Changes

Jump to navigation Jump to search
लेख सम्पादित किया
Line 38: Line 38:  
भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है । इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है । यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
 
भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है । इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है । यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु  
+
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है।  
* है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशासत्र, धर्मशाख्तर  और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है। * समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर बसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर बसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है | एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।  * भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं । * भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है। * व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था ।  * धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है । *» वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था भारतीय  समाज के मूल तत्त्व हैं। इन सबके दायित्व बहुत विस्तार से धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। ऋषिक्रण,  पितृक्रण और देवक्रण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्पपा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन क्रणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुप्ययज्ञ ।  मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व  बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है
+
* समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है | एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का।
 +
* भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं।  
 +
* भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।  
 +
* व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था।
 +
* धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है।  
 +
* ऋषिऋणपितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है, इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुप्ययज्ञ ।  मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व  बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम जानते ही नहीं है कि हमने क्या क्‍या गंवा दिया है। जो शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है। बदनामी का मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुनः पाश्चात्य आधुनिक विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है।
 
*  
 
*  
* ''है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थार्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है ।''
+
== अर्थशास्त्र ==
* ''समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है। शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है । दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं । एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है । एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है । एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है । शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।''
  −
* ''भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है । स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है । हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं ।''
  −
* ''भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है । त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता,  कृतज्ञता आदि प्रतिष्ठित किए जाते हैं परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है । दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।''
  −
* ''व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था ।''
  −
* ''धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी यह उसका सीधासादा कारण है ।''
  −
*  ''ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है । इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है । ये पाँच महायज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ । मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है । मनुष्य के जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है ।''
  −
''इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि  । पाप और पुण्य की संकल्पना ... यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है''
  −
 
  −
''और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम. मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुन: पाश्चात्य''
  −
 
  −
''जानते ही नहीं है कि हमने कया क्या गंवा दिया है। जो... “आधुनिक' विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से''
  −
 
  −
''शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत ... अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी''
  −
 
  −
''हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है । बदनामी का... होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है ।''
  −
 
  −
== ''अर्थशास्त्र'' ==
   
''वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे''
 
''वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे''
  

Navigation menu