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लेख सम्पादित किया
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''सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है । क्रम कुछ ऐसा बनेगा ...''
 
''सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है । क्रम कुछ ऐसा बनेगा ...''
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''शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञानघारा विषय, विषयों & १... परमेष्टि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे । ये''
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''शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञानघारा विषय, विषयों & १...''
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# ''परमेष्टि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे । ये'' ''पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप विषय हैं अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और'' ''Ra wearers के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, संस्कृति ।'' ''अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक.''
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#  ''२... सृष्टि से संबन्धित विषय ये हैं। भौतिक विज्ञान (इसमें _ रसायन, खगोल, भूगोल, शिक्षा, आहारशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का समावेश यों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान होगा ।''
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''3. समष्टि से संबन्धित विषय । यह क्षेत्र सबसे व्यापक व्यापकता के आधार पर हम विषयों की वरीयता''
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''पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप विषय हैं अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और''
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''रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशाख्र, निश्चित कर सकते हैं । वरीयता में जो विषय जितना ऊपर''
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''Ra wearers के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, संस्कृति ।''
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''राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशाख्र (जिसमें... होता है उतना ही छोटी आयु से पढ़ाना चाहिए पढ़ाते''
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''अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक. २... सृष्टि से संबन्धित विषय ये हैं। भौतिक विज्ञान''
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''सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का... समय भी विषयों का परस्पर संबंध ध्यान में रखकर पढ़ाना''
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''BKB''
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''समावेश है), गृहशास्त्र आदि का समावेश हो । इनके .... चाहिए।''
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''विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं । इतनी प्रस्तावना के बाद हम कुछ विषयों का''
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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''x. व्यष्टि से संबन्धित विषय । इनमें योग, शारीरिक... सांस्कृतिक स्वरूप कैसा होता है इसका विचार करेंगे ।''
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(इसमें _ रसायन, खगोल, भूगोल, शिक्षा, आहारशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित,
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== ''अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान'' ==
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''ये सब आधारभूत विषय हैं । गर्भावस्‍था से लेकर. से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए ।''
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जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का समावेश
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''बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय इन विषयों को वर्तमान में अँग्रेजी संज्ञाओं के''
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विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान होगा ।
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''अनुस्यूत रहते हैं । इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को''
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3. समष्टि से संबन्धित विषय । यह क्षेत्र सबसे व्यापक व्यापकता के आधार पर हम विषयों की वरीयता
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''का अधिष्ठान ये विषय बनें ऐसा कथन करना चाहिए ... स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा''
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रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशाख्र, निश्चित कर सकते हैं । वरीयता में जो विषय जितना ऊपर
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''तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में. एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता''
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राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशाख्र (जिसमें... होता है उतना ही छोटी आयु से पढ़ाना चाहिए । पढ़ाते
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''ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा।... है। पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने''
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सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का... समय भी विषयों का परस्पर संबंध ध्यान में रखकर पढ़ाना
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''उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो... की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो''
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समावेश है), गृहशास्त्र आदि का समावेश हो । इनके .... चाहिए।
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''या तंत्रज्ञान, अर्थशास्त्र हो या राजशास्त्र, इतिहास हो या... स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत,''
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विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं । इतनी प्रस्तावना के बाद हम कुछ विषयों का
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''संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के... पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव,''
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x. व्यष्टि से संबन्धित विषय । इनमें योग, शारीरिक... सांस्कृतिक स्वरूप कैसा होता है इसका विचार करेंगे
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''अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का... अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं वे समग्र''
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== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
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''खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा।. के अंश हैं समग्र नहीं अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के''
ये सब आधारभूत विषय हैं । गर्भावस्‍था से लेकर. से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए ।
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बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय इन विषयों को वर्तमान में अँग्रेजी संज्ञाओं के
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''उदाहरण के लिए उत्पादनशास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने. बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना''
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अनुस्यूत रहते हैं इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को
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''चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना... चाहिए ''
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का अधिष्ठान ये विषय बनें ऐसा कथन करना चाहिए ।... स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा
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''चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्या इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशाख्र ''
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तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में. एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता
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''कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो... आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है ।''
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ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा।... है। पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने
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''करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहारशाख्र हेतु इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है ।''
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उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो... की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो
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''धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का... इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय''
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या तंत्रज्ञान, अर्थशास्त्र हो या राजशास्त्र, इतिहास हो या... स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत,
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''विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या... जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्व की संकल्पना एकदूसरे में''
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संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के... पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव,
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''विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है... ओतप्रोत हैं । आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है । अनुभूति''
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अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का... अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं वे समग्र
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''यह विचार में लेना चाहिए । भी आत्मतत्त्तस के समान खास भारतीय विषय है इस''
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खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा।. के अंश हैं समग्र नहीं । अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के
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''स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है ।.... अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं''
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उदाहरण के लिए उत्पादनशास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने. बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना
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''चिंतन के स्तर पर अध्यात्मशाख्र, व्यवस्था के स्तर पर... पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके''
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चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना... चाहिए
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''धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था... चलते हैं अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के''
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चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्या इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशाख्र ।
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''२६०''
 
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कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो... आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है ।
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करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहारशाख्र हेतु इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है ।
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धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का... इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय
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विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या... जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्व की संकल्पना एकदूसरे में
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विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है... ओतप्रोत हैं । आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है । अनुभूति
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यह विचार में लेना चाहिए । भी आत्मतत्त्तस के समान खास भारतीय विषय है । इस
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स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है ।.... अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं
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चिंतन के स्तर पर अध्यात्मशाख्र, व्यवस्था के स्तर पर... पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके
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धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था... चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है । कई बार अँग्रेजी
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प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है । कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर
 
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फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह
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ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो
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सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या
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अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता ।
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अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह
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सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना
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पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण
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मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर
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सके हैं । हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं,
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उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं,
  −
 
  −
परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और
  −
 
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उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास
  −
 
  −
का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि
  −
 
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अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में
  −
 
  −
हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो
  −
 
  −
वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों
  −
 
  −
में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी
  −
 
  −
रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी
  −
 
  −
लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट
  −
 
  −
रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता
  −
 
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है । यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति
  −
 
  −
जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय
  −
 
  −
नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और
  −
 
  −
विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही
  −
 
  −
सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा ।
  −
 
  −
अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है ।
  −
 
  −
उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
  −
 
  −
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा
  −
 
  −
हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ
  −
 
  −
समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक
  −
 
  −
वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः
  −
 
  −
वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को
  −
 
  −
भी न्याय देना चाहिए ।
  −
 
  −
हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और
  −
 
  −
REQ
  −
 
  −
कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं
  −
 
  −
सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें
  −
 
  −
समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में
  −
 
  −
पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर
  −
 
  −
लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
  −
 
  −
आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद
  −
 
  −
इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र
  −
 
  −
पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म,
  −
 
  −
संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में
  −
 
  −
तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में
  −
 
  −
क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या
  −
 
  −
समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण
  −
 
  −
कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन
  −
 
  −
विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस
  −
 
  −
दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आप्रहपूर्वक
  −
 
  −
पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले
  −
 
  −
समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में ये
  −
 
  −
परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के
  −
 
  −
साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ?
     −
इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए वर्तमान में विश्वसंस्कृति,
+
सके हैं । हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
   −
विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है
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इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
   −
? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या
+
आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।
   −
तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए
+
संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज
   −
संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर
+
भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।
 
  −
उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी
  −
 
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पाश्चात्य विद्वान हमारे शाख्रग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं
  −
 
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और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे
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विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी
  −
 
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लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज
  −
 
  −
भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने
  −
 
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की आवश्यकता है ।
  −
 
  −
भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय
  −
 
  −
समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस
  −
 
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बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन
  −
 
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का मूल काम है ।
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== समाजशास्त्र ==
 
== समाजशास्त्र ==
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से
+
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।
 
  −
परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने
  −
 
  −
आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के
  −
 
  −
मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी
  −
 
  −
व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे
  −
 
  −
ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु
  −
 
  −
इस प्रकार होंगे ।
  −
 
  −
समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं
  −
 
  −
बनी है । वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल
  −
 
  −
अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार
  −
 
  −
व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों
  −
 
  −
का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है
  −
 
  −
तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या
  −
 
  −
समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने
  −
 
  −
को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था
  −
 
  −
करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती
  −
 
  −
है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से
  −
 
  −
कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति
  −
 
  −
अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग
  −
 
  −
करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत
  −
 
  −
अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था
  −
 
  −
जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार
  −
 
  −
सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र
  −
 
  −
में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही
  −
 
  −
वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह
  −
 
  −
बात स्वाभाविक मानी गई है । एक ही नहीं सभी मनुष्य
  −
 
  −
इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना
  −
 
  −
जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने
  −
 
  −
की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त
  −
 
  −
बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं
  −
 
  −
है । भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी
  −
 
  −
है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता
  −
 
  −
का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है
  −
 
  −
समाजशास्त्र
  −
 
  −
RGR
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और
  −
 
  −
कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना
  −
 
  −
दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल
  −
 
  −
तत्त्व है । सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है ।
  −
 
  −
इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या
  −
 
  −
समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं ।
  −
 
  −
सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब
  −
 
  −
विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है ।
  −
 
  −
यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने
  −
 
  −
आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के
  −
 
  −
लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत
  −
 
  −
मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता
  −
 
  −
है । इस विषय में एक उक्ति है
  −
 
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पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।
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पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌
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वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज: UI
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शब्दकल्पद्रुम
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अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह
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को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत
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लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है।
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अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये
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प्रथम आवश्यकता है ।
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समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु
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कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के
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विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक
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विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें
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यह अपेक्षित है ।
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०... गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन
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तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन
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तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
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TRIE समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक
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इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक
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@ | एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण
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विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख
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कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में
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संस्कार है, करार नहीं । अध्यात्मशास्त्र, wise
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और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन
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गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य
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व्यवस्थाओं के समान अधर्जिन भी गृहब्यवस्था का
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ही अंग है ।
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समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली
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व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण
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और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।
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शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और
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राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है ।
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दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं । एक
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कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती
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है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी
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प्रत्यक्ष में कर वसूलती है । एक का काम निर्णय
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करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना
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है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है । एक उपदेश
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करती है, दूसरी शासन करती है । शिक्षा का क्षेत्र
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धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।
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भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है ।
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स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह
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सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से,
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स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी
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समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है । हर प्रकार के
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नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से
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छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं ।
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भारतीय. समाजव्यवस्था में clatter aaa
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महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग,
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तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के
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माध्यम से लोकशिक्षा होती है । त्याग, दान,
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परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता,  कृतज्ञता आदि
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परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ
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में ही समझाई जाती है । दूसरों का हित करना ही
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उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे
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लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही
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करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता
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है।
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व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में
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ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती
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है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है।
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आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक
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चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो
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शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा
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सहायक की भूमिका में रहता था ।
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धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये
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है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो
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उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी
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यह उसका सीधासादा कारण है ।
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वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था भारतीय
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समाज के मूल तत्त्व हैं । इन सबके दायित्व बहुत
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विस्तार से धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। ऋषिकऋण,
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PGR और देवकण के माध्यम से वंशपरम्परा और
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ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का
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सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी
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गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है
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इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया
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गया है । इन क्रणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों
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का भी विधान बताया गया है । ये पाँच महायज्ञ हैं
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ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ ।
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मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह
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संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है । मनुष्य के
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जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की
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संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है ।
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इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व
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समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में... बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि
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प्रतिष्ठित किए जाते हैं । पाप और पुण्य की संकल्पना ... यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है
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र्घडे
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समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है । वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है । एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है । इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है । यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
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* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
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* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु
 +
*
 +
* ''है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थार्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है ।''
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* ''समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है। शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है । दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं । एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है । एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है । एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है । शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।''
 +
* ''भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है । स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है । हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं ।''
 +
* ''भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है । त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता,  कृतज्ञता आदि प्रतिष्ठित किए जाते हैं परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है । दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।''
 +
* ''व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था ।''
 +
* ''धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी यह उसका सीधासादा कारण है ।''
 +
*  ''ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है । इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है । ये पाँच महायज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ । मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है । मनुष्य के जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है ।''
 +
''इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि  । पाप और पुण्य की संकल्पना ... यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है''
   −
और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम. मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुन: पाश्चात्य
+
''और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम. मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुन: पाश्चात्य''
   −
जानते ही नहीं है कि हमने कया क्या गंवा दिया है। जो... “आधुनिक' विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से
+
''जानते ही नहीं है कि हमने कया क्या गंवा दिया है। जो... “आधुनिक' विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से''
   −
शाख्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत ... अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी
+
''शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत ... अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी''
   −
हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है । बदनामी का... होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है ।
+
''हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है । बदनामी का... होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है ।''
   −
== अर्थशास्त्र ==
+
== ''अर्थशास्त्र'' ==
वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे
+
''वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे''
   −
अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है । साथ ही मनुष्य... अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं ।
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''अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है । साथ ही मनुष्य... अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं ।''
   −
अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का. व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता
+
''अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का. व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता''
   −
तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट. नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती
+
''तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट. नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती''
   −
उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा. है।
+
''उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा. है।''
   −
जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट त्रिर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ
+
''जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट त्रिर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ''
   −
आशरंकायें उठ रही हैं । इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र. समायोजन इस प्रकार है -
+
''आशरंकायें उठ रही हैं । इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र. समायोजन इस प्रकार है -''
   −
के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं । काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है । काम
+
''के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं । काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है । काम''
   −
का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन
+
''का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन''
   −
का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय
+
''का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय''
   −
होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ
+
''होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ''
   −
में महाभारत का यह श्लोक मननीय है -
+
''में महाभारत का यह श्लोक मननीय है -''
   −
न जातु काम: कामानाम्‌ू उपभोगेन शाम्यते ।
+
''न जातु काम: कामानाम्‌ू उपभोगेन शाम्यते ।''
   −
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाशिवर्धते ।।
+
''हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाशिवर्धते ।।''
   −
अर्थात्‌
+
''अर्थात्‌''
   −
fra ver aff 4 हवि डालने से असि शान्त होने
+
''fra ver aff 4 हवि डालने से असि शान्त होने''
   −
के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी
+
''के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी''
   −
जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति)
+
''जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति)''
   −
उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती ।
+
''उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती ।''
   −
यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की
+
''यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की''
   −
=== अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति ===
+
=== ''अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति'' ===
अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "६८०ा0705'
+
''अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "६८०ा0705'''
   −
के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये । भारतीय
+
''के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये । भारतीय''
   −
विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुश्य की संकल्पना में “अर्थ'
+
''विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुश्य की संकल्पना में “अर्थ'''
   −
पुरुषार्थ दिया गया है, उस “अर्थ के साथ सम्बन्धित
+
''पुरुषार्थ दिया गया है, उस “अर्थ के साथ सम्बन्धित''
   −
“अर्थशास््र' का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका
+
''“अर्थशास््र' का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका''
   −
स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के
+
''स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के''
   −
परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय
+
''परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय''
   −
मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर
+
''मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर''
   −
एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस
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''एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस''
   −
होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध
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''होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध''
   −
ही य विश्वकल्याण के अपने लक्ष जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है ।
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''ही य विश्वकल्याण के अपने लक्ष जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है ।''
   −
इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है ।
+
''इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है ।''
   −
=== पुरुषार्थ चतुष्टय ===
+
=== ''पुरुषार्थ चतुष्टय'' ===
कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और
+
''कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और''
   −
चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया
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''चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया''
   −
दो भाग किये गये हैं । एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । ता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत
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''दो भाग किये गये हैं । एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । ता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत''
   −
x धर्म, अर्थ भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं । अतः संसाधन
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''x धर्म, अर्थ भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं । अतः संसाधन''
   −
दूसरे भाग में है मो , अर्थ, al ‘Bal’ संसाधनों साधनों ,
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''दूसरे भाग में है मो , अर्थ, al ‘Bal’ संसाधनों साधनों ,''
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गया है, ! एम i | ऊन, काम न कही संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों
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''गया है, ! एम i | ऊन, काम न कही संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों''
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त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ मिलकर अर्थ पुरषार्थ बनता है |
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''त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ मिलकर अर्थ पुरषार्थ बनता है |''
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श्घ्ढ
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''श्घ्ढ''
    
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