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==== व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है । ====
 
==== व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है । ====
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक
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एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक ओर तो नयी पीढ़ी अर्थार्जन की दृष्टि से सुरक्षित और निश्चित होती है, दूसरी ओर व्यवसाय को भी नष्ट होने का भय नहीं रहता। व्यवसाय में आत्मीयता के भाव से जुडने और कुशल लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं पहुँचती । आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट दिखाई दे रहे हैं । एक वैज्ञानिक को अपनी प्रयोगशाला, एक डॉक्टर को अपना अस्पताल, एक अध्यापक को अपना पुस्तकालय सम्हालने वाला और अपनी विज्ञान, स्वास्थ्यरक्षा और ज्ञान की परम्परा को आगे ले लाने वाला कोई नहीं मिलता । परम्परा खण्डित हो जाती है । दूसरी ओर नये वैज्ञानिक या अध्यापक या डाक्टर को विरासत में कुछ नहीं मिलता । उसे नये सिरे से संसाधन भी जुटाने पड़ते हैं और अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है । व्यक्ति, व्यवसाय और समाज तीनों को हानि उठानी पड़ती है ।
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==== व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है ====
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व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है और उत्पादन की गुणवत्ता भी बढ़ती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को जन्मजात संस्कार के रूप में व्यवसाय की कुशलता प्राप्त होती है । बचपन से ही वह उस वातावरण में रहता है । श्रवनेंद्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय आदि के माध्यम से वह व्यवसायगत संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता रहता है । व्यवसाय विषयक बातें सुनता है और समझता है । व्यवसाय से जुड़े खेल खेलता है। आयु बढ़ने के साथ व्यवसाय में सहयोगी होने लगता है और बिना आयास और बिना खर्च के व्यवसाय सीखा जाता है । यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि व्यवसाय के वंशानुगत होने से करने वाले की कुशलता और उत्पादन की गुणवत्ता बढती है ।
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होती है, दूसरी ओर व्यवसाय को भी नष्ट होने का भय नहीं
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व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाजव्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी साहजिक रूप से निर्माण होती है। प्रत्येक परिवार के योगक्षेम की एवं व्यवसाय की सुरक्षा, निश्चितता और निश्चिन्तता होती है । अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने का यह व्यावहारिक उपाय है । वंशानुगत जो भी व्यवसाय मिला है उसे सामान्य रूप से कोई छोड़ता नहीं है । छोड़ने की आवश्यकता भी नहीं है । भारत की समाज व्यवस्था में यह नियम भी बनाया गया था कि कोई बिना किसी उचित कारण से अपना व्यवसाय बदल नहीं सकता था । अन्यों के व्यवसाय की सुरक्षा उत्पादन व्यवस्था की निश्चितता, उत्पादन की गुणवत्ता आदि कई कारण होते हैं जिससे व्यवसाय बदलना हितकारक नहीं होता है ।
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# समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी निश्चितता एवं निश्चिन्तता बनी रहती है ।
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# व्यवसायगत. कौशल,  उत्कृष्टता,  सृजनशीलता, व्यवसायनिष्ठा, व्यवसायगौरव आदि बहुमूल्य तत्त्वों की सुरक्षा बनी रहती है । कोई अपना व्यवसाय छोड़ता नहीं है इसलिये समाज को अभाव का अनुभव नहीं करना पड़ता है ।
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# व्यवसायनिष्ठा के साथ साथ व्यवसाय के माध्यम से जो सामाजिक दायित्व प्राप्त हुआ है उसका बोध बना रहता है । व्यवसाय से यद्यपि अर्थार्जन होता है तथापि वह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना रहता है । वह बना रहे ऐसी व्यवस्था भी की जाती है । भारत में समाज को एक जीवमान इकाई मानकर समाजपुरुष की कल्पना की गई है । परिवारों के व्यवसायों पर इस समाजपुरुष का अधिकार रहता है । इस समाजपुरुष की सेवा हेतु व्यवसाय किया जाता है ।
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वास्तव में ये सब संस्कृति के सूचकांक (index of culture) हैं । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में इसे व्यक्ति के अपना व्यवसाय चुनने के स्वातंत्रय पर आघात माना जाता है । परन्तु यह स्वतंत्रता की हानि नहीं है, यह व्यवस्था द्वारा नियमन है। उल्टे व्यक्ति को व्यवसाय चुनने और छोड़ने की “स्वतंत्रता” देने से आर्थिक अनिश्चितता, अव्यवस्था और दायित्वबोध के संकट निर्माण हो जाते हैं ।
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रहता । व्यवसाय में आत्मीयता के भाव से जुडने और कुशल
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=== कुछ बातों का क्रयविक्रय के दायरे से बाहर होना ===
 
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विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्णपरिचर्या, शिशुसंगोपन, पूजा, धार्मिक अनुष्ठान आदि को क्रयविक्रय के दायरे से बाहर रखना चाहिये । ये सभी काम सेवा के हैं । इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है । ये मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के सूचकांक हैं । ये आदरपात्र और पवित्र कार्य हैं । इनको भौतिक स्तर तक नीचे उतार देने से समाज और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं मानना चाहिये और अर्थार्जन के साथ नहीं जोडना चाहिये । अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है । सेवा, अध्यापन, परिचर्या, प्रेम आदि अभौतिक तत्त्व हैं । पवित्रता, पुण्य आदि संकल्पनायें भी अभौतिक हैं । अन्न, जल आदि प्राकृतिक संसाधन हैं। तैयार किये गये भोजन को पवित्र माना गया है । इन सब को भौतिक संसाधनों के समकक्ष मानना अस्वाभाविक है । अर्थव्यवस्था में वस्तु-वस्तु अथवा वस्तु-श्रम के विनिमय की प्रथा थी तब भी ज्ञान, सेवा आदि को विनिमय के अन्तर्गत नहीं माना जाता था । आज अब नकद सिक्कों के माध्यम से लेन देन होता है तब सब कुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है । Everything is converted and computed into money. भौतिक के साथ साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है । प्रेम, सेवा, ज्ञान, संगोपन आदि को यांत्रिक पद्धति से सिक्कों में परिवर्तित करना अस्वाभाविक, अव्यावहारिक और अमनोवैज्ञानिक है । आज असंभव लगने वाली यह व्यवस्था दीर्घकाल तक भारत में व्यवहार में थी अतः इस चर्चा को काल्पनिक नहीं मानना चाहिये ।  
लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं
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पहुँचती ।
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आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट
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दिखाई दे रहे हैं । एक वैज्ञानिक को अपनी प्रयोगशाला, एक
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डॉक्टर को अपना अस्पताल, एक अध्यापक को अपना
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पुस्तकालय सम्हालने वाला और अपनी विज्ञान, स्वास्थ्यरक्षा
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और ज्ञान की परम्परा को आगे ले लाने वाला कोई नहीं
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मिलता । परम्परा खण्डित हो जाती है । दूसरी ओर नये
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वैज्ञानिक या अध्यापक या डाक्टर को विरासत में कुछ नहीं
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मिलता । उसे नये सिरे से संसाधन भी जुटाने पड़ते हैं और
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अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है । व्यक्ति, व्यवसाय और
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समाज तीनों को हानि उठानी पड़ती है ।
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(१) व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक
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कुशलता बढती है और उत्पादन की गुणवत्ता भी
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बढ़ती है ।
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परिवार में जन्म लेने वाले बालक को जन्मजात
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संस्कार के रूप में व्यवसाय की कुशलता प्राप्त होती है ।
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बचपन से ही वह उस वातावरण में रहता है । श्रवणेन्ट्रिय,
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ज्ञानेन्द्रिय, स्पर्शन्ट्रिय आदि के माध्यम से वह व्यवसायगत
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संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता रहता है । व्यवसाय विषयक
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बातें सुनता है और समझता है । व्यवसाय से जुड़े खेल
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Gad है । आयु बढ़ने के साथ व्यवसाय में सहयोगी होने
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लगता है और बिना आयास और बिना खर्च के व्यवसाय
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सीखा जाता है । यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि व्यवसाय
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के वंशानुगत होने से करने वाले की कुशलता और उत्पादन
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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की गुणवत्ता बढती है ।
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(२) व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाजव्यवस्था में
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वर्णव्यवस्था भी साहजिक रूप से निर्माण होती
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है।
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प्रत्येक परिवार के योगक्षेम की एवं व्यवसाय की
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सुरक्षा, निश्चितता और निश्चिन्तता होती है ।
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अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने का यह व्यावहारिक
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उपाय है । वंशानुगत जो भी व्यवसाय मिला है उसे सामान्य
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रूप से कोई छोड़ता नहीं है । छोड़ने की आवश्यकता भी नहीं
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है । भारत की समाज व्यवस्था में यह नियम भी बनाया गया
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था कि कोई बिना किसी उचित कारण से अपना व्यवसाय
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बदल नहीं सकता था । अन्यों के व्यवसाय की सुरक्षा
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उत्पादन व्यवस्था की निश्चितता, उत्पादन की गुणवत्ता आदि
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कई कारण होते हैं जिससे व्यवसाय बदलना हितकारक नहीं
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होता है ।
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२... समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी निश्चितता
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एवं निश्चिन्तता बनी रहती है ।
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3. व्यवसायगत. कौशल,  उत्कृष्टता,  सृजनशीलता,
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व्यवसायनिष्ठा, Sa, व्यवसायगौरब आदि
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बहुमूल्य तत्त्वों की सुरक्षा बनी रहती है ।
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कोई अपना व्यवसाय छोड़ता नहीं है इसलिये समाज
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को अभाव का अनुभव नहीं करना पड़ता है ।
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व्यवसायनिष्ठा के साथ साथ व्यवसाय के माध्यम से
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जो सामाजिक दायित्व प्राप्त हुआ है उसका बोध बना
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रहता है ।
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व्यवसाय से यद्यपि अर्थार्जन होता है तथापि वह समाज
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की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना
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रहता है । वह बना रहे ऐसी व्यवस्था भी की जाती है । भारत
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में समाज को एक जीवमान इकाई मानकर समाजपुरुष की
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कल्पना की गई है । परिवारों के व्यवसायों पर इस समाजपुरुष
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का अधिकार रहता है । इस समाजपुरुष की सेवा हेतु
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व्यवसाय किया जाता है ।
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वास्तव में ये सब संस्कृति के सूचकांक (01069 01 0७1-
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(धा€) हैं । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में इसे व्यक्ति के अपना
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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व्यवसाय चुनने के स्वातंत्रय पर आघात माना जाता है । परन्तु
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यह स्वतंत्रता की हानि नहीं है, यह व्यवस्था द्वारा नियमन
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है। उल्टे व्यक्ति को व्यवसाय चुनने और छोड़ने की
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“स्वतंत्रता” देने से आर्थिक अनिश्चितता, अव्यवस्था और
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दायित्वबोध के संकट निर्माण हो जाते हैं ।
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५... कुछ बातों का क्रयविक्रय के दायरे से बाहर होना
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विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्णपरिचर्या,
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शिशुसंगोपन, पूजा, धार्मिक अनुष्ठान आदि को क्रयविक्रय के
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दायरे से बाहर रखना चाहिये । ये सभी काम सेवा के हैं ।
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इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है । ये मनुष्य के
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सांस्कृतिक विकास के सूचकांक हैं । ये आदरपात्र और पवित्र
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कार्य हैं । इनको भौतिक स्तर तक नीचे उतार देने से समाज
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और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं
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मानना चाहिये और अर्थार्जन के साथ नहीं जोडना चाहिये ।
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अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है ।
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सेवा, अध्यापन, परिचर्या, प्रेम आदि अभौतिक तत्त्व हैं ।
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पवित्रता, पुण्य आदि संकल्पनायें भी अभौतिक हैं । अन्न,
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जल आदि प्राकृतिक संसाधन हैं। तैयार किये
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गये भोजन को पवित्र माना गया है । इन सब को भौतिक
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संसाधनों के समकक्ष मानना अस्वाभाविक है । अर्थव्यवस्था
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में वस्तु-वस्तु अथवा वस्तु-श्रम के विनिमय की प्रथा थी
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तब भी ज्ञान, सेवा आदि को विनिमय के अन्तर्गत नहीं माना
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जाता था । आज अब नकद सिक्कों के माध्यम से लेन देन
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होता है तब सब कुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है । £५४-
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erything is converted and computed into money.
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भौतिक के साथ साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है । प्रेम,
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सेवा, ज्ञान, संगोपन आदि को यांत्रिक पद्धति से सिक्कों में
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परिवर्तित करना अस्वाभाविक, अव्यावहारिक. और
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आअमनोवैज्ञानिक है ।
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आज असंभव लगने वाली यह व्यवस्था दीर्घकाल तक
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भारत में व्यवहार में थी अतः इस चर्चा को काल्पनिक नहीं
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मानना चाहिये ।
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उत्पादन और वितरण एवं विकेन्ट्रीकरण
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=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
 
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन
 
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन
  

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