Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "शुरू" to "आरम्भ"
Line 116: Line 116:  
पन्द्रह वर्ष की आयु होते होते भावी जीवन का आभास सन्तानों को होना चाहिये । भावी जीवन का अर्थ है गृहस्थाश्रम । बालिका को गृहिणी बनना है, बालक को गृहस्थ। बालिका को विवाह कर पति के घर जाना है, बालक को इस घर की गृहिणी लाना है । इस मामले में भी आज तो बच्चों जैसा ही नासमझी का व्यवहार होता है । परन्तु नासमझी को समझदारी में परिवर्तित करना मातापिता का काम है । भावी गृहस्थाश्रम के दो प्रमुख कार्य होंगे ।
 
पन्द्रह वर्ष की आयु होते होते भावी जीवन का आभास सन्तानों को होना चाहिये । भावी जीवन का अर्थ है गृहस्थाश्रम । बालिका को गृहिणी बनना है, बालक को गृहस्थ। बालिका को विवाह कर पति के घर जाना है, बालक को इस घर की गृहिणी लाना है । इस मामले में भी आज तो बच्चों जैसा ही नासमझी का व्यवहार होता है । परन्तु नासमझी को समझदारी में परिवर्तित करना मातापिता का काम है । भावी गृहस्थाश्रम के दो प्रमुख कार्य होंगे ।
   −
एक होगा गृहसंचालन और दूसरा होगा अधथर्जिन । पन्द्रह वर्ष की आयु तक दोनों बातों की कल्पना यदि स्पष्ट होती है तो वह अत्यन्त लाभकारी होता है । अर्थात्‌ अथर्जिन शुरू तो होगा दो चार वर्षों के बाद परन्तु उसकी निश्चिति होना आवश्यक है । विवाह होने के लिये तो अभी पर्याप्त समय है परन्तु कैसे परिवार में विवाह हो सकता है, होना चाहिये आदि की कल्पना स्पष्ट होना आवश्यक है ।  
+
एक होगा गृहसंचालन और दूसरा होगा अधथर्जिन । पन्द्रह वर्ष की आयु तक दोनों बातों की कल्पना यदि स्पष्ट होती है तो वह अत्यन्त लाभकारी होता है । अर्थात्‌ अथर्जिन आरम्भ तो होगा दो चार वर्षों के बाद परन्तु उसकी निश्चिति होना आवश्यक है । विवाह होने के लिये तो अभी पर्याप्त समय है परन्तु कैसे परिवार में विवाह हो सकता है, होना चाहिये आदि की कल्पना स्पष्ट होना आवश्यक है ।  
    
आज इन बातों में सहमति बनना जरा कठिन लगता है परन्तु शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, गृहविज्ञान, समाजविज्ञान, संस्कृतिशास्र आदि सभी शास्त्रों के अनुसार ऐसा होना अत्यन्त लाभकारी है । इन जीवनसिद्धान्तों को स्वीकार करने की मानसिक अनुकूलता बनाना मातापिता के लिये बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु वह करना चाहिये । नियन्त्रणपूर्वक, जोर जबरदस्ती से कुछ नहीं हो सकता । अभी और बड़े होने पर वे कोई भी नियन्त्रण मानने वाले नहीं है । वह इष्ट भी नहीं है । इसलिये मातापिता को कठोर और मृदु एक साथ होना पड़ेगा । दोनों बातों की उन्हें आवश्यकता है । कई बार लोग कहते हैं कि कठोर होने से सन्तानों के मन में ग्रन्थियाँ बन जायेंगी और वे मानसिक रूप से परेशान होंगे । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अभी उनकी विवेकशक्ति सक्रिय नहीं हुई है इसलिये नियन्त्रण की आवश्यकता तो है ही । नियन्त्रण के लिये कठोर भी होना पड़ेगा । उस समय सन्तान नाराज हो सकती हैं, दुखी भी हो सकती हैं । परन्तु अनेक किस्सों में देखा गया है कि बड़ी आयु में ये ही सन्तानें अपने मित्रों को या अपनी सन्तानों को बताती हैं कि उनके मातापिता ने उनके साथ कड़ाई करके उनका भला ही किया है । ऐसा सबके बारे में हो सकता है ।
 
आज इन बातों में सहमति बनना जरा कठिन लगता है परन्तु शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, गृहविज्ञान, समाजविज्ञान, संस्कृतिशास्र आदि सभी शास्त्रों के अनुसार ऐसा होना अत्यन्त लाभकारी है । इन जीवनसिद्धान्तों को स्वीकार करने की मानसिक अनुकूलता बनाना मातापिता के लिये बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु वह करना चाहिये । नियन्त्रणपूर्वक, जोर जबरदस्ती से कुछ नहीं हो सकता । अभी और बड़े होने पर वे कोई भी नियन्त्रण मानने वाले नहीं है । वह इष्ट भी नहीं है । इसलिये मातापिता को कठोर और मृदु एक साथ होना पड़ेगा । दोनों बातों की उन्हें आवश्यकता है । कई बार लोग कहते हैं कि कठोर होने से सन्तानों के मन में ग्रन्थियाँ बन जायेंगी और वे मानसिक रूप से परेशान होंगे । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अभी उनकी विवेकशक्ति सक्रिय नहीं हुई है इसलिये नियन्त्रण की आवश्यकता तो है ही । नियन्त्रण के लिये कठोर भी होना पड़ेगा । उस समय सन्तान नाराज हो सकती हैं, दुखी भी हो सकती हैं । परन्तु अनेक किस्सों में देखा गया है कि बड़ी आयु में ये ही सन्तानें अपने मित्रों को या अपनी सन्तानों को बताती हैं कि उनके मातापिता ने उनके साथ कड़ाई करके उनका भला ही किया है । ऐसा सबके बारे में हो सकता है ।
   −
इस प्रकार दस वर्ष का यह समय चरित्रगठन का है । मातापिता के लिये यह बड़ा काम है । उन्होंने इसे पूरी गम्भीरता से लेना चाहिये । मातापिता केवल अपनी ही दुनिया में नहीं जी सकते, न अपनी सन्तानों को उनकी दुनिया में जीने दे सकते हैं । दो पीढ़ियों को साथ साथ जीना है, साथ साथ बढ़ना है। एकदूसरे के जीवन में सहभागी बनकर ही साथ जीना सम्भव हो सकता है। परस्पर विश्वास और मातापिता में श्रद्धा इस अवस्था की आवश्यकता है, श्रद्धय बनना मातापिता की परीक्षा है। सन्ताने अपने जीवन के लिये अपने ले सकें यह दोनों के लिये सौभाग्य का विषय है । इसका प्रारम्भ इस अवस्था में हो जाता है । इस प्रकार से घड़ा पक्का हो जाता है । कुम्हार अपने कार्य के लिये सन्तुष्टि का अनुभव कर सकता है । परन्तु घड़े को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी शेष है । वह कितना मूल्यवान है, कितना उपयोगी है यह तो उसका प्रयोग शुरू होगा तब पता चलेगा । पके घड़े की शिक्षा का आगे का स्वरूप कैसा होगा यह अगले अध्याय में देखेंगे ।
+
इस प्रकार दस वर्ष का यह समय चरित्रगठन का है । मातापिता के लिये यह बड़ा काम है । उन्होंने इसे पूरी गम्भीरता से लेना चाहिये । मातापिता केवल अपनी ही दुनिया में नहीं जी सकते, न अपनी सन्तानों को उनकी दुनिया में जीने दे सकते हैं । दो पीढ़ियों को साथ साथ जीना है, साथ साथ बढ़ना है। एकदूसरे के जीवन में सहभागी बनकर ही साथ जीना सम्भव हो सकता है। परस्पर विश्वास और मातापिता में श्रद्धा इस अवस्था की आवश्यकता है, श्रद्धय बनना मातापिता की परीक्षा है। सन्ताने अपने जीवन के लिये अपने ले सकें यह दोनों के लिये सौभाग्य का विषय है । इसका प्रारम्भ इस अवस्था में हो जाता है । इस प्रकार से घड़ा पक्का हो जाता है । कुम्हार अपने कार्य के लिये सन्तुष्टि का अनुभव कर सकता है । परन्तु घड़े को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी शेष है । वह कितना मूल्यवान है, कितना उपयोगी है यह तो उसका प्रयोग आरम्भ होगा तब पता चलेगा । पके घड़े की शिक्षा का आगे का स्वरूप कैसा होगा यह अगले अध्याय में देखेंगे ।
 
==References==
 
==References==
 
<references />
 
<references />
    
[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]
 
[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]

Navigation menu