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७. पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से इस सम्बन्ध पर गहरी चोट हुई है । अब पतिपत्नी का एकदूसरे से स्वतन्त्र अस्तित्व है । इस स्वतन्त्रता का मूल गृहीत यह है कि भारत में स्त्रियों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है, उनका कोई स्वतन्त्र मत नहीं होता, अपनी रुचि नहीं होती, अपना अधिकार नहीं होता । ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक समाज पुरुष प्रधान है जिसमें सख्री का बहुत गौण स्थान है । उसे किसी भी बात में कुछ भी कहने का या निर्णय करने का अधिकार नहीं है । उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था नहीं है । अपने विकास की यह कल्पना तक नहीं कर सकती |
 
७. पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से इस सम्बन्ध पर गहरी चोट हुई है । अब पतिपत्नी का एकदूसरे से स्वतन्त्र अस्तित्व है । इस स्वतन्त्रता का मूल गृहीत यह है कि भारत में स्त्रियों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है, उनका कोई स्वतन्त्र मत नहीं होता, अपनी रुचि नहीं होती, अपना अधिकार नहीं होता । ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक समाज पुरुष प्रधान है जिसमें सख्री का बहुत गौण स्थान है । उसे किसी भी बात में कुछ भी कहने का या निर्णय करने का अधिकार नहीं है । उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था नहीं है । अपने विकास की यह कल्पना तक नहीं कर सकती |
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८. ऐसा कहने के ब्रिटीशों के लिये दो कारण थे । एक तो यह कि खुद इंग्लैण्ड में उन्नीसवीं शताब्दी तक खियों की स्थिति इस प्रकार की थी । वहाँ खियों को मत देने का अधिकार नहीं था । यही स्थिति उन्होंने भारत पर आरोपित की । दूसरा यह कि भारत के लोगों के मनोभाव और व्यवहार उनकी समझ से परे थे । भारत में आत्मीयता का अर्थ होता है प्रथम दूसरों का विचार करना, बाद में स्वयं का । इसलिये पैसा कमाने वाला अपने पर सबसे अन्त में पैसा खर्च करता है । घर में भोजन बनाने वाली स्त्री सबको खिलाकर स्वयं अन्त में भोजन करती है । उस समय अपने लिये कुछ कम भी बचा तो उसे दुःख नहीं होता, शिकायत भी नहीं होती ।
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८. ऐसा कहने के ब्रिटीशों के लिये दो कारण थे । एक तो यह कि खुद इंग्लैण्ड में उन्नीसवीं शताब्दी तक खियों की स्थिति इस प्रकार की थी । वहाँ खियों को मत देने का अधिकार नहीं था । यही स्थिति उन्होंने भारत पर आरोपित की । दूसरा यह कि भारत के लोगोंं के मनोभाव और व्यवहार उनकी समझ से परे थे । भारत में आत्मीयता का अर्थ होता है प्रथम दूसरों का विचार करना, बाद में स्वयं का । इसलिये पैसा कमाने वाला अपने पर सबसे अन्त में पैसा खर्च करता है । घर में भोजन बनाने वाली स्त्री सबको खिलाकर स्वयं अन्त में भोजन करती है । उस समय अपने लिये कुछ कम भी बचा तो उसे दुःख नहीं होता, शिकायत भी नहीं होती ।
    
९. यह बात व्यक्तिवादी सोचवाले ब्रिटीशों को समझ में नहीं आना स्वाभाविक था । इसलिये उन्होंने स्त्रीमुक्ति को मुद्दा बनाकर स्त्री और पुरुष को अर्थात्‌ पति और पत्नी को एकदूसरे से स्वतन्त्र कर देने का विचार प्रस्थापित किया |
 
९. यह बात व्यक्तिवादी सोचवाले ब्रिटीशों को समझ में नहीं आना स्वाभाविक था । इसलिये उन्होंने स्त्रीमुक्ति को मुद्दा बनाकर स्त्री और पुरुष को अर्थात्‌ पति और पत्नी को एकदूसरे से स्वतन्त्र कर देने का विचार प्रस्थापित किया |
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=== ध्वस्त समाजरचना ===
 
=== ध्वस्त समाजरचना ===
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४०. धार्मिक समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगों के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
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४०. धार्मिक समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगोंं के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
    
४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने सदा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।
 
४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने सदा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।
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४२. आज भी भारत के अनेक लोग है जो इस बात को समझते हैं परन्तु शिक्षा ने व्यक्तिकेन्द्री सोच को इतना व्यापक बना दिया है कि अब वही स्वाभाविक लगने लगी है। विशेष बात तो यह है कि भारत जिस व्यवस्था के कारण इतने अधिक समय तक अच्छे से जीवित रहा है उसी व्यवस्था पर मूल में ही आघात हो रहा है । भारत का जीवनरस इतना प्राणवान है कि अभी भी यह पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है परन्तु प्राणों पर आघात तो अत्यन्त बलवान हो रहे हैं ।
 
४२. आज भी भारत के अनेक लोग है जो इस बात को समझते हैं परन्तु शिक्षा ने व्यक्तिकेन्द्री सोच को इतना व्यापक बना दिया है कि अब वही स्वाभाविक लगने लगी है। विशेष बात तो यह है कि भारत जिस व्यवस्था के कारण इतने अधिक समय तक अच्छे से जीवित रहा है उसी व्यवस्था पर मूल में ही आघात हो रहा है । भारत का जीवनरस इतना प्राणवान है कि अभी भी यह पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है परन्तु प्राणों पर आघात तो अत्यन्त बलवान हो रहे हैं ।
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४३. सभी सुज्ञ लोगों को इस विषय पर मूल रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है । ऊपर ऊपर का चिन्तन करने से या दुःखी होने से मार्ग निलनेवाला नहीं है ।
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४३. सभी सुज्ञ लोगोंं को इस विषय पर मूल रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है । ऊपर ऊपर का चिन्तन करने से या दुःखी होने से मार्ग निलनेवाला नहीं है ।

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