वृद्धावस्था के अनुभव

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हम जानते है शिक्षा आजीवन चलती है [1]। वृद्धावस्था जीवन की सबसे दीर्घ एवं परिपक्व अवस्था है । अतः वृद्धावस्था की शिक्षा का स्वरूप कैसा हो यह विचारणीय प्रश्न है । यहा कुछ अनुभव संपन्न वृद्धों के विचारों का संकलन प्रस्तुत है ।

अधिकार नही कर्तव्य निभाना

मनुष्य जीवन की अन्य अवस्थाओं की तुलना में वृद्धावस्था सबसे अंतिम एवं दीर्घ अवस्था है[2]। "आजीवन शिक्षा" - यह भारतीय शिक्षा का सूत्र सामने रखते हुए वृद्धावस्था का इस दृष्टि से विचार करना चाहिए । वृद्धावस्था परिपक्वअवस्था है फिर भी यहाँ बहुत सी बाते सीखने का अवसर प्राप्त होता है। जीवन में मानअपमान, हारजीत, हर्षशोक, मानसम्मान आदि द्वंद्वों का तथा मोह, मद, क्रोध, आसक्ति जैसे दुर्गुणों का सामना होता रहता है। इसके परे जाने की सीख इस अवस्था में प्राप्त होती है तो अच्छा है। अब जीवन में प्राप्त सुखों से समाधानी, तृप्त होना और उनसे भी निवृत्त होना सीखना चाहिये | जीवन के अंतिम क्षण तक अपने नियत कर्म में व्यस्त रह सके इसलिये स्वास्थ्य सम्हालना चाहिये । नित्य ध्यान, प्राणायाम, योगाभ्यास करते रहना उसका उपाय है।

यही सीख हमारे निर्दोष पोतेपोतियों के सहवास से, अड़ोसपड़ोस के श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के उदाहरण से, जीवन मे कितनी कठिनाइयाँ आयी परंतु ईश्वर ने हमें उन्हे पार करने में किस रूप में कृपा की थी इस के चिंतन से, सद्ग्रथों के पठन से तथा भावपूर्ण संगीत के श्रवण से प्राप्त होती है । हम अपने जीवन के अनुभव के आधार पर अपने परिवारजन को बहुत सारी बातें वृद्धावस्था में सिखा सकते हैं। परंतु यह शिक्षा अब मौन रूप में होगी। सबके साथ हमारा प्रेमपूर्ण व्यवहार, सहयोग, कर्तव्यपरायणता, निःस्वार्थता, प्रसन्नता को देखते हुए अब हमारा मौन अध्यापन प्रभावी होगा। अगर कोई सलाह विमर्श की हमसे अपेक्षा करते हैं तो देने का सामर्थ्य हमारे में जरूर होना चाहिये। समाज की युवापीढ़ी और बालकों को प्रेमपूर्ण भाव से अनेक बातें सिखा सकते हैं। यह हमारे मातृत्व पितृत्व का दायरा बढ़ाने का प्रयत्न होगा । वृद्धावस्था में सीखने सिखाने में कुछ अवरोध भी आते हैं। पहला अवरोध हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का । हमें अब यह दुनिया छोडने से पूर्व हमारा अनुभव सबको बटोरने की जल्दी होती है जब की युवापीढ़ी अपने सामर्थ्य के कारण उपदेश ग्रहण से विमुख रहती है यह दूसरा अवरोध है। अतः समचित्त रहने का अभ्यास हमें करना होता है । वृद्धावस्था की उचित मानसिकता हमें प्रौढावस्था से ही तैयार करनी चाहिये। खानपान, वित्ताधिकार, किसी व्यक्तिविशेष में आसक्ति कम करने का प्रयास करना चाहिये । अधिकार नहीं परंतु कर्तव्य पूर्ण निभाना ऐसी कसरत करने का प्रयास प्रौढ़ावस्था में ही करना चाहिये । संयमी, शान्त आनंदी, प्रसन्न, अनासक्त होना सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण हैं ।

कम खाना गम खाना

इस अवस्था में परिवार में बिना अपेक्षा के बलात अपनी इच्छा न बताना व थोपना उचित रहता है[3]

  1. परिवार के साथ सामंजस्य बैठाना | सबकी इच्छा में अपनी इच्छा समाहित करना चाहिए ।
  2. पुत्र को काम का जिम्मेदार बनाना तथा अपना अधिकार छोड़ना चाहिए ।
  3. घर के कार्य में अपने को जोड़ना ताकि हमारी आवश्यकता दिखती रहे अपने से बड़ों से तथा जिनका गार्हस्थ्य जीवन श्रेष्ठ रहा है उन लोगो से सीखना । इस हेतु सीखने के लिये अपने को छोड़कर जानने का भाव रखना । अब तक के अनुभव के आधार पर जो परिवार में उपयोगी हैं उसे स्वीकार करते हुए चलना ।आने वाली पीढ़ी को अपने अनुभव से जीवनपयोगी राह दिखा सकते है ।
    1. विशेषकर पौत्र पौत्री को क्‍योंकि इस उम्र में वे ज्यादा नजदीक रहते हैं ।
    2. समाज के लोगों में अपना अनुभव व ज्ञान बाँटना है जो हमारी जीवन की सफलता का आधार है ।
    3. पड़ोस के बालकों में भी खेल खेल में, कथा कहानी से जीवन तत्त्व उडेल सकते हैं ।
  4. उम्र का अन्तर अन्य लोगों से (उम्र में छोटों से) घुलने मिलने में अवरोधक बन जाता है।
    1. इस उम्र में अधिक बोलने व बात बात में उपदेश देने की वृत्ति लोगों से दूर ले जाती है ।
    2. जिस उम्र में हम जिसे आधार बनाकर आगे बढ़े हैं उसी पर अड़े रहते है। जबकि नयी पीढ़ी में सभी प्रकार से बहुत परिवर्तन आ चुके हैं हम उस के अनुरूप अपने को ढाल नहीं पाते हैं ।
  5. स्वस्थ रहे इसलिये योग व्यायाम भी करें ।
    1. स्वभाविक रूप से परिवार के सब लोग स्नेह व सम्मान देते है ।
    2. स्वास्थ्य ठीक है तो अपना कार्य स्वयं कर लेते हैं ।
    3. परिवार में उपयोगी बने रहना |
    4. ऐसा व्यवहार कीजिए की हमारी इच्छा परिवार में आज्ञा रूप में स्वीकार हो ।
    5. परिवार के सभी लोग हमसे मिलकर सुख प्राप्त करें |

समायोजन अधिकतम संघर्ष

  1. युवा या वृद्धावस्था मन पर निर्भर है[4]। हम सब कभी तो वृद्ध बनने वाले है ऐसी मन की तैयारी होगी तो वृद्धावस्था भी सुखकर हो सकती है । वृद्धावस्था में शरीर की कार्यशक्ति स्वाभाविक रूप से कम होती है। दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है अत: संयम, सहनशीलता, समायोजन की आदत - स्वभाव में प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन लाना है - स्वयं ही स्वयं का मार्गदर्शक बनना चाहिये। समवयस्कों के साथ खुली बातचीत होने से मन हलका होगा इसलिए ऐसे स्वाभाविक मिलन केंद्र निर्माण करना है। औपचारिक सलाह केंद्रों से भी वह अधिक परिणामकारक होगा ।
  2. वृद्धावस्था में अपना जीवन अनुभव समृद्ध होता है | उसका लाभ युवा पीढ़ी को दे सकते हैं | सहज रूप से - ना की मार्गदर्शक की भूमिका से। कहाँ से दरार हो सकती है यह मालूम होने हेतु आपसी संवाद - सहसंवेदना निर्माण करना आवश्यक है। आदेशकर्ता की भूमिका स्वीकार्य नहीं होगी ।
  3. वृद्धावस्था में जीवन विषयक धारणाएँ पक्की होती हैं - वे बदलने की मन की भी तैयारी नहीं होती है। बदल स्वीकारना भी कठिन हो जाता है कारण वह स्थायी भाव बनता है ।
  4. वृद्धावस्था में क्या क्या समस्याएँ निर्माण हो सकती है यह तो अभी तक के जीवन में किये हुए निरीक्षण से पता चलता है। अन्य वृद्धों का सुखी-दुःखी जीवन देखकर उससे हमने मन की तैयारी करना चाहिये । नैसर्गिक रूप से होनेवाला शरीरक्षरण तो हम रोक नहीं सकते अतः प्रारंभ से ही स्नेह, सहयोग, संवाद के संस्कार प्रयत्नपूर्वक होने चाहिये | परंतु हम वृद्ध होनेवाले है, हो गये हैं यह स्वीकार करने की अपने ही मन की तैयारी नहीं होती है | समायोजन में गड़बड़ हो जाती है ।
  5. प्रारंभ से ही लिखना, पढ़ना और आधुनिक तंत्रज्ञान के सहारे अपना समय नियोजन करने से अपने अनुभवों को बाँटने की या स्वीकारने की मानसिकता बन सकती है। और जो देगा उसका भला, नहीं देगा उसका भी भला यह धारणा बनती है तो भी उपयुक्त होगी |

आजकल कई संस्थाओं में सहायता की आवश्यकता होती है। अपने अनुभवों का लाभ परिवार के साथ ऐसी संस्थाओं को भी मिल सकता है। समायोजन अधिकतम, संघर्ष न्यूनतम यह स्वीकार कर वृद्धावस्था अपने स्वयं के लिए और दूसरों को भी सुसहा बना सकते हैं ।

आनंदी चिन्तामुक्त वृद्धावस्था

  1. वृद्धावस्था में सर्व प्रथम तो स्वास्थ्य बनाये रखना और दुनियादारी से मुक्त कैसे रहना यह सीखना होता है। जो बातें अपने बस में नहीं हैं उनके लिये चिंता नहीं करना, स्वादसंयम रखना, जो बीत गया है उसके बारे में नहीं सोचना, हमेशा खुश रहना और बिन मांगे सलाह न देना इत्यादि बातें सीखनी होती हैं | यह शिक्षा अपने और अन्यों के अनुभव से, कुछ कथायें पढने से, श्रवणभक्ति करने से सीखी जाती हैं ।
  2. बहुत सी बातें सिखा सकते हैं जैसे कि घर में कोई नया पदार्थ बनाना हो तो सिखा सकते हैं, किसी की बीमारी में क्या करना चाहिये यह सिखा सकते हैं, घर में यदि छोटे बच्चें हैं तो उनका संगोपन कैसे करना, उनमें अच्छी आदतें कैसे डालना, इसके अतिरिक्त उन्हें लोक, सुभाषित, प्रातःस्मरण, बालगीत आदि सब भी सीखा सकते हैं, घर के कुलाचार, व्रतों, उत्सवों को कैसे और क्‍यों मनाना चाहिये यह सीखा सकते हैं | सब से महत्त्वपूर्ण सीख तो यह दे सकते हैं कि किसी भी परिस्थिति में अपना थैर्य बनाये रखें, उन्हें सामाजिकता तथा राष्ट्रीयता की भावना समझा सकते हैं | ये सब बातें घर में बहू बेटियों को या पास पड़ौस में, उनके पूछने पर अथवा उनका भला चाहते हुए कोई अपनी बात मानेगा इसकी अपेक्षा न रखते हुए, सिखा सकते हैं। इसमें कई बातें अपने व्यवहार से तथा कुछ बातें वार्तालाप के माध्यम से सिखा सकते हैं ।
  3. सीखने सिखाने में मुख्य अवरोध अपने स्वयं के मन का ही होता है| बुद्धि तो बराबर आदेश देती है पर मन मानता नहीं हैं। अन्यों को सिखाने में कई बार सामने वाले की अनिच्छा होती है। उन्हें हमारी बातों पर कभी कभी विश्वास नहीं होता ऐसा भी हो सकता है । वृद्धावस्था के कारण कई बातें हम तत्काल स्वयं के आचरण या व्यवहार से नहीं सिखा सकते हैं ।
  4. वृद्धावस्था के लिये प्रौढावस्था के प्रारंभ से ही स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये | मन:संयम और स्वाद संयम के साथ साथ अलिप्त होने का अभ्यास करते रहना चाहिये | घर गृहस्थी से निवृत्त हो कर अपनी रुचि एवं क्षमता के अनुसार कोई कार्य करते रहना चाहिये | सामाजिक कार्य में सहभागी हो कर अपने परिचितों का दायरा बढ़ाना चाहिये ।
  5. आनंदी, चिंतामुक्त और अलिप्त मन तथा वृद्धावस्थामें भी हताश अथवा निराश नहीं होना ये उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण हैं ।

वृद्धावस्था : आत्मचेतना पाथेय

वृद्धत्व जीवन की परिपक्क अवस्था है[5]। तन वृद्ध हो जाता है। मन, बुद्धि, हृदय, चित्त और अन्तःकरण में परिपक्कता के कारण पारदर्शिता बढ़ती जाती है। अतः वृद्धावस्था पारदर्शिता सम्पादनार्थ वरदान है । जीवन में सहजरूप से जिस कार्यक्रम में गहन अनुभव प्राप्त किये हैं वे ही शिक्षाप्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं । ज्ञान और बोध की प्रक्रिया एक साथ चलती रहती है। नित्य के आचरण से हमें बोध और ज्ञान की अनुभूति सहज रूप से होती रहती है । धर्म निर्दिष्ट शुद्ध अन्न सेवन से प्राणचेतना प्राणवान रहती है जिससे इन्द्रियवोध यथार्थपरक रहता है।

शब्द, स्पर्श, रूप, गंध एवं रस - इन्द्रिय बोध के तथ्यमूलक यथार्थपरक भावस्रोत हैं । वृद्धावस्था में कर्मेन्द्रियों की सीमाएं सीमित होती जाती हैं | प्राणतत्त्व, जीव (चेतना) तत्त्व तथा आत्मतत्त्व विशेष मुखर होते जाते हैं। चित्त में शिवभाव और ज्ञानेन्द्रियों में शक्तिभाव चेतना "मम जीव इह स्थित:" तथा मम सर्वेन्द्रियाणि वाडमनु चक्षु: श्रोत्र जिह्वा घ्राण पाणि पाद पायूपस्थानि नित्य संकल्प करने से 'अमोघ शक्ति प्राप्त होती है । इसी से मन उन्मेषक, परिप्कृत और यथार्थ उन्मुख होता है और उसकी निश्चयात्मकता स्वत: दृढ़ होती जाती है ।

वृद्धावस्था में अन्तिम सांस तक स्वाश्रयीजीवन और दायित्ववोध चेतना आवश्यक है। गंगा की तरह नित्य प्रवहमान और बदलते युग परिवेश में अपनी पहचान संस्कृतिमूलकता के साथ बनी रहे यह आवश्यक है | किसी पर भी हम उपदेश का बोझ न लादें । मात्र विशुद्ध आचरण की सुवास पुष्प की तरह बिखेरते रहें | सार्वजनिक जीवन में कार्यरत रहने से आचरण के साबुन से युग का मैल स्वतः धुलता जाएगा । हाँ, भौतिकता की अपेक्षा आन्तरिक समृद्धि के जीवनदीप का टिमटिमाता रहना अपेक्षित है । फलत: हम कहीं भी बोझ नहीं बनेंगे । वरन्‌ सबका बोझ हलका करेने में अपना यथाशक्ति योगदान देते रहेंगे । आवत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह अर्थात्‌ प्रसन्नतापूर्ण एवं स्नेहपूर्ण आचरण करेंगे तो वृद्धावस्था आनंदपूर्ण रहेगी। कटुता मन-कर्म-वचन से रचनात्मक रूप धारण कर लेगी |

वृद्धावस्था सर्वाधिक लोकोपयोगी हो सकती है। रचनात्मकता के संस्कारों से संस्कारित वृद्धावस्था संस्कृति का रूप धारण कर लेती है। 'सुमति कुमति सबके उर बसहीं - वृद्धावस्था आत्मसात कर चुकी होती है। अतः सदा सुमति एवं परहित सेवी धर्म का निर्वाह - हमारा कर्तव्य है । ऐसी वृद्धावस्था लोकमानस में, सदा श्रद्धापात्र रही है । आज भी मांगलिक अवसरों पर वृद्धों का आशीर्वाद प्राप्त करने की परंपरा समाज में विद्यमान है। इस सन्दर्भ में वृद्धावस्था समाज की धरोहर है। सुभाषित सप्तशती की भूमिका में उसके संपादक श्री मंगलदेव शास्त्री के सम्बन्ध में काका कालेलकर लिखते हैं, उम्र में वृद्ध होते हुए भी शरीर से आपादमस्तक तरुण दीख पड़ते हैं। वेदों का गहन अध्ययन करते हुए भी उनमें जड़ता नहीं आई हैं । वृद्धावस्था को सुवासमय रखने हेतु सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सेवाकीय, साहित्यिक, चिन्तनपरक संस्थाओं की गतिविधियों में अपनी तन-मन-धन की शक्तियों का विनियोग दायित्वबोध के साथ करना श्रेष्ठ धर्म है । अधर्म, अन्याय, अनीति एवं मानवताविरोधी प्रवृत्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना और रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करना वृद्धावस्था का इृष्टध्येय बना रहना चाहिये । वृद्धावस्था को सम्माननीय स्थान देने हेतु जीवन में सतत अध्ययन, चिन्तन, मनन करते हुए स्व-क्षमतानुसार सार्वजनिक सेवा कार्यों में यथाशक्ति योगदान देते हुए जीवनमूल्यों के संवर्धन में समर्पित रहें ।

कायरता, स्वार्थपरता, दैववादिता, मृत्यु भीरूता मिथ्या वैराग्य आदि स्त्रैणता में ढकेलते हैं । पुरुषार्थ को क्षीण करते हैं। सदा आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, चरित्रउत्कर्ष, मानवता का सम्मान, श्रद्धाभाव, कर्तव्यपरायणता, श्रम और तपस्या द्वारा उत्कर्ष उन्मुख रहने से उदात्तभाव स्वतः आते जाते हैं। ये भारतीय संस्कृति के ये बीजतत्त्व हैं। इन्हीं के द्वारा उत्कर्ष और कल्याण का विस्तार होता है । वृद्धावस्था का गन्तव्य है : वसुधैव कुटुम्बकम्‌ । जहाँ प्रकृति भिन्नता, परिवेश-भिन्नता, अवस्था-भिन्नता, जाति, धर्म, वर्ण, प्रदेश, भाषा आदि की भिन्नताएँ मानवता के समुद्र में संस्कृति की गंगा में समा जाती है | फलत: कुंठित मानसिकता के अवरोधों से ऊपर उठने का राजमार्ग है 'सेवाधर्म को आत्मसात करना । इस सन्दर्भ में श्री रामकृष्ण परमहंस को एक व्यक्ति ने अपना अभिप्राय दिया, हमें समाज को सुधारना होगा । परमहंस ने तुरन्त कहा, सुधारना हमारा काम नहीं । हमारा धर्म है - सेवा करना | सेवा धर्मपालन से हृदय पावन, आत्मा प्रफुल्लित और मन निष्कलुष होने से परमात्मा की निकटता बढ़ती है। आचरणमूलक सेवाधर्म प्रेरक होता है। श्री परमहंसजी का एक दूसरा प्रसंग अनुकरणीय है | एक व्यक्ति ने परमहंसजी को पूछा, साधुपुरुष के लक्षण क्या हैं ?' परमहंसजीने कहा, तुम्हीं बता दो । उसने कहा, 'जो मिला खा लिया, न मिला तो सह लिया । श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा, ये लक्षण तो कुत्ते के हैं। साधुपुरुष का लक्षण है बाँटकर खाना, न बचे तो सन्‍तोष मानना । यही आत्मचेतना जीवन का पाथेय है ।

वृद्धावस्था सम्बन्धी विचार

  1. वृद्धावस्था में स्वस्थ, व्यस्त और मस्त रहना सीखना चाहिए[6]। यह शिक्षा वृद्धों को समाज के श्रेष्ठजनों के अनुसरण और श्रीमद्‌ भगवद्गीता योगदर्शनः जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों के गहन अनुशीलन से प्राप्त होती हैं ।
  2. वृद्धावस्था में ज्ञान-विज्ञान, अव्यभिचारिणी बुद्धि, भक्ति भावना और स्वधर्म का पालन करना, अपने आत्मजनों को अभ्यास और वैराग्य द्वारा सिखा सकते हैं ।
  3. वृद्धावस्था को सीखने और सिखाने में मुख्य अवरोध आते हैं, राजसी और तामसी वृत्ति ।
  4. प्रौढ़ावस्था में हमें वानप्रस्थ धर्म का दृढतापूर्वक पालन करना, चित्तवृत्ति निरोध की दक्षता और स्वधर्मपालन का सफल अभ्यास करना चाहिए, सुखद वृद्धावस्था लिए ।
  5. उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण
    1. सदा दिवाली संत की बारहमास बसन्त, रामझरोखा बैठकर, सबका मुजरा ले ।
    2. ना काहसे दोस्ती, ना काहसे बैर ।।
    3. सुखी व्यक्ति से मैत्री रखना, दुःखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता और पापी के प्रति उपेक्षा भाव रखना ।

मुमुक्षु-वृद्धावस्था

भारतीय संस्कृति में ऊमर में छोटे लोग अपने से बड़ों को प्रणाम करते हैं, उस समय बड़े लोग उनको आशीर्वाद देते हैं[7]। उसमें सर्वप्रथम आयुष्मान भव यह आशीर्वाद देकर बाद में गुणवान भव, धनवान भव, कीर्तिवान भव ऐसे आशीर्वाद देते हैं। व्यक्ति को पुरुषार्थ करने के लिये जीवन की आवश्यकता होती है। इसलिये आयुष्मान भव इस आशीर्वाद का सबसे अधिक महत्त्व है। संस्कृति धारणेनुसार आयुर्भवति पुरुष: ऐसा कहा गया है। जीवन सौ साल का मानकर पच्चीस साल का एक, ऐसे चार आश्रम माने गये हैं । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यस्त ।

वानप्रस्थ आश्रम के आखिरी दस साल और संन्यासाश्रम के पच्चीस साल को अनेक चिंतकों के मतानुसार वृद्धावस्था की संज्ञा दी गई है । सभी अवस्थाओं में यह आखिरी अवस्था जीवन का सबसे बड़ा कालखण्ड है। वृद्धावस्था के बिना बाकी सभी अवस्थाओं का अन्त है। सिर्फ वृद्धावस्था में जीवन ही समाप्त होता है । इसलिये वृद्धावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है । इस अवस्था के पूर्व व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को यशस्वी पद्धती से पूर्ण करता है । हमारी संस्कति के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है । इस अवस्था में मोक्ष प्राप्त करना अपेक्षित है । जगदूगुरु शंकराचार्य कहते हैं “ज्ञानविहिना सर्वमतेन । मुक्ति्नभवति जन्मशतेन' अर्थात्‌ मोक्षप्राप्त के लिये ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान के लिये शिक्षा आवश्यक है ।

  1. वृद्धावस्था में व्यक्ति को क्या सीखना है, इसकी शिक्षा मिलना आवश्यक है । मोक्ष याने जीवन समाप्ति के बाद की अवस्था नहीं है, अपितु जीवन में ही यह अवस्था प्राप्त करना आवश्यक है । इस अवस्था में क्रियाशील नहीं, केवल कर्तव्यशील होना आवश्यक है। कुटुम्ब तथा समाज में पूरा जीवन बिताते समय जो ज्ञान और अनुभव मिलता है उसका लाभ बाकी सारे लोगों को कैसे हो सकता है यह मानसिकता आवश्यक होती है । कुटुम्ब और समाज में कमलदल समान जीवन बिताना आना चाहिये । यही बात सीखनी चाहिये । अपने पास जो ज्ञान है वह स्वेच्छा से लोगों को देना, वह भी अलिप्त होकर ऐसा व्यवहार आवश्यक है । प्राचीन काल में वानप्रस्थ में सभी लोग वन मे जाकर रहते थे । संन्यासाश्रममें प्रवास करते हुए समाज को अपने अनुभव तथा ज्ञानभण्डार का फायदा कैसे होगा इस का विचार करते थे । आज यह बात नहीं हो सकती फिर भी तत्वतः समाज में रहकर संन्यस्त वृत्ति धारण करना और दूसरों के लिये जीवन जीना, उसके लिये आवश्यक शिक्षा लेना जरुरी है ।
  2. वृद्धावस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने संपर्क में आये सभी व्यक्तियों को अपने पास जो ज्ञान है वह उन्हें देने का प्रयत्न करे । अनुभव संपन्नता और ज्ञान संपन्नता का समाज के लिये उपयोग हो ऐसा अपना व्यवहार एवं आचरण रखे । सभी लोग इस आचरण, अवलोकन कर के स्वयं सीखेंगे । संपर्क के व्यक्तियों को बोलकर सिखाने की आवश्यकता नहीं ।
  3. वृद्धावस्था में शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेंद्रियां क्षीण होती हैं । परन्तु बुद्धि तथा आत्मा का बल बना रहता है । इसलिये वृद्ध एवं उनके संपर्क में आनेवालों के बीच “स्व' की बाधा हो सकती है । दोनों के अहम् का टकराव हो सकता है । इस टकराव से वृद्धों को बचना चाहिये ।
  4. गृहस्थाश्रम में जीवन व्यतीत करने के लिये शरीर, मन, बुद्धि का विकास करके सुचारुरूप से गृहस्थाश्रमी का जीवन व्यतीत होता है । उसी तरह जीवन व्यतीत करने के लिये वृद्धावस्था में उससे भी अधिक ज्ञानप्राप्त करना आवश्यक है । इस अंतिम अवस्था में व्यक्तिगत जीवन समाप्त होता है, और कुटंब और समाज में रहते समय मनमें अलिप्तता की भावना होना आवश्यक है । मृत्यु अटल सत्य है, मृत्यु तिथि किसी को ज्ञात नहीं होती इसलिये इस अवस्था में धर्माचरण करके वृक्ष का पका फल जैसे वृक्ष को छोड़ता वैसे ही जीवन समाप्त हो, इस प्रकार का जीवन व्यतीत करना आवश्यक है ।
  5. वृद्धावस्था में अपना व्यवहार किसी को कष्टदायक न हो एवं स्वयं को समाधान मिले ऐसा हो । मृत्यु को किसी भी समय आनंद से स्वीकार ने की अवस्था बने यह इष्ट है।अङ्गम् गलितम् पलितम् मुण्डम् दशन-विहीनम् जातम् तुण्डम् वृद्ध: याति गृहीत्वा दण्डम् तत्अपि न मुञ्चति आशा-पिण्डम्[8]। ऐसी अवस्था न होना यह उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. सच्चिदानन्द फडके, ७५ वर्ष, नासिक, सामाजिक कार्यकर्ता
  3. राधेश्याम शर्मा, सेवा निवृत्त, शिक्षक, कोटा
  4. प्रेमिलताई, पूर्व प्रमुख संचालिका, राष्ट्र सेविका समिति, नागपुर
  5. डॉ. घनानन्द शर्मा जदली , ८१ वर्ष, सेवानिवृत्त प्राध्यापक, ज्योतिषाचार्य, अहमदाबाद
  6. रामकृष्ण पौराणिक, ८३ वर्ष, सेवानिवृत्त शिक्षक, उज्जैन
  7. काका जोशी, ८० वर्ष, सेवा निवृत्त शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, अकोला
  8. आदिशंकराचार्य द्वारा विरचित “चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्, छंद ६