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१५. यही बात शिक्षा में भी दिखाई देती है । अब पहले खियों को अशिक्षित रखा जाता था, अब बेटी को भी पढ़ाना है । परन्तु बेटी के लिये अलग शिक्षा नहीं होगी । वह वही पढ़ेगी जो बेटा पढ़ेगा। वैसे ही पढ़ेगी जैसे बेटा पढ़ता है । अब पढ़ाई और नौकरी विकास के अवसर हैं इसलिये बेटी को भी समान रूप से मिलेंगे । इसलिये बेटियाँ पढती हैं, अच्छा पढ़ती हैं और उन्हें अच्छी नौकरी भी मिलती है और पैसा भी मिलता है । अब इतना पढने के बाद और नौकरी करने के बाद वह घर कैसे देख सकती है ? वह अपने आपको घर में, चूल्हे चौके के साथ कैसे बँधी रह सकती है ?
 
१५. यही बात शिक्षा में भी दिखाई देती है । अब पहले खियों को अशिक्षित रखा जाता था, अब बेटी को भी पढ़ाना है । परन्तु बेटी के लिये अलग शिक्षा नहीं होगी । वह वही पढ़ेगी जो बेटा पढ़ेगा। वैसे ही पढ़ेगी जैसे बेटा पढ़ता है । अब पढ़ाई और नौकरी विकास के अवसर हैं इसलिये बेटी को भी समान रूप से मिलेंगे । इसलिये बेटियाँ पढती हैं, अच्छा पढ़ती हैं और उन्हें अच्छी नौकरी भी मिलती है और पैसा भी मिलता है । अब इतना पढने के बाद और नौकरी करने के बाद वह घर कैसे देख सकती है ? वह अपने आपको घर में, चूल्हे चौके के साथ कैसे बँधी रह सकती है ?
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१६. ऐसी पढाई करने में और करिअर बनाने में अधिक वर्ष लगते हैं, आयु बढ जाती है और विवाह, और करिअर का एकदूसरे के साथ विरोध हो जाता है । करिअर यदि अच्छा पैसा कमा कर देने वाला है तो विवाह के लिये करिअर छोड़ना लडकियों को पसन्द नहीं होता । फिर मैं ही क्यों समझौता करूँ ऐसा प्रश्र भी खडा होता है । इसलिये विवाह करने पर भी करिअर नहीं छोड़ना और स्वतन्त्र अर्थात्‌ अलग रहना क्रमप्राप्त बन जाता है । फिर बच्चों को जन्म देना एक कठिनाई बन जाती है । स्त्री है तो बच्चे को जन्म तो उसे ही देना है इसलिये प्रसूति की छुट्टी सरकार की और से दी जाती है। फिर शिशु के संगोपन के लिये समय नहीं है इसलिये आया, झूलाघर, नर्सरी, प्ले स्कूल, के. जी. आदि आरम्भ हो जाते हैं ।
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१६. ऐसी पढाई करने में और करिअर बनाने में अधिक वर्ष लगते हैं, आयु बढ जाती है और विवाह, और करिअर का एकदूसरे के साथ विरोध हो जाता है । करिअर यदि अच्छा पैसा कमा कर देने वाला है तो विवाह के लिये करिअर छोड़ना लडकियों को पसन्द नहीं होता । फिर मैं ही क्यों समझौता करूँ ऐसा प्रश्र भी खडा होता है । इसलिये विवाह करने पर भी करिअर नहीं छोड़ना और स्वतन्त्र अर्थात्‌ अलग रहना क्रमप्राप्त बन जाता है । फिर बच्चोंं को जन्म देना एक कठिनाई बन जाती है । स्त्री है तो बच्चे को जन्म तो उसे ही देना है इसलिये प्रसूति की छुट्टी सरकार की और से दी जाती है। फिर शिशु के संगोपन के लिये समय नहीं है इसलिये आया, झूलाघर, नर्सरी, प्ले स्कूल, के. जी. आदि आरम्भ हो जाते हैं ।
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१७. ये सारे प्रावधान हैं तो विवशतायें परन्तु ये ख्री के विकास की अनिवार्यतायें होने के कारण विवशतायें नहीं लगती हैं । लाखों बच्चों के लिये इन बातों की आवश्यकता नहीं होने पर भी वे विकास का ही पर्याय बन जाती हैं, भले ही वे शिशु के विकास में कितना भी अवरोधक हो । अब समाज के एक वर्ग के लिये शिशुसंगोपन भी एक करिअर बन जाता है जो बहुत पैसे कमा कर देता है ।
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१७. ये सारे प्रावधान हैं तो विवशतायें परन्तु ये ख्री के विकास की अनिवार्यतायें होने के कारण विवशतायें नहीं लगती हैं । लाखों बच्चोंं के लिये इन बातों की आवश्यकता नहीं होने पर भी वे विकास का ही पर्याय बन जाती हैं, भले ही वे शिशु के विकास में कितना भी अवरोधक हो । अब समाज के एक वर्ग के लिये शिशुसंगोपन भी एक करिअर बन जाता है जो बहुत पैसे कमा कर देता है ।
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१८. समाज का कदाचित एक प्रतिशत से भी कम संख्या में ऐसा वर्ग होगा जो करिअर और विकास के नाम पर घर भी छोडने की विविशता से ग्रस्त हुआ होगा । परन्तु सारे शिक्षित समाज की मानसिक रूप से दिशा यही है । श्रेष्ठता इसीमें लगती है । शिक्षा जितनी कम है उतना ही घर के साथ अधिक लगाव होना, किसी भी स्थिति में अलग नहीं रहना, आवश्यक हो तो ख्री का नौकरी छोड़ना, बच्चों के संगोपन को अधिक महत्त्व देना आदि बातें सम्भव होती हैं। परन्तु अधिकांश समाज के लिये उच्च शिक्षित, उच्च पद पर आसीन और अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व स्थापित करने वाली स्त्री ही आदर्श है, भले ही हम उस आदर्श को प्राप्त न कर सर्के ।
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१८. समाज का कदाचित एक प्रतिशत से भी कम संख्या में ऐसा वर्ग होगा जो करिअर और विकास के नाम पर घर भी छोडने की विविशता से ग्रस्त हुआ होगा । परन्तु सारे शिक्षित समाज की मानसिक रूप से दिशा यही है । श्रेष्ठता इसीमें लगती है । शिक्षा जितनी कम है उतना ही घर के साथ अधिक लगाव होना, किसी भी स्थिति में अलग नहीं रहना, आवश्यक हो तो ख्री का नौकरी छोड़ना, बच्चोंं के संगोपन को अधिक महत्त्व देना आदि बातें सम्भव होती हैं। परन्तु अधिकांश समाज के लिये उच्च शिक्षित, उच्च पद पर आसीन और अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व स्थापित करने वाली स्त्री ही आदर्श है, भले ही हम उस आदर्श को प्राप्त न कर सर्के ।
    
१९. अशिक्षित ख्त्री घर में रहती है, शिक्षित नौकरी करती है, अशिक्षित स्त्री चूल्हाचौका करती है, शिक्षित दफ्तर में जाती है; अशिक्षित स्त्री पति पर निर्भर रहती है, शिक्षित स्त्री स्वनिर्भर है; शिक्षित स्री का अपना एक व्यक्तित्व है, अशिक्षित ख्त्री पति के नाम से जानी जाती है । अशिक्षित ख्री घर के सारे काम करती है, शिक्षित स्त्री को नहीं करने पड़ते, उसके घर के काम नौकर करते हैं ।
 
१९. अशिक्षित ख्त्री घर में रहती है, शिक्षित नौकरी करती है, अशिक्षित स्त्री चूल्हाचौका करती है, शिक्षित दफ्तर में जाती है; अशिक्षित स्त्री पति पर निर्भर रहती है, शिक्षित स्त्री स्वनिर्भर है; शिक्षित स्री का अपना एक व्यक्तित्व है, अशिक्षित ख्त्री पति के नाम से जानी जाती है । अशिक्षित ख्री घर के सारे काम करती है, शिक्षित स्त्री को नहीं करने पड़ते, उसके घर के काम नौकर करते हैं ।
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२६. परिवार में अब अधिकार कानून से प्राप्त होते हैं, एकात्मता की भावना से नहीं । वृद्ध मातापिता का सन्तानों पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। पत्नी का विवाह के कारण से है । सन्ताने जब तक नाबालिग हैं तब तक है, जब वे बालिग हो जाती हैं तब उनका मातापिता पर कोई अधिकार नहीं होता । तब वे स्वतन्त्र होती हैं अर्थात्‌ अपने ही तन्त्र अर्थात्‌ व्यवस्था से उन्हें अपना जीवन चलाना है । मातापिता ट्वारा अर्जित सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता, मातापिता को उनके मातापिता से जो मिला है उस पर तो है ।
 
२६. परिवार में अब अधिकार कानून से प्राप्त होते हैं, एकात्मता की भावना से नहीं । वृद्ध मातापिता का सन्तानों पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। पत्नी का विवाह के कारण से है । सन्ताने जब तक नाबालिग हैं तब तक है, जब वे बालिग हो जाती हैं तब उनका मातापिता पर कोई अधिकार नहीं होता । तब वे स्वतन्त्र होती हैं अर्थात्‌ अपने ही तन्त्र अर्थात्‌ व्यवस्था से उन्हें अपना जीवन चलाना है । मातापिता ट्वारा अर्जित सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता, मातापिता को उनके मातापिता से जो मिला है उस पर तो है ।
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२७. कई “'प्रगत' देशों में मातापिता का काम केवल बच्चों को जन्म देने का है, उनके निर्वाह, उनकी चिकित्सा, शिक्षा आदि का दायित्व सरकार का है । बेरोजगारों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है, वृद्दों, अपाहिजों रोगियों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है। परिवार केवल कानूनी और “टेकनिकल' व्यवस्था है, अर्थपूर्ण नहीं । भारत में कई लोग इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और ऐसी व्यवस्था नहीं होने के कारण भारत को अआअप्रगत मानते हैं । ये अत्यन्त उच्च शिक्षित होते हैं ।
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२७. कई “'प्रगत' देशों में मातापिता का काम केवल बच्चोंं को जन्म देने का है, उनके निर्वाह, उनकी चिकित्सा, शिक्षा आदि का दायित्व सरकार का है । बेरोजगारों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है, वृद्दों, अपाहिजों रोगियों के निर्वाह का दायित्व सरकार का है। परिवार केवल कानूनी और “टेकनिकल' व्यवस्था है, अर्थपूर्ण नहीं । भारत में कई लोग इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और ऐसी व्यवस्था नहीं होने के कारण भारत को अआअप्रगत मानते हैं । ये अत्यन्त उच्च शिक्षित होते हैं ।
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२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की आश्रम- व्यवस्था भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
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२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम-व्यवस्था]] भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
    
२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पड़े इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।
 
२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पड़े इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।
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३३. इसलिये ऐसी समाजरचना में मानसिक रोग अधिक व्याप्त होते हैं । विश्व में जहाँ भी जितना स्वार्थ अधिक है, स्वार्थ ही समाजरचना का आधार है वहाँ उतने ही अनुपात में मानसिक रोग अधिक होते हैं ।
 
३३. इसलिये ऐसी समाजरचना में मानसिक रोग अधिक व्याप्त होते हैं । विश्व में जहाँ भी जितना स्वार्थ अधिक है, स्वार्थ ही समाजरचना का आधार है वहाँ उतने ही अनुपात में मानसिक रोग अधिक होते हैं ।
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३४. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना का ही एक परिणाम यह है कि अब परिवार छोटे हो रहे हैं । अधिक सन्तान नहीं चाहिये ऐसा लगने लगता है क्योंकि सन्तान के संगोपन के लिये अपना करिअर, अपना आराम, अपना पैसा आदि को बलि चढाना पडता है । इसी कारण से बच्चों को पढ़ाई हेतु छात्रावास में भेजने की भी प्रवृत्ति बढती है । बच्चों को बहुत छोटी आयु में विद्यालय भेजने में भी एक कारण तो यही होता है ।
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३४. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना का ही एक परिणाम यह है कि अब परिवार छोटे हो रहे हैं । अधिक सन्तान नहीं चाहिये ऐसा लगने लगता है क्योंकि सन्तान के संगोपन के लिये अपना करिअर, अपना आराम, अपना पैसा आदि को बलि चढाना पडता है । इसी कारण से बच्चोंं को पढ़ाई हेतु छात्रावास में भेजने की भी प्रवृत्ति बढती है । बच्चोंं को बहुत छोटी आयु में विद्यालय भेजने में भी एक कारण तो यही होता है ।
    
३५. इस समाजरचना का और एक परिणाम यह हुआ है कि अब दो पीढ़ियाँ साथ नहीं रहतीं । मातापिता सेवानिवृत्ति के बाद दूसरे स्थान पर रहनेवाले पुत्रों के घर जाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें निवृत्ति मानधन मिलता है और उसके आधार पर वे स्वतन्त्र रहना चाहते हैं । पुत्र पुत्री भी अपना करिअर बनाने की दृष्टि से महानगर में या उससे भी आगे विदेशों में जाकर रहते हैं जहाँ वे अपने मातापिता को बुलाना नहीं चाहते ।
 
३५. इस समाजरचना का और एक परिणाम यह हुआ है कि अब दो पीढ़ियाँ साथ नहीं रहतीं । मातापिता सेवानिवृत्ति के बाद दूसरे स्थान पर रहनेवाले पुत्रों के घर जाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें निवृत्ति मानधन मिलता है और उसके आधार पर वे स्वतन्त्र रहना चाहते हैं । पुत्र पुत्री भी अपना करिअर बनाने की दृष्टि से महानगर में या उससे भी आगे विदेशों में जाकर रहते हैं जहाँ वे अपने मातापिता को बुलाना नहीं चाहते ।
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३६. इसी के चलते घरों में सबके स्वतंत्र कमरे होना प्रगति का लक्षण माना जाता है । सबको “प्राइवसी' चाहिये,  सबको अपना अपना “स्पेस' चाहिये । सबको अपने लिये कुछ स्वतन्त्र समय चाहिये । यहाँ तक दूसरे को “समय' देना है । पत्नी को पति के लिये, पति को पत्नी के लिये, दोनों को बच्चों के लिये समय देना है, मूल्यबान समय देना है । परिवार में तो सब साथ मिलके जीते हैं उसमें एकदूसरे के लिये समय देने की बात कैसे हो सकती है ? सब तो सबके होते हैं । परन्तु जब परिवार के सभी सदस्य अपना अपना जीवन जीते हैं तब एकदूसरे को कुछ देने का हिसाब होता है ।
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३६. इसी के चलते घरों में सबके स्वतंत्र कमरे होना प्रगति का लक्षण माना जाता है । सबको “प्राइवसी' चाहिये,  सबको अपना अपना “स्पेस' चाहिये । सबको अपने लिये कुछ स्वतन्त्र समय चाहिये । यहाँ तक दूसरे को “समय' देना है । पत्नी को पति के लिये, पति को पत्नी के लिये, दोनों को बच्चोंं के लिये समय देना है, मूल्यबान समय देना है । परिवार में तो सब साथ मिलके जीते हैं उसमें एकदूसरे के लिये समय देने की बात कैसे हो सकती है ? सब तो सबके होते हैं । परन्तु जब परिवार के सभी सदस्य अपना अपना जीवन जीते हैं तब एकदूसरे को कुछ देने का हिसाब होता है ।
    
३७.. यहाँ सबको अपना अपना निर्णय लेने का अधिकार है, कोई किसी के लिये निर्णय नहीं कर सकता और यदि करता भी है तो उसे मान्य नहीं रखा जाता । सबके अधिकार होते हैं और उस अधिकार की रक्षा के लिये कानून होता है ।
 
३७.. यहाँ सबको अपना अपना निर्णय लेने का अधिकार है, कोई किसी के लिये निर्णय नहीं कर सकता और यदि करता भी है तो उसे मान्य नहीं रखा जाता । सबके अधिकार होते हैं और उस अधिकार की रक्षा के लिये कानून होता है ।

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