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मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है । गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं । उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है । उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है ।
 
मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है । गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं । उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है । उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है ।
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, figs, wa,
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है । जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा शुरू करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना शुरू करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है ।<blockquote>अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु</blockquote><blockquote>वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥।</blockquote>इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है । जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है । इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है । आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है । पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है ।
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सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड
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आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है । इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है । अब उसके सीखने के दो स्थान हैं । एक है घर और दूसरा है विद्यालय ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है । वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है । विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है । उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है । खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं । उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है । बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है । निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है । अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है । अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है । बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है । सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है । अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है । वह बुद्धि से स्वतंत्र है । अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है । अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है । वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है । अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है ।
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बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है । एक है अथर्जिन की और दूसरी है विवाह की । एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है । दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है । एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है । फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है । जन्म का समय
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है । अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज । अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है । अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है । अथर्जिन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है । अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है ।
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माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा शुरू करने
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धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है । संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है । अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है । अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है । अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है ।
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का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है कि जब जीव माता के गर्भाशय
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जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है । उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
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में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है । जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है । वह भी महत्त्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा ।
 
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विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो
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जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही
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जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से
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बाहर आना शुरू करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर
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उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और
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संसार में आसक्त हो जाता है ।
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अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो
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यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु
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वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति
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जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।
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अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में
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दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर
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निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने
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पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ
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कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥।
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इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प
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को याद करने के लिये है ।
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जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास
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के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता
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है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में
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होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर
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नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती
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है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में
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संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम
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अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त
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करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है । इस
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समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार
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देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार
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लेता है । आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है । पाँच वर्ष
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की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी
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शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है ।
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आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया
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आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है । इस
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आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है । अब उसके
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सीखने के दो स्थान हैं । एक है घर और दूसरा है विद्यालय ।
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है । वह नियमपालन,
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आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की
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शिक्षा प्राप्त करता है । विद्यालय में वह अनेक प्रकार के
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कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है । उसकी आदतें
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बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है । खेल, कहानी,
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भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते
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हैं । उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना
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पक्ष ही अधिक प्रबल होता है । बारह वर्ष की आयु तक
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उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है ।
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आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है ।
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निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है । अपने अभिमत
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बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता
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है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है । अब वह
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स्वतंत्र होने की राह पर होता है । बड़ा नहीं हुआ है परन्तु
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बनने की अनुभूति करता है । सोलह वर्ष का होते होते वह
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स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है । अब तक इंद्रियों, मन और
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बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब
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वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता
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है । वह बुद्धि से स्वतंत्र है । अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र
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होना है । अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी
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शुरू होती है । वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के
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कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है ।
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अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है ।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी
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है । एक है अथर्जिन की और दूसरी है विवाह की । एक के
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लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है । दूसरे
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के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है । एक
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विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से
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सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी
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चलती है । फिर उसका विवाह होता है
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और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है । अब उसके
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सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज ।
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अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह
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सीखता है । अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश
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और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे
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निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा
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भी देता है । अथर्जिन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का
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केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता
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जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी
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निभाता है । अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता
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है । गलतियाँ करके भी सीखता है ।
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धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की
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शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी
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सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न
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होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है । संसार के
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सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह
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अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता
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है । अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है ।
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छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी
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करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है ।
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अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता
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है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो
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संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता
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है । अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण
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रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता
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है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या
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साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका
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इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है ।
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जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता
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ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज,
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कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह
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सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी
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वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है । उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न
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भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है । जीवन शिक्षा का यह
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समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा
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इसका एक छोटा अंश है । वह भी महत्त्वपूर्ण अवश्य है
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परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से
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काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार,
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वह भी समग्रता में, करना होगा ।
      
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==
 
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==

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