Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎अर्थशास्त्र: लेख सम्पादित किया
Line 2: Line 2:     
== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है | यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।
+
भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।
    
ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे  रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे ।
 
ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे  रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे ।
    
== विषयों का वरीयता क्रम ==
 
== विषयों का वरीयता क्रम ==
वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए | यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:
+
वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:
# परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे | ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।  
+
# परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।  
 
# सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
 
# सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
 
# समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
 
# समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
Line 15: Line 15:     
== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
 
== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा | उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।
+
ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।
    
उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।
 
उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।
Line 34: Line 34:  
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।
 
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।
   −
समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है । वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है । एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।  
+
समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है। वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है। एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।  
   −
भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है । इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है । यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
+
भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना। दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है। इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है। यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है। प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है। परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है।  
 
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है।  
* समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है | एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का।  
+
* समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का।  
 
* भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं।   
 
* भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं।   
 
* भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।  
 
* भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।  
 
* व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था।  
 
* व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था।  
 
* धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है।   
 
* धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है।   
* ऋषिऋण,  पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है, इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुप्ययज्ञ ।  मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम जानते ही नहीं है कि हमने क्या क्‍या गंवा दिया है। जो शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है। बदनामी का मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुनः पाश्चात्य आधुनिक विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है।  
+
* ऋषिऋण,  पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है, इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ। मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है। वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम जानते ही नहीं है कि हमने क्या क्‍या गंवा दिया है। जो शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है। बदनामी का मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुनः पाश्चात्य आधुनिक विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी होगी। शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है।  
 
*  
 
*  
 
== अर्थशास्त्र ==
 
== अर्थशास्त्र ==
''वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे''
+
वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है। साथ ही मनुष्य अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का तो वह विचार ही नहीं कर सकता चारों ओर से संकट उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट आशंकायें उठ रही हैं। इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं ।
   −
''अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है । साथ ही मनुष्य... अनचाहे जीवनलक्ष्य है मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं ''
+
=== अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति ===
 +
अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "Economics" के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये। भारतीय विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुष्टय की संकल्पना में "अर्थ" पुरुषार्थ दिया गया है, उस अर्थ के साथ सम्बन्धित "अर्थशास्त्र" का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध होगा स्वस्थ और समृद्ध भारत विश्वकल्याण के अपने लक्ष्य की प्राप्ति में यशस्वी होगा
   −
''अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का. व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता''
+
=== पुरुषार्थ चतुष्टय ===
 +
चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके दो भाग किये गये हैं। एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । दूसरे भाग में है मोक्ष । धर्म, अर्थ, काम को “त्रिवर्ग' कहा गया है, मोक्ष को अपवर्ग ।  त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ है। मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं । व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती है।
   −
''तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट. नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती''
+
त्रिवर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ समायोजन इस प्रकार है:
   −
''उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा. है।''
+
काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है। काम का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ में महाभारत का यह श्लोक<ref>महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 75, श्लोक 50</ref> मननीय है -<blockquote>न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। </blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote>जिस प्रकार अग्नि में हवि डालने से अग्नि शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति) उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती । यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है । इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है । कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया जाता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं। अतः संसाधन, संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों मिलकर अर्थ पुरुषार्थ बनता है
   −
''जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट त्रिर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ''
+
कामनापूर्ति और कामनापूर्ति के लिये संसाधनों की प्राप्ति को सर्वजनहित और सर्वजनसुख तथा जन्मजात लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के अनुकूल बनाने के लिये जो सार्वभौम नियम व्यवस्था है वह धर्म पुरुषार्थ है । अतः अर्थ और काम धर्म के अनुकूल हों, धर्म के अविरोधी हों यह अनिवार्य आवश्यकता है । किसी भी शास्त्र का धर्म के अविरोधी होना अथवा धर्माधारित होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी।
 
  −
''आशरंकायें उठ रही हैं । इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र. समायोजन इस प्रकार है -''
  −
 
  −
''के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं । काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है । काम''
  −
 
  −
''का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन''
  −
 
  −
''का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय''
  −
 
  −
''होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ''
  −
 
  −
''में महाभारत का यह श्लोक मननीय है -''
  −
 
  −
''न जातु काम: कामानाम्‌ू उपभोगेन शाम्यते ।''
  −
 
  −
''हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाशिवर्धते ।।''
  −
 
  −
''अर्थात्‌''
  −
 
  −
''fra ver aff 4 हवि डालने से असि शान्त होने''
  −
 
  −
''के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी''
  −
 
  −
''जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति)''
  −
 
  −
''उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती ।''
  −
 
  −
''यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की''
  −
 
  −
=== ''अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति'' ===
  −
''अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "६८०ा0705'''
  −
 
  −
''के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये । भारतीय''
  −
 
  −
''विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुश्य की संकल्पना में “अर्थ'''
  −
 
  −
''पुरुषार्थ दिया गया है, उस “अर्थ के साथ सम्बन्धित''
  −
 
  −
''“अर्थशास््र' का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका''
  −
 
  −
''स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के''
  −
 
  −
''परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय''
  −
 
  −
''मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर''
  −
 
  −
''एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस''
  −
 
  −
''होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध''
  −
 
  −
''ही य विश्वकल्याण के अपने लक्ष जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है ।''
  −
 
  −
''इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है ।''
  −
 
  −
=== ''पुरुषार्थ चतुष्टय'' ===
  −
''कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और''
  −
 
  −
''चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया''
  −
 
  −
''दो भाग किये गये हैं । एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । ता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत''
  −
 
  −
''x धर्म, अर्थ भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं । अतः संसाधन''
  −
 
  −
''दूसरे भाग में है मो , अर्थ, al ‘Bal’ संसाधनों साधनों ,''
  −
 
  −
''गया है, ! एम i | ऊन, काम न कही संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों''
  −
 
  −
''त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ मिलकर अर्थ पुरषार्थ बनता है |''
  −
 
  −
''श्घ्ढ''
  −
 
  −
............. page-281 .............
  −
 
  −
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
  −
 
  −
कामनापूर्ति और कामनापूर्ति के लिये संसाधनों की
  −
 
  −
प्राप्ति को सर्वजनहित और सर्वजनसुख तथा जन्मजात लक्ष्य
  −
 
  −
मोक्ष की प्राप्ति के अनुकूल बनाने के लिये जो सार्वभौम
  −
 
  −
नियम व्यवस्था है वह धर्म पुरुषार्थ है ।
  −
 
  −
अतः अर्थ और काम धर्म के अनुकूल हों, धर्म के
  −
 
  −
अविरोधी हों यह अनिवार्य आवश्यकता है ।
  −
 
  −
किसी भी शास्त्र का धर्म के अविरोधी होना अथवा
  −
 
  −
धर्माधारित होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी ।
      
=== इच्छा और आवश्यकता ===
 
=== इच्छा और आवश्यकता ===
काम पुरुषार्थ की चर्चा करते समय बताया गया कि
+
काम पुरुषार्थ की चर्चा करते समय बताया गया कि कामना कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती । यह भी कहा गया कि कामनापूर्ति के लिये संसाधन उपलब्ध करना और करवाना
 
  −
कामना कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती । यह भी कहा गया कि
  −
 
  −
कामनापूर्ति के लिये संसाधन उपलब्ध करना और करवाना
  −
 
  −
यह अर्थ पुरुषार्थ है ।
  −
 
  −
परन्तु यह तो असम्भव को सम्भव मानने वाला कथन
  −
 
  −
हुआ । यह व्यवहार में कभी सिद्ध नहीं हो सकता । यह
  −
 
  −
आकाशकुसुम जैसा अथवा शशशुंग जैसा अतार्किक
  −
 
  −
(illogical) FIA EFT | gael STI मानकर कुछ भी
  −
 
  −
करेंगे तो सर्वजनहित और सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं
  −
 
  −
होगा । सर्वजनहित और सर्वजनसुख तो दूर की बात है, एक
  −
 
  −
व्यक्ति का हित और सुख भी प्राप्त होना असम्भव 2 |
  −
 
  −
इसलिये प्रथम तो इच्छा अथवा कामना का ही सन्दर्भ
  −
 
  −
ठीक करना आवश्यक है । इस सन्दर्भ में “इच्छा” और
  −
 
  −
<nowiki>*</nowiki>आवश्यकता” (1९९७५ 800 0९565) का अन्तर समझना
  −
 
  −
आवश्यक है ।
  −
 
  −
इच्छा मन से सम्बन्धित है, आवश्यकता शरीर और
  −
 
  −
प्राण से सम्बन्धित है । आहार, निद्रा, आश्रय, सुरक्षा,
  −
 
  −
आराम ये शरीर और प्राण की आवश्यकताएँ हैं परन्तु
  −
 
  −
विलास, संग्रह और परिग्रह, स्वामित्व ये मन की इच्छा है ।
  −
 
  −
अन्न, वस्त्र, निवास, प्राणरक्षा के जितने भी साधन हैं वे
  −
 
  −
आवश्यकता हैं परन्तु विविध प्रकार & aa, विभिन्न
  −
 
  −
स्वाद्युक्त मिष्टान्र, शोभा की वस्तुएँ, कोष में धन, सुवर्ण-
  −
 
  −
रत्न-माणिक्य के अलंकार, अनेक वाहन, धनसम्पत्ति ये सब
  −
 
  −
इच्छायें हैं ।
  −
 
  −
आवश्यकतायें सीमित होती हैं, इच्छायें असीमित ।
  −
 
  −
REQ
  −
 
  −
आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का
  −
 
  −
(अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व
  −
 
  −
बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है ।
  −
 
  −
इच्छाओं के अधीन नहीं होना, इच्छाओं को संयमित और
  −
 
  −
नियन्त्रित करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है ।
  −
 
  −
ऐसा भी नहीं है कि इच्छाओं की पूर्ति सर्वथा निषिद्ध
  −
 
  −
है । यदि ऐसा होता तो वस्त्रालंकार और सुखचैन के साधनों
  −
 
  −
का निर्माण कभी होता ही नहीं । वैभव संपन्नता कभी आती
  −
 
  −
ही नहीं । कलाकारीगरी का विकास कभी होता ही नहीं ।
  −
 
  −
और भारत में तो वैभवसंपन्नता बहुत रही है, वख्रालंकार,
     −
खानपान, आमोदप्रमोद आदि का वैविध्य विपुल मात्रा में रहा
+
यह अर्थ पुरुषार्थ है। परन्तु यह तो असम्भव को सम्भव मानने वाला कथन हुआ । यह व्यवहार में कभी सिद्ध नहीं हो सकता । यह आकाशकुसुम जैसा अथवा शशश्रुंग जैसा अतार्किक (illogical) कथन होगा। इसको आधार मानकर कुछ भी करेंगे तो सर्वजनहित और सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा । सर्वजनहित और सर्वजनसुख तो दूर की बात है, एक व्यक्ति का हित और सुख भी प्राप्त होना असम्भव है।
   −
है । इसलिये इच्छाओं को संयमित और नियमित करने का
+
इसलिये प्रथम तो इच्छा अथवा कामना का ही सन्दर्भ ठीक करना आवश्यक है । इस सन्दर्भ में "इच्छा" और "आवश्यकता" (desires and needs) का अन्तर समझना आवश्यक है । इच्छा मन से सम्बन्धित है, आवश्यकता शरीर और प्राण से सम्बन्धित है । आहार, निद्रा, आश्रय, सुरक्षा, आराम ये शरीर और प्राण की आवश्यकताएँ हैं परन्तु विलास, संग्रह और परिग्रह, स्वामित्व ये मन की इच्छा है । अन्न, वस्त्र, निवास, प्राणरक्षा के जितने भी साधन हैं वे आवश्यकता हैं परन्तु विविध प्रकार के वस्त्र, विभिन्न स्वाद युक्त मिष्ठान्न, शोभा की वस्तुएँ, कोष में धन, सुवर्ण-रत्न-माणिक्य के अलंकार, अनेक वाहन, धनसम्पत्ति ये सब इच्छायें हैं । आवश्यकतायें सीमित होती हैं, इच्छायें असीमित ।
   −
अर्थ उन्हें कम करना या सर्वथा त्याग करना नहीं है ।
+
आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का (अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है । इच्छाओं के अधीन नहीं होना, इच्छाओं को संयमित और नियन्त्रित करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है । ऐसा भी नहीं है कि इच्छाओं की पूर्ति सर्वथा निषिद्ध है । यदि ऐसा होता तो वस्त्रालंकार और सुखचैन के साधनों का निर्माण कभी होता ही नहीं । वैभव संपन्नता कभी आती ही नहीं । कलाकारीगरी का विकास कभी होता ही नहीं । और भारत में तो वैभवसंपन्नता बहुत रही है, वस्त्रालंकार, खानपान, आमोदप्रमोद आदि का वैविध्य विपुल मात्रा में रहा है। इसलिये इच्छाओं को संयमित और नियमित करने का अर्थ उन्हें कम करना या सर्वथा त्याग करना नहीं है । इसका अर्थ यह है कि आवश्यकताओं को तो हम अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके ही पूर्ण किया जा सकता है ।
   −
इसका अर्थ यह है कि आवश्यकताओं को तो हम
+
इसको श्रीमदभगवद्गीता<ref>श्रीमदभगवद्गीता ७.११</ref> में<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थात्‌ “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
   −
अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को
+
अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के सन्दर्भ में नहीं । यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी । अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय आवश्यक ही है ।
   −
सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके
+
अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है । इसका अर्थ है जीवनशास्त्र के अन्यान्य पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये । अर्थशास्त्र की सार्थकता एवं उपादेयता हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है ।
   −
ही पूर्ण किया जा सकता है ।
+
''... २. उत्पादन, व्यवसाय और अर्थार्जन''
   −
इसको श्रीमदूभगवद्गीता में
+
''चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की''
   −
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामो5स्मि भरतर्षभ |
+
''इस दृष्टि es are st Sa et FT pa होती है । इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह''
   −
अर्थात्‌ “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है
+
''निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है । अतः''
   −
वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया
+
''१. प्रभूत उत्पादन हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है ।''
   −
गया है ।
+
''उत्पादन उपभोग के लिये होता है । इसलिये समाज की''
   −
अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार
+
''सर्वजन की की आवश्यकताओं की पूर्ति बम लिये संसाधन आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना''
   −
आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के
+
''चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर चाहिये ।''
   −
सन्दर्भ में नहीं
+
''निर्भर करती है । अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये ''
   −
यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक
+
''बातों इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -''
   −
सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी
+
''उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ''
   −
अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय
+
''०... समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये ।''
   −
आवश्यक ही है ।
+
''प्राकृतिक स्रोत : भूमि की उर्वरता, जलवायु की... ०... उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था''
   −
अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना
+
''अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त होनी चाहिये ।''
   −
आवश्यक है इसका अर्थ है जीवनशासख्र के aes
+
''वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता''
   −
पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का
+
''मानवीय कौशल : मनुष्य की बुद्धि और हाथ की... है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह''
   −
समायोजन होना चाहिये उदाहरण के लिये समाजशास्त्र
+
''निर्माणक्षमता निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो''
   −
पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र
+
''विनियोग का विवेक : उत्पादित सामग्री का वितरण, ... समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये''
   −
आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये
+
''रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है''
   −
............. page-282 .............
+
''एक बात ध्यान में रखने योग्य है । आवश्यकताओं के... ब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये''
   −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
+
''सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, अधथर्जिन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ''
   −
agra की सार्थकता एवं उपादेयता ... २. उत्पादन, व्यवसाय और अथर्जिन
+
''इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । जुड़ जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन''
   −
हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है । चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की
+
''क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकता्ें के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये । यदि''
   −
इस दृष्टि es are st Sa et FT pa होती है इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह
+
''सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं मनुष्य भूख अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु''
   −
निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है अतः
+
''होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वख्र पहनता. भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा ''
   −
. प्रभूत उत्पादन हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है ।
+
''है... आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी. नविश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला''
   −
उत्पादन उपभोग के लिये होता है । इसलिये समाज की
+
''पूरणीय नहीं होती । ः नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, Basia भी नहीं''
   −
सर्वजन की की आवश्यकताओं की पूर्ति बम लिये संसाधन आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना
+
''यम अर्थव्यवस्था होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से''
   −
चाहिये संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर चाहिये ।
+
''इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये जईत जड़ी. आवश्यकता निर्माण की जायेगी इससे मनुष्य की बुद्धि,''
   −
निर्भर करती है । अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये ।
+
''सहायक और प्रेरक तत्त्व है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर''
   −
बातों इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -
+
''हमें , मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में''
   −
उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ।
+
''ं “economy of abundance - S4Y{ddl Al अर्थशास्त्र' की अनवस्था निर्माण होगी । आज यही A a रहा है । उत्पादक''
   −
०... समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये ।
+
''संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये । अधथर्जिन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक''
   −
प्राकृतिक स्रोत : भूमि की उर्वरता, जलवायु की... ०... उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था
+
''वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - AHA का को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।''
   −
अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त होनी चाहिये ।
+
''अर्थशास्त्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को... ०». उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी''
   −
वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता
+
''प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों चाहिये ''
   −
मानवीय कौशल : मनुष्य की बुद्धि और हाथ की... है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह
+
''का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का''
   −
निर्माणक्षमता निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो
+
''स्थितियां aah यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है उत्पादन हेतु जो''
   −
विनियोग का विवेक : उत्पादित सामग्री का वितरण, ... समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये
+
''अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से ँ बहुत बदल जायेंगी ।''
   −
रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ | दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है
+
''भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता''
   −
एक बात ध्यान में रखने योग्य है । आवश्यकताओं के... ब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये
+
''रद्द''
 
  −
सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, अधथर्जिन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ
  −
 
  −
इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । जुड़ जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अथर्जिन
  −
 
  −
क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकता्ें के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये । यदि
  −
 
  −
सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं । मनुष्य भूख अथर्जिन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु
  −
 
  −
होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वख्र पहनता. भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा ।
  −
 
  −
है... आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी. नविश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला
  −
 
  −
पूरणीय नहीं होती । ः नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, Basia भी नहीं
  −
 
  −
यम अर्थव्यवस्था होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से
  −
 
  −
इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये जईत जड़ी. आवश्यकता निर्माण की जायेगी । इससे मनुष्य की बुद्धि,
  −
 
  −
सहायक और प्रेरक तत्त्व है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर
  −
 
  −
हमें , मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में
  −
 
  −
ं “economy of abundance - S4Y{ddl Al अर्थशाख्र' की अनवस्था निर्माण होगी । आज यही A a रहा है । उत्पादक
  −
 
  −
संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये | अधथर्जिन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक
  −
 
  −
वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - AHA का को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।
  −
 
  −
अर्थशाख्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को... ०». उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी
  −
 
  −
प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों चाहिये ।
  −
 
  −
का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का
  −
 
  −
स्थितियां aah यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है । उत्पादन हेतु जो
  −
 
  −
अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से ँ बहुत बदल जायेंगी ।
  −
 
  −
भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता
  −
 
  −
रद्द
      
............. page-283 .............
 
............. page-283 .............
   −
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
+
का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
 
+
* '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।'''
का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये,
+
* किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये ।
 
+
* '''व्यक्ति को उत्पादन में सहभागी होने के लिये सक्षम बनाने हेतु समाज द्वारा व्यवस्था बननी चाहिये।'''
नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता
+
* '''उत्पादन में सहभागी होने के फलस्वरूप व्यक्ति को धन की प्राप्ति जो उसे अपने योगक्षेम हेतु आवश्यक है वह होनी चाहिये ।'''
 
+
इस प्रकार से समष्टि की आवश्यकता यह प्रारम्भ बिन्दु बनना आवश्यक है । यदि यह दिशा बदलकर व्यक्ति की अर्थार्जन की प्रवृत्ति को प्रारम्भ बिन्दु बनाया जाता है तो सर्वजनहित सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता । व्यक्ति जन्म से ही उत्पादन करना, अर्थात्‌ वस्तुओं का निर्माण करना सीखकर नहीं आता । उसे निर्माण कार्य सीखना पड़ता है । हर व्यक्ति को यह सिखाने की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है । अतः उत्पादन व्यवस्था और उस हेतुसे उसकी शिक्षा देने की व्यवस्था समाजव्यवस्था का अभिन्न अंग है । आज के शिक्षाक्रम में सभी को साक्षर बनाने को तो अग्रक्रम दिया जाता है परन्तु सभी को निर्माणक्षम बनाने की व्यवस्था नहीं दिखाई देती है । उल्टे साक्षर होने के चक्कर में संभावित निर्माण क्षमता भी नष्ट होती है और निर्माण के अवसर भी नहीं मिलते । साथ ही निर्माण की मानसिकता को भी हानि होती है ।
होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती
  −
 
  −
है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती
  −
 
  −
हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और
  −
 
  −
उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और
  −
 
  −
उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब
  −
 
  −
सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
  −
 
  −
०... उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम
  −
 
  −
होना चाहिये ।
  −
 
  −
किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं
  −
 
  −
लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने
  −
 
  −
और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन
  −
 
  −
करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये ।
  −
 
  −
व्यक्ति को उत्पादन में सहभागी होने के लिये
  −
 
  −
सक्षम बनाने हेतु समाज द्वारा व्यवस्था बननी
  −
 
  −
चाहिये ।
  −
 
  −
उत्पादन में सहभागी होने के फलस्वरूप व्यक्ति
  −
 
  −
को धन की प्राप्ति जो उसे अपने योगक्षेम हेतु
  −
 
  −
आवश्यक है वह होनी चाहिये ।
  −
 
  −
इस प्रकार से सम्टि की आवश्यकता यह प्रारम्भ बिन्दु
  −
 
  −
बनना आवश्यक है । यदि यह दिशा बदलकर व्यक्ति की
  −
 
  −
अथर्जिन की प्रवृत्ति को प्रारम्भ बिन्दु बनाया जाता है तो
  −
 
  −
सर्वजनहित सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता ।
  −
 
  −
व्यक्ति जन्म से ही उत्पादन करना, अर्थात्‌ वस्तुओं का
  −
 
  −
निर्माण करना सीखकर नहीं आता । उसे निर्माण कार्य सीखना
  −
 
  −
पड़ता है । हर व्यक्ति को यह सिखाने की व्यवस्था करना
  −
 
  −
समाज का दायित्व है । अतः उत्पादन व्यवस्था और उस
  −
 
  −
हेतुसे उसकी शिक्षा देने की व्यवस्था समाजव्यवस्था का
  −
 
  −
अभिन्न अंग है । आज के शिक्षाक्रम में सभी को साक्षर बनाने
  −
 
  −
को तो अग्रक्रम दिया जाता है परन्तु सभी को निर्माणक्षम
  −
 
  −
बनाने की व्यवस्था नहीं दिखाई देती है । उल्टे साक्षर होने के
  −
 
  −
चक्कर में संभावित निर्माण क्षमता भी नष्ट होती है और निर्माण
  −
 
  −
के अवसर भी नहीं मिलते । साथ ही निर्माण की मानसिकता
  −
 
  −
को भी हानि होती है ।
  −
 
  −
२६७
  −
 
  −
३. व्यवसाय, परिवार, वर्ण
  −
 
  −
(१) व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना
  −
 
  −
लाभदायी होता है ।
  −
 
  −
भारतीय समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं
  −
 
  −
अपितु परिवार माना गया है
  −
 
  −
जिस समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु
  −
 
  −
परिवार को माना गया है वहाँ व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु
  −
 
  −
परिवारगत होना उचित है ।
  −
 
  −
अर्थव्यवस्था को इस आधार पर रखने से बहुत सारे
  −
 
  −
सन्दर्भ बदल जाते हैं ।
  −
 
  −
१. परिवार की समरसता बनी रहती है ।
  −
 
  −
वर्तमान में समाजव्यवस्था व्यक्तिकेन्ट्री बन गई है, उस
  −
 
  −
प्रकार से व्यवसाय - चाहे उत्पादन हो चाहे नौकरी - भी
  −
 
  −
व्यक्तिकेन्ट्रित बन गये हैं । इस कारण से परिवार दो वर्गों में
  −
 
  −
विभाजित हो गया है । एक होता है व्यवसाय करने वाले और
  −
 
  −
उसके फलस्वरूप अथर्जिन करने वाले व्यक्तियों का विभाग
  −
 
  −
और दूसरा होता है अथर्जिन नहीं करने वाले व्यक्तियों का
  −
 
  −
विभाग । sata नहीं करने वाले व्यक्ति अथर्जिन करने
  −
 
  −
वाले के आश्रित हो जाते हैं । परिवार की समरसता भंग होने
  −
 
  −
का यह एक कारण है ।
  −
 
  −
परिवार में बच्चों को छोड़कर और कोई आश्रित रहना
  −
 
  −
नहीं चाहता । उससे अथार्जिन की अपेक्षा भी की जाती है ।
  −
 
  −
परिवार में यदि सभी सदस्य एकदूसरे से भिन्न और स्वतंत्र
  −
 
  −
व्यवसाय करते हैं तो उनके व्यवसाय के स्थान, परिवेश,
  −
 
  −
रुचि, मित्रपरिवार, समय, अवकाश आदि सब भिन्न होते हैं ।
  −
 
  −
समरसता खण्डित होने का यह दूसरा कारण है ।
  −
 
  −
आश्रयदाता और आश्रित का सम्बन्ध कभी भी समरस
  −
 
  −
नहीं हो सकता है । इसलिये पूरे परिवार का एक व्यवसाय
  −
 
  −
होना लाभकारी रहता है ।
  −
 
  −
२. हर व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है ।
  −
 
  −
व्यवसाय परिवारगत होने के कारण से परिवार के हर
  −
 
  −
व्यक्ति की व्यवसाय में सहभागिता होती है । परिवार में जन्म
  −
 
  −
लेने वाले बालक को भी भविष्य के जीवन की चिन्ता नहीं
  −
 
  −
............. page-284 .............
  −
 
  −
रहती । साथ ही व्यवसाय के साथ
     −
उसका मानसिक जुडाव बन जाता है ।
+
=== व्यवसाय, परिवार, वर्ण ===
 +
व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना लाभदायी होता है। भारतीय समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार माना गया है। जिस समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार को माना गया है वहाँ व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना उचित है । अर्थव्यवस्था को इस आधार पर रखने से बहुत सारे सन्दर्भ बदल जाते हैं
   −
व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है ।
+
==== परिवार की समरसता बनी रहती है । ====
 +
वर्तमान में समाजव्यवस्था व्यक्तिकेंद्री बन गई है, उस प्रकार से व्यवसाय - चाहे उत्पादन हो चाहे नौकरी - भी व्यक्तिकेन्द्रित बन गये हैं। इस कारण से परिवार दो वर्गों में विभाजित हो गया है । एक होता है व्यवसाय करने वाले और उसके फलस्वरूप अर्थार्जन करने वाले व्यक्तियों का विभाग और दूसरा होता है अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्तियों का विभाग। अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्ति अर्थार्जन करने वाले के आश्रित हो जाते हैं । परिवार की समरसता भंग होने का यह एक कारण है । परिवार में बच्चों को छोड़कर और कोई आश्रित रहना नहीं चाहता । उससे अर्थार्जन की अपेक्षा भी की जाती है । परिवार में यदि सभी सदस्य एकदूसरे से भिन्न और स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं तो उनके व्यवसाय के स्थान, परिवेश, रुचि, मित्रपरिवार, समय, अवकाश आदि सब भिन्न होते हैं । समरसता खण्डित होने का यह दूसरा कारण है । आश्रयदाता और आश्रित का सम्बन्ध कभी भी समरस नहीं हो सकता है । इसलिये पूरे परिवार का एक व्यवसाय होना लाभकारी रहता है ।
   −
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह
+
==== हर व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है । ====
 +
व्यवसाय परिवारगत होने के कारण से परिवार के हर व्यक्ति की व्यवसाय में सहभागिता होती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को भी भविष्य के जीवन की चिन्ता नहीं रहती । साथ ही व्यवसाय के साथ उसका मानसिक जुडाव बन जाता है ।
   −
हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक
+
==== व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है । ====
 +
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक
    
ait at ag thet stats Al ofS से सुरक्षित और निश्चित
 
ait at ag thet stats Al ofS से सुरक्षित और निश्चित
Line 520: Line 187:  
लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं
 
लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं
   −
पहुँचती |
+
पहुँचती
    
आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट
 
आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट
Line 626: Line 293:  
रहता है ।
 
रहता है ।
   −
व्यवसाय से यद्यपि अथार्जिन होता है तथापि वह समाज
+
व्यवसाय से यद्यपि अर्थार्जन होता है तथापि वह समाज
    
की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना
 
की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना
Line 676: Line 343:  
और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं
 
और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं
   −
मानना चाहिये और अथर्जिन के साथ नहीं जोडना चाहिये ।
+
मानना चाहिये और अर्थार्जन के साथ नहीं जोडना चाहिये ।
    
अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है ।
 
अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है ।
Line 848: Line 515:  
और कह सकते हैं ।
 
और कह सकते हैं ।
   −
sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये | जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की
+
sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की
    
आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या
 
आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या
Line 860: Line 527:  
०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .
 
०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .
   −
जयेंगी | समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र
+
जयेंगी समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र
    
और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।
 
और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।
Line 872: Line 539:  
मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय
 
मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय
   −
हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है | isi नं
+
हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है isi नं
    
का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो
 
का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो
Line 882: Line 549:  
व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।
 
व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।
   −
को अपने योगक्षेम हेतु अथार्जिन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण
+
को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण
    
व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती
 
व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती
Line 1,014: Line 681:  
में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो
 
में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो
   −
जाती है | भूमिगत जल निष्कासन (undergdound drain-
+
जाती है भूमिगत जल निष्कासन (undergdound drain-
    
98४) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से
 
98४) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से
Line 1,040: Line 707:  
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
   −
परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी |
+
परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी
    
महत्त्वपूर्ण है । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।
 
महत्त्वपूर्ण है । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।
Line 1,090: Line 757:  
धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है ।
 
धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है ।
   −
के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा | करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,
+
के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,
    
राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं । उद्योजकों
 
राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं । उद्योजकों
Line 1,308: Line 975:  
और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती
 
और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती
   −
@ | इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति
+
@ इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति
    
विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत
 
विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत
Line 1,324: Line 991:  
बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को
 
बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को
   −
अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए |
+
अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए
    
इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के
 
इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के

Navigation menu