Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎समायोजन अधिकतम संघर्ष: लेख सम्पादित किया
Line 28: Line 28:     
== समायोजन अधिकतम संघर्ष ==
 
== समायोजन अधिकतम संघर्ष ==
युवा या वृद्धावस्था मन पर निर्भर है। परंतु आप
+
# युवा या वृद्धावस्था मन पर निर्भर है<ref>प्रेमिलताई, पूर्व प्रमुख संचालिका, राष्ट्र सेविका समिति, नागपुर</ref>। हम सब कभी तो वृद्ध बनने वाले है ऐसी मन की तैयारी होगी तो वृद्धावस्था भी सुखकर हो सकती है । वृद्धावस्था में शरीर की कार्यशक्ति स्वाभाविक रूप से कम होती है। दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है अत: संयम, सहनशीलता, समायोजन की आदत - स्वभाव में प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन लाना है - स्वयं ही स्वयं का मार्गदर्शक बनना चाहिये। समवयस्कों के साथ खुली बातचीत होने से मन हलका होगा इसलिए ऐसे स्वाभाविक मिलन केंद्र निर्माण करना है। औपचारिक सलाह केंद्रों से भी वह अधिक परिणामकारक होगा ।
 +
# वृद्धावस्था में अपना जीवन अनुभव समृद्ध होता है | उसका लाभ युवा पीढ़ी को दे सकते हैं | सहज रूप से - ना की मार्गदर्शक की भूमिका से। कहाँ से दरार हो सकती है यह मालूम होने हेतु आपसी संवाद - सहसंवेदना निर्माण करना आवश्यक है। आदेशकर्ता की भूमिका स्वीकार्य नहीं होगी ।
 +
# वृद्धावस्था में जीवन विषयक धारणाएँ पक्की होती हैं - वे बदलने की मन की भी तैयारी नहीं होती है। बदल स्वीकारना भी कठिन हो जाता है कारण वह स्थायी भाव बनता है ।
 +
# वृद्धावस्था में क्या क्या समस्याएँ निर्माण हो सकती है यह तो अभी तक के जीवन में किये हुए निरीक्षण से पता चलता है। अन्य वृद्धों का सुखी-दुःखी जीवन देखकर उससे हमने मन की तैयारी करना चाहिये । नैसर्गिक रूप से होनेवाला शरीरक्षरण तो हम रोक नहीं सकते अतः प्रारंभ से ही स्नेह, सहयोग, संवाद के संस्कार प्रयत्नपूर्वक होने चाहिये | परंतु हम वृद्ध होनेवाले है, हो गये हैं यह स्वीकार करने की अपने ही मन की तैयारी नहीं होती है | समायोजन में गड़बड़ हो जाती है ।
 +
# प्रारंभ से ही लिखना, पढ़ना और आधुनिक तंत्रज्ञान के सहारे अपना समय नियोजन करने से अपने अनुभवों को बाँटने की या स्वीकारने की मानसिकता बन सकती है। और जो देगा उसका भला, नहीं देगा उसका भी भला यह धारणा बनती है तो भी उपयुक्त होगी |
 +
आजकल कई संस्थाओं में सहायता की आवश्यकता होती है। अपने अनुभवों का लाभ परिवार के साथ ऐसी संस्थाओं को भी मिल सकता है। समायोजन अधिकतम, संघर्ष न्यूनतम यह स्वीकार कर वृद्धावस्था अपने स्वयं के लिए और दूसरों को भी सुसहा बना सकते हैं ।
   −
शारीरिक वृद्धावस्था के संदर्भ में जानना चाहते हैं इसलिए
+
== आनंदी चिन्तामुक्त वृद्धावस्था ==
 +
# वृद्धावस्था में सर्व प्रथम तो स्वास्थ्य बनाये रखना और दुनियादारी से मुक्त कैसे रहना यह सीखना होता है। जो बातें अपने बस में नहीं हैं उनके लिये चिंता नहीं करना, स्वादसंयम रखना, जो बीत गया है उसके बारे में नहीं सोचना, हमेशा खुश रहना और बिन मांगे सलाह न देना इत्यादि बातें सीखनी होती हैं | यह शिक्षा अपने और अन्यों के अनुभव से, कुछ कथायें पढने से, श्रवणभक्ति करने से सीखी जाती हैं ।
 +
# बहुत सी बातें सिखा सकते हैं जैसे कि घर में कोई नया पदार्थ बनाना हो तो सिखा सकते हैं, किसी की बीमारी में क्या करना चाहिये यह सिखा सकते हैं, घर में यदि छोटे बच्चें हैं तो उनका संगोपन कैसे करना, उनमें अच्छी आदतें कैसे डालना, इसके अतिरिक्त उन्हें लोक, सुभाषित, प्रातःस्मरण, बालगीत आदि सब भी सीखा सकते हैं, घर के कुलाचार, व्रतों, उत्सवों को कैसे और क्‍यों मनाना चाहिये यह सीखा सकते हैं | सब से महत्त्वपूर्ण सीख तो यह दे सकते हैं कि किसी भी परिस्थिति में अपना थैर्य बनाये रखें, उन्हें सामाजिकता तथा राष्ट्रीयता की भावना समझा सकते हैं | ये सब बातें घर में बहू बेटियों को या पास पड़ौस में, उनके पूछने पर अथवा उनका भला चाहते हुए कोई अपनी बात मानेगा इसकी अपेक्षा न रखते हुए, सिखा सकते हैं। इसमें कई बातें अपने व्यवहार से तथा कुछ बातें वार्तालाप के माध्यम से सिखा सकते हैं ।
 +
# सीखने सिखाने में मुख्य अवरोध अपने स्वयं के मन का ही होता है| बुद्धि तो बराबर आदेश देती है पर मन मानता नहीं हैं। अन्यों को सिखाने में कई बार सामने वाले की अनिच्छा होती है। उन्हें हमारी बातों पर कभी कभी विश्वास नहीं होता ऐसा भी हो सकता है । वृद्धावस्था के कारण कई बातें हम तत्काल स्वयं के आचरण या व्यवहार से नहीं सिखा सकते हैं ।
 +
# वृद्धावस्था के लिये प्रौढावस्था के प्रारंभ से ही स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये | मन:संयम और स्वाद संयम के साथ साथ अलिप्त होने का अभ्यास करते रहना चाहिये | घर गृहस्थी से निवृत्त हो कर अपनी रुचि एवं क्षमता के अनुसार कोई कार्य करते रहना चाहिये | सामाजिक कार्य में सहभागी हो कर अपने परिचितों का दायरा बढ़ाना चाहिये ।
 +
# आनंदी, चिंतामुक्त और अलिप्त मन तथा वृद्धावस्थामें भी हताश अथवा निराश नहीं होना ये उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण हैं
   −
वैसा ही उत्तर - हम सब कभी तो वृद्ध बनने वाले है ऐसी
+
== वृद्धावस्था : आत्मचेतना पाथेय ==
 +
वृद्धत्व जीवन की परिपक्क अवस्था है<ref>डॉ. घनानन्द शर्मा जदली , ८१ वर्ष, सेवानिवृत्त प्राध्यापक, ज्योतिषाचार्य, अहमदाबाद</ref>। तन वृद्ध हो जाता है। मन, बुद्धि, हृदय, चित्त और अन्तःकरण में परिपक्कता के कारण पारदर्शिता बढ़ती जाती है। अतः वृद्धावस्था पारदर्शिता सम्पादनार्थ वरदान है । जीवन में सहजरूप से जिस कार्यक्रम में गहन अनुभव प्राप्त किये हैं वे ही शिक्षाप्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं । ज्ञान और बोध की प्रक्रिया एक साथ चलती रहती है। नित्य के आचरण से हमें बोध और ज्ञान की अनुभूति सहज रूप से होती रहती है । धर्म निर्दिष्ट शुद्ध अन्न सेवन से प्राणचेतना प्राणवान रहती है जिससे इन्द्रियवोध यथार्थपरक रहता है।
   −
मन की तैयारी होगी तो वृद्धावस्था भी सुखकर हो सकती
+
शब्द, स्पर्श, रूप, गंध एवं रस - इन्द्रिय बोध के तथ्यमूलक यथार्थपरक भावस्रोत हैं । वृद्धावस्था में कर्मेन्द्रियों की सीमाएं सीमित होती जाती हैं | प्राणतत्त्व, जीव (चेतना) तत्त्व तथा आत्मतत्त्व विशेष मुखर होते जाते हैं। चित्त में शिवभाव और ज्ञानेन्द्रियों में शक्तिभाव चेतना "मम जीव इह स्थित:" तथा मम सर्वेन्द्रियाणि वाडमनु चक्षु: श्रोत्र जिह्वा घ्राण पाणि पाद पायूपस्थानि नित्य संकल्प करने से 'अमोघ शक्ति प्राप्त होती है । इसी से मन उन्मेषक, परिप्कृत और यथार्थ उन्मुख होता है और उसकी निश्चयात्मकता स्वत: दृढ़ होती जाती है ।
   −
है ।
+
वृद्धावस्था में अन्तिम सांस तक स्वाश्रयीजीवन और दायित्ववोध चेतना आवश्यक है। गंगा की तरह नित्य प्रवहमान और बदलते युग परिवेश में अपनी पहचान संस्कृतिमूलकता के साथ बनी रहे यह आवश्यक है | किसी पर भी हम उपदेश का बोझ न लादें मात्र विशुद्ध आचरण की सुवास पुष्प की तरह बिखेरते रहें | सार्वजनिक जीवन में कार्यरत रहने से आचरण के साबुन से युग का मैल स्वतः धुलता जाएगा । हाँ, भौतिकता की अपेक्षा आन्तरिक समृद्धि के जीवनदीप का टिमटिमाता रहना अपेक्षित है । फलत: हम कहीं भी बोझ नहीं बनेंगे । वरन्‌ सबका बोझ हलका करेने में अपना यथाशक्ति योगदान देते रहेंगे । आवत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह अर्थात्‌ प्रसन्नतापूर्ण एवं स्नेहपूर्ण आचरण करेंगे तो वृद्धावस्था आनंदपूर्ण रहेगी। कटुता मन-कर्म-वचन से रचनात्मक रूप धारण कर लेगी |
   −
वृद्धावस्था में शरीर की कार्यशक्ति स्वाभाविक रूप से
+
वृद्धावस्था सर्वाधिक लोकोपयोगी हो सकती है। रचनात्मकता के संस्कारों से संस्कारित वृद्धावस्था संस्कृति का रूप धारण कर लेती है। 'सुमति कुमति सबके उर बसहीं - वृद्धावस्था आत्मसात कर चुकी होती है। अतः सदा सुमति एवं परहित सेवी धर्म का निर्वाह - हमारा कर्तव्य है । ऐसी वृद्धावस्था लोकमानस में, सदा श्रद्धापात्र रही है । आज भी मांगलिक अवसरों पर वृद्धों का आशीर्वाद प्राप्त करने की परंपरा समाज में विद्यमान है। इस सन्दर्भ में वृद्धावस्था समाज की धरोहर है। सुभाषित सप्तशती की भूमिका में उसके संपादक श्री मंगलदेव शास्त्री के सम्बन्ध में काका कालेलकर लिखते हैं, उम्र में वृद्ध होते हुए भी शरीर से आपादमस्तक तरुण दीख पड़ते हैं। वेदों का गहन अध्ययन करते हुए भी उनमें जड़ता नहीं आई हैं । वृद्धावस्था को सुवासमय रखने हेतु सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सेवाकीय, साहित्यिक, चिन्तनपरक संस्थाओं की गतिविधियों में अपनी तन-मन-धन की शक्तियों का विनियोग दायित्वबोध के साथ करना श्रेष्ठ धर्म है । अधर्म, अन्याय, अनीति एवं मानवताविरोधी प्रवृत्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना और रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करना वृद्धावस्था का इृष्टध्येय बना रहना चाहिये । वृद्धावस्था को सम्माननीय स्थान देने हेतु जीवन में सतत अध्ययन, चिन्तन, मनन करते हुए स्व-क्षमतानुसार सार्वजनिक सेवा कार्यों में यथाशक्ति योगदान देते हुए जीवनमूल्यों के संवर्धन में समर्पित रहें ।
   −
कम होती है। दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है अत: संयम,
+
कायरता, स्वार्थपरता, दैववादिता, मृत्यु भीरूता मिथ्या वैराग्य आदि स्त्रैणता में ढकेलते हैं । पुरुषार्थ को क्षीण करते हैं। सदा आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, चरित्रउत्कर्ष, मानवता का सम्मान, श्रद्धाभाव, कर्तव्यपरायणता, श्रम और तपस्या द्वारा उत्कर्ष उन्मुख रहने से उदात्तभाव स्वतः आते जाते हैं। ये भारतीय संस्कृति के ये बीजतत्त्व हैं। इन्हीं के द्वारा उत्कर्ष और कल्याण का विस्तार होता है । वृद्धावस्था का गन्तव्य है : वसुधैव कुटुम्बकम्‌ । जहाँ प्रकृति भिन्नता, परिवेश-भिन्नता, अवस्था-भिन्नता, जाति, धर्म, वर्ण, प्रदेश, भाषा आदि की भिन्नताएँ मानवता के समुद्र में संस्कृति की गंगा में समा जाती है | फलत: कुंठित मानसिकता के अवरोधों से ऊपर उठने का राजमार्ग है 'सेवाधर्म को आत्मसात करना । इस सन्दर्भ में श्री रामकृष्ण परमहंस को एक व्यक्ति ने अपना अभिप्राय दिया, हमें समाज को सुधारना होगा । परमहंस ने तुरन्त कहा, सुधारना हमारा काम नहीं । हमारा धर्म है - सेवा करना | सेवा धर्मपालन से हृदय पावन, आत्मा प्रफुल्लित और मन निष्कलुष होने से परमात्मा की निकटता बढ़ती है। आचरणमूलक सेवाधर्म प्रेरक होता है। श्री परमहंसजी का एक दूसरा प्रसंग अनुकरणीय है | एक व्यक्ति ने परमहंसजी को पूछा, साधुपुरुष के लक्षण क्या हैं ?' परमहंसजीने कहा, तुम्हीं बता दो । उसने कहा, 'जो मिला खा लिया, न मिला तो सह लिया । श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा, ये लक्षण तो कुत्ते के हैं। साधुपुरुष का लक्षण है बाँटकर खाना, न बचे तो सन्‍तोष मानना । यही आत्मचेतना जीवन का पाथेय है ।
   −
सहनशीलता, समायोजन की आदत - स्वभाव में
+
६. वृद्धावस्था सम्बन्धी विचार
   −
प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन लाना है - स्वयं ही स्वयं का
+
१. वृद्धावस्था में स्वस्थ, व्यस्त और मस्त रहना
   −
मार्गदर्शक बनना चाहिये। समवयस्कों के साथ खुली
+
सीखना चाहिए । यह शिक्षा वृद्धों को समाज के श्रेष्ठजनों के
   −
बातचीत होने से मन हलका होगा इसलिए ऐसे स्वाभाविक
+
अनुसरण और श्रीमद्‌ भगवद्गीता योगदर्शनः जैसे
   −
मिलन केंद्र निर्माण करना है। औपचारिक सलाह केंद्रों से
+
आध्यात्मिक ग्रंथों के गहन अनुशीलन से प्राप्त होती हैं ।
   −
भी वह अधिक परिणामकारक होगा ।
+
२. वृद्धावस्था में ज्ञान-विज्ञान, अव्यभिचारिणी बुद्धि,
   −
२. वृद्धावस्था में अपना जीवन अनुभव समृद्ध होता
+
भक्ति भावना और स्वधर्म का पालन करना, अपने
   −
है | उसका लाभ युवा पीढ़ी को दे सकते हैं | सहज रूप से
+
आत्मजनों को अभ्यास और वैराग्य द्वारा सिखा सकते हैं
   −
- ना की मार्गदर्शक की भूमिका से। कहाँ से दरार हो
+
३. वृद्धावस्था को सीखने और सिखाने में मुख्य
   −
सकती है यह मालूम होने हेतु आपसी संवाद - सहसंवेदना
+
अवरोध आते हैं, राजसी और तामसी वृत्ति ।
   −
निर्माण करना आवश्यक है। आदेशकर्ता की भूमिका
+
४. प्रौढ़ावस्था में हमें वानप्रस्थ धर्म का दृढतापूर्वक
   −
स्वीकार्य नहीं होगी ।
+
पालन करना, चित्तवृत्ति निरोध की दक्षता और स्वधर्मपालन
   −
३. वृद्धावस्था में जीवन विषयक धारणाएँ पक्की होती
+
का सफल अभ्यास करना चाहिए, सुखद वृद्धावस्था के
   −
हैं - वे बदलने की मन की भी तैयारी नहीं होती है। बदल
+
लिए ।
   −
स्वीकारना भी कठिन हो जाता है कारण वह स्थायी भाव
+
५. उत्तम वृद्धावस्था के लक्षण
   −
बनता है ।
+
१. सदा दिवाली संत की बारहमास बसन्‍्त |
   −
. वृद्धावस्था में क्या क्या समस्याएँ निर्माण हो
+
. रामझरोखा बैठकर, सबका मुजरा ले ।
   −
सकती है यह तो अभी तक के जीवन में किये हुए निरीक्षण
+
ना काहसे दोस्ती, ना काहसे बैर ।।
   −
से पता चलता है। अन्य वृद्धों का सुखी-दुःखी जीवन
+
३. सुखी व्यक्ति से मैत्री रखना, दुःखी के प्रति
   −
देखकर उससे हमने मन की तैयारी करना चाहिये । नैसर्गिक
+
करुणा, पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता और पापी
   −
रूप से होनेवाला शरीरक्षरण तो हम रोक नहीं सकते अतः
+
के प्रति उपेक्षा भाव रखना ।
   −
प्रारंभ से ही स्नेह, सहयोग, संवाद के संस्कार प्रयत्नपूर्वक
+
रामकृष्ण पौराणिक, ८३ वर्ष, सेवानिवृत्त शिक्षक, उज्जैन
   −
होने चाहिये | परंतु हम वृद्ध होनेवाले है, हो गये हैं यह स्वीकार करने की अपने ही मन की
+
७. मुमुक्षु-वद्धावस्था
   −
तैयारी नहीं होती है | समायोजन में गड़बड़ हो जाती है ।
+
भारतीय संस्कृति में ऊमर में छोटे लोग अपने से बड़ों
   −
५. प्रारंभ से ही लिखना, पढ़ना और आधुनिक
+
को प्रणाम करते हैं, उस समय बड़े लोग उनको आशीर्वाद
   −
तंत्रज्ञान के सहारे अपना समय नियोजन करने से अपने
+
देते हैं। उसमें सर्वप्रथम 'आयुप्यमान भव यह आशीर्वाद
   −
अनुभवों को बाँटने की या स्वीकारने की मानसिकता बन
+
देकर बादमें गुणवान भव, धनवान भव, कीर्तिवान भव ऐसे
   −
सकती है। और जो देगा उसका भला, नहीं देगा उसका
+
आशीर्वाद देते हैं। व्यक्ति को पुरुषार्थ करने के लिये जीवन
   −
भी भला यह धारणा बनती है तो भी उपयुक्त होगी |
+
की आवश्यकता होती है। इसलिये आयुप्यमान भव इस
   −
आजकल कई संस्थाओं में सहायता की आवश्यकता
+
आशीर्वाद का सबसे अधिक महत्त्व है। संस्कृति
   −
होती है। अपने अनुभवों का लाभ परिवार के साथ ऐसी
+
धारणेनुसार आयुर्भवति पुरुष: ऐसा कहा गया है। जीवन
   −
संस्थाओं को भी मिल सकता है। समायोजन अधिकतम,
+
सौ साल का मानकर पच्चीस साल का एक, ऐसे चार
   −
संघर्ष न्यूनतम यह स्वीकार कर वृद्धावस्था अपने स्वयं के
+
आश्रम माने गये हैं । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यस्त
 
  −
लिए और दूसरों को भी सुसहा बना सकते हैं ।
  −
 
  −
प्रेमिलताई, पूर्व प्रमुख संचालिका
  −
 
  −
राष्ट्र सेविका समिति, नागपुर
  −
 
  −
४. आनंदी चिन्तामुक्त वृद्धावस्था
  −
 
  −
१. वृद्धावस्था में सर्व प्रथम तो स्वस्थ्य बनाये रखना
  −
 
  −
और दुनियादारी से मुक्त कैसे रहना यह सीखना होता है।
  −
 
  −
जो बातें अपने बस में नहीं हैं उनके लिये चिंता नहीं करना,
  −
 
  −
स्वादसंयम रखना, जो बीत गया है उसके बारे में नहीं
  −
 
  −
सोचना, हमेशां खुश रहना और बिन मांगे सलाह न देना
  −
 
  −
इत्यादि बातें सीखनी होती हैं | यह शिक्षा अपने और अन्यों
  −
 
  −
के अनुभव से, कुछ कथायें पढने से, श्रवणभक्ति करने से
  −
 
  −
सीखी जाती हैं ।
  −
 
  −
२. बहुत सी बातें सिखा सकते हैं जैसे कि घर में
  −
 
  −
कोई नया पदार्थ बनाना हो तो सिखा सकते हैं, किसी की
  −
 
  −
बीमारी में क्या करना चाहिये यह सिखा सकते हैं, घर में
  −
 
  −
यदि छोटे बच्चें हैं तो उनका संगोपन कैसे करना, उनमें
  −
 
  −
अच्छी आदतें कैसे डालना, इसके अतिरिक्त उन्हें “लोक,
  −
 
  −
सुभाषित, प्रातःस्मरण, बालगीत आदि सब भी सीखा सकते
  −
 
  −
हैं, घर के कुलाचार, ब्रतों और उत्सवों को कैसे और क्‍यों
  −
 
  −
मनाना चाहिये यह सीखा सकते हैं | सब से महत्त्वपूर्ण सीख
  −
 
  −
तो यह दे सकते हैं कि किसी भी परिस्थिति में अपना थैर्य
  −
 
  −
बनाये रखें, उन्हें सामाजिकता तथा राष्ट्रीवा की भावना
  −
 
  −
समझा सकते हैं | ये सब बातें घर में बहू बेटियों को या
  −
 
  −
पास पड़ौस में, उनके पूछने पर अथवा उनका भला चाहते
  −
 
  −
हुए कोई अपनी बात मानेगा इसकी अपेक्षा न रखते हुए,
  −
 
  −
सिखा सकते हैं। इसमें कई बातें अपने व्यवहार से तथा
  −
 
  −
कुछ बातें वार्तालाप के माध्यम से सिखा सकते हैं ।
  −
 
  −
३. सिखने सिखाने में मुछथ अवरोध अपने स्वयं के
  −
 
  −
मन का ही होता है| बुद्धि तो बराबर आदेश देती है पर
  −
 
  −
मन मानता नहीं हैं। अन्यों को सिखाने में कई बार सामने
  −
 
  −
वाले की अनिच्छा होती है। उन्हें हमारी बातों पर कभी
  −
 
  −
कभी विश्वास नहीं होता ऐसा भी हो सकता है । वृद्धावस्था
  −
 
  −
के कारण कई बातें हम तत्काल स्वयं के आचरण या
  −
 
  −
व्यवहार से नहीं सिखा सकते हैं
  −
 
  −
४. वृद्धावस्था के लिये प्रौढावस्था के प्रारंभ से ही
  −
 
  −
स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये | मन:संयम और
  −
 
  −
स्वाद संयम के साथ साथ अलिप्त होने का अभ्यास करते
  −
 
  −
रहना चाहिये | घर गृहस्थी से निवृत्त हो कर अपनी रुचि
      
''व्यक्तिविशेष में आसक्ति कम करने का संयमी, शान्त आनंदी, प्रसन्न, अनासक्त होना सबके''
 
''व्यक्तिविशेष में आसक्ति कम करने का संयमी, शान्त आनंदी, प्रसन्न, अनासक्त होना सबके''

Navigation menu