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== शिक्षक का व्यक्तित्व ==
 
== शिक्षक का व्यक्तित्व ==
 
शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता है। शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ बातों का विचार करना चाहिये:
 
शिक्षक के व्यक्तित्व में ये सभी गुण आयें और शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षक प्राप्त करने की एक सुनिश्चित व्यवस्था होना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है । ऐसी व्यवस्था करना समाज का प्रमुख दायित्व होता है , परन्तु समाज की ओर से भी इस व्यवस्था का प्रमुख दायित्व शिक्षक समुदाय का ही होता है। शिक्षा क्षेत्र को अच्छे शिक्षक प्राप्त हों इस दृष्टि से कुछ बातों का विचार करना चाहिये:
# सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था का विशेष कारण है । श्रेष्ठ शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । इसलिए श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का आग्रह बना रहना चाहिये ।
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# सभी विषयों में श्रेष्ठततम विद्यार्थी ही शिक्षक बनाना चाहिये । सामान्य विद्यार्थी को शिक्षक बनने की अनुमति नहीं होनी चाहिये । श्रेष्ठता की परीक्षा ज्ञान, संस्कार, आचरण और नियत के आधार पर करनी चाहिये । श्रेष्ठ विद्यार्थी ही शिक्षक बने इस व्यवस्था का विशेष कारण है । श्रेष्ठ शिक्षक जब अपना ज्ञान विद्यार्थी को हस्तांतरित करता है और इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी की अनेक पीढ़ियाँ बीतती हैं तो ज्ञान उत्तरोत्तर समृद्ध होता जाता है । जब शिक्षक साधारण रहता है तब पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा क्षीण होती जाती है । किसी भी समाज के लिये यह वांछनीय बात नहीं है । अतः श्रेष्ठतम विद्यार्थी शिक्षक बने इस बात का आग्रह बना रहना चाहिये ।
 
# श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे ।  
 
# श्रेष्ठततम विद्यार्थी शिक्षक बने यह देखने का दायित्व शिक्षक और समाज दोनों का है । शिक्षक को अपने श्रेष्ठ विद्यार्थी को शिक्षक बनने की प्रेरणा देनी चाहिये और उसकी क्षमताओं का विकास करना चाहिये । समाज को चाहिये कि शिक्षक का सम्मान इतना बढ़ाए कि श्रेष्ठ विद्यार्थी शिक्षक बनना चाहे । साथ ही शिक्षक के योगक्षेम की भी पर्याप्त चिन्ता करे ।  
 
# ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं। इस विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही रहता था |
 
# ऐसा व्यक्ति शिक्षक बन सकता है जो श्रेष्ठ विद्यार्थी होने के साथ साथ शिक्षक के स्वभाव वाला हो । स्वभाव जन्मगत भी होता है और गुणकर्म के अनुसार भी होता है । गुणकर्म जन्म से होते हैं या प्राप्त किए जाते हैं इस विषय में अनेक मत मतांतर हैं। इस विवाद पर समय व्यतीत न करते हुए हमें एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि शिक्षक के स्वभाव से युक्त व्यक्ति ही शिक्षक बने यह आवश्यक है । स्वभाव को परखने की व्यवस्था विकसित करनी चाहिये । स्वभाव के अनुसार जीवनकार्य निश्चित करने की व्यवस्था प्राचीन काल में थी । उदाहरण के लिये शिशु जब भूमि पर बैठने लगता था तब उसके आस पास विभिन्न व्यवसायों से संबन्धित उपकरण रखे जाते थे । स्वयं प्रेरणा से अथवा अपनी रुचि से शिशु जिन उपकरणों को ग्रहण करता था उन उपकरणों से सम्बन्धित उसका व्यवसाय अथवा जीवनकार्य निश्चित किया जाता था । और एक व्यवस्था बड़ी सहज और सरल थी । पिता का ही व्यवसाय पुत्र आगे बढ़ाता था । अतः शिक्षक का पुत्र शिक्षक होगा यह स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता था । परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में पिता पुत्र परंपरा से भी अधिक गुरु शिष्य परंपरा का ही महत्त्व माना जाता था । शिक्षक पिता का पुत्र शिक्षक बनने का स्वाभाविक अधिकारी होने पर भी गुरु अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थी को ही अपना अनुगामी बनाता था । कौन विद्यार्थी शिक्षक बनेगा यह निश्चित करने का अधिकार और दायित्व शिक्षक का ही रहता था |
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== शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम ==
 
== शिक्षक शिक्षा का पाठ्यक्रम ==
समाजजीवन में शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति होता है । जैसी शिक्षा होती है वैसा ही समाज होता है । इसका कारण बहुत स्पष्ट है । मनुष्य जन्म के भी पूर्व से सब कुछ सीख सीख कर ही अपना व्यक्तित्व विकसित करता जाता है और चरित्र गढ़ता जाता है । इसलिये समाज में शिक्षक का भी स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भी कारण स्पष्ट है । जैसा शिक्षक होता है वैसी ही शिक्षा होती है । यह तथ्य तो समाजजीवन के हर क्षेत्र को लागू है । जैसा धर्माचार्य होगा वैसा ही धर्मप्रवर्तन होगा । जैसा बुनकर होगा वैसा ही कपड़ा बनेगा, जैसा कुम्हार होगा वैसा ही घड़ा बनेगा, जैसा अभियन्ता होगा बैसी ही सड़क बनेगी । हाँ, कपड़े और घड़े तथा शिक्षा और धर्म में एक अन्तर अवश्य है । घड़ा और कपड़ा भौतिक उपादानों से निर्मित होते हैं जबकि शिक्षा और धर्म सांस्कृतिक उपादानों से । इसलिए घड़ा और कपड़ा रुई और मिट्टी पर भी निर्भर करते हैं और शिक्षा और धर्म जीवनदृष्टि पर । परन्तु निमित्त कारण तो सर्वत्र व्यक्ति ही है। अत: निमित्त कारण जैसा होगा वैसी ही निर्मिति होगी । तात्पर्य यह है कि जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा होगी । इस कारण से समाज को अच्छे शिक्षक की नितान्त आवश्यकता होती है । अत: शिक्षक निर्माण करने का एक सुब्यवस्थित तन्त्र स्थापित होने की आवश्यकता है । इस तन्त्र का प्रमुख अंग है, पाठ्यक्रम ।
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समाजजीवन में शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति होता है । जैसी शिक्षा होती है वैसा ही समाज होता है । इसका कारण बहुत स्पष्ट है । मनुष्य जन्म के भी पूर्व से सब कुछ सीख सीख कर ही अपना व्यक्तित्व विकसित करता जाता है और चरित्र गढ़ता जाता है । इसलिये समाज में शिक्षक का भी स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भी कारण स्पष्ट है । जैसा शिक्षक होता है वैसी ही शिक्षा होती है । यह तथ्य तो समाजजीवन के हर क्षेत्र को लागू है । जैसा धर्माचार्य होगा वैसा ही धर्मप्रवर्तन होगा । जैसा बुनकर होगा वैसा ही कपड़ा बनेगा, जैसा कुम्हार होगा वैसा ही घड़ा बनेगा, जैसा अभियन्ता होगा बैसी ही सड़क बनेगी । हाँ, कपड़े और घड़े तथा शिक्षा और धर्म में एक अन्तर अवश्य है । घड़ा और कपड़ा भौतिक उपादानों से निर्मित होते हैं जबकि शिक्षा और धर्म सांस्कृतिक उपादानों से । अतः घड़ा और कपड़ा रुई और मिट्टी पर भी निर्भर करते हैं और शिक्षा और धर्म जीवनदृष्टि पर । परन्तु निमित्त कारण तो सर्वत्र व्यक्ति ही है। अत: निमित्त कारण जैसा होगा वैसी ही निर्मिति होगी । तात्पर्य यह है कि जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा होगी । इस कारण से समाज को अच्छे शिक्षक की नितान्त आवश्यकता होती है । अत: शिक्षक निर्माण करने का एक सुब्यवस्थित तन्त्र स्थापित होने की आवश्यकता है । इस तन्त्र का प्रमुख अंग है, पाठ्यक्रम ।
    
शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
 
शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
# समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । इसलिए शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही आरम्भ हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों  के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
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# समग्र विकास प्रतिमान : सर्व प्रथम एक शिक्षक को समग्र विकास प्रतिमान की समझ होना आवश्यक है । समग्र विकास प्रतिमान जीवन की एकात्म दृष्टि के आधार पर विकसित किया गया है इसकी स्पष्टता होना आवश्यक है । एकात्म दृष्टि का आधार भारतीय अध्यात्मिक संकल्पना है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रग्रन्थों का यथाशक्ति एवं यथामति अध्ययन होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसा नहीं है कि छोटी कक्षाओं के लिये कम और बड़ी कक्षाओं के लिये अधिक समझ अपेक्षित होती है । छोटी और बड़ी कक्षाओं का अन्तर केवल अध्यापन और अध्ययन कि पद्धति और माध्यम का ही होता है। बड़ी कक्षाओं में शास्त्र रूप में और छोटी कक्षाओं में संस्कार रूप में अध्ययन होता है । विषयवस्तु और दृष्टि तो एक ही रहती है । अतः शिक्षक छोटी कक्षा पढ़ाते हों या बड़ी, जीवनदृष्टि और समझ तो एक समान ही विकसित होनी चाहिये । इस दृष्टि से उपनिषदों और रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है। कम से कम श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन तो हर शिक्षक के लिये अनिवार्य ही है । इन शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन यदि प्राथमिक विद्यालयों में ही आरम्भ हो जाता है तब तो शिक्षक को इनका अध्ययन अलग से नहीं करना पड़ेगा । परन्तु वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है। वर्तमान स्थिति तो इससे सर्वथा विपरीत है । भारत के शिक्षित वर्ग को भारतीय जीवनदृष्टि जिन शास्त्रग्रंथों  के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त होती है उनका परिचय भी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । इसीलिए तो देश का जीवन पराई जीवनदृष्टि के आधार पर चलता है ।
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । इसलिए यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
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# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों के लिये यह अध्ययन और यह समझ जितनी मात्रा में आवश्यक है उससे कहीं अधिक शिक्षकों के लिये आवश्यक हैं क्योंकि जीवन के अन्य अधिकांश क्षेत्र भौतिक और व्यावहारिक आयामों के साथ संबन्धित हैं जबकि शिक्षा का क्षेत्र सांस्कृतिक पक्ष के साथ संबन्धित है, मनुष्य निर्माण के साथ संबन्धित है । यह बहुत ही जीवमान क्षेत्र है । यह अन्य आयामों का आधार है । अतः यहाँ शास्त्रग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है । यह अध्ययन केवल शास्त्रीय अध्ययन होने से भी नहीं चलेगा । यह दृष्टि और व्यवहार विकसित करने वाला होना चाहिए क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों को दृष्टि देने वाला और व्यवहार सिखाने वाला होता है ।
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।  
 
# समाजजीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त होता है परंतु शिक्षक को जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि उसे इन सभी क्षेत्रों में अनुस्यूत जीवनदृष्टि भी देनी है । इन सभी आयामों को समग्रता में समझना उसके लिये आवश्यक होता है । वर्तमान शिक्षाशास्त्र केवल अध्यापन पद्धति और कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जबकि भारतीय शिक्षाशास्त्र प्रथम शिक्षक की आधारभूत पात्रता की अपेक्षा करता है और यह पात्रता किस प्रकार प्राप्त हो इसकी भी चिंता करता है । जबतक शिक्षक की आधारभूत पात्रता नहीं प्राप्त होती तबतक अध्यापन पद्धति और कौशलों का कोई उपयोग नहीं होता ।  
 
# इस आधारभूत पात्रता की प्राप्ति के बाद शिक्षक को चाहिए कि उसे देश की वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान हो । जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में ढालने की पात्रता हर शिक्षक में होनी आवश्यक है । आज की रचना में शिक्षाशास्त्र को अन्य विषयों के समकक्ष और समानान्तर रखा जाता है जबकि वास्तव में केवल शिक्षाशास्त्र ही नहीं तो प्रत्येक विषय को प्रथम अंग और अंगी के उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए और उसके अनुसार उसके अध्ययन की योजना करनी चाहिए । इस प्रकार शिक्षक एक ऐसे विशेष वर्ग में समाहित है जो सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र को समग्रता में समझता है ।
 
# इस आधारभूत पात्रता की प्राप्ति के बाद शिक्षक को चाहिए कि उसे देश की वर्तमान स्थिति का भी ज्ञान हो । जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में ढालने की पात्रता हर शिक्षक में होनी आवश्यक है । आज की रचना में शिक्षाशास्त्र को अन्य विषयों के समकक्ष और समानान्तर रखा जाता है जबकि वास्तव में केवल शिक्षाशास्त्र ही नहीं तो प्रत्येक विषय को प्रथम अंग और अंगी के उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए और उसके अनुसार उसके अध्ययन की योजना करनी चाहिए । इस प्रकार शिक्षक एक ऐसे विशेष वर्ग में समाहित है जो सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र को समग्रता में समझता है ।
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# इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा । अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, फिर भी इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग आरम्भ भी हो सकते हैं ।  
 
# इस देश के समाजजीवन में जो भिन्न भिन्न कार्य व्यवसाय के रूप में चलते हैं उनके दो प्रमुख विभाग हैं। एक है अर्थार्जन का क्षेत्र और दूसरा है सेवा क्षेत्र । जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति सेवा से होती है । धर्मोपदेश, ज्ञानदान, चिकित्सा और न्याय सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । पुरोहित, शिक्षक, वैद्य और न्यायाधीश के कार्य सेवा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके लिये पैसा नहीं लिया और दिया जाता । आज ऐसी स्थिति नहीं है । सबकुछ पैसे के बदले में बेचा और खरीदा जाता है । यह अनर्थकारी अर्थव्यवस्था का और धर्म की उपेक्षा का परिणाम है। इस समस्या का हल छढूँढना है तो अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था का विचार बलवान बनाना होगा । अर्थनिरपेक्ष शिक्षा शिक्षक को दरिद्र नहीं बनाती है इस तथ्य को भी समझना होगा । शिक्षक के मन से इसका भय दूर करना होगा। यह एक दीर्घावधि योजना का विषय है और अभी तुरंत न तो मानस बनेगा न व्यवस्था, फिर भी इस विषय की बौद्धिक चर्चा चलानी होगी और मानस निर्माण के प्रयास करने होंगे । इस विचारणा के अंतर्गत्‌ शिक्षा के कुछ स्वायत्त अर्थनिरपेक्ष प्रयोग आरम्भ भी हो सकते हैं ।  
 
# अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले । कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
 
# अर्थनिरपेक्ष शिक्षा हेतु शिक्षा को स्वायत्त बनाने की भी आवश्यकता है । शिक्षा स्वायत्त तभी हो सकती है जब शिक्षक शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले । कक्षाकक्ष में शिक्षक जब पढ़ाता है तब विद्यार्थी के ज्ञानार्जन का दायित्व शिक्षक का होता है यह बात तो आज भी समझ में आती है परंतु पूर्ण समाज को शिक्षित करने का दायित्व भी शिक्षक का है यह बात आज समझ में नहीं आती है। आज यह दायित्व सरकार का माना जाता है । आज तो सरकार अपना यह दायित्व उद्योगगृहों को सॉपना चाहती है । इस स्थिति में शिक्षा अधिकाधिक महँगी हो रही है । साथ ही यांत्रिक भी हो रही है । सरकार और उद्योगगृह जब शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तब वह केवल भौतिक व्यवस्थायें ही होती हैं, ज्ञानदान का कार्य तो शिक्षक ही करता है । परंतु वह अब शिक्षक न रहकर केवल शिक्षाकर्मी है । शिक्षाकर्मी कभी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । इस विषय को शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाना होगा क्योंकि इसके ऊपर ही सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का आधार है । साथ ही शिक्षा क्षेत्र का और शिक्षक का योगक्षेम अबाध रूप से चले और शिक्षक को दीन हीन न होना पड़े इसकी शिक्षा समाज को देने की व्यवस्था भी करनी होगी |
# एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं । हमेशा चीजों को परखते ही रहते हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं इसलिए उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं । इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है इसलिए किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं इसलिए विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।  
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# एक शिक्षक के लिये प्रत्यक्ष कक्षाकक्ष के अध्यापन का कार्य विद्यार्थी की पाँच से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक होता है । यह बाल, किशोर, तरुण और युवावस्था होती है । हर आयु में अध्ययन की प्रक्रिया भिन्न भिन्न रूप में चलती है । बाल अवस्था में हाथ, पैर, वाणी जैसी कर्मन्ट्रियाँ, दर्शनेन्द्रिय और श्रव्णेंद्रिय जैसी ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन का भावना पक्ष सक्रिय होता है । तब क्रिया आधारित, अनुभव आधारित और प्रेरणा आधारित अध्यापन पद्धति अपनानी होती है । हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बाल अवस्था के बच्चे हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं । हमेशा चीजों को परखते ही रहते हैं । वे एक स्थान पर बैठकर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना पसन्द नहीं करते । वे निष्क्रिय बैठना पसन्द नहीं करते । उनमें जो ऊर्जा होती है वह उन्हें शारीरिक रूप से सक्रिय रखती है। वे शिक्षक को अपना आदर्श मानते हैं अतः उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं । इसके अनुरूप ही अध्यापन पद्धति होती है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण पक्ष सक्रिय होता है अतः किशोर अवस्था कि शिक्षा विचार प्रधान होती है । तरुण अवस्था में बुद्धि और अहंकार सक्रिय होते हैं अतः विवेक आधारित और दायित्वबोध आधारित अध्यापन पद्धति का अवलंबन करना होता है । इस कारण से आयु कि विभिन्न अवस्थाओं के लक्षण, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया समझना शिक्षक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण आयाम है ।  
 
# शिक्षक विभिन्न विषयबिन्दु का अध्यापन करने हेतु अपने आसपास के परिसर के कई पदार्थों का उपकरणों के रूप में उपयोग करता है। जैसे कि गणना करने योग्य वस्तुओं का गणित के लिए, जीवन के अनेक क्रियाकलापों का विज्ञान के लिए, परिसर का भूगोल के लिए, वार्तालाप का भाषा के लिए, कथा कहानी का इतिहास के लिए वह प्रभावी ढंग से उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने के लिए उसकी कल्पनाशक्ति, निर्माणक्षमता और सृजनशीलता विकसित होनी चाहिए । शिक्षक शिक्षा में इन गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिए ।
 
# शिक्षक विभिन्न विषयबिन्दु का अध्यापन करने हेतु अपने आसपास के परिसर के कई पदार्थों का उपकरणों के रूप में उपयोग करता है। जैसे कि गणना करने योग्य वस्तुओं का गणित के लिए, जीवन के अनेक क्रियाकलापों का विज्ञान के लिए, परिसर का भूगोल के लिए, वार्तालाप का भाषा के लिए, कथा कहानी का इतिहास के लिए वह प्रभावी ढंग से उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने के लिए उसकी कल्पनाशक्ति, निर्माणक्षमता और सृजनशीलता विकसित होनी चाहिए । शिक्षक शिक्षा में इन गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिए ।
 
# वर्तमान शिक्षक शिक्षा की योजना अत्यंत यांत्रिक, खर्चीली और निर्जीव उपकरणों पर आधारित हो गई है। वह शिक्षा को महँगी बनाती है । शिक्षक में उपकरणों पर आधारित नहीं अपितु करणों पर आधारित अध्यापन करने की क्षमता होनी चाहिए । तभी शिक्षा को यांत्रिक बनने से बचाया जा सकेगा ।  
 
# वर्तमान शिक्षक शिक्षा की योजना अत्यंत यांत्रिक, खर्चीली और निर्जीव उपकरणों पर आधारित हो गई है। वह शिक्षा को महँगी बनाती है । शिक्षक में उपकरणों पर आधारित नहीं अपितु करणों पर आधारित अध्यापन करने की क्षमता होनी चाहिए । तभी शिक्षा को यांत्रिक बनने से बचाया जा सकेगा ।  

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