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प्रस्तावना
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== प्रस्तावना ==
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भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है | यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।
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भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
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ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे  रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे
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''.. तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है । अत:''
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== विषयों का वरीयता क्रम ==
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वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए | यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:
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# परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे | ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।
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# सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
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# समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
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# व्यष्टि से संबन्धित विषय । इनमें योग, शारीरिक शिक्षा, आहारशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित, संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का समावेश होगा ।
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व्यापकता के आधार पर हम विषयों की वरीयता निश्चित कर सकते हैं। वरीयता में जो विषय जितना ऊपर होता है उतना ही छोटी आयु से पढ़ाना चाहिए । पढ़ाते समय भी विषयों का परस्पर संबंध ध्यान में रखकर पढ़ाना चाहिए। इतनी प्रस्तावना के बाद हम कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप कैसा होता है इसका विचार करेंगे
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''वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह... सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो''
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== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
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ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा | उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।
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''धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में... जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और''
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उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।
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''उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों शेष वैसे के वैसे रहने देना फलदायी नहीं होता उनका''
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स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।  
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''में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में... तालमेल ही नहीं बैठता ।''
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इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
 
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''औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की''
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''होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है । यदि... बात करेंगे ।''
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''वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो''
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''भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है । विषयों का वरीयता क्रम''
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''ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के''
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''विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए । यह''
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''सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है । क्रम कुछ ऐसा बनेगा ...''
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''शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञानघारा विषय, विषयों & १...''
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# ''परमेष्टि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे । ये'' ''पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप विषय हैं अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और'' ''Ra wearers के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, संस्कृति ।'' ''अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक.''
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#  ''२... सृष्टि से संबन्धित विषय ये हैं। भौतिक विज्ञान (इसमें _ रसायन, खगोल, भूगोल, शिक्षा, आहारशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का समावेश यों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान होगा ।''
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''3. समष्टि से संबन्धित विषय । यह क्षेत्र सबसे व्यापक व्यापकता के आधार पर हम विषयों की वरीयता''
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''रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशाख्र, निश्चित कर सकते हैं । वरीयता में जो विषय जितना ऊपर''
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''राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशाख्र (जिसमें... होता है उतना ही छोटी आयु से पढ़ाना चाहिए । पढ़ाते''
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''सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का... समय भी विषयों का परस्पर संबंध ध्यान में रखकर पढ़ाना''
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''समावेश है), गृहशास्त्र आदि का समावेश हो । इनके .... चाहिए।''
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''विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं । इतनी प्रस्तावना के बाद हम कुछ विषयों का''
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''x. व्यष्टि से संबन्धित विषय । इनमें योग, शारीरिक... सांस्कृतिक स्वरूप कैसा होता है इसका विचार करेंगे ।''
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== ''अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान'' ==
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''ये सब आधारभूत विषय हैं । गर्भावस्‍था से लेकर. से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए ।''
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''बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय इन विषयों को वर्तमान में अँग्रेजी संज्ञाओं के''
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''अनुस्यूत रहते हैं । इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को''
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''का अधिष्ठान ये विषय बनें ऐसा कथन करना चाहिए ।... स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा''
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''तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में. एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता''
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''ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा।... है। पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने''
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''उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो... की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो''
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''या तंत्रज्ञान, अर्थशास्त्र हो या राजशास्त्र, इतिहास हो या... स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत,''
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''संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के... पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव,''
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''अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का... अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं । वे समग्र''
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''खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा।. के अंश हैं समग्र नहीं । अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के''
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''उदाहरण के लिए उत्पादनशास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने. बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना''
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''चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना... चाहिए ।''
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''चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्या इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशाख्र ।''
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''कहते हैं यह पहले देखा जाएगा यदि उनकी सम्मति है तो... आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है ।''
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''करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहारशाख्र हेतु इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है ।''
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''धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का... इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय''
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''विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या... जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्व की संकल्पना एकदूसरे में''
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''विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है... ओतप्रोत हैं । आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है । अनुभूति''
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''यह विचार में लेना चाहिए । भी आत्मतत्त्तस के समान खास भारतीय विषय है । इस''
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''स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है ।.... अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं''
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''चिंतन के स्तर पर अध्यात्मशाख्र, व्यवस्था के स्तर पर... पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके''
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''धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था... चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के''
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है । कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर
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सके हैं । हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
      
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
 
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
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* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु  
 
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु  
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* है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण  विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में  संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशासत्र, धर्मशाख्तर  और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन  गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य  व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का  ही अंग है।  * समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली  व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण  और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और  राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है।  दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक  कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती  है। एक कर बसूलने के नियम बनाती है, दूसरी  प्रत्यक्ष में कर बसूलती है। एक का काम निर्णय  करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना  है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है | एक उपदेश  करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र  धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।  * भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है।  स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह  सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से,  स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी  समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के  नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से  छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं ।  * भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे  महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग,  तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के  माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान,  परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि  समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में  प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ  में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही  उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे  लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही  करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता  है।  * व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है।  आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा  सहायक की भूमिका में रहता था ।  * धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है ।  *» वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था भारतीय  समाज के मूल तत्त्व हैं। इन सबके दायित्व बहुत  विस्तार से धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। ऋषिक्रण,  पितृक्रण और देवक्रण के माध्यम से वंशपरम्परा और  ज्ञानपरम्पपा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का  सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है  इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया  गया है। इन क्रणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों  का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं  ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुप्ययज्ञ ।  मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है ।  इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व  बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि  यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है
 
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* ''है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थार्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है ।''  
 
* ''है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थार्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है ।''  

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