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==== भारतीय परम्परा का आधुनिकीकरण ====
 
==== भारतीय परम्परा का आधुनिकीकरण ====
एक संभ्रम तो यह है कि परम्परा और आधुनिकता
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एक संभ्रम तो यह है कि परम्परा और आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए या परम्परा का आधुनिकरण होना चाहिए। यह भी संकट का दूसरा बड़ा कारण है। क्योंकि हम समझते हैं कि उससे संकट हल हो जायेगा परन्तु ऐसा नहीं है, उससे तो संकट और गहरा हो जायेगा । कारण यह है कि जो हमारा मूल है वह और कमजोर हो जाता है, बजाय सशक्त होने के । हमें विचार करना चाहिए कि क्या ये जो एक नया मार्ग तलाश किया गया है, मॉडर्नाइजेशन ऑफ ट्रेडिशन का यह वास्तव में सम्यक मार्ग होगा ? या इसका आभास होता है कि ऐसा होगा। एक होता है तर्क और एक होता है ताभास । न्यायशास्त्र में यह तर्काभास तो हो सकता है, तर्क नहीं हो सकता । इसलिए यह भी वर्तमान संकट का कारण है। उसे संक्षेप में अगर कहें तो ये सब चीजें मिलकर हमारे सामने एक बड़ी विषम स्थिति उत्पन्न कर रही हैं। अब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है ?
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पहली बात तो दिशाबोध बहुत आवश्यक है। जब व्यक्ति दिग्भ्रमित हो जाय तो हाथ में कम्पास लेकर दिशाबोध करना पड़ता है। इसलिए पहले तो विश्व को अपनी दिशा को तलाश करना है कि जिस दिशा में हम अभी तक जा रहे थे, वही दिशा सही थी या कोई दूसरी दिशा में जाना है। जब दिशाबोध हो तब चलने का भी परिश्रम सार्थक है। जब दिशा ही गलत चुनी हो तो चलने का परिश्रम भी निरर्थक होगा। इसलिए पहला कार्य तो दिशा बोध का है।
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==== नैतिक प्रश्नों का समाधान तकनीकसे नहीं ====
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दूसरा हम ये समझें कि आज के जो प्रश्न हैं वो तकनीकी प्रश्न नहीं हैं, technical Problems नहीं हैं। Moral Problems है। इसलिए तकनीक से वे हल नहीं होंगे, नीति से हल होंगे । बहुत सारी चीजें जो आजकल कही जा रही हैं कि हमारे यहाँ ये टेकनॉलोजी आ जायगी, कम्प्युटर आ जायेगा । जैसे कि हमारे मन में कभी कभी ये प्रश्न उठता है, अभी हमने सिंस्थेसिस की बात कही, कि क्या कम्प्युटर और भारतीय परम्परा संगत चीजें हैं ? कम्प्युटराईझेशन अगर होगा और इस तरह आप अपनी परम्परा का आधुनिकिकरण करेंगे तो हमारी परम्परा शक्तिशाली होगी कि नष्ट हो जायेगी इस प्रश्न पर विचार करना चाहिये। आजकल इस प्रश्न की बड़ी चर्चा है कि कम्प्युटराईझेशन हो जाय, हम उसको स्वीकार कर लें, हम उसका सदुपयोग करें । प्रश्न सदुपयोग या दुरुपयोग का ही नहीं है। प्रश्न ये है कि यह जो टेकनिक' आप लायेंगे तो फिर भारतीय परम्परा की रक्षा का प्रश्न भूल जाइये । क्योंकि जब मशीन आई तो मशीन के हिसाब से सारा समाज बन जायगा । मार्क्सने एक बड़ी अच्छी बात कही है कि जो technology होती है, वह ideology भी होती है, केवल technology नहीं होती। हमारा प्रश्न यह है कि थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है कि क्या ये जो तकनीक आ रही हैं, आपकी परम्परा से इसकी संगति बनेगी या नहीं बनेगी। इस तकनीक को अपनाने से आप की परम्परा सुरक्षित होगी या उसके सामने एक नया खतरा पैदा हो जायेगा । इसीलिए मेरा ऐसा मानना है कि तकनीक से नहीं, समाज की रक्षा समाज के संकट का निवारण नीति से होता है। प्रश्न नैतिक है और समाधान तकनीकी ये कैसे हो सकता है ?
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==== भारत को विशेषज्ञ नहीं तत्त्वदर्शी चाहिए ====
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तीसरी बात कि हमें विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है या कम है। अगर हम यह उम्मीद कर रहे हैं कि राजशास्त्री या राजनीतिज्ञ समाधान निकाल लेंगे, अर्थशास्त्री समाधान निकाल लेंगे, वैज्ञानिक समाधान निकाल लेंगे तो एक बड़ी भ्रान्ति में हम लोग फंसे हुए हैं क्योंकि समाधान ऋषि निकालता है, तत्त्वदर्शी निकालता है, विशेषज्ञ नहीं । क्योंकि तत्त्वदर्शी ही पूरी समस्या को समझ सकता है कि चीज कहाँ से है और कहाँ तक है। राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री की दृष्टि तो बड़ी सीमित होती है । वे केवल प्रश्न का एक पहलु जानते हैं। वे उसके सारे पक्षों को नहीं जानते । लेकिन जो तत्त्वदर्शी है उनकी दृष्टि बड़ी विराट होती है। वे अपनी ज्ञान साधना से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रश्नों को चुटकी में समझ लेते हैं कि इसमें क्या है ? तो इसलिए भारत को आज विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है, बहुत हैं विशेषज्ञ । विशेषज्ञ जितने बढ़ रहे हैं समस्या उतनी ही उलझ रही है । क्योंकि एक समस्या को हर विशेषज्ञ अपने अपने तरीके से देख कर इसी बात में अपनी विद्वत्ता समझता है कि हमने कोई नया पेच पैदा कर दिया यह विशेषज्ञता है, उलझे हुए प्रश्न को सुलझाना नहीं । विशेषज्ञता सामान्यतः अहंकार को जन्म देती है, 'little learning is dangereous thing' ऐसा कहा भी गया है। और विशेषज्ञता क्या है ? केवल 'little learning' है। भारत को आज समग्र दृष्टि चाहिए. Metaphysicians चाहिए, आचार्य चाहिए, ऋषि चाहिए जो हमारे प्रश्नों को समझकर उनका समाधान निकाले। हमें सुकरात चाहिए, ढेरों राजनेता नहीं चाहिए । एक सुकरात एक हजार सवालों का जवाब दे सकता है और एक प्रश्न - को ढेरों राजनेता भी हल नहीं कर सकते । तत्त्वदर्शन की यह महत्ता होती है । इसलिए अगर इन दो-तीन उपायों को हम अपना सकें तो शायद मार्ग निकल जाये । भारतीय परम्परा निराशावादी नहीं है, आशावादी है। वह यह मानती है कि कोई अन्धकार दीर्घजीवी या चिरंजीवी नहीं होता । और अन्ततः सत्य की विजय होती है। तो यह जो हमारी परम्परा का मूल सिद्धांत है, वो अगर हमें प्रेरित कर सके और हम निराशा में फंसने की बजाय एक सम्यक मार्ग को तलाश कर चल सकें तो शायद हमारा कल्याण होगा। और इन वैश्विक संकटों का समाधान होगा।
    
==References==
 
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