परिवर्तनों के साथ चला रहे हैं । सबसे पहली आवश्यकता इस व्यवस्था को बदलने की है।
  3. इसका एक हिस्सा है शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना और शिक्षकों और समाज से आवाहन और निवेदन करना कि वे देश की शिक्षा को चलायें । शासन और प्रशासन उनके कार्य में सहयोगी और संरक्षक की भूमिका निभायेंगे, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करेंगे।

इतनी बात तो पिछली बार हुई थी। अब मेरा दूसरा प्रस्ताव है आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का। इसके सम्बन्ध में मेरा कुछ स्पष्टतापूर्वक बताने का मानस है। प्रशासक महोदय कह रहे थे कि संसद कानून पारित करके अनुमति देगी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मान्यता देगा और विश्वविद्यालय शुरू होगा। उसकी योजना में तो कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु मेरा तात्पर्य अलग है।

यह आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय सरकारी मान्यता से नहीं चलेगा। सरकारी नियन्त्रण से मुक्त शिक्षा का होगा।

यह तो हमारी आन्तरिक बात हुई । परन्तु मूल बात यह है कि यह विश्वविद्यालय वास्तव में केवल भारत के लिये नहीं अपितु विश्व के लिये होगा। कारण यह है कि जिस प्रकार यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार चलनेवाली शिक्षा से भारत संकट में है उसी प्रकार विश्व भी संकट ग्रस्त है। बढे हुए तापमान की समस्या हो या पर्यावरण के प्रदूषण की, संस्कारहीनता की हो या गुलामी की, दारिद्य की हो या स्वास्थ्य की, सर्वप्रकार की समस्याओं का मूल कारण पश्चिम की जीवनदृष्टि है। आज विश्व पर पश्चिम का प्रभाव है इसलिये केवल पश्चिम ही नहीं तो सारा विश्व समस्याओं से परेशान है।

विश्व की इन परेशानियों को दूर करने का सामर्थ्य भारत की जीवनदृष्टि में है। भारत के अलावा और कोई यह कार्य नहीं कर सकता। अतः भारत को यह भूमिका निभानी चाहिये । भारत ने अतीत में भी ऐसा कार्य किया

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे