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२४. परम्परा बनाये रखने का बहुत बडा प्रभाव व्यवसाय पर हुआ है । अब व्यवसाय परिवार का नहीं होता है, व्यक्ति का होता है । पिता का व्यवसाय अपनाने की बाध्यता भी नहीं है और आवश्यकता भी नहीं । अपनी स्वतन्त्र रुचि से व्यवसाय का चयन करना स्वाभाविक माना जाने लगा है । इससे व्यवसाय में अनेक प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं परन्तु स्वतन्त्रता के नाम पर उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता । इससे अब परिवार और व्यवसाय का सम्बन्ध विच्छेद हो गया है । इसका असर सामाजिक तानेबाने पर भी बहुत हुआ है । अब किसान का बेटा किसान ही होगा यह आवश्यक नहीं, डक्टर का बेटा डॉक्टर और शिक्षक का बेटा शिक्षक ही बनेगा यह आवश्यक नहीं । भारत में तो राजा का बेटा राजा, अमात्य का अमात्य, व्यापारी का व्यापारी बनेगा यह हजारों वर्षों तक गृहीत ही था । परन्तु अब मन्त्री का बेटा मन्त्री बनेगा तो उसे परिवारवाद कहा जाता है । स्थिति ऐसी भी है कि लाभ के स्थानों पर परिवारवाद का आश्रय लिया जाता है, जहाँ कर्तव्य निभाने हैं वहाँ व्यक्तिवाद को आगे किया जाता है । मैं बाप के नाम से प्रतिष्ठित नहीं बनूँगा, अपना स्थान स्वयं बनाऊँगा । ऐसा कहा जाता है । परम्परा में भी बाप से बेटा सवाया बने ऐसी अपेक्षा की जाती है परन्तु व्यक्तिवाद में बाप से अलग होने में स्वत्व है, गौरव है ।
 
२४. परम्परा बनाये रखने का बहुत बडा प्रभाव व्यवसाय पर हुआ है । अब व्यवसाय परिवार का नहीं होता है, व्यक्ति का होता है । पिता का व्यवसाय अपनाने की बाध्यता भी नहीं है और आवश्यकता भी नहीं । अपनी स्वतन्त्र रुचि से व्यवसाय का चयन करना स्वाभाविक माना जाने लगा है । इससे व्यवसाय में अनेक प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं परन्तु स्वतन्त्रता के नाम पर उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता । इससे अब परिवार और व्यवसाय का सम्बन्ध विच्छेद हो गया है । इसका असर सामाजिक तानेबाने पर भी बहुत हुआ है । अब किसान का बेटा किसान ही होगा यह आवश्यक नहीं, डक्टर का बेटा डॉक्टर और शिक्षक का बेटा शिक्षक ही बनेगा यह आवश्यक नहीं । भारत में तो राजा का बेटा राजा, अमात्य का अमात्य, व्यापारी का व्यापारी बनेगा यह हजारों वर्षों तक गृहीत ही था । परन्तु अब मन्त्री का बेटा मन्त्री बनेगा तो उसे परिवारवाद कहा जाता है । स्थिति ऐसी भी है कि लाभ के स्थानों पर परिवारवाद का आश्रय लिया जाता है, जहाँ कर्तव्य निभाने हैं वहाँ व्यक्तिवाद को आगे किया जाता है । मैं बाप के नाम से प्रतिष्ठित नहीं बनूँगा, अपना स्थान स्वयं बनाऊँगा । ऐसा कहा जाता है । परम्परा में भी बाप से बेटा सवाया बने ऐसी अपेक्षा की जाती है परन्तु व्यक्तिवाद में बाप से अलग होने में स्वत्व है, गौरव है ।
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२५. शिक्षा का एक परिणाम नौकरी करने का प्रचलन बढ़ना भी है । जिसमें स्वामित्व है ऐसे व्यवसायों की संख्या बहुत कम हो गई है और नौकरी करने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। सबकुछ और सबकोई 'हायर' किये जाना स्वाभाविक लगने लगा है। और नौकरी व्यक्तिगत ही होती है, और किसी का उससे सम्बन्ध नहीं । नौकरी करने वाले के परिवार के साथ नौकरी पर रखनेवालों का कोई सम्बन्ध नहीं । वेतन उसे काम के बदले में मिलता है, परिवार के भरणपोषण के लिये नहीं । व्यक्ति अकेला है तो भी उतना ही वेतन है और घर में छः सात सदस्य हैं तो भी उतना ही । जिसे वेतन मिलता है उसका अकेले का उस पर अधिकार होता है, घर के शेष सारे सदस्य उसके आश्रित माने जाते हैं । किसीको आश्रित बनना अच्छा नहीं लगता है इसलिये हर कोई नौकरी कर अपनी स्वतन्त्रता सुरक्षित कर लेना चाहता है । नौकरी करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद निवृत्तिवेतन (पेन्शन) मिलता है जिससे उसे अपनी सन्तानों पर आश्रित न रहना पडे
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२५. शिक्षा का एक परिणाम नौकरी करने का प्रचलन बढ़ना भी है । जिसमें स्वामित्व है ऐसे व्यवसायों की संख्या बहुत कम हो गई है और नौकरी करने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। सबकुछ और सबकोई 'हायर' किये जाना स्वाभाविक लगने लगा है। और नौकरी व्यक्तिगत ही होती है, और किसी का उससे सम्बन्ध नहीं । नौकरी करने वाले के परिवार के साथ नौकरी पर रखनेवालों का कोई सम्बन्ध नहीं । वेतन उसे काम के बदले में मिलता है, परिवार के भरणपोषण के लिये नहीं । व्यक्ति अकेला है तो भी उतना ही वेतन है और घर में छः सात सदस्य हैं तो भी उतना ही । जिसे वेतन मिलता है उसका अकेले का उस पर अधिकार होता है, घर के शेष सारे सदस्य उसके आश्रित माने जाते हैं । किसीको आश्रित बनना अच्छा नहीं लगता है इसलिये हर कोई नौकरी कर अपनी स्वतन्त्रता सुरक्षित कर लेना चाहता है । नौकरी करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद निवृत्तिवेतन (पेन्शन) मिलता है जिससे उसे अपनी सन्तानों पर आश्रित न रहना पड़े
    
२६. परिवार में अब अधिकार कानून से प्राप्त होते हैं, एकात्मता की भावना से नहीं । वृद्ध मातापिता का सन्तानों पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। पत्नी का विवाह के कारण से है । सन्ताने जब तक नाबालिग हैं तब तक है, जब वे बालिग हो जाती हैं तब उनका मातापिता पर कोई अधिकार नहीं होता । तब वे स्वतन्त्र होती हैं अर्थात्‌ अपने ही तन्त्र अर्थात्‌ व्यवस्था से उन्हें अपना जीवन चलाना है । मातापिता ट्वारा अर्जित सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता, मातापिता को उनके मातापिता से जो मिला है उस पर तो है ।
 
२६. परिवार में अब अधिकार कानून से प्राप्त होते हैं, एकात्मता की भावना से नहीं । वृद्ध मातापिता का सन्तानों पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। पत्नी का विवाह के कारण से है । सन्ताने जब तक नाबालिग हैं तब तक है, जब वे बालिग हो जाती हैं तब उनका मातापिता पर कोई अधिकार नहीं होता । तब वे स्वतन्त्र होती हैं अर्थात्‌ अपने ही तन्त्र अर्थात्‌ व्यवस्था से उन्हें अपना जीवन चलाना है । मातापिता ट्वारा अर्जित सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता, मातापिता को उनके मातापिता से जो मिला है उस पर तो है ।
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२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की आश्रम- व्यवस्था भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
 
२८. इस व्यक्ति केन्द्री सोच के कारण भारत की आश्रम- व्यवस्था भी चरमरा गई है । ब्रह्मचर्याश्रिम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम होते हैं व्यक्तिगत जीवन में परन्तु उनका सामाजिक दायित्व बहुत बडा होता है । वास्तव में सामाजिकता से निरपेक्ष व्यक्तिगत जीवन की कल्पना भारत में की ही नहीं गई है । समाज की सेवा करने के ही विविध आयाम होते हैं । कोई समाज को उपदेश देकर सन्मार्गगामी बनाकर, कोई समाज को ज्ञानी बनाकर, कोई समाज के लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई समाज की रक्षा कर, कोई समाज के भले के लिये तपश्चर्या कर समाज की सेवा ही करता है क्योंकि समाज परमात्मा का ही विश्वरूप है । अब व्यक्तिकेन्द्री सोच में समाज का भला करना, समाज की सेवा करना, समाजधर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपना जो कर्तव्य है उसका स्मरण करना और उसके अनुरूप व्यवहार करना आप्रस्तुत बन जाता है । जब पतिपत्नी का सम्बन्ध ही कानूनी है तो समाज के स्तर के सारे सम्बन्ध कानूनी होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
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२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पडे इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।
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२९. कानूनी कर्तव्य और भावात्मक कर्तव्य में जीवित मनुष्य और यन्त्रमानव में होता है उतना अन्तर होता है । कानूनी कर्तव्यों का प्रावधान और पालन इसलिये किया जाता है कि बिना लेनदेन के समाज चलता नहीं और कुछ लेने के लिये कुछ देना ही पडता है। अधिक से अधिक मिले और कम से कम देना पड़े इस प्रकार से कानून का पालन करने का सबका प्रयास होता है ।
    
३०. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में भावनायें नहीं होती ऐसा नहीं होता । भावना मनुष्य के अन्तःकरण का स्वभाव है इसलिये भावनायें तो होती हैं परन्तु उनके आधार पर व्यवस्थायें नहीं बनाई जातीं । व्यवस्थायें बनाते समय “व्यावहारिकता' का ध्यान रखा जाता है । इसके प्रभाव में ही आज कहा जाता है कि भावनाविवश मत बनो, व्यावहारिक बनो । व्यवसाय के क्षेत्र में कहा जाता है कि “भावना विवश' मत बनो 'प्रोफेशनल' अर्थात्‌ व्यावयासिक बनो । भारत में भावना से ऊपर विवेक होता है इसलिये कहा जाता है कि भावना में मत बहो, विवेक से काम लो । उदाहरण के लिये न्यायाधीश पिता को पुत्र के प्रति प्रेम होता है परन्तु उपदेश यह दिया जाता है कि पुत्र के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित होकर पक्षपाती मत बनो, विवेकपूर्ण व्यवहार कर न्याय कर पक्ष लो । स्वार्थ या व्यवसाय और विवेक एकदूसरे से बहुत अलग हैं । विवेक भावना से बढकर है, परन्तु स्वार्थ तो एक नकारात्मक भावना ही है। व्यक्तिकेन्द्री समाज का व्यवहार स्वार्थकेन्द्री ही बन जाता है ।
 
३०. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में भावनायें नहीं होती ऐसा नहीं होता । भावना मनुष्य के अन्तःकरण का स्वभाव है इसलिये भावनायें तो होती हैं परन्तु उनके आधार पर व्यवस्थायें नहीं बनाई जातीं । व्यवस्थायें बनाते समय “व्यावहारिकता' का ध्यान रखा जाता है । इसके प्रभाव में ही आज कहा जाता है कि भावनाविवश मत बनो, व्यावहारिक बनो । व्यवसाय के क्षेत्र में कहा जाता है कि “भावना विवश' मत बनो 'प्रोफेशनल' अर्थात्‌ व्यावयासिक बनो । भारत में भावना से ऊपर विवेक होता है इसलिये कहा जाता है कि भावना में मत बहो, विवेक से काम लो । उदाहरण के लिये न्यायाधीश पिता को पुत्र के प्रति प्रेम होता है परन्तु उपदेश यह दिया जाता है कि पुत्र के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित होकर पक्षपाती मत बनो, विवेकपूर्ण व्यवहार कर न्याय कर पक्ष लो । स्वार्थ या व्यवसाय और विवेक एकदूसरे से बहुत अलग हैं । विवेक भावना से बढकर है, परन्तु स्वार्थ तो एक नकारात्मक भावना ही है। व्यक्तिकेन्द्री समाज का व्यवहार स्वार्थकेन्द्री ही बन जाता है ।

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