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२७. कई “'प्रगत' देशों में मातापिता का काम केवल बच्चोंं को जन्म देने का है, उनके निर्वाह, उनकी चिकित्सा, शिक्षा आदि का दायित्व सरकार का है । बेरोजगारों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है, वृद्दों, अपाहिजों रोगियों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है। परिवार केवल कानूनी और “टेकनिकल' व्यवस्था है, अर्थपूर्ण नहीं । भारत में कई लोग इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और ऐसी व्यवस्था नहीं होने के कारण भारत को अआअप्रगत मानते हैं । ये अत्यन्त उच्च शिक्षित होते हैं ।
 
२७. कई “'प्रगत' देशों में मातापिता का काम केवल बच्चोंं को जन्म देने का है, उनके निर्वाह, उनकी चिकित्सा, शिक्षा आदि का दायित्व सरकार का है । बेरोजगारों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है, वृद्दों, अपाहिजों रोगियों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है। परिवार केवल कानूनी और “टेकनिकल' व्यवस्था है, अर्थपूर्ण नहीं । भारत में कई लोग इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और ऐसी व्यवस्था नहीं होने के कारण भारत को अआअप्रगत मानते हैं । ये अत्यन्त उच्च शिक्षित होते हैं ।
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२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की आश्रम- व्यवस्था भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
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२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम-व्यवस्था]] भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
    
२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पड़े इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।
 
२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पड़े इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।

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